प्रेम की आज़ादी के लिए परम्परा से विद्रोह

(प्रस्तुत पुस्तक समीक्षा में साथी रवीन्द्र कुमार पाठक द्वारा प्रस्तुत सभी प्रस्थापनाएँ उनके व्यक्तिगत विचार हैं। हम उनके विचारों से और आलोचनात्मक टिप्पणियों से मोटे तौर पर सहमति रखते हैं, हालाँकि कुछ ऐसे विचार हैं जिन पर सम्भवतः और चर्चा और बातचीत की आवश्यकता है। मिसाल के तौर पर, साथी रवीन्द्र ने इस बात पर आपत्ति की है कि मार्क्‍सवादी अक्सर पूँजीपति को महज़ पुरुष के रूप में देखते हैं, जो किसी ऐसे पूँजीवाद की सम्भावना से इंकार करता है, जिसमें स्‍त्री पुरुष का वस्तुकरण करती हो, या उस पर शासन करती हो। एक सैद्धान्तिक सम्भावना के तौर पर यह सम्भव हो सकता है, लेकिन ऐतिहासिक तौर पर ऐसा हुआ नहीं है। जैसा कि सुवीरा जायसवाल ने अपनी पुस्तक कास्ट में लिखा है, पितृसत्ता वर्ग और राज्य के साथ ही अस्तित्व में आयी है और उसी के साथ समाप्त होगी। पितृसत्ता इतिहास में एक निश्चित सन्दर्भ में, कुछ निश्चित कारणों से पैदा हुई; वर्ग समाज श्रम विभाजन के अधिक सार्वभौमिक और सामान्य रूप के फलस्वरूप अस्तित्व में आया। वर्ग समाज के अस्तित्व में आने के बाद हम हर नये चरण में एक नये किस्म की पितृसत्तात्मकता की बात कर सकते हैं। दास समाज की पितृसत्तात्मकता से सामन्ती समाज की पितृसत्तात्मकता भिन्न थी; ठीक उसी प्रकार जैसे कि सामन्ती समाज में मौजूद पितृसत्तात्मकता से पूँजीवादी समाज की पितृसत्तात्मकता भिन्न होगी। लेकिन एक बात साफ़ है कि हर नये वर्ग समाज ने पितृसत्तात्मक संस्थाओं को अपने संचय की प्रणाली के अनुसार समायोजित और सहयोजित किया। यह एक काउण्टर-फ़ैक्चुअल इतिहास जैसा होगा कि हम किसी ग़ैर-पितृसत्तात्मक पूँजीवाद की बात करें; इसीलिए इसे एक मात्रा सैद्धान्तिक सम्भावना कहा जा सकता है; यथार्थवादी या वास्तविक सम्भावना नहीं। हाइपोथेटिकली, निश्चित रूप से किसी ग़ैर-पितृसत्तात्मक समाज में अगर सारी पूँजी बराबर-बराबर स्‍त्री और पुरुष में बाँट दी जाती तो जेण्डर उत्पीड़न का कोई एक विशिष्ट रूप (जैसे कि पितृसत्तात्मक) ही नहीं मौजूद होता, बल्कि बहुल और वर्णसंकर रूप मौजूद होते। लेकिन अगर आज सारी पूँजी को बराबर-बराबर स्त्रियों में बाँट दिया जाये तो स्त्रियाँ भी पितृसत्तात्मक व्यवहार ही करेंगी। कारण यह है कि पितृसत्ता मात्रा व्यक्ति-आधारित परिघटना नहीं है, बल्कि यह एक व्यवस्थात्मक (सिस्टेमिक) व संस्थागतीकृत (इंस्टीट्यूशनलाइज़्ड) परिघटना है। इसलिए, विक्टोरियन काल का ब्रिटेन स्त्रियों के अधीनीकरण के लिए जाना जाता है; या फिर, मार्गरेट थैचर के प्रधानमन्त्रित्व काल में स्त्रियों की पराधीनता को सशक्त बनाने वाले सबसे अधिक कदम और नीतियाँ अस्तित्व में आये; एक दूसरे सन्दर्भ में, अमेरिका का नवोदित तथाकथित ब्लैक कैपिटलिज़्म (जहाँ मालिक अश्वेत है) भी अश्वेतों के लिए श्वेतों के मुकाबले ज़्यादा शोषणकारी है; क्योंकि पूँजीवाद एक सिस्टेमिक परिघटना के तौर पर अश्वेतों को सामाजिक-आर्थिक संरचना में ज़्यादा अरक्षित बनाता है। बहरहाल, संक्षेप में इतना कहा जा सकता है कि आज स्‍त्री पूँजीपति भी अपनी इच्छा से स्वतन्‍त्र उस सिस्टेमिक गति के अधीन है जो पितृसत्तात्मक चरित्र रखने वाली पूँजीवादी व्यवस्था पैदा करती है। इसलिए, यथार्थवादी और ऐतिहासिक तौर पर देखें तो यह कथन सही है कि पूँजी का चरित्र सामान्य तौर पर पितृसत्तात्मक ही है। अगर का सवाल हमें प्रति-तथ्यात्मक इतिहास (काउण्टर फ़ैक्चुअल हिस्टरी) में ले जाता है और जितने जवाब नहीं देता, उससे ज़्यादा सवाल पैदा करता है। लेकिन हम साथी रवीन्द्र की मूल प्रस्थापनाओं से सहमत हैं और उनके इस योगदान के लिए उन्हें धन्यवाद देते हैं, और साथ ही आगे भी इस बौद्धिक विनिमय को जारी रखने का आग्रह करते हैं। सम्पादक)

