लेने आये अनाज कूपन, मिली गोली
प्रेमप्रकाश, दिल्ली
शोषकों की जमात शोषित वर्गों द्वारा अपने अधिकारों के लिए लड़ने पर ही नहीं बल्कि शोषकों द्वारा किये जा रहे “सुधार” का लाभ साधिकार लेने पर भी नीचतापूर्ण अत्याचारों से बाज़ नहीं आती। यह बात अलग है कि यह तथाकथित सुधार की पैबन्दसाज़ी हमारे द्वारा दिये जाने वाले करों के बूते ही होती है।
मार्च माह में बिहार के बेगूसराय जिला के मटिहानी में अन्त्योदय योजना के तहत मिलने वाले अनाज के लिए कूपन लेने आये ग़रीबों पर हुए पुलिसिया अत्याचार ने इसी बात की तसदीक की है। पुलिस ने ग़रीबों पर गोलियाँ चलाईं जिसमें दो ग्रामीणों की मौत हो गयी। पुलिस ने महिलाओं पर भी लाठियाँ चलाईं जिसमें कई महिलाएँ घायल हो गयीं। ग्रामीणों का कहना है कि घटना के बाद उग्र भीड़ को देखकर पुलिस एवं अधिकारियों ने मटिहानी प्रखण्ड कार्यालय में आग लगा दी जबकि जिलाधिकारी ने बयान दिया कि, जैसा कि ऐसी घटना होने पर किसी भी जिलाधिकारी से उम्मीद की जा सकती है, प्रखण्ड कार्यालय में जमा भीड़ में असामाजिक तत्व घुस आये थे, जिन्होंने पहले गोलियाँ चलाईं और आग लगाई।
इस तरह की घटना इस व्यवस्था को बेनक़ाब करने वाली प्रतिनिधि घटना है। ऐसी घटनाओं से अछूता कोई ऐसा घण्टा या कहें कि मिनट नहीं है जिसमें ग़रीब जनता का शोषण-दमन नहीं होता और विरोध करने पर उनकी हत्याएँ नहीं की जातीं।
देश की सम्पूर्ण आबादी को भोजन उपलब्ध कराने वाली आम मेहनतकश ग़रीब किसान आबादी कालाहाण्डी और विदर्भ में आत्महत्याएँ करने को मजबूर है, देश के कारखानों में काम करने वाला मज़दूर जो ऐशो-आराम के सारे साज़ो-सामान बनाता है, सड़कें और इमारतें बनाता है, वह जीवन की बुनियादी शर्तों से क्यों वंचित है? क्योंकि इस शासन व्यवस्था के पैरोकारों के दिमाग़ पर लूट की हवस सवार है, जो शोषण की मशीनरी को चाक-चौबन्द करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
देश के विकास का भजन गाते रहने वालों के शोर में सच्चाइयाँ खो जाती हैं। तथ्य विकास की बजाय कोई और ही कहानी बयान करते हैं। 2007 के पहले तीन महीनों में 250 किसानों ने आत्महत्या कर ली। 1995 से 2003 के बीच देश में किसानों की आत्महत्याओं में 345 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। आत्महत्या करने वाले किसानों में कई धनी किसान हैं जो स्वयं मुनाफ़े की तलाश में बाज़ार में उतरे, जो स्वयं अपने खेतों में खेतिहर मज़दूरों का शोषण करते हैं। लेकिन एक भारी आबादी ग़रीब किसानों की भी थी जो सूदखोरों के कर्ज़ तले दबकर आत्महत्या करने का मजबूर हुए। इसके अतिरिक्त सेज़ (विशेष आर्थिक क्षेत्र) के नाम पर ग़रीब किसानों से भूमि अधिग्रहण किया जा रहा है। इन सब के बाद आम ग़रीब किसान आबादी को यह समझना होगा कि ज़मीन के छोटे टुकड़े उनके जीवन को सुन्दर नहीं बना सकते। केवल इस व्यवस्था का ध्वंस और एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण ही उनके भविष्य को बचा सकता है जिसमें उत्पादन, राज-काज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वालों का सामूहिक हक हो और फ़ैसला लेने की ताक़त उनके हाथ में हो।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्बर 2007
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