‘प्रतिबद्ध-ललकार’ के ट्रॉट-बुण्डवादियों का पुरातात्विक उत्खनन और बहस से पलायन करने का एक और असफल प्रयास
जब हमने ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप के कौमवादियों के ‘प्रतिबद्ध-33’ में आए लेख ‘कौमी सवाल और मार्क्सवाद’ की विस्तृत आलोचना पेश की (http://ahwanmag.com/archives/7567) और उन्हें बार-बार बहस के लिए आमंत्रित किया, तो उनका जवाब था कि वे हमें कुछ नहीं समझते, इसलिए हमसे बहस नहीं करेंगे, कि हमारा कोई “व्यवहार” नहीं है, इसलिए हमसे बहस नहीं करेंगे, हमने उन्हें ”कौमवादी”, ”अपढ़” कह दिया इसलिए वह हमसे बहस नहीं करेंगे और वे तो यहां तक कहने लगे कि मार्क्स से माओ तक कभी किसी ने किसी से कोई बहस ही नहीं की है, इसलिए वे भी बहस नहीं करेंगे। मतलब, बहस से पूंछ उठाकर भागने के लिए बेचारों ने क्या-क्या करतब न किये!
तो एक तरफ तो हमारे कौमवादी बंधु बहस से भागते रहे और अब दूसरी तरफ उन्होंने चोरी से कीचड़ उछालने का एक नया तरीका अपनाया है, ताकि अपने टूटते कुनबे में ग़लत कार्यदिशा से बड़े पैमाने पर संक्रमण फैला कर सही कार्यदिशा के प्रति ”हर्ड इम्यूनिटी” पैदा की जा सके! यह तरीका क्या है? यह है कि ‘आह्वान’ के लगभग ग्यारह वर्ष पुराने एक लेख को वह उठा कर लाना और ‘मज़दूर बिगुल’ के एक वर्ष पुराने लेख को उठाकर लाना, और उसके आधार पर वह दावा करना कि हम यह मानते हैं कि दमित कौमें सीधे समाजवादी क्रान्ति करके अपनी कौमी आज़ादी हासिल करेंगी और तब तक आज़ादी की लड़ाई को स्थगित कर देना चाहिए! हम आगे दिखाएंगे कि इन बेचारों को फिर से उपरोक्त दोनों लेख/टिप्पणी समझ में ही नहीं आए हैं और एक बार फिर से वह एक ऐतिहासिक आकलन और एक राजनीतिक कार्यक्रम में फ़र्क नहीं कर पाए हैं, लेकिन उससे पहले सबसे ज्यादा ज़रूरी बात।
सबसे पहली और सबसे अहम बात तो यह है कि ‘प्रतिबद्ध-ललकार‘ के ट्रॉट-बुण्डवादियों को ‘आह्वान‘ द्वारा राष्ट्रीय प्रश्न पर प्रस्तुत नवीनतम अवस्थिति पत्र का जवाब देना चाहिए था, क्योंकि यह हमारे संगठन की वर्तमान अवस्थिति को पेश करता है। उससे तो वे भाग खड़े हुए! बहस का बुनियादी सिद्धान्त ही यही है कि हम अपने विरोधी की किसी भी सवाल पर वर्तमान व नवीनतम अवस्थिति को आलोचना के लिए लेते हैं। मिसाल के तौर पर, हमने कौमी सवाल पर ‘प्रतिबद्ध-ललकार‘ ग्रुप की नवीनतम अवस्थिति की आलोचना पेश की; हमने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी सिद्धान्तों, राजनीतिक अर्थशास्त्र आदि पर उनके द्वारा प्रस्तुत जो नवीनतम अवस्थिति थी (यानी, जगरूप पर ‘प्रतिबद्ध‘ के सम्पादक सुखविन्दर का भाषण) उसे आलोचना के लिए उठाया। इस तरह तो किसी भी संगठन के किसी भी सवाल पर प्रस्तुत किसी वर्षों पुराने लेख या टिप्पणी को पुरातात्विक खनन करके निकाला जा सकता है और उसकी आलोचना पेश की जा सकती है। इन्होंने पहले भी भाषा के प्रश्न पर हमारी वर्तमान अवस्थिति का जवाब देने की बजाय, ‘दायित्वबोध’ के बीस वर्ष पुराने एक लेख को निकाला था अपने आप को सही साबित करने के लिए! कितनी दिलचस्प बात है कि एक तरफ तो हमारे द्वारा प्रस्तुत नवीनतम आलोचना से ‘प्रतिबद्ध-ललकार‘ ग्रुप भगोड़ापन करने के लिए हर प्रकार के द्रविड़ प्राणायाम कर रहा है, तो दूसरी तरफ ‘आह्वान‘ के ग्यारह वर्ष पुराने लेख को उठाकर उस पर टीका-टिप्पणी कर रहा है। ज़ाहिर है, कोई भी संगठन ग्यारह वर्ष एक ही जगह खड़ा नहीं रहता है। उसके विचारों का विकास होता रहता