संदीप की कविताएं

स्वप्न की सवारी

सपनों के देश में
आकांक्षाओं की पीठ पर
यथार्थ की जीन में टिकाए अपने पैर
ज़िन्दगी की राह पर
सरपट दौड़ना, चाहता नहीं कौन?
‘आसमान बेधते’ अरुणिम शिखर को
हृदय में बसाना नहीं चाहता है कौन?
मगर
यांत्रिकता की कैद से
आज़ाद नहीं होंगे जब तलक स्वप्न!
स्मृतियों के अपने ही गुंजलक में
भटकेगा मन!
जड़ता नहीं टूटेगी जबतक
अपने ही बिल में
सिमटे रहेंगे स्वप्न!
‘अनुभूतियों का आवेग
उड़ता रहेगा भाप बनकर निरर्थक’
और अचानक एक दिन,
अपने को पाएँगे उस जुलूस में
जो हमारे ही सपनों को हमारे ही हाथों,
ज़िन्दा दफ़नाने की तैयारी में है।

उगो!!

उगो!
उन दिलों में
जहाँ व्याप्त हो
शताब्दियों का घुप्प अँधोरा
गोया, अमावस की रात में
कौंधा गयी हो बिजली-सी
उगो! वहाँ,
जहाँ ज़िन्दगी बन गयी हो
अंतहीन मरुस्थल
उगो ऐसे कि,
जीवन के कलरव से
गुंजायमान हो जाय यह धारा
और आँख से उठ जाये
घने अँधियारे का मोटा पर्दा
उगो!
कि उग जाये
हर दिल में उगने का साहस!
उगो ऐसे कि
उगा न हो कभी कोई जैसे
और बन जाओ मिसाल
अगली पीढ़ी के उगने वालों के लिए।

 

नीतू की कविताएँ

मुझे अगले शहर जाना है

आप पूछते हैं
नया शहर कैसा लगा?
अच्छा या बुरा?
दरअसल सभी शहर
एक जैसे ही होते हैं
बड़े-बड़े
छोटे-छोटे
कड़वे-मीठे
कभी तेज रोशनियाँ
कभी अंधेरे का आग़ोश
कभी शोर–भरी आवाज़ें
कभी चुप, ख़ामोश
तेज़ चलती मशीनें और आदमी धीमा
सभी शहर एक जैसे होते हैं

 

जैसे-जैसे मेरे कदम,
उस शहर में बहने लगते हैं,
दिन और रात टकराने लगते हैं
मेरी बागी साँसों की हवा
वहाँ की हवा में घुलने लगती है
वहाँ के लोग मुझे
निकाल देने पर तुलने लगते हैं
कानों कान कानाफ़ूसी होती है
आँखों आँख मेरी जासूसी होती है
मेरे पहुँचने से पहले
हर दहलीज़ के आगे
प्रश्नचिन्ह
या
ताला लगा होता है
और मैं सोचती हूँ
ऐसी दहलीज़ से लौट जाना ही अच्छा होता।
मगर हर शहर में
कोई बाँह पकड़ लेने वाला होता है
‘‘छोड़कर न जाओ’’
कहने वाला होता है
मैं नहीं रुकती
चल पड़ती हूँ
और कहती हूँ
“मुझे अगले शहर जाना है”
वहाँ भी दिन और रात को
आपस में टकराने लगना है
वहां भी हवा को बागी बनाना है
घण्टाघर की घड़ी को
वक्त का अहसास कराना है
मुझे अगले शहर जाना है।

हाथों के होने का जश्न

हाथों को देखते,
पालते,
और सहलाते लोग
कभी नहीं मनाते
हाथों के होने का जश्न
मगर,
हाथों को हिलाते,
पत्थरों से टकराते
लकीरें मिटाते लोग
अक्सर ही मनाते हैं
हाथों के होने का जश्न।
वे हाथों को देख आँसू बहाते,
सिगरेट जलाते
रोटी का निवाला मुँह में डालते
तकिये की जगह
हाथों को सिर तले रखकर सो जाते
और अक्सर ही मनाते,
हाथों के होने का जश्न।

