रघुराम राजन: पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों का रक्षक!
आनन्द
रिजर्व बैंक ऑफ़ इण्डिया (आरबीआई) के गवर्नर रघुराम राजन आयेदिन भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर अपने बयान देते रहते हैं। हाल के दिनों में राजन ने कुछ ऐसे बयान दिये हैं जिनसे ऐसा प्रतीत होता है कि वे मोदी सरकार की कुछ नीतियों के प्रति आलोचनात्मक रुख रखते हैं। इन बयानों की वजह से उनके और सरकार के बीच तनातनी की ख़बरे भी मीडिया की सुर्खियों में रहीं। यहाँ तक कि मोदी सरकार के चहेते अर्थशास्त्री एवं नवनिर्मित नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया भी रघुराम राजन के इस आलोचनात्मक रवैये की आलोचना करते हुए पाये गये। राजन के इस आलोचनात्मक दृष्टिकोण के कारण वे भारत के मध्यवर्ग के एक हिस्से के साथ ही साथ उदारवादी बुद्धिजीवियों और यहाँ तक कि वामपन्थियों के बीच भी ख़ासे लोकप्रिय हो गये हैं। ऐसे में रघुराम राजन के बयानों के पीछे के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझना ज़रूरी हो जाता है क्योंकि वे काफ़ी विभ्रम फैला रहे हैं।
मोदी सरकार ‘मेक इन इण्डिया’ अभियान में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाकर देश की जनता को यह शेखचिल्ली के ख़्वाब दिखा रही है कि कुछ सालों के भीतर ही भारत चीन को पछाड़कर दुनिया का ‘मैन्युफैक्चरिंग हब’ बन जायेगा जिससे इस देश के युवाओं को रोज़़गार मिलेगा। लेकिन रघुराम राजन ने हाल ही में ‘मेक इन इण्डिया’ के गुब्बारे की हवा निकालने वाला एक बयान दिया जिसमें उन्होंने कहा कि भारत को ‘मेक इन इण्डिया’ की बजाय ‘मेक फॉर इण्डिया’ पर ज़ोर देना चाहिए। राजन के अनुसार भारत को निर्यात की बजाय देशी बाज़ार के लिए मालों के उत्पादन पर ज़ोर देना चाहिए क्योंकि विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में जारी मन्दी को देखते हुए आने वाले दिनों में उन देशों में मालों के माँग में कमी बरकरार रहने की सम्भावना है। इसी तरह से देशभर के पूँजीपतियों एवं सरकार के दबाव के बावजूद राजन ने आरबीआई द्वारा बैंकों को देने वाली रक़म पर ब्याज़ दर को लम्बे अर्से तक नहीं घटाया। अभी हाल ही में आरबीआई ने रेपो रेट को 25 प्रतिशत प्वाइण्ट से घटाया है। इस देरी और इतनी कम कटौती के लिए कॉरपोरेट घराने अभी भी राजन से नाख़ुश हैं। इसी तरह से राजन ने हाल ही में भारत के ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ (खोटा पूँजीवाद) पर हमला बोलते हुए कहा है कि वह ‘ऑलिगैर्की’ (अर्थव्यवस्था में कुछ ही घरानों का दबदबा) खड़ा करता है और विकास को अवरुद्ध करता है। राजन के अनुसार भारत में पूँजीपतियों के लिए बिना जोखिम वाला पूँजीवाद है क्योंकि मन्दी के इस दौर में भी एक भी बड़े पूँजीपति का दिवाला नहीं पिटा और पूँजीपतियों की विलासिता में भी कोई कमी नहीं आयी है। सरकारी बैंकों में बढ़ते ‘नॉन परफार्मिंग एसेट्स’ (ऐसे क़र्ज़ जिसको वापस नहीं चुकाया गया हो या चुकाने में आनाकानी हो रही हो) पर भी चिन्ता व्यक्त करते हुए राजन ने कहा है कि बैंकों के इस बढ़ते बोझ के लिए बड़े क़र्ज़दार ज़िम्मेदार हैं जो क़र्ज़ लेने के बाद चुकाते ही नहीं हैं क्योंकि वे इसे अपना दैवीय अधिकार समझते हैं।