है। दूसरी बात, यह भी कोई नौसिखुआ व्यक्ति भी समझता है कि कोई भी संगठन हर समय हर प्रश्न पर नहीं सोचता रहता है, जबकि जब जो प्रश्न उसके सामने जीवन्त रूप में उपस्थित होते हैं, तो वह उस पर सोचता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ‘आह्वान’ में ग्यारह वर्ष पहले लिखी गयी टिप्पणी राष्ट्रीय प्रश्न पर संगठन का अवस्थिति पत्र नहीं है। ऐसे तर्क से तो यह कहा जा सकता है कि ‘ललकार’ में कुछ वर्ष पहले पोर्न फिल्मों पर छपा एक बेहद भद्दा लेख, सुखविन्दर की पोर्न फिल्मों पर अवस्थिति है! ज़ाहिर है कि किसी भी संगठन के दशक या दो दशक पुराने किसी लेख या टिप्पणी को लाकर आज की बहस पर आरोपित करना ही मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद है और ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप की कायरता को और भी स्पष्ट कर देता है। कौमी सवाल पर हमारे संगठन का अवस्थिति पत्र अब विस्तार में पेश किया जा चुका है, जिसमें हमने सुखविन्दर के कौमवाद और त्रॉत्स्कीपंथ की पूरी आलोचना पेश की है। अब जबकि विशेष तौर पर कौमी सवाल पर ही बहस जारी है और ‘प्रतिबद्ध-ललकार‘ ग्रुप ने अपना अवस्थिति पत्र रखा है, और उसकी आलोचना करते हुए हमने अपना अवस्थिति पत्र रखा है, तो बौद्धिक नैतिकता और साहस का तकाज़ा यह था कि वह हमारे इस अवस्थिति पत्र की आलोचना पेश करते। लेकिन उस बहस से तो हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी पूंछ उठाकर भाग खड़े हुए! यह महज़ इनकी बौद्धिक कायरता, बेईमानी और बौनेपन की निशानी है। लेकिन यहां कहानी ख़त्म नहीं होती। इन पुराने लेखों की अवस्थिति भी इनके समझ में नहीं आई है! आइये देखते हैं कैसे।
‘आह्वान’ के और ‘बिगुल’ के इन लेखों के बारे में उनकी जो टिप्पणी है, वह फिर से दिखलाती है कि उन्हें एक ऐतिहासिक मूल्यांकन और एक राजनीतिक कार्यक्रम में फर्क नहीं समझ में आता है।
हमारे इन दोनों ही लेखों में जो बात कही गयी है वह यह है:
साम्राज्यवाद के युग में दमित राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार दमनकारी राष्ट्र की बुर्जुआजी देने की क्षमता खो चुकी है। साम्राज्यवाद से पहले के दौर में पूंजीपति वर्ग राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने की क्षमता अपेक्षाकृत रूप से ज्यादा रखता था, लेकिन साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीपति वर्ग की पतनशीलता और मरणासन्नता उसे उसकी ऐसी किसी भी सम्भावना से रिक्त बना देती है। इसीलिए दमित राष्ट्रों को अधिकांश मामलों में कौमी आज़ादी तभी हासिल होगी जब कि दमनकारी राष्ट्र के देश में समाजवादी क्रान्ति हो। इसलिए इन दमित राष्ट्रों के राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के संघर्ष को दमनकारी राष्ट्र के सर्वहारा वर्ग की समाजवादी क्रान्ति की लड़ाई से अपने आपको जोड़ना होगा।
क्या यहां कोई नई बात कही गयी है? नहीं! यह बात लेनिन और स्तालिन ने करीब एक सदी पहले ही बता दी थी कि साम्राज्यवाद के युग में राष्ट्रीय मुक्ति का अधिकार देने की क्षमता दमनकारी कौमों के शासक वर्ग खो चुके हैं। हमने ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप की कौमवादी अवस्थिति की आलोचना पेश करने वाले अपने नवीनतम निबन्ध में भी इस बात को बार-बार स्पष्ट किया है कि भारत का पूंजीपति वर्ग कश्मीर और उत्तर-पूर्व की दमित कौमों को आज़ादी का हक़ नहीं देगा।
