स्वयं एक भ्रष्टाचार है पूँजीवाद
सम्पादकीय
पिछले दो माह और विशेष रूप से नवम्बर, देशभर में अब तक के सबसे बड़े घोटालों के पर्दाफाश के महीने के रूप में जाना जायेगा। कॉमनवेल्थ खेलों में 80 हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम का पौने दो लाख करोड़ रुपयों का घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसायटी का घोटाला और कर्नाटक में मुख्यमन्त्री येदियुरप्पा द्वारा अपने परिवार के सदस्यों को ज़मीनें देने के घोटाले (जिनकी कीमत का मूल्यांकन अभी चल ही रहा है, लेकिन दावे से कहा जा सकता है कि ये भी कई हज़ार करोड़ रुपये के घोटाले हैं) मीडिया में छाये हुए हैं और मध्यवर्ग के बीच चर्चा का विषय बने हुए हैं। इन घोटालों की कुल कीमत भारत के कुल बजट का करीब 50 फीसदी तक है। ये घोटाले अपने परिमाण और आकार में पहले के घोटालों से कहीं बड़े हैं। निश्चित रूप से देश तरक्की कर रहा है!
हमेशा की तरह इस बार भी इन घोटालों पर कुछ समय के लिए हल्ला मचेगा, मध्यवर्ग में थोड़ी सिहरन भरी चर्चाएँ होंगी, चुनावी पार्टियों का ‘तू नंगा-तू नंगा’ का बेशर्म शोर मचेगा, संसद और विधानसभा की कार्यवाहियाँ कुछ दिनों के लिए ठप्प पड़ी रहेंगी और फिर सबकुछ सामान्य रूप से चलने लगेगा। किसी को कोई सज़ा नहीं मिलेगी। आज तक किसी भी नेता को भ्रष्टाचार के लिए जेल नहीं जाना पड़ा है। वास्तव में सभी चुनावी पार्टियाँ अपने-अपने भ्रष्टाचारी नेताओं को बचाने में लगी हैं। यही कारण है कि येदियुरप्पा जैसे भ्रष्टाचारी खुलेआम राष्ट्रीय मीडिया में बयान देते हैं कि उन्होंने जो किया, वह तो हर मुख्यमन्त्री करता है! और भाजपा येदियुरप्पा की सफाई से सन्तुष्ट हो जाती है। ताज्जुब भी क्यों करें, जब कैमरे के सामने भ्रष्टाचार करते पकड़े गये उसके नेता बंगारू लक्ष्मण और दिलीप सिंह जूदेव अभी भी भाजपा के सम्मानित नेता बने हुए हैं। कांग्रेस भी कोई अलग नहीं है। उसका हाल भी ऐसा ही है। जनतन्त्र का खेल जारी रखने के लिए कुछ समय हल्ला तो मचाना ही पड़ता है। लेकिन अब जनता भी जानती है कि कुछ दिन तक इस मुद्दे पर उछल-कूद मचाने के बाद सभी चुनावी नेताओं को अगले घोटाले की तैयारी में लग जाना है। मध्यवर्ग के लिए तो यह अब कोई मुद्दा भी नहीं रह गया है। इसका कारण यह भी है कि मध्यवर्ग का एक विचारणीय हिस्सा अब स्वयं भ्रष्टाचार के लाभप्राप्तकर्ताओं में से एक बन चुका है। इसलिए भ्रष्टाचार उसके लिए एक वक़्त काटने के लिए की जाने वाली या अपना ज्ञान बघारने के लिए की जाने वाली चर्चाओं का मुद्दा तो हो सकता है, लेकिन आमतौर पर उसे अब इस पर कोई क्रोध नहीं आता। यह मध्यवर्ग इस सत्ता के एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक अवलम्ब के तौर पर उभरा है और उपभोक्ता संस्कृति, ऋण वित्तपोषित ख़रीदारी महोत्सव और पैसे की संस्कृति में यह सिर से पाँव तक नहाया हुआ है।
हाल ही में एक अन्तरराष्ट्रीय संस्था ग्लोबल फाइनेंशियल इण्टेग्रिटी ने पाया कि हर वर्ष अरबों डॉलर भारत से घोटाले, काले धन और कर चोरी के कारण बाहर चला जाता है और भारत की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को इसके कारण भारी नुकसान उठाना पड़ता है। यह रिपोर्ट बताती है कि भारत से ग़ैर-कानूनी तरीके से अरबों डॉलर के बाहर जाने की यह प्रक्रिया 1991 के बाद ख़ासतौर पर तेज़ हुई है। आज़ादी के बाद से अब तक गै़र-कानूनी तरीके से विदेश पहुँचे भारतीय धन का 68 प्रतिशत 1991 के बाद गया है। मनमोहन सिंह द्वारा 1991 में लाये गये आर्थिक सुधारों, नवउदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों के बाद से धन के ग़ैर-कानूनी तरीके से बाहर जाने की वार्षिक दर 9.1 प्रतिशत से बढ़कर 16.4 प्रतिशत पहुँच गयी। यह