“पैदा इुई पुलीस तो इबलीस ने कहा…”
प्रसेन, दिल्ली
सन् 1861 में भारतीय पुलिस के जन्म पर एक शायर ने तुक मिलाया थाः “पैदा हुई पुलीस तो इबलीस ने कहा, लो आज हम भी साहिबे-औलाद हो गये।” उस शायर के इस शेर की रोशनी में, अंग्रेज़ी पुलिस के कारनामों को देखें और आज़ादी के बाद भारतीय पुलिस के कारनामों को देखें तो साफ़ तौर पर ज़ाहिर होगा कि इबलीस (शैतान) के इस पूत के लिए कुछ और ही उपमा ढूँढनी पड़ेगी। यह उन हदों को कब का पार कर गया है। आये दिन पुलिस-उत्पीड़न, हिरासत में हत्या, हिरासत में बलात्कार की घटनायें जिस तरह से बढ़ी हैं वह पुलिस की हैवानियत में भारी वृद्धि का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। और ये घटनायें सिलसिलेवार लहरों जैसी चलती रहती हैं –अभी यहाँ थोड़ी देर बाद वहाँ…-। यहीं राजधानी दिल्ली में (जहाँ हर एक चौराहे पर बोर्ड लगा मिलता है “दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में’’) 15 मार्च को एक मज़दूर की पुलिस हिरासत में मौत और इस पर हुए जनविरोध के दमन, का मामला ठण्डा भी नहीं हुआ था कि अगले ही दिन 16 मार्च को शाहदरा में एक वृद्ध ट्रक-ड्राइवर को उल्टा टाँग कर पीट-पीटकर मार दिया। बाकी सरकारी आँकड़ों से भी देखें तो प्रतिदिन 4 मौतें हिरासत में होती हैं और पता नहीं कितनी मौतें ऐसी हैं जिनका कुछ पता ही नहीं लग पाता। इन सब घटनाओं से पुलिस की छवि लोगों में किस तरह की है, यह इसी बात से ज़ाहिर हो जाता है कि उनके सामने “पुलिस” का नाम लेते ही हिकारत से उनके चेहरे सिंकुड़ जाते हैं।
शैतान के गर्भ से पैदा होने वाला तो शैतान जैसा चरित्र लेकर ही पैदा होगा। परन्तु आम घरों के बच्चे तो एक साधारण इंसान की तरह पलते-बढ़ते हैं। लेकिन जब वे पुलिस के मुलाजिम बनते है तो उनमें इन्सानियत ख़त्म होती है और यह खुद-ब-खुद नहीं होता। व्यवस्था योजनाबद्ध ढँग से उन्हें ऐसा बना देती है। यह व्यवस्था पैसों पर टिकी है और थोड़े से धन्नासेठों और मुनाफ़ाखोरों के लिए बनी है। आम घरों से जाने वाले नौजवानों के कन्धों पर जिस दिन पुलिस का बिल्ला लगाया जाता है उसी दिन से उन्हें ऐसे माहौल में रखा जाता है जो उन्हें लोगों के दुःख-दर्द और परेशानियों से उदासीन बनाना शुरू कर देता है। और पूरी ट्रेनिंग के दौरान यही बात उनके दिलो-दिमाग़ में ठूँस– ठूँस कर भरी जाती है कि जनता यानी भेड़-बकरी। हाँ! दो मुख्य कामों में बहुत ही एहतियात और सावधानी बरतने की बात कदम-कदम पर बतायी जाती है। पहली, कि धन्नासेठों और विशिष्ट जनों की देखभाल करना। दूसरी, आला अधिकारियों की जेबें गरम करने में कत्तई गड़बड़ी न करना। उनकी पदोन्नति इत्यादि का रास्ता यहीं से होकर जाता है। हर थाने से पुलिस के आला अधिकारियों को जाने वाले फ़िक्स रक़म के लिए इन्हें हर तरह के कुकर्म करने पड़ते हैं। लोगों को मार-पीट कर, फ़र्जी मुकदमा गढ़कर, धमकाकर अनेकों तरीकों से ये पैसे वसूल करने होते हैं। अब पुलिस के आला अधिकारी भी बेवकूफ़ तो होते नहीं! वो अच्छी तरह जानते हैं कि जब पुलिस के मामूली सिपाहियों को खुद के लिए लूटने को नहीं मिलेगा तो उनमें असन्तोष बढ़ेगा। इसलिए उस फ़िक्स रकम के बाद इस बात की अलिखित छूट रहती है कि वो अपने लिए भी पैसा बना सकें। अब रुपये तो किसी को काटते नहीं। इस मँहगाई बदहाली के दौर में, अन्य सरकारी महकमों की तरह पुलिस महकमे के मुलाजिमों की स्थिति भी बेहाल ही रहती है। इससे उनमें सहज ही यह तर्क पनपता है कि जब साहब के लिए लूट रहे हैं तो अपने लिए लूटने में क्या बुराई? और धीरे-धीरे यह हवस बढ़ती जाती है, जो कि ऊपर वालों की देन होती हैं। इन परिस्थितियों में ईमानदार बनने की बात सोचना भी असम्भव है और जो ‘‘जनसेवा के जोश’’ में है उसको बर्खास्त कर दिया जाता है या बिना पदोन्नति के सड़ाकर ठिकाने लगा दिया जाता है। तो शुरुआत में ऐसे तमाम युवा जिनके हृदय के कोटरों में ईमानदारी, संवेदनशीलता होती है, वह परिस्थितियों के दुर्भाग्यपूर्ण अंधकार में दम तोड़ देती है। और धीरे-धीरे यह भाव पनप जाता है “अपना काम बनता-भाड़ में जाये जनता“। संवेदनशीलता की जगह वहशीपन और संवेदनहीनता ले लेती है। लोग पुलिस की कारगुजारियों से परेशान रहते हैं। लोग इन्हें गाली देते फ़िरते हैं। इससे ये लोगों के प्रति खीजे रहते हैं। साहब की डाँट-फ़टकार, अन्य समस्यायें इन्हें चिड़चिड़ा बना देती हैं। और जब पुलिस उत्पीड़न के खिलाफ़ लोगों का क्षोभ फ़ूटता है तो पिटते भी ये मामूली सिपाही ही हैं। मामला अधिक बढ़ने पर लाइनहाज़िर या सस्पेण्ड भी ये आम पुलिसकर्मी ही होते हैं। साहब तो साफ़-साफ़ निकल जाते हैं। यहाँ यह कहावत कि ‘‘गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है’’ उल्टी हो जाती है। घुन तो पिस जाता है पर गेहूँ साबुत बचा रहता है। अब आम पुलिसकर्मी यह गुस्सा साहब पर तो निकाल नहीं सकते। तो वह लोगों पर निकालते हैं। जिसका नतीजा यह होता है कि जनता तथा पुलिस के बीच की खाई चौड़ी होती है।
ऐसा नहीं है कि पुलिस का यह चरित्र अनजाने में या लापरवाही से बना हो। पुलिस प्रशिक्षण बनाया ही इस तरह गया है जो पुलिस को अमानवीय, जनता से कटा हुआ बना देता है। इससे व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ अठाने वालों पर दमन का डण्डा चलाने में कोई व्यवधान नहीं पड़ता। पुलिस जनता के लिए सत्ता का प्रतीक होती है। पुलिस का आतंक मतलब सत्ता का आतंक। और यही आतंक कायम रखने के लिए पुलिस का अमानवीकरण किया जाता है।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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