रघुराम राजन के इन बयानों को ऊपरी तौर पर पढ़ने से किसी को यह भ्रम हो सकता है कि ये बयान इस देश की जनता के हित को ध्यान में रखकर दिये गये हैं। परन्तु सावधानीपूर्वक इन बयानों की पड़ताल करने और राजन के राजनीतिक अर्थशास्त्र को जानने के बाद हम पाते हैं कि दरअसल इन उग्र तेवरों के पीछे जनता के हित नहीं बल्कि पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों की हिफ़ाज़त करने की उनकी व्यग्रता छिपी है। इस लेख में पहले हम रघुराम राजन बुर्जुआ अर्थशास्त्र की जिस धारा से आते हैं उसका संक्षेप में ज़िक्र करेंगे और उसके बाद उनके बयानों के पीछे छिपी पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों के रक्षक की उनकी भूमिका पर बात करेंगे।
रघुराम राजन मूलतः बुर्जुआ अर्थशास्त्र की जिस धारा से आते हैं उसे सप्लाई-साइड (आपूर्ति पक्ष वाला) अर्थशास्त्र कहते हैं जिसके अनुसार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में संकट की वजह अर्थव्यवस्था की सप्लाई-साइड की बाधाएँ – अवरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) का अपर्याप्त विकास, बिजली संकट, कच्चे माल की आपूर्ति में बाधा, भूमि अधिग्रहण में दिक्कतें, पूँजी की अनुपलब्धता, ऋण मिलने में दिक्कतें आदि – होती हैं। अतः कींसियन धारा के अर्थशास्त्रियों से उलट इस धारा से आने वाले अर्थशास्त्री मौद्रिक नीतियों या सरकारी हस्तक्षेप से अर्थव्यवस्था में माँग पैदा करने की बजाय पूँजीवादी सरकारों को अपने ख़र्चों में कटौती करके अर्थव्यवस्था में निवेश को बढ़ाने पर ज़ोर देने की सलाह देते हैं। बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों की यह धारा 1970 के दशक से ही प्रभावी धारा के रूप में उभरी जब पूँजीवादी संकट से उबरने के लिए बुर्जुआ वर्ग ने कींसियाई अर्थशास्त्रियों को दुलत्ती मारकर नवउदारवाद की राह पर चलना शुरू किया। इस धारा से जुड़े अर्थशास्त्री करों की दर में कटौती की बात करते हैं ताकि पूँजीपतियों को निवेश के लिए पर्याप्त पूँजी उपलब्ध हो सके। साथ ही ये अर्थशास्त्री मज़दूरों के अधिकारों को छीनने की पुरज़ोर वकालत भी करते हैं ताकि पूँजीपति वर्ग मनचाहे तरीक़े से उनके श्रम को निचोड़ अपना मुनाफ़ा क़ायम रख सके। रघुराम राजन भी पूँजीतियों को निवेश के लिए सहूलियतें देने और मज़दूरों के अधिकारों को छीनने के पक्षधर हैं, हालाँकि वे वित्तीय बाज़ार के जोखिम को कम करने के लिए एक हद तक विनियमन की बात भी करते हैं। वे इस बात के लिए जाने जाते हैं कि उन्होंने 2005 में ही आगामी वित्तीय संकट के बारे में आगाह किया था। ये बात दीग़र है कि उस वक़्त उनकी इस चेतावनी पर बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों ने ही उनका मखौल उड़ाया था।