साफ तौर पर दिखलाता है कि निजीकरण और उदारीकरण के बाद भ्रष्टाचार के ख़त्म हो जाने के जो दावे किये गये थे वे पूरी तरह खोखले थे। वास्तव में, पहले भ्रष्टाचार करने वाले अभिकर्ता होते थे राज्य मशीनरी में बैठे नौकरशाह। इस लाइसेंस राज-इंस्पेक्टर राज के ख़ात्मे के बाद सरकार के नीति-निर्माण में पूँजीपति वर्ग का दख़ल अधिक से अधिक प्रत्यक्ष हुआ है। कारपोरेट घराने किस तरीके से सरकार के नीति-निर्माण को निर्धारित कर रहे हैं यह नीरा राडिया के फोन रिकॉर्ड के सामने आने से साफ तौर पर ज़ाहिर हुआ है। और बेशरमी की हद यह है कि टाटा ने इस पर कोर्ट में याचिका दायर की है कि इन टेपों का ज़ाहिर होना उसके निजी क्षेत्र में अतिक्रमण है। इसका अर्थ यह हुआ कि सार्वजनिक नीति-निर्माण को प्रभावित करने की कोशिश करना उसका निजी मामला है। स्पष्ट है कि टाटा का क्या मतलब है! साफ है कि इस भ्रष्टाचार में पूँजीपति वर्ग अब एक प्रत्यक्ष लाभप्राप्तकर्ता बन चुका है। कॉमनवेल्थ खेलों, 2जी स्पेक्ट्रम, आदर्श हाउसिंग सोसायटी के घोटालों में साफ तौर पर देखा जा सकता है कि सरकारी ख़ज़ाने की मोटी-तगड़ी रकम नेताओं और नौकरशाहों के साथ ही कारपोरेट पूँजीपति वर्ग की जेब में भी जा रही है।
यहाँ हमारा मकसद इन घोटालों के आकार-प्रकार का वर्णन करना नहीं है। हम सभी जानते हैं कि हर वर्ष जनता की मेहनत से उपजे खरबों रुपये घोटालों के ज़रिये नेताओं, नौकरशाहों और पूँजीपतियों की जेबों में चले जाते हैं। हम यह भी जानते हैं कि मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से के लिए यह भ्रष्टाचार अब एक स्वीकार्य तथ्य बन चुका है और इसका एक कारण यह भी है कि यह हिस्सा स्वयं किसी न किसी रूप में इस भ्रष्टाचार से फायदा पा रहा है। यहाँ हमारा मकसद दो सच्चाइयों की ओर इशारा करना है।
पहली सच्चाई यह है कि भ्रष्टाचार पूँजीवादी व्यवस्था की नैसर्गिक उपज है। ऐसे किसी पूँजीवाद की कल्पना करना असम्भव है जो पाक-साफ हो। आज स्वामी रामदेव और उनका भारत स्वाभिमान संगठन निम्न मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का आदर्श बन चुके हैं, क्योंकि उनका यह दावा है कि विदेशी बैंकों में भारत के भ्रष्टाचारी नेताओं आदि की जमा अरबों डॉलर की रकम अगर भारत वापस आ जाये तो इस देश की समस्याओं का हल हो जायेगा। यह एक सन्त पूँजीवाद की कल्पना करने जैसा ही है। रामदेव इस देश की पूँजीवादी व्यवस्था पर कहीं कोई सवाल नहीं खड़ा करते। और करें भी क्यों? वह तो स्वयं एक कारपोरेट पूँजीपति बन चुके हैं जो पतंजलि योग संस्थान नामक अपने कारपोरेट घराने से अरबों रुपये पीट रहे हैं और अपने कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों का जमकर दमन कर रहे हैं। ऐसे में वे इस देश के निम्न मध्यवर्ग के नौजवानों और नागरिकों को दिग्भ्रमित करने के लिए यही मुद्दा उठा सकते हैं कि अगर भारत से भ्रष्टाचार के चलते अरबों डॉलर बाहर न जाये तो सबकुछ दुरुस्त हो जायेगा। इस शेख़चिल्ली की योजना पर सिर्फ हँसा जा सकता है। पहली बात तो यह कि ऐसा होने वाला नहीं है। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें हर गतिविधि का प्रेरक मुनाफा कमाना हो, वहाँ भ्रष्टाचार होगा ही। इसके अतिरिक्त, और कोई सम्भावना नहीं है।