क्या इसका अर्थ यह है कि कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्यों में सीधे समाजवादी क्रान्ति की मंजिल है? नहीं! इसका सिर्फ यह अर्थ है कि इस बात की गुंजाइश बहुत कम है कि भारत में समाजवादी क्रान्ति के बिना इन दमित कौमों की कौमी आज़ादी की लड़ाई कामयाब हो पाए। निश्चित तौर पर वह हारी भी नहीं जाएगी। देखें हमने ‘आह्वान’ के इस लेख में 2009 में क्या लिखा था: ”स्पष्ट है कि इस बार कश्मीर का उभार एक इन्तिफ़ादा या जनविद्रोह का रूप लेकर सामने आया है। अगर यह भारतीय सैन्य दमन से जीत नहीं सकता तो भारतीय सैन्य दमन इसे हरा भी नहीं सकता है।”
इसी प्रकार ‘मज़दूर बिगुल’ के लेख में जो कहा गया है वह यह है: ”साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीपति वर्ग दमित राष्ट्रीयताओं को आत्मनिर्णय का अधिकार देने की क्षमता खो चुका है। वास्तव में, आज पूंजीपति वर्ग राष्ट्रीय प्रश्न को हल कर ही नहीं सकता है। एक समाजवादी राज्य की राष्ट्रों को वास्तव में आत्मनिर्णय का अधिकार दे सकता है और राष्ट्रीय दमन का समूल नाश कर सकता है।”
यह हूबहू वही बात है, जिसे लेनिन व स्तालिन ने और बाद में केपेकाया ने कहा था। इसमें कुछ भी नया नहीं है।
क्या इसका यह अर्थ है कि लेनिन व स्तालिन तथा केपेकाया यह त्रॉत्स्कीपंथी लाइन दे रहे थे कि दमित कौमों में साम्राज्यवाद के युग में कौमी आज़ादी का सवाल सीधे समाजवादी क्रान्ति से हल होगा? क्या इसका यह अर्थ है कि हम कश्मीर और उत्तर-पूर्व में आज़ादी की लड़ाई का विरोध करते हैं? नहीं! इसका केवल यह अर्थ है कि हम आज के युग में कौमी आज़ादी की सभी लड़ाइयों के विषय में एक ऐतिहासिक मूल्यांकन पेश कर रहे हैं। हम इन कौमों में क्रान्ति की मंजिल या कार्यक्रम नहीं बता रहे हैं।
ज़ाहिर है कि ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप की ओर से हमारे ऊपर टिप्पणी करने वाली पोस्ट डालने वाली हमारी कौमवादी महोदया (http://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1230091930682469&id=100010450213316) ने पिछले ग्यारह साल के ‘आह्वान’ और ‘मज़दूर बिगुल’ के अंकों में छपे लेखों का जो पुरातात्विक खनन किया है, उससे निकले लेखों को भी वह समझ नहीं पाईं हैं! हमें कोई ताज्जुब भी नहीं है। क्योंकि जब इस ग्रुप के नेतृत्व को ही यह सीधी-सी बात समझ में नहीं आती है, तो हम इन महोदया को कोई दोष नहीं देंगे।
ये बातें क्या हैं जो हमारे कौमवादियों के सिर के ऊपर से बाउंसर के समान निकल रही हैं? वे निम्न हैं:
1) ऐतिहासिक आकलन और राजनीतिक कार्यक्रम एक ही चीज़ नहीं हैं। यह कहने का, कि साम्राज्यवाद के युग में शासक पूंजीपति वर्ग दमित कौमों को कौमी आज़ादी का हक़ नहीं देगा और केवल समाजवादी सत्ता ही यह हक़ देगी, यह अर्थ कोई बौड़म ही निकाल सकता है कि राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के हक़ का और कौमी आज़ादी की लड़ाई को दमनकारी कौम में समाजवादी क्रान्ति आने तक स्थगित कर दिया जाय, या उनका समर्थन न किया जाय। मिसाल के तौर पर, हम मार्क्सवादियों के तौर जानते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के मातहत पूर्ण रोज़गार असम्भव है, लेकिन फिर भी हम रोज़गार का सावैभौमिक हक़ मांगते हैं। इनमें से एक ऐतिहासिक आकलन है और दूसरा राजनीतिक कार्यक्रम। लेकिन इतनी सरल-सी बात हमारे ट्रॉट-बुण्डवादियों के ऊपरी खाली कमरे की एक खिड़की से घुसती है और दूसरी खिड़की से निकल जाती है!
