जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ जनकवि हूँ मैं साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ
आशीष
यह वर्ष बाबा नागार्जुन का जन्मशताब्दी वर्ष है। यह अवसर एक फक्कड़, यायावर, परम्परा के जनकवि को स्मरण करने का अवसर है। एक ऐसा कवि जो कविता में ही नहीं बल्कि दैनन्दिन जीवनचर्या में भी जनता के बीच ही घुला-मिला रहा, सत्ता-प्रतिष्ठान की चाकरी से दूर ही रहा। आज नागार्जुन का स्मरण हम ऐसे विचित्र दिक्काल में कर रहे हैं, जब साहित्य जगत में सत्ता की दुन्दुभि बजाने वालों का बोलबाला है। दरबारी कवियों की बाढ़ आयी हुई है। ख़ासकर हिन्दी जगत में तो अजीबोग़रीब नमूने देखने को मिल रहे हैं। बेलगाम नौकरशाह लिक्खाड़ों की उग आयी नयी-नयी जमात कविता, कहानी लिखने के साथ ही हुक्मऊदीली करने वालों के खि़लाफ फरमान जारी करती नज़र आती है। विभूतिनारायरण राय और डीजीपी विश्वरंजन इस जमात के बिल्कुल तरोताज़ा उदाहरण हैं। ये सत्ता प्रतिष्ठानों की विरुदावली गाने के लिए बड़े-बड़े आयोजनों का प्रबन्धन करने के साथ पुरस्कारों की रेवड़ियाँ बाँटने में लगे हैं।
वहीं दूसरी तरफ ऐसी साहित्यिक हस्तियों की नस्लें बढ़ती जा रही हैं जो सत्ता प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द गणेश परिक्रमा करते हुए ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। गिनती करने पर ऐसों की संख्या कम ही है जिनकी रीढ़ अभी भी अपनी जगह पर बरकरार है। वज़ीफाख़ोरी की लालसा में कितने तो अपनी रीढ़ ही गवाँ बैठे हैं। ऐसे समय में नागार्जुन जैसे कवियों का स्मरण बेहद ज़रूरी हो जाता है। प्रगतिशील धारा के जिन तीन कवियों की तिकड़ी को एक साथ याद किया जाता है, उनमें त्रिलोचन, केदानाथ अग्रवाल के साथ नागार्जुन का नाम प्रमुख है। नागार्जुन को साधारण जनों की भाषा का कवि कहा जाता है।
नागार्जुन का जन्म सन् 1911 में दरभंगा (बिहार) जिले के एक गाँव तरौनी में हुआ था। उनके बचपन का नाम वैद्यनाथ मिश्र था। कट्टर सनातनी परिवार में जन्मे वैद्यनाथ मिश्र का बचपन बेहद अभाव और ग़रीबी में बीता। कदाचित बचपन से झेले गये दंश का नतीजा ही है कि आगे चलकर उनकी कविता में दुखी-दरिद्र वर्ग के प्रति पक्षधरता और पाखण्ड, अन्धविश्वास के प्रति नफरत बेहद मुखर होकर सामने आते हैं। नौजवानी में वे सामाजिक रूढ़ियों के परम्पराओं के बोझ को उतार फेंकते हुए अनास्थामूलक बौद्ध दर्शन के नज़दीक आते हैं। यहीं पर उनका नामकरण बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के नाम पर नागार्जुन हुआ। इसके बाद यह यात्री सतत् गतिमान रहा। इसकी यायावरी वृत्ति आजीवन नहीं छूटी।
