स्त्री मुक्ति लीग द्वारा स्त्री दिवस पर जनसभा का आयोजन
स्त्री मुक्ति लीग ने दिल्ली के दिलशाद गार्डन इलाके में अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) के शताब्दी वर्ष की शुरुआत के उपलक्ष्य में एक जनसभा का आयोजन किया। यह जनसभा जी.टी.बी. अस्पताल के रिहायशी परिसर के भीतर आयोजित की गई। इसमें एक स्त्री मुक्ति के प्रश्न पर एक पोस्टर प्रदर्शनी, पुस्तक प्रदर्शनी और गीत संध्या का आयोजन किया गया। इस मौके पर स्त्री मुक्ति लीग की सांस्कृतिक टोली ने कई क्रान्तिकारी गीतों की प्रस्तुति की। इस मौके पर स्त्री मुक्ति लीग से शिवानी ने बात रखते हुए कहा कि स्त्री मुक्ति दिवस के सौ वर्षों का इतिहास बताता है कि स्त्री मुक्ति की वास्तविक लड़ाई हमेशा मेहनतकश स्त्रियों ने लड़ी है। दरअसल, अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस की शुरुआत ही स्त्री मज़दूरों की लड़ाई से हुई थी। आज भी जो स्त्री सबसे अधिक कुचली जा रही है वह है मेहनत-मशक्कत करने वाली स्त्री। स्त्रियों की कुल आबादी का 80 फ़ीसदी आम मेहनतकश वर्गों से ही आता है। इस पूरी आबादी को जहाँ एक ओर पूँजीवादी शोषण का सामना करना पड़ता है तो वहीं घर के भीतर उसे पितृसत्ता की गुलामी को भी सहना पड़ता है। आज स्त्रियों की मुक्ति के लिए स्त्री आन्दोलन को एक ओर तो मेहनतकशों की मुक्ति के आन्दोलन से जोड़ना होगा तो वहीं दूसरी ओर मज़दूर आबादी में स्त्री-पुरुष बराबरी को स्थापित करने के लिए व्यापक पैमाने पर प्रचार-प्रसार और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करना होगा। पुरुषवादी मानसिकता के ख़िलाफ़ घर के भीतर से संघर्ष शुरू करना होगा और उसे सड़कों तक लाना होगा।
इस मौके पर स्त्री मुक्ति के प्रश्न पर नेहा और श्वेता ने कविता पाठ किया। नौजवान भारत सभा की ओर से अभिनव और विवेक ने भी बात रखी। अभिनव ने कहा कि दिल्ली के पैमाने पर ही स्त्री मज़दूरों ने बड़े पैमाने पर संघर्ष किये हैं। हाल ही में हुआ नर्सों का आन्दोलन इसका एक गवाह है। अस्पतालों में कर्मचारियों का जो आन्दोलन चल रहा है उसमें भी स्त्री-कर्मियों ने जमकर शिरकत की है। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है। महँगाई हो या बेरोज़गारी, बच्चों की शिक्षा का महँगा होना हो या चिकित्सा का महँगा होना, इन सबकी सबसे पहले मार महिलाओं पर ही पड़ती है। इन सबके ख़िलाफ़ इसीलिए सबसे पहले खड़ा भी स्त्रियों को ही होना होगा। इन सभी संघर्षों को अलग-अलग नहीं बल्कि तालमेल करके चलाना होगा। आर्थिक-राजनीतिक मुक्ति अपने आप सामाजिक मुक्ति को नहीं ला सकती लेकिन आर्थिक-राजनीतिक मुक्ति के बिना सामाजिक मुक्ति एक दिवा-स्वप्न है। इसलिए आज औरतों को सबसे पहले अपनी आर्थिक-राजनीतिक मुक्ति के बारे में सोचना होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009
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