पटना में “महान अक्टूबर क्रान्ति, समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ और इक्कीसवीं सदी की नई समाजवादी क्रान्तियाँ” विषय पर एक व्याख्यान का आयोजन

अक्टूबर क्रान्ति शतवार्षिकी समिति द्वारा गत 23 दिसम्बर को पटना में “महान अक्टूबर क्रान्ति, समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ और इक्कीसवीं सदी की नई समाजवादी क्रान्तियाँ” विषय पर एक व्याख्यान का आयोजन किया गया था, जिसमे वक्ता के तौर पर मार्क्सवादी विचारक, राजनीतिक कार्यकर्ता व मजदूर बिगुल अख़बार के सम्पादक अभिनव सिन्हा मौजूद थे । उन्होंने अपनी बात की शुरुआत बोल्शेविक क्रान्ति के सौ वर्ष पूरे होने तथा उसके कारण दुनिया पर पड़े प्रभाव से की जिसने पूरी दुनिया को झकझोर दिया था । इस घटना ने मानव इतिहास में एक नए युग की शुरुआत की। उन्होंने बताया कि यह पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयोग था जिसमे शोषक अल्पसंख्या पर शोषित बहुसंख्या का शासन था । यह एक ऐसा वर्ग समाज था जिसमे राज्य सत्ता और वर्ग संघर्ष भी था । अतः कम्युनिस्ट समाज का समतामूलक सपना अभी सफल नहीं हो पाया था ।

उन्होंने इसके युगांतरकारी महत्व को बताते हुए कहा कि इस दिन को याद करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आज की दुनिया कई सारी प्रगतिशील एवं प्रतिक्रियावादी सम्भावनाओं को लिए हुए है, जिसमे दोनों सकारात्मक और नकारात्मक पहलू हैं । उन्होंने फ्रांस, ऑस्ट्रिया और भारत का उदाहरण देते हुए बताया की कैसे इन देशों में फासीवादी शक्तियाँ उभर कर सामने आ रही हैं । आज पूँजीवाद संकटग्रस्त अवस्था में है । 1970 के दशक से यह भीतर से एक स्थायी मन्दी का शिकार रहा है । जो हर कुछ वर्ष पर सतह पर परिलक्षित होता है , जैसे 1997 का एशियन टाइगर्स का ढहना , डॉटकॉम बुलबुले का फूटना, सबप्राइम मार्केट का डूबना आदि । 1973 के बाद से हो रही लगातार मंदी तथा 2007 की भयावह मंदी के कारण तमाम पूँजीपति वर्ग अपनी मंदी का बोझ अलग-अलग नीतियों एवं नियमों के नाम पर मजदूर तथा मेहनतकश वर्ग पर डालता है । सामाजिक खर्च में कटौती, नौकरियों की कमी और नौकरियों में छंटनी जैसी चीजें शुरू कर दी जाती हैं ।

आज की तमाम शिक्षा व्यवस्था, दुनिया में बेरोजगारी एवं भुखमरी आदि का आँकड़ा पेश करते हुए उन्होंने पूँजीवाद की नग्न असलियत सामने रखी । यह एक व्यवस्था से पैदा हुई स्थिति है, जिसका प्रस्थान बिन्दु है – मुनाफ़ा । जिसमे हर आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक गति के केंद्र में मुनाफे की एक अन्धी हवस होती है। आज सवाल इस व्यवस्था का ही एक क्रन्तिकारी विकल्प पेश करने का है और सोवियत संघ पहला ऐसा देश था जिसमे ऐसे प्रयोग किये गए , जहाँ सुधारवाद के ज़रिये नहीं बल्कि क्रान्तिकारी रास्ता अख्तियार कर यह दिखाया गया कि पूँजीवाद से बेहतर विकल्प मानवता के पास है!

आज के पूँजीवाद की स्थिति यह है कि उसे अपने द्वारा खडी की समस्याओं और संकटों को समझने के लिए भी मार्क्स की ‘पूँजी’ की जरुरत हो रही है। बर्लिन दीवार के गिरने का विजयवाद धीरे-धीरे अब संशयवाद में बदल चुका है । यह मरणासन्न परजीवी व्यवस्था के अपने अंतिम चरण में पहुच चुका है जो केवल संसार को विनाश, युद्ध या पर्यावरणीय विभीषिका प्रदान कर सकता है । इसलिए आज यह और भी आवश्यक हो गया है कि हम और जोर-शोर से, और जुनून के साथ समाजवाद की बात लोगों तक पहुँचायें। इसी सन्दर्भ में बोल्शेविक क्रान्ति को याद करना कोई रस्म अदायगी नहीं बल्कि जरुरत है ।

आज दुनिया में लोगों के बीच का असन्तोष कई रूपों में सामने आ रहा है । पर जब ये जन उभार एक सर्वोच्च स्तर पर होगा तब उसे एक सही विचारधारा और संगठन की जरुरत होगी, अन्यथा यह किसी न किसी रूप में सिर्फ शासन परिवर्तन के रूमे में सामने आएगी, जैसे भारत में जेपी आन्दोलन के समय हुआ था ।

