मज़दूरों द्वारा छात्रों को एक खुला खत
6 दिसम्बर को विद्यालय के एक छात्र की पुलिस की गोली से मृत्यु पर पूरे ग्रीस देश में दंगे भड़क उठे। दँगों ने बगावत का रूप ले लिया। विद्यालयों-विश्वविद्यालयों पर छात्रों ने कब्जे कर लिये। छात्रों-मज़दूरों ने सरकारी इमारतों, रेडियों व टेलिविजन केन्द्रों पार्टियों-यूनियनों के कार्यालयों पर कब्जे कर लिये। हजारों की संख्या में लोग जगह-जगह पुलिस से भिड़े। क्रिसमस और नव वर्ष के लिये सजे व्यवसायिक केन्द्रों का हाल युद्ध में ध्वस्त क्षेत्रों जैसा हो गया। थानों को आग लगाई गई और अमीरज़ादों से व्यापक स्तर पर सामान छीने गये। जनतंत्र में मज़दूरों-मेहनतकशों के खिलाफ़ व्यापक हिंसा में सहभागी यूनियनों, राजनीतिक पार्टियों, पादरियों, पत्रकारों और व्यवसाइयों ने जनतंत्र कानून–व्यवस्था-शान्ति-अहिंसा की दुहाईयों के संग दमन का ताण्डव किया।
16 दिसम्बर 08 के ‘‘एथेन्स में मज़दूरों का छात्रों को एक खुला खत’’ देखिये। -सम्पादक
आयु के भेद और आम दुराव तुम से गलियों में चर्चायें करना हमारे लिए कठिन बना रहे हैं इसलिए हम यह पत्र जारी कर रहे हैं।
हम में से अधिकतर अभी गंजे अथवा पेटू नहीं हुए हैं। हम 1990–91 के आन्दोलन का अंश हैं। तुम लोगों ने उसके बारे में सुना होगा। तब हमने अपने विद्यालयों पर 30–35 दिन कब्जा किया था। उस दौरान सरकार ने एक अध्यापक को मार डाला था क्योंकि अध्यापक ने हमारी चौकीदारी करने की सौंपी गई भूमिका त्याग दी थी और सीमा पार कर हमारे संघर्ष में आन मिला था। अध्यापक की मृत्यु पर हममें जो किसी से मतलब नहीं रखते वो भी सड़कों पर उतर आये थे और दँगा किया था। तब हालांकि हम ने ‘‘थानों को आग लगाओ…’’ गाया पर ऐसा करने का सोचा तक नहीं जबकि आज आप लोग इतनी सहजता से थानों को फ़ूँक रहे हैं।
तो, आप हम से आगे चले गये हैं, जैसा कि इतिहास में सदा होता है। बेशक हालात में फ़र्क है। नब्बे के दशक के दौरान निजी सफ़लता की सम्भावना को परोसा गया और हम में से कुछ ने उसे निगल लिया। अब लोग इस पूरी कथा पर विश्वास नहीं कर सकते। तुम्हारे ज्येष्ठ बन्धुओं ने 2006–07 के छात्र आन्दोलन के दौरान हमें यह दिखाया और तुम तो सुनाने वालों के मुँह पर उनकी परी कथाओं को थूक रहे हो।
यहाँ तक बढ़िया है। अब अच्छे और कठिन मामले आरम्भ होते हैं।
अपने संघर्षों और पराजयों से हम ने जो सीखा है वह तुम्हें बतायेंगे। पराजयों की बात इसलिए कि जब तक संसार हमारा नहीं होगा तब तक हम सदा पराजित ही होंगे। हम ने जो सीखा है उसे तुम जैसे चाहो प्रयोग कर सकते हो।
अकेले मत रहो। हमें बुलाओ, अधिक से अधिक लोगों को बुलाओ। हमें नहीं पता कि यह तुम कैसे कर सकते हो, तुम राह ढूंढ लोगे। तुम ने पहले ही अपने विद्यालयों पर कब्जा कर लिया है और तुमने हमें बताया है कि इसका सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि तुम्हें तुम्हारे स्कूल अच्छे नहीं लगते। बढ़िया है, चूँकि तुमने उन पर कब्जे कर ही लिये हैं तो उनकी भूमिका बदलो। अपने कब्ज़ों को अन्य लोगों के साथ साझा करो। अपने विद्यालयों को हमारे नये सम्बन्धों के निवास की पहली इमारतें बना दो। उनका सबसे शक्तिशाली हथियार हमें बाँटना है। जो कि उनके थानों पर हमले करने से तुम नहीं डरते क्योंकि तुम एकजुट होते हो, वैसे ही हम सब के जीवन को मिल कर बदलने के लिये हमें बुलाने से भय मत खाओ।
किसी भी राजनीतिक संगठन की मत सुनो। जिसकी तुम्हें आवश्यकता है वह करो। लोगों पर भरोसा करों, अमूर्त-हवाई योजनाओं और विचारों पर विश्वास मत करो। लोगों के साथ सीधे सम्बन्धों पर भरोसा करो। अपने मित्रों पर विश्वास करो और अपने संघर्ष में शामिल अधिक से अधिक लोगों को अपने लोग बनाओ। उनकी मत सुनो जो कहते हैं कि तुम्हारे संघर्ष में राजनीतिक सामग्री-सार नहीं जिसे कि प्राप्त करना ही चाहिए। तुम्हारा संघर्ष ही सार है। तुम्हारे पास तुम्हारा संघर्ष ही है और इसे बढ़ाना तुम्हारे हाथों में है। यह तुम्हारा संघर्ष ही है जो कि तुम्हारे जीवन को बदल सकता है, यानी तुम्हें और साथियों के साथ तुम्हारे वास्तविक रिश्तों को बदल सकता है।
जब नई बातों से वास्ता पड़े तब बढ़ने से डरो मत। हममें से प्रत्येक के मस्तिष्क में चीजें डाली-छापी–बोई जाती है। आयु के साथ यह बढ़ती जाती हैं पर हैं तुम में भी हालाँकि तुम युवा हो। इस तथ्य के महत्त्व को मत भूलो।
1991 में नये विश्व की महक से हमारा वास्ता पड़ा था और, हम पर विश्वास करो वह सुगन्ध हमें कठिन लगी थी। हम ने सीख रखा था कि सीमायें सदा ही होनी चाहिये। माल के ध्वंस से भयभीत मत हो। लोगों द्वारा भण्डारों को लूटने से डरो मत यह सब हम बनाते हैं, यह हमारे हैं। हमारी ही तरह तुम्हारा भी पालन रोज सुबह उठ कर चीजें बनाने के लिये किया जा रहा है, चीजें जो कि फ़िर तुम्हारी नहीं होगी। आओ मिल कर हम उन चीजों को वापस लें और साझा करें। वैसे ही जैसे कि हम अपने मित्रों और अपने प्यार को आपस में साझा करते हैं।
इस पत्र को जल्दी में लिखने के लिए हम क्षमा चाहते हैं परन्तु हम काम के दौरान साहब से छिपा कर लिख रहे हैं। हम काम के बन्दी है जैसे कि तुम स्कूल में कैदी हो।
अब साहब से हम झूठ बोलेंगे और काम से छुट्टी करेंगे। अपने हाथों में पत्थर ले कर तुम से मिलने सिन्टग्मा चौक पहुँचेंगे।
(‘मज़दूर समाचार’ से साभार)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009
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