2) दमनकारी कौम में क्रान्ति की मंजिल क्या है, इससे दमित कौम की क्रान्ति की मंजिल नहीं तय होती है। दमनकारी कौम में यदि समाजवादी क्रान्ति की मंजिल है तो भी एक दमित कौम में पहला तात्कालिक प्रश्न राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का ही होगा, चाहे पूंजीवादी सम्बन्धों की मौजूदगी में राष्ट्रीय जनवादी कार्यभार के पूरा होने के कुछ ही समय बाद समाजवादी क्रान्ति की मंजिल ही क्यों न आ जाए। इस बात को न समझ पाना भी दिखलाता है कि हमारे ट्रॉट-बुण्डवादियों का मानसिक सन्तुलन गड़बड़ा चुका है।
यह बात लेनिन और स्तालिन के समय से ही सारे कम्युनिस्ट जानते हैं कि दमित कौमों के कम्युनिस्टों का यह फ़र्ज़ है कि वे अपनी कौम के सर्वहारा वर्ग और दमनकारी कौम के सर्वहारा वर्ग के बीच एकता स्थापित करें और बुर्जुआ राष्ट्रवाद के चंगुल से उन्हें बचाएं; दमित कौम के कम्युनिस्टों का यह फ़र्ज़ भी लेनिन और स्तालिन के समय से ही एक सर्वस्वीकृत बात है कि उन्हें अपनी दमित कौम की राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की लड़ाई को दमनकारी कौम के सर्वहारा वर्ग की समाजवादी क्रान्ति की लड़ाई के आमने-सामने नहीं, बल्कि उसके साथ जोड़ना चाहिए।
इन सबका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि दमित कौम की राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की लड़ाई में दुश्मन और दमनकारी कौम के सर्वहारा वर्ग की समाजवादी क्रान्ति की लड़ाई में दुश्मन एक ही है। दमित कौम की राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति और दमनकारी कौम की सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति के बीच एक मोर्चा है, क्योंकि दोनों का दुश्मन साझा है: दमनकारी कौम का पूंजीपति वर्ग।
अब भयंकर दिमागी गड्डमड्ड का शिकार व्यक्ति ही इसका यह अर्थ निकाल सकता है कि यहां लेनिन और स्तालिन यह कह रहे हैं कि दमनकारी कौम में समाजवादी क्रान्ति की मंजिल है और चूंकि इस क्रान्ति के बाद ही दमित कौम को राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का अधिकार मिलने की अधिक सम्भावना है, इसलिए दमित कौम में भी समाजवादी क्रान्ति की मंजिल है! इससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती है। इसकी आलोचना हम विस्तार से यहां पेश कर चुके हैं:
http://ahwanmag.com/archives/7594
मूल तर्क सही होने के बावजूद, ‘आह्वान’ की इस ग्यारह वर्ष पुरानी टिप्पणी में एक वाक्य में असन्तुलन अवश्य है। इसने कश्मीर को भारत में समाजवादी क्रान्ति से पहले आज़ादी मिलने की असम्भाव्यता को आज़ादी की मांग का भविष्य न होना कहा है। यह निश्चय ही एक असन्तुलित बात थी और एक असावधान त्रुटि थी, क्योंकि उस लेख का मूल तर्क यह था ही नहीं बल्कि यह था कि भारत में समाजवादी क्रान्ति से पहले आज़ादी की लड़ाई जीती नहीं जा सकती है। साथ ही, यह भी भारत के क्रान्तिकारियों के लिए एक वस्तुगत मूल्यांकन या आकलन का मुद्दा हो सकता है कि अगर भारत में पूंजीवाद रहते कश्मीर आज़ाद हो भी गया (जिसकी सम्भावना नगण्य है), तो वह भारत या पाकिस्तान का सैटेलाइट स्टेट बनेगा, लेकिन यह आज़ादी के हक़ पर अवस्थिति चुनने का कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन ग्यारह वर्ष पहले ‘आह्वान‘ में कश्मीर के तत्कालीन घटनाक्रम पर छपी एक टिप्पणी में मौजूद इन असन्तुलनों को आज हमारे संगठन की अवस्थिति के तौर पर पेश करना और आज हमारे द्वारा बाकायदा राष्ट्रीय प्रश्न पर पेश अवस्थिति पत्र का और ‘प्रतिबद्ध-ललकार‘ ग्रुप की हमारे द्वारा आलोचना का जवाब देने से भागना क्या दिखलाता है? यह कि इस ग्रुप का नेतृत्व बुनियादी बौद्धिक साहस, नैतिकता और ईमानदारी भी नहीं रखता है और कायरता, भगोड़ेपन और अवसरवाद के स्तर पर गिर चुका है! दूसरी बात, ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप का नेतृत्व तो 2010 में ‘आह्वान’ के साथ ही था! उस समय किसी टिप्पणी में गई किसी असन्तुलित बात के लिए वह भी उतना ही जिम्मेदार है! 2010 से 2019 तक सुखविन्दर इस प्रश्न पर क्या कर रहे थे?!
