मोन्ताज फिल्म सोसाइटी द्वारा फिल्म प्रदर्शन
दिल्ली विश्वविद्यालय में मोन्ताज फिल्म सोसाइटी द्वारा यूनिवर्सिटी स्टूडेण्ड एक्टीविटी सेण्टर में जनवरी माह में प्रसिद्ध यूनानी फिल्मकार कोस्ता गावरास की फिल्म ‘ज़ेड’ तथा फरवरी माह की शुरुआत में डॉक्यूमेण्टरी फिल्मकार गौहर रज़ा की एक डॉक्युमेण्टरी ‘जुल्मतों के दौर में’ का प्रदर्शन किया गया। ये दोनों ही फिल्में फ़ासीवाद के ख़तरों व इसके स्रोतों को ढूँढती हैं।
13 जनवरी को प्रदर्शित की गई यह फिल्म दक्षिणपंथी राजनीति को नंगा करती है। यह फिल्म दिखाती है कि किस तरह दक्षिणपंथी राजनीति की पैठ राज्य मशीनरी के भीतर होती है तथा हर प्रगतिशील आवाज को कुचलने के लिये पुलिस और सेना का इस्तेमाल होता है। यह फिल्म यूनान में 1963 में प्रख्यात वामपंथी ग्रिगोरिस लैम्बारकिस के हत्याकाण्ड पर आधारित है।
फिल्म के बाद स्त्री मुक्ति लीग की शिवानी ने फासीवाद के भारतीय संस्करण पर बात रखी। उन्होंने बताया कि भारत में भी सेना, पुलिस, जज, मंत्रिायों के बीच संघियों की पहुँच है जो ‘बात बिगड़ने पर’ जनता को अपने खाने के दाँत दिखा सकते हैं। फिल्म के बाद मंच व दर्शकों की दूरी को खत्म कर एक सकर्मक विमर्श का दौर चला, जिसमें 25-30 लोगों ने भाग लिया व अपने सुझाव रखे तथा व्यावहारिक कदमों पर बात की।
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के जन्मदिवस (10 फरवरी) पर मोन्ताज फिल्म सोसाइटी द्वारा गौहर रज़ा की फिल्म ‘जुल्मतों के दौर में’ का प्रदर्शन हुआ। यह फिल्म बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविताओं के जरिये जर्मनी में फासीवाद के उदय को दर्शाती है। दिशा छात्र संगठन के सनी ने कार्यक्रम शुरू करते हुये बताया कि हिटलर और फासीवाद का उदय पूँजीवाद के संकट के कारण हुआ, पूँजीवादी संकट के दो विकल्प हो सकते हैं समाजवाद या बर्बरता। सामाजिक जनवादियों का सुधारवाद तथा संशोधनवाद फासीवाद की बैसाखी बन जाता है। भारत मे भी फासीवाद की जड़े जम चुकी हैं, इन्हें एक सही क्रान्तिकारी ताकत ही उखाड़ सकती है। विहान की टोली ने ब्रेष्ट का गीत ‘सभी अफसर उनके’ प्रस्तुत किया। फिल्म के बाद सकर्मक विमर्श में करीब 15 लोगों ने हिस्सा लिया।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012
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