विज्ञान और तर्क के उत्कट योद्धा – एच. नरसिम्हैया (1920–2005)
विश्वविद्यालयों में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं जो अपनी जवानी में आन्दोलनों में भाग ले चुके हों, जेल जा चुके हों, लेकिन जो अब यह कहते मिल जाएँगे, “अजी हमने भी सिद्धान्त का झोला बहुत ढोया है, आदर्श की ढफ़ली खूब बजाई है, इससे कुछ नहीं मिलता।” ऐसे लोग आज भरा टिफ़िन लेकर दफ्तर जाते हैं और खाली टिफ़िन बजाते वापस आ जाते हैं और वे इससे काफ़ी सन्तुष्ट हैं। लेकिन एक नस्ल ऐसे लोगों की भी होती है जो एक बार किसी सिद्धान्त और तर्क को अपनाते है तो जीवनपर्यन्त उसी के लिए जीते हैं। ऐेसे ही एक व्यक्ति थे बंगलोर विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति एच. नरसिम्हैया।
31 जनवरी, 2005 को लम्बी बीमारी के बाद नरसिम्हैया का निधन हो गया। वह अपनी आखिरी सांस तक युवा रहे। तर्कसंगतता, वैज्ञानिकता और शिक्षा के प्रति उनकी वचनबद्धता कभी नहीं चुकी। विज्ञान और तार्किकता को उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। वह सदा संजीदगी और सादगी से जिए। उनकी मृत्यु पर उनके छात्रों, स्कूली बच्चों जिनके बीच वह रहते थे, और उनके मित्रों के बीच शोक की लहर दौड़ गई। वे सभी इस व्यक्ति की आखिरी झलक के लिए आए जिसने उन्हें यह पूछना सिखाया था– क्यों?
नरसिम्हैया का बचपन ग़रीबी में बीता था। ग़रीबी के कारण वे आठवीं के बाद नहीं पढ़ सके। मगर उनके हेडमास्टर ने पढ़ने के लिऐ उन्हें बंगलोर बुलाया शिक्षा के प्यासे नरसिम्हैया दो दिन पैदल चलकर बंगलोर पहुँचे। 1935 में उन्होंने नेशनल हाईस्कूल में दाखिला लिया और पुअर बायज़ होम में रहने लगे। 1936 में वह गांधी से मिले और तब से अपनी अंतिम सांस तक उन्होंने खादी पहना, लेकिन आर्थिक कारणों से। उनका कहना था कि मेरे ऐसा करने से एक गरीब गाँववाले को रोटी मिलती है। उन्होंने भौतिक विज्ञान से स्नातक और स्नातकोत्तर किया। फ़िर उन्होंने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’’ में भाग लिया और जेलयात्राएँ भी कीं। 1945 में उन्होंने लेक्चरर के रूप में नेशनल कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया जो लम्बे समय तक उनका घर बना रहा। वह बंगलोर विश्वविद्यालय के दो बार कुलपति बने।
लेकिन आज के समय एच. नरसिम्हैया की जो बात उनके प्रति हर युवा हृदय को सम्मान और आभार से भर देती है वह है धर्मांधता, अंधविश्वास, ढकोसलों, और पाखण्ड के विरुद्ध उनके द्वारा लड़ी गई लड़ाई। आज जब किस्म-किस्म के बाबाओं, संतों और अम्माओं का घटाटोप छाया हुआ है, धर्मांध शक्तियाँ तर्क की हत्या कर डालने को आमादा हैं और आज के युवा तक भटककर इन ढकोसलों और पाखण्डियों के चक्कर में फ़ँस रहे हैं, तो नरसिम्हैया की महानता उभरकर सामने आती है। उन्होंने तमाम धार्मिक पाखण्डियों और ओझाओं का पदार्फ़ाश किया था। बंगलोर विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में 1976 में उन्होंने चमत्कार व अंधविश्वास जाँच समिति बनाई और इसके सामने अपने चमत्कारों को साबित करने के लिए साईं बाबा को बुलाया था, जिसे साईं बाबा ने अस्वीकार कर दिया, जिसके कारण को समझा जा सकता है। 1967 में उन्होंने बंगलोर साइंस फ़ोरम की स्थापना की। वह हमेशा छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टि और तार्किकता को प्रोत्साहित करते रहे। उन्होंने अगणित छात्रों को अंधविश्वासों से मुक्त कराकर वास्तव में एक पीढ़ी निर्माता का काम किया।
तर्क और विज्ञान के अतिरिक्त वह जनवाद के प्रति भी समर्पित थे। उन्होंने छात्रों के विरोध के अधिकार का सम्मान और समर्थन किया। नरसिम्हैया हर प्रकार के कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ थे। जब कुछ छात्रों-शिक्षकों ने बांग्लादेश युद्ध के पहले अमेरिका के जहाजी बेड़े के बंगाल की खाड़ी में आने का समर्थन करने पर कानूनविद नानी पालकीवाला के समक्ष विरोध प्रदर्शन किया तो विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ने नरसिम्हैया को इन छात्रों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई करने के लिए पत्र भेजा जो उस समय नेशनल कॉलेज के प्राचार्य थे। नरसिम्हैया ने वह पत्र फ़ाड़ डाला और कहा कि अपना विरोध दर्ज कराने का अधिकार छात्रों को है और इस मामले में तो यह बिल्कुल जायज़ विरोध है।
आज जब बुद्धिजीवियों में मौकापरस्ती, पद-पुरस्कार की भूख भरी हुई है तो सादा और सिद्धान्तनिष्ठ जीवन बिताने वाले नरसिम्हैया एक मिसाल हैं – एक ऐसे बुद्धिजीवी की, जो हमेशा युवा रहे और जिन्होंने हमेशा पाखण्ड और ढोंग के विरुद्ध तर्क, सत्य और विज्ञान का पक्ष लिया। तार्किकता के इस महान सिपाही को हमारा आखिरी सलाम।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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