दूसरी सच्चाई यह है कि अगर एक बार को यह मान भी लिया जाये कि कोई घोटाला-रहित पूँजीवाद सम्भव है तो भी पूँजीवादी व्यवस्था जिस रूप में मेहनतकश जनता को लूटकर अमीरज़ादों की तिजोरियाँ भरती है, वह एक भ्रष्टाचार है। यह एक ऐसा भ्रष्टाचार है जो पूँजीवादी संविधान और कानून-व्यवस्था द्वारा मान्यता-प्राप्त है। मुनाफा कमाने और पूँजी संचय करना या दूसरे शब्दों में कहें तो निजी सम्पत्ति खड़ी करने का अधिकार पूँजीवादी व्यवस्था के तहत एक मूलभूत अधिकार होता है। निजी मुनाफा कमाने की यह पूरी प्रक्रिया मज़दूरों के शोषण पर आधारित होती है। इसमें मज़दूर समस्त भौतिक सम्पदा का अपनी मेहनत के बूते उत्पादन तो करता है लेकिन उस पर उसका कोई अधिकार या नियन्त्रण नहीं होता है। देश का 80 फीसदी अवाम खेतों-खलिहानों से लेकर कल-कारख़ानों तक में दिनों-रात खटकर अकूत भौतिक सम्पदा का उत्पादन करता है और उसका अधिग्रहण करते हैं कुल आबादी के एक छोटे-से हिस्से का निर्माण करने वाले पूँजीपति। यह पूँजीपति वर्ग इस उत्पादन में कहीं कोई भूमिका अदा नहीं करता। उत्पादन की प्रक्रिया से उसका कोई ताल्लुक नहीं होता। यह एक कूपन काटकर मुनाफा कमाने वाला परजीवी, अनुत्पादक और शोषक वर्ग है। लेकिन इसके बावजूद देश के उत्पादन से लेकर राज-काज और समाज के पूरे ढाँचे पर उसका एकाधिकार होता है। अगर वह कोई हेरफेर या धाँधली न करे तो भी उसकी समूची सम्पत्ति एक भ्रष्टाचार और अन्याय पर टिकी है। वास्तव में इन घोटालों के ज़रिये रफा-दफा की जाने वाली रकम पूरी पूँजीवादी लूट का एक बेहद छोटा-सा हिस्सा होता है। अगर हम कुल उत्पादक निवेश से इसकी तुलना करें तो हम पाते हैं कि यह उसके सामने बेहद मामूली है। इस निवेश के रूप में जो पूँजी ख़र्च होती है वह उसी पूँजी-संचय से आती है जो इस देश के मज़दूरों की मेहनत के बल पर संचित होती है। वास्तव में यह पूँजी और कुछ नहीं है, बल्कि मज़दूरों द्वारा किये गये श्रम का एक वस्तु रूप है (ऑब्जेक्टिफायड लेबर)। लेकिन यह सारी सम्पदा खड़ी करने के बाद मज़दूरों को इसका एक बेहद छोटा हिस्सा गुज़ारे के लिए मज़दूरी या वेतन के रूप में दिया जाता है, जो उसे भुखमरी और कुपोषण की सतत स्थिति में बनाये रखता है और सिर्फ इसलिए जीवित रखता है कि वह पूँजीपति के लिए मुनाफे का उत्पादन जारी रख सके। इस पूरी लूट को पूँजीवादी संविधान और कानून जायज़ और वैध बनाता है। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था स्वयं एक भ्रष्टाचार और अन्याय है।
ऐसे में, सवाल सिर्फ घोटालों को रोकने और भ्रष्टाचार के इस सबसे अभिव्यक्त नंगे रूप को देख लेने का नहीं है। वास्तविक सवाल देखने और समझने का है कि पूँजीवादी व्यवस्था के तहत हम इन घोटालों के ख़ात्मे की कल्पना नहीं कर सकते और दूसरी बात यह कि अगर ये घोटाले न भी होते तो पूँजीवादी व्यवस्था के तहत वैध ठहराया जाने वाला भ्रष्टाचार अपनी जगह पर बना रहेगा। इसलिए केन्द्रीय प्रश्न निजी मुनाफे पर टिकी समूची पूँजीवादी व्यवस्था के विकल्प पर सोचने का है। इस विकल्प की परिकल्पना करने और फिर उसे वैज्ञानिक तरीके से हकीकत में उतारने का कार्यभार आज इस देश के संवेदनशील और न्यायप्रिय नौजवानों और मज़दूर वर्ग के कन्धों पर है। बाबा रामदेव ब्राण्ड कोई भी आदर्शवादी निम्न मध्यवर्गीय सोच हमें पूँजीवाद-रूपी भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं दे सकती। इससे मुक्ति का रास्ता पूँजीवादी व्यवस्था और समाज के विरुद्ध इस देश के आम मेहनतकश अवाम के इन्कलाब के रास्ते जाता है और इसका गन्तव्य स्थान है एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जो जीवन की हर बुनियादी ज़रूरत को पूरा करने वाला वर्ग ही सत्ता पर काबिज़ हो। परजीवी मुनाफाख़ोर जमातों के लिए ऐसी व्यवस्था में कोई जगह नहीं हो सकती। यह एक लम्बा और कठिन रास्ता है। लेकिन यही एकमात्र विकल्प है। किसी किस्म का सुधार या पैबन्दसाज़ी किसी काम नहीं आयेगी। इसलिए देश के समानताप्रिय चिन्तनशील नौजवानों को अभी से ही इस दिशा में सोचना शुरू कर देना चाहिए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर-दिसम्बर 2010
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