 

बेबी की कविताएं

प्रेमचंद से

आओ प्रेमचंद मेरे गाँव
शोर मच रहा ठाँव-ठाँव
चल रहे कुछ ऐसे दाँव
कुम्हला रही निमिया की छाँव
तुलसी से छूटा अपना गाँव।
आओ प्रेमचंद मेरे गाँव।।

 

सड़क किनारे नित दम तोड़ें
होरी के अरमान निराले
उनकी बढ़ती जाए थाती
हमारे रोटियों के भी लाले
शंकर पर नित बढ़ते जाते
सूदखोरों के दबाव
आओ प्रेमचंद मेरे गाँव।।

 

अब भी घीसू वहीं जी रहा
जीते जी है जहर पी रहा
ज़िद करता है अब भी बेचन
पटक-पटक कर पाँव।
बिन कंबल ही झेल रहा है
हलकू अब भी पूस के दाँव
आओ प्रेमचंद मेरे गाँव।

सोचती हूँ

सोचती हूँ। किनारे बैठ लहरें गिनने से अब

तौबा करूँ।
तैरने के नाम पर तर्क करने से अब तौबा करूँ।
डाल दूँ ये नाव अपनी, दो-दो हाथ करूँ तफ़ूानों से,
अथाह सागर की गहराइयों पर उलझने से अब
तौबा करूँ।
रात की काली नदी के पार है सूरज का डेरा,
जानती हूँ!
फ़िर तो रात की कठिनाइयों से डरने,
झुंझलाने से मैं तौबा करूँ।
चाँद, तारे, बहारों के किस्से कह-सुन लिए बहुत
सोचती हूँ धूप की, कुछ धूल की बातें करूँ।
ये फ़ूल जो हैं हँस रहे और पत्तियाँ है हरी
जिनकी बदौलत
उस सर्वव्याप्त भूमिगत जड़-मूल की बातें करूँ।
गति ही जीवन है और रुकना मौत है, जानती हूँ!
तो फ़िर क्यों रुकूँ मैं? क्यों न आगे बढ़ चलूँ
कुछ और नया ढूँढ़ लूँ।
सोचती हूँ! गूँज रही जो चीख है उस पर लिखूँ,
अमन, शान्ति, चैन पर लिखने से अब तौबा करूँ।
सोचती हूँ! छेड़ दूँ एक राग ऐसा तोड़ दे जो
मौन को, इस मौत-सी खामोशी को,
प्राण, मन सुला दे ऐसे साज़ से तौबा करूँ।
आँखों में लेकर सपने मैं अब आगे बढूँ,
कुछ देर रूककर बैठकर आराम अब मैं क्यों करूँ?

 

पवन की कविता

कोयला

कोयला काला
कितना बेढंगा कितना खुरदरा
सदियों से दबा-कुचला
सख़्त-कठोर
लिए सुनसान चुप्पी
भूरा और घुटा
लेकिन अब इसके
सुलगने के दिन हैं
वे जो कल तक
इसे खेतों से उठाकर
राजधानियों में भरते रहे
रोज़ाना हज़ारों की तादाद में
इसे मालगाड़ियों में ठूँस कर
शहरों के प्लेटफ़ार्मों पर पटकते रहे
इसकी हडि्डयों के पराक्रम
को ईंधन के रूप में अपने कारखानों की
भट्ठियों में झोंकते रहे
इसी के गर्म लहू की ऊष्मा से
इसी को निचोड़ने के औजार गढ़ते रहे
आज इसकी आँच में उनके
पिघलने के दिन हैं
वाष्पित होने के दिन हैं
देर है तो बस
इस काले-बेढंगे-खुरदरे
कोयले तक
चिन्गारी पहुँचने की!

 

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स, जुलाई-सितम्‍बर 2005

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