नागार्जुन की पहचान एक कवि, कथाकार, उपन्यासकार, यायावर, फक्कड़ आदि रूपों में हैं। ठेठ देशज भाव-भंगिमा वाला ऐसा कवि जिसका मजमा ज़माने में किसी से सानी नहीं है। वाचिक-परम्परा का एक ऐसा कवि जो अपने जनों में यूँ घुल-मिल जाता है, जहाँ से उसे अलग करके देखना मुश्किल है। एक अनभिजात्य, अकुलीन परम्परा का आधुनिक कवि जो संस्कृत का मर्मज्ञ है, परन्तु जनभाषा में काव्य रचना करता है। ऐसी भाषा में जो साफ-साफ सबकी समझ में आये। घुमाफिराकर, गोल-मटोल भाषा में शब्द चातुरी करना जिसकी फितरत नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह मुलायम, फेनगुलासी भाषा में रचता और बाँचता है। नहीं, नागार्जुन ने भाषा की भूमि पर बेहतर तोड़-फोड़ किया। तमाम भाषाओं के शब्द उनकी कविताओं में गुंजायमान होते हैं। लेकिन वे साधारण आदमी की जुबान को तेज़ धार देने का काम करते हैं। अपनी कविता के माफर्त वे कभी-कभी शोषकों को धिक्कारते हैं तो कभी चुटकी लेते नज़र आते हैं। उनकी कविताएँ एकतरफ परम्परा-भंजक, परम्परान्वेषी हैं तो दूसरी तरफ क्रान्तिकारी, प्रयोगशील और आधुनिक हैं। परन्तु इन सबमें उनकी कविताओं का जो मूल-स्वर है, वह है व्यंग्य-मिश्रित राजनीतिक कविताओं का। उनकी तमाम कविताओं का अधिकांश व्यंग्य-मिश्रित राजनीतिक कविताएँ ही हैं। जिसका व्यंग्य ज़्यादा मारक और चुटीला है। जो सत्ताकामी तबके को तिलमिला देता है। सीधी चुनौती की भाषा। नामजद इन्दराज़ी करते हुए गद्दीनशीनों का अगर किसी कवि ने मखौल उड़ाया है तो उसमें बिलाशक पहला नाम नागार्जुन का होना चाहिए बतौर नमूना –
इन्दू जी, इन्दू जी
क्या हुआ आपको
सत्ता की मस्ती में भूल गयी बाप को
क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?
नव राष्ट्र की नवदुर्गा है
नये ख़ून की प्यासी
नौ मन जले कपूर रात दिन
फिर भी वही उदासी।
नागार्जुन की काव्ययात्रा काफी विराट फलक लिये हुए है। बहुआयामी रूपों में वो हमारे सामने प्रकट होते हैं जिन पर विस्तार से बात कर पाना इस छोटे-से लेख में कदापि सम्भव नहीं है। तथापि हम विस्तार में जाने का लोभ संवरण करते हुए इतना ज़रूर कहेंगे कि उनकी कविताओं में, वे चाहे प्रकृति को लेकर हो या, अन्याय के विषयों पर लिखी गयी हों, सामाजिक असमानता, वर्ग-भेद, शोषण-उत्पीड़न, वर्ग-संघर्ष कभी भी पटाक्षेप में नहीं गया। बल्कि वह खुरदरी ज़मीन सदैव कहीं न कहीं बरकरार रही है, जिस परिवेश में वह कविता लिखी जा रही है। यही सरोकारी भाव नागार्जुन को जनकवि का दर्जा प्रदान करती है।
उनकी चर्चित कविता पुस्तकों में हज़ार-हज़ार बाँहोंवाली, युगधारा, भस्मांकुर, प्यासी पथराई आँखें, सतरंगों पंखों वाली, आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा कुछ लघु-पुस्तिकाएँ जैसे ‘अब तो बन्द करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन’, ‘चना ज़ोर गरम’, ‘प्रेत का बयान’ की भी काफी चर्चा रही है। नागार्जुन की गद्य कृतियों में रतिनाथ की चर्चा, वरुण के बेटे, बाबा बटेसरनाथ आदि ऐसी कृतियाँ हैं जिसमें सामाजिक वैषम्य, कुरीतियों, अन्धविश्वासों के विरुद्ध जागृति का भाव है। इसमें यथास्थिति की शाब्दिक अभिव्यंजना नहीं बल्कि परिवर्तनकामी चेतना से लैस साधारण जनों का शब्द चित्रण है।