लेकिन यह मुख्य बात नहीं है, मुख्य बात यह है कि इस लेख में उपरोक्त असन्तुलित बातों को छोड़कर बुनियादी बात सही है, यानी यह, कि भारत में समाजवादी क्रान्ति हुए बगैर, कश्मीर और उत्तर-पूर्व की दमित कौमों को आज़ादी मिलने की सम्भावना बहुत कम थी। देखें ‘आह्वान’ के ग्यारह वर्ष पुराने इस लेख में क्या लिखा गया है: ”भारतीय संघ में राष्ट्रीयता के प्रश्न जहां-जहां मौजूद हैं, उनका समाधान एक समाजवादी राज्य के तहत ही हो सकता है, जो इन इलाकों को अलगावग्रस्त कर दमन के शिकंजे में न रखे। आज से ही इन राष्ट्रीयताओं के मेहनतकश अवाम और नौजवानों के बीच क्रान्तिकारी ताकतों को काम करना होगा और उन्हें राजनीतिक रूप से सचेत बनाते हुए पूरी व्यवस्था के परिवर्तन की लड़ाई का एक अंग बनाना होगा। उन्हें इस प्रक्रिया में ही यह यकीन पैदा होगा और यह समझ आयेगा कि आत्मनिर्णय का अधिकार उन्हें तभी मिल सकता है, जब भारतीय पूंजीवादी राज्य को उखाड़ फेंका जाय और एक मेहनतकश सत्ता की स्थापना की जाय, जिसमें उत्पादन, राज-काज और समाज के ढांचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक हो। क्रान्तिकारी संघर्ष में इन राज्यों की जनता का साथ और भागीदारी ही इस बात को भी सुनिश्चित करेगी कि इन दमित-उत्पीडित राष्ट्रीयताओं को अपने आत्मनिर्णय और अपना भविष्य तय करने का हक मिले…”
लेनिन ने ठीक यही बात यूक्रेन, जॉर्जिया, आर्मेनिया, अजरबैजान, पोलैण्ड, फिनलैण्ड, आदि रूसी साम्राज्य की सभी दमित कौमों के बारे में कही थी। लेनिन ने भी यह कहा था कि केवल रूस में समाजवादी क्रान्ति के बाद इन कौमों को राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का हक मिलने के बाद ही इस बात की सम्भावना पैदा होगी कि कालान्तर में एक स्वैच्छिक यूनियन अस्तित्व में आए जिसमें कि तमाम कौमें समानता और स्वेच्छा के साथ शामिल हों, क्योंकि राष्ट्रीय दमन का आधार ही ख़त्म हो चुका होगा।
इसका यह अर्थ नहीं था कि लेनिन इन कौमों को सीधे समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में मानते थे और उनके राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभार का समर्थन नहीं करते थे। ‘आह्वान’ के इस लेख में उपरोल्लिखत दो असन्तुलित बातों के बावजूद बुनियादी लाइन यही है, जिसे उपरोक्त लम्बे उद्धरण से आप आसानी से समझ सकते हैं। ग्यारह वर्ष पहले कौमी सवाल पर हमने कोई अवस्थिति पत्र नहीं पेश किया था और न ही संगठन का इस पर कोई केन्द्रित अध्ययन पेश किया था, बल्कि कश्मीर के तत्कालीन घटनाक्रम पर एक टिप्पणी की गयी थी। लेकिन जो टिप्पणी भी पेश की गयी थी, उसके पूरे मूल तर्क को पेश करने की बजाय, ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप के ट्रॉट-बुण्डवादी मौकापरस्ती दिखलाते हुए उसकी दुर्व्याख्या करने का प्रयास कर रहे हैं। क्यों? सिर्फ इसलिए कि मौजूदा बहस से भाग सकें! बड़ी शर्मनाक बात है!