सोवियत संघ, जहाँ- विचारधारा और संगठन, दोनों मौजूद थे, दुनिया का पहला ऐसा देश बना जहाँ मजदूर वर्ग ने अपने हाथ में सत्ता ली और पढ़े-लिखे लोगों से ज्यादा बेहतर  ढंग से चलाया। यह पहला ऐसा देश बना जिसने भुखमरी, बेघरी, बेरोजगारी को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया । इसने पहली बार (राजनीतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ) महिलाओं को मत देने का अधिकार, व्यस्क सार्विक मताधिकार लागू किया । यह पहला ऐसा देश बना जिसने विज्ञान में नई ऊँचाइयों को छुआ और दुनिया में पहला वो देश बना जिसने अंतरिक्ष में इंसान को भेजा। इसने कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी नई उपलब्धि हासिल की जिसका उदहारण हमें वहाँ लिखीं कई रचनाओं से बखूबी मिलता है । सोवियत समाजवाद के प्रयोगों ने 40 वर्षों में ही रूस को मध्ययुगीन पिछड़ेपन, बर्बरता और गरीबी की गर्त में पड़े एक देश से दुनिया की सबसे तेज़ बढ़ती और दूसरी सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति में तब्दील कर दिया। इतने कम समय में इसने ऐसा सफ़र किया जो पूँजीवादी देश जैसे अमेरिका, ब्रिटन आदि 200 सालों में हासिल नहीं कर पाए । ऐसे कई और उदाहरण उन्होंने आँकड़ों के साथ साझा किये तथा सोवियत समाज की उपलब्धियाँ के बारे में लोगों को अवगत कराया।

इसके साथ ही उन्होंने बताया कि कैसे आज पूँजीवाद के भाड़े के अकादमिक व गैर अकादमिक कलम घसीट लेखक समाजवाद की अव्यावहारिकता व इतिहास के अन्त की घोषणा कर रहे है व इस पर दर्जनों पुस्तके लिख रहे है । लेकिन इन सबके बावजूद इनका डर समाप्त नहीं हो रहा है। क्योंकि सोवियत समाजवाद ने पुरजोर तरीके से यह दिखा दिया था कि दुनिया की बहुसंख्या को गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, भूख, युद्ध और तबाही की नेमते देने वाली पूँजीवादी व्यवस्था का बेहतर तार्किक विकल्प है , वह विकल्प बिल्कुल सम्भव और व्याहारिक है । बहुत सारे विश्लेषण इस विषय पर मौजूद भी हैं। लेकिन ये कलमघसीट इतना ही कहते हैं कि यह तो पहला प्रयोग था और इसे असफल होना ही था या फलाँ-फलाँ व्यक्तियों की गलतियों की वजह से समाजवादी प्रयोग रूस में गिर गया। ऐसे व्याख्याओं में वैज्ञानिक विश्लेषण की कमी साफ़ दिखती है । ये नकरात्मक, निर्धारणवाद और आकस्मिकतावाद के छोरों के बीच दोलन करती रहती है ।

आगे उन्होंने समाजवाद और साम्यवाद का जिक्र करते हुए दोनों के बीच के अंतर को समझाया । समाजवाद वह दौर होता है जहाँ पूँजीवादी पुनर्स्थापना की सम्भवनाएँ बनी रहती हैं । जबकि साम्यवाद समाजवाद की अन्तिम सीमा है । समाजवादी संक्रमण के आरम्भ का होना यह निश्चित नहीं करता कि साम्यवादी संक्रमण आएगा ही। समाजवाद में शारीरिक और मानसिक श्रम, नगर और गाँव तथा कृषि और उद्योग के बीच का फर्क मौजूद रहता है। इसका कारण यह होता है कि अभी भी वस्तुओं का उत्पादन विनियम मूल्यों के तौर पर हो रहा होता है न की उपयोग मूल्यों के तौर पर ।

उन्होंने सोवियत संघ में की गयी गलतियों की तरफ इंगित किया जिसमे दोनों सांगठनिक एवं सैद्धांतिक कमियाँ बतायीं जिनके कारणों से सोवियत संघ में पुनः पूँजीवाद की स्थापना हुई । साथ ही लोगों की समाजवाद को लेकर गलत अवधारणा, जो लोग गलत स्रोतों से जानने के कारण या पूरी जानकारी न मिल पाने के कारण पाल लेते हैं, पर प्रकाश भी डाला ।

अन्त में उन्होंने लेनिन की जनता की जनवादी क्रान्ति का जिक्र करते हुए सर्वहारा पुनर्जागरण की बात की । इक्कीसवीं सदी में जो भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं उन्हें समझना, इन 100 सालों में वस्तुगत वर्ग-शक्ति सन्तुलन में आये फर्क को समझना बहुत जरुरी है । 1917 के रूस तथा 2017 के भारत और भारत जैसे तमाम देश जो आने वाली क्रान्ति का झंझाकेंद्र बन सकतें हैं, इन देशों में व्यापक तौर पर इस दिशा में काम किये जाने की भी बहुत आवश्यकता है । आज जरूरत है अक्तूबर क्रान्ति से शिक्षा ली जाये और भविष्य की परियोजनाएँ गढ़ी जाए। आज के दौर में होने वाली क्रान्तियाँ न केवल पूँजीवाद विरोधी अपितु साम्राज्यवाद विरोधी भी होंगी, यानी यह नई समाजवादी क्रान्तियाँ होंगी । इसके कन्धे पर सर्वहारा पुनर्जागरण व प्रबोधन का भी कार्यभार होगा । आज क्रान्तिकारी वाम ग्रुपों को भी पुराने पड़ चुके कार्यक्रमों से चिपके रहने की कूपमन्डूकता से भी निजात पाना होगा ।

पूरे व्याख्यान में नौजवानों को विशेष रूप से संबोधित किया गया। इस व्याख्यान में उनकी भागीदारी भी काफी सकारात्मक रही। व्याख्यान के बाद एक संवाद सत्र का भी आयोजन किया गया जिसमें नौजवान साथियों ने अपने प्रश्न पूछे। व्यख्यान में अजय सिन्हा, अनीश अंकुर, अनिल रॉय, अशोक सिन्हा, नन्दकिशोर सिंह व कई बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी भी उपस्थित रहे।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जनवरी-फरवरी 2018

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