रघुराम राजन मूलतः भोपाल के रहने वाले हैं। उनके पिता ने बतौर इण्टेलिजेंस ब्यूरो अधिकारी अपने जासूसी के हुनर से इस देश (पढ़िये पूँजीपति वर्ग!) की सेवा की और अब राजन अपने अर्थशास्त्र के ज्ञान से इस देश के ही नहीं बल्कि दुनिया के पूँजीपति वर्ग की सेवा में जी जान से लगे हुए हैं। वे अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के मुख्य अर्थशास्त्री के पद पर रहते हुए विश्व पूँजीवाद की सेवा कर चुके हैं और यह ख़बर सुर्खियों में है कि आरबीआई के गवर्नर का पद छोड़ने के बाद वे आईएमएफ़ के मुखिया के पद पर विराजमान हो सकते हैं।
अब आइये देखते हैं कि मोदी सरकार से तनातनी के पीछे किस प्रकार पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों के प्रति राजन का सेवाभाव काम कर रहा है। पूँजीपतियों एवं उनकी सरकार के दबाव के बावजूद राजन ने आरबीआई द्वारा बैंकों को देने वाली ब्याज़ दर को लम्बे समय तक इसलिए नहीं घटाया क्योंकि उनका मानना है कि जब तक सप्लाई साइड (आपूर्ति पक्ष) की दिक्कतों को दूर करके पूँजी निवेश के लिए उचित परिवेश नहीं बनाया जायेगा तब तक अगर ब्याज़ दर घटा भी दी जाती है तो इससे होगा यह कि अर्थव्यवस्था में मौद्रिक तरलता आयेगी यानी उत्पादित जिंसों की तुलना में मुद्रा की अधिकता हो जायेगी जिसके फलस्वरूप महँगाई की दर बढ़ जायेगी। राजन ने ब्याज दरों में कटौती करने की पूँजीपतियों की व्यग्रता को उनकी अदूरदर्शिता बताया और कहा कि उनका मक़सद सिर्फ़ प्रति क्वार्टर का तात्कालिक लाभ न होकर दूरगामी तौर पर ऐसा परिवेश क़ायम करना है जिससे टिकाऊ रूप से लाभ उठाया जा सके। स्पष्ट है कि राजन पूँजीपति वर्ग के दूरन्देश बुद्धिजीवी की भूमिका मुस्तैदी से निभा रहे हैं। पूँजीपति वर्ग ऐसे बुद्धिजीवियों को इसीलिए पालता-पोसता है कि जब बाज़ार की अन्धी प्रतिस्पर्द्धा में पूँजीपति एक-दूसरे का गला काटने पर उतारू हो जायें और पूरी व्यवस्था के लिए ही संकट पैदा कर दें तो ऐसे बुद्धिजीवी अपनी बौद्धिक क्षमता के बूते एक-एक पूँजीपति नहीं बल्कि समूचे पूँजीपति वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर नीतियाँ सुझायें।
भारत में व्याप्त ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ की आलोचना में भी पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों की हिफ़ाज़त करने की राजन की व्यग्रता साफ़ झलकती है। राजन जैसे अर्थशास्त्रियों को अच्छी तरह पता होता है कि पूँजीवादी विकास से पैदा होने वाली बदहाली और आर्थिक असमानता से जनता में पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति असन्तोष और गुस्सा पैदा होगा। इसीलिए ऐसे भाड़े के टट्टू पहले ही समाज में ऐसे विचार फैलाते हैं जिससे जनता को इस बात का यकीन दिलाया जाये कि दरअसल पूँजीवाद में कोई ख़ामी नहीं है, ख़ामी कुछ इक्का-दुक्का पूँजीपतियों में है क्योंकि वे ज़रूरत से ज़्यादा लालच करते हैं और व्यवस्था द्वारा तय किये गये नियमों की अवहेलना करते हैं। इससे जनता का आक्रोश समूची व्यवस्था पर न होकर कुछ पूँजीपतियों पर ही निर्देशित हो जाता है। “क्रोनी कैपिटलिज़्म” (खोटा पूँजीवाद) का जुमला पूँजीपतियों के टुकड़खोर इसी मक़सद से उछालते हैं। सच्चाई तो यह है कि पूँजीवाद अपने आप में