वैसे तो इन कौमवादी महोदया ने कश्मीर पर छपे ‘प्रतिबद्ध’ के सितम्बर 2019 के जिस लेख का हवाला अपनी ट्रोट-बुन्डवादी अवस्थिति दुरुस्त होने के तौर पर दिया है उसमें खुद यह बात लिखी गयी है कि कश्मीरी कौम की आज़ादी का संघर्ष भारत के शासक वर्गों के विरुद्ध मजदूर वर्ग के संघर्ष से एकता क़ायम किये बिना आगे नहीं बढ़ सकता! बस दिक्कत यह है कि हमारे ट्रॉट-बुण्डवादी लेनिन के विपरीत इससे यह नतीजा निकालते हैं कि दमित कौम में भी सीधे समाजवादी क्रान्ति की मंजिल है, जो कि मूर्खतापूर्ण बात है और यह नहीं समझ पाती कि दमित कौमों के राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के संघर्ष और दमनकारी कौम के सर्वहारा वर्ग के समाजवादी क्रान्ति के संघर्ष के बीच एक संश्रय होता है क्योंकि उनका दुश्मन साझा होता है, यानी कि दमनकारी कौम की बुर्जुआजी।
दूसरी बात, यहां इस कीचड़-उछाली के चक्कर में ‘प्रतिबद्ध-ललकार‘ ग्रुप की हमारी महोदया फंस गई हैं। अब यदि ‘प्रतिबद्ध-ललकार‘ ग्रुप पंजाब को दमित कौम मानता है, तो इन्हें पंजाब की आज़ादी की मांग उठानी चाहिए और उसके लिए लड़ाई शुरू कर देनी चाहिए! क्योंकि इनका मानना तो यह है यदि कोई दमित कौम है तो सीधे उसकी आज़ादी की मांग उठानी चाहिए न कि आज़ादी के हक़ की मांग को; यानी सीधे अलग होने का समर्थन करना चाहिए न कि अलग होने के हक़ का समर्थन! तो फिर इन्होंने अभी तक पंजाब की आज़ादी की मांग क्यों नहीं उठाई? इन्होंने अभी तक पंजाब की आज़ादी की लड़ाई क्यों नहीं शुरू की? कहीं डर तो नहीं लग रहा!
तो यह है हमारे कौमवादी बन्धुओं की शर्मनाक और उलझन-भरी स्थिति! एक तरफ उन्हें मौजूदा बहस से भागना है और इसलिए बहस न करने के पचास बहाने बना रहे हैं! दूसरी तरफ, उन्हें अपने टूटते कुनबे को बचाने के लिए हमारे ऊपर कीचड़ भी उछालना है! लेकिन उनकी अवस्थिति की हमारे द्वारा पेश आलोचना का कोई जवाब देते बन नहीं रहा! इसलिए बेचारे मेहनत करके दस साल पुरानी, ग्यारह साल पुरानी यहां तक कि बीस साल पुरानी ‘आह्वान‘, ‘बिगुल‘ और ‘दायित्वबोध‘ की प्रतियां खंगाल रहे हैं कि कहीं कोई त्रुटि, कोई असन्तुलन, कोई ग़लती मिल जाए, जिस पर शोर मचाकर आज जारी बहस से भागा जा सके। लेकिन बेचारे वह भी नहीं कर पा रहे हैं और ऐसा करने की कोशिश में बार-बार अपनी ही मूर्खता उजागर किये जा रहे हैं! बेचारों को सद्बुद्धि मिले और उनकी बौद्धिक तौर पर ऊटपटांग, अस्त-व्यस्त और शर्मनाक स्थिति से छुटकारा मिले!
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