और अब अन्त में कुछ ऐसी बातें जिनकी चर्चा किये बग़ैर नागार्जुन की सम्यक विवेचना पूरी नहीं होगी। जैसे भारत-चीन युद्ध या जे.पी. आन्दोलन में उनकी भूमिकाएँ देखकर उन पर यह भी आरोप लगे कि उनकी विचाराधारा का पेण्डुलम दृढ़ नहीं था, काफी दोलायमान था। इसमें सत्यांश भी है कि उनके चिन्तन में विचारधारात्मक स्पष्टता की कुछ कमी है। लेकिन इसका कारण कोई मौकापरस्ती, सत्तालोलुपता, पुरस्कारलोलुपता या कोई पतन नहीं था। इसका कारण यह था कि वे जनबहाव के आगे अपने आपको रोक नहीं पाते थे। वैचारिक स्पष्टता, दार्शनिक प्रतिबद्धता और आलोचनात्मक विवेक ऐसे में कई बार पिछली सीट पर चले जाते हैं और जनता का उभार रचनाकार को बहा ले जाता है। इसलिए कलात्मक रचनाकर्म करने वाले के समक्ष यह एक बहुत बड़ा कार्यभार होता है कि वह अपनी दार्शनिक-राजनीतिक पक्षधरता और स्पष्टता को तीखा से तीखा बनाये और साथ ही उसे भी जिसे मुक्तिबोध ने आलोचनात्मक विवेक कहा है। नागार्जुन में इस तत्त्व के कमज़ोर पड़ जाने को हम कुछ मौकों पर देख सकते हैं। अगर जनता सड़कों पर है, संघर्षरत है तो सदैव उनके बीच होना वे अपने कविकर्म की शर्त समझते थे। वे कुछ छुपाते नहीं थे, कुछ छुपाने की ज़रूरत भी नहीं थी। क्योंकि उनके सामाजिक जीवन और व्यक्तिगत जीवन में कोई फाँक नहीं थी। ऐसे में उनकी प्रतिबद्धता पर कोई सवाल नहीं खड़ा कर सकता था। दरअसल सन् 74 में जय प्रकाश नारायण जब जनाक्रोश की पीठ पर सवार ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ की डुगडुगी बजा रहे थे, तो उस झाँसे में नागार्जुन भी आ गये। न सोचा, न विचारा कूद पड़े आन्दोलन में। गिरफ्तारी हुई। जेल गये। लेकिन जब उन्हें अपने ठगे जाने का अहसास हुआ कि वे तो बुर्जुआ वर्ग के एक धड़े द्वारा बतौर बटखरा इस्तेमाल कर लिए गये, कि ‘यह क्रान्ति नहीं यह तो भ्रान्ति है’। अपनी ग़लती को स्वीकारने में उन्होंने कोई हीला-हवाली नहीं की। और इस ‘खिचड़ी विप्लव’ की जमकर खिंचाई भी की। नागार्जुन की यही विशेषता उन्हें औरों से अलगाती है। तमाम भूलों, चूकों के बावजूद इस कवि की जनता पर आस्था कभी डगमगायी नहीं। ‘जन संग ऊष्मा’ से कभी भी दूर नहीं हुआ वह। जनता की आन्तरिक शक्ति एवं आस्था पर उन्हें अटूट भरोसा रहा। ‘शासन की बन्दूक’ में दहशत के बीच भी आस्था का स्वर मन्द नहीं होता, अपितु दमन से जूझने का हौसला देता है –
खड़ी हो गयी चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट सी शासन की बन्दूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गयी शासन की बन्दूक
बढ़ी बधिरता दस गुनी बने सन्त जन मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बन्दूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गयी अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगे शासन की बन्दूक
जली ठूँठ पर बैठकर गयी कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सका शासन की बन्दूक।।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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