खोटा है क्योंकि वह अपनी स्वाभाविक गति से ही पूँजीपतियों में मुनाफ़े की ऐसी हवस पैदा करता है कि वे एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में अपने द्वारा बनाये गये नियमों को ही ताक पर रख देते हैं और भ्रष्ट गतिविधियों में लिप्त होते हैं। परन्तु यदि यह भ्रष्टाचार न भी हो (हालाँकि यह सम्भव नहीं) तब भी पूँजीपतियों का मुनाफ़ा मेहनतकशों के शोषण से ही आयेगा। पूँजीवाद की इसी घिनौनी सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए राजन जैसे अर्थशास्त्री “खोटे पूँजीवाद” के ख़िलाफ़ उग्र तेवर दिखाते हैं।
मोदी सरकार द्वारा ज़ोर-शोर से चलाये जा रहे ‘मेक इन इण्डिया’ अभियान के प्रति राजन का आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपने मालिक वर्ग के प्रति उनके समर्पण भाव को ही दर्शाता है। वे अच्छी तरह देख रहे हैं कि चीन ने जिस दौर में दुनिया का ‘मैन्युफैक्चरिंग हब’ बनने के मक़सद से निर्यात को प्रोत्साहन देने की नीति पर ज़ोर दिया था, उस दौर में विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में माँग थी। चूँकि विश्वव्यापी मन्दी की वजह से आज उतनी माँग नहीं है इसलिए राजन जैसे अर्थशास्त्री जानते हैं कि ‘मेक इन इण्डिया’ के गुब्बारे का फूटना बस समय की बात है। इसीलिए वे पहले से ही आगाह कर रहे हैं कि इतना मत उछलो वरना सीधे क़ब्र में चले जाओगे।
लेकिन पूँजीपति वर्ग के लिए कड़वी सच्चाई तो यह है कि चाहे आपूर्ति की बाधाओं को ख़त्म करने की वकालत करने वाले राजन जैसे अर्थशास्त्री हों या फिर सरकारी हस्तक्षेप के ज़रिये अर्थव्यवस्था में माँग बढ़ाने का कींसियाई नुस्खा सुझाने वाले पॉल क्रूगमैन जैसे अर्थशास्त्री हों, इनकी सलाहों पर चलकर मरणासन्न पूँजीवाद के मरीज़ के लिए ज़्यादा से ज़्यादा वेंटिलेटर का काम कर सकते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि पूँजीवादी संकट की मूल वजह माँग और आपूर्ति में असन्तुलन नहीं बल्कि उसकी संरचना में ही अन्तर्निहित है जिसमें उत्पादन के साधनों का स्वामित्व उत्पादन में लगे लोगों के पास न होकर परजीवी पूँजीपति वर्ग के पास है। ऐसे अर्थशास्त्री कभी भी पूँजीवाद के बुनियादी अन्तरविरोध यानी उत्पादन के समाजीकरण और उत्पत्ति के निजी रूप से हस्तगतीकरण तथा कारख़ाने के भीतर नियोजन तथा व्यापक समाज की अराजकता को हल करने की बात नहीं करते क्योंकि यदि वे इतना साहस कर पायेंगे तो उन्हें यह बताना होगा कि पूँजीवाद ने मानवता को आज जिस अन्धी गली में पहुँचा दिया है उससे बाहर निकलने का केवल एक ही तर्कसंगत रास्ता है और वह है सर्वहारा क्रान्ति। केवल सर्वहारा क्रान्ति के ज़रिये समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करके ही पूँजीवाद के बुनियादी अन्तरविरोधों को हल किया जा सकता है। इस हल के बारे में राजन जैसे अर्थशास्त्री इसलिए नहीं सोच सकते क्योंकि उनका मक़सद तो अपने स्वामी यानी बुर्जुआ वर्ग का हित साधना होता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015
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