कात्यायनी हिन्दी की स्थापित कवयित्री ही नहीं, अत्यन्त सुलझी हुई विमर्शकार भी हैं। उनकी सोच अग्निधर्मी स्पष्टता से भरी है, जो सामाजिक सरोकारों से जुड़ी है। उनकी विचार-शक्ति को द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टि सहयोग देती है, पर उनका विचारक उस से अधिक समाज के प्रति प्रतिब) है। उनकी ताज़ा पुस्तक “प्रेम, परम्परा और विद्रोह” को इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है, जो एक दीर्घ निबन्ध के रूप में लिखी गयी है।

आम धारणा के अनुसार “प्रेम” रूहानी छुअन वाला भाव है, जो इंसान के जीवन की पथरीले डगर में मृदुल उड़ान के पर लगा देता है तथा उसके सोये अस्तित्व को जगाकर, उसे सार्थकता प्रदान करता है। आत्मा को परमात्मा की अनुभूति कराने वाले मानवीय भाव के रूप में भी “प्रेम” बहुधा समझा जाता रहा है। लेकिन, कात्यायनी ने स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि “प्रेम कोई जैविक आवेग, ईश्वरीय वरदान या समाज-निरपेक्ष भावना नहीं होता। प्रेम की अवधारणा सामाजिक वर्गीय संरचना से स्वतन्‍त्र, शाश्वत और विविक्त नहीं होती। जिस प्रकार वर्ग-समाज में जेण्डर एक जैविक तथ्य से भी कहीं अधिक एक ‘सोशल कंस्ट्रक्ट’ है, उसी प्रकार स्‍त्री-पुरुष के बीच का प्रेम भी एक ‘सोशल कंस्ट्रक्ट’ है।” (पृष्ठ 25-26)

“प्रेम” को सामाजिक निर्मिति ठहराने वाली यह व्याख्या निश्चय ही नवीन है। इसका लक्ष्य प्रेमानुभूति में मिलने वाली आत्मिक तन्मयता का निषेध करना नहीं, बल्कि “प्रेम” के चरित्र की ज़मीनी जाँच है। यदि हम ध्यान से देखें, तो “प्रेम” मूलतः एक भौतिक घटना ही है, न कि आकाश से टपक पड़ा कोई ईश्वरीय जल। कारण, जब तक दो लोग (स्‍त्री-पुरूष) मिलेंगे नहीं, साहचर्य में न रहेंगे, तब तक “प्रेम” पैदा ही नहीं हो सकता। प्रेम के जन्म व विकास का पूरा आधार व परिधि-साहचर्य-शुद्ध रूप से भौतिक है। भौतिक परिस्थिति, जिसमें यह घटना घटती है, की विशेषता या उतार-चढ़ाव से “प्रेम” के स्वरूप में भी उतार-चढ़ाव होता है। कात्यायनी भी “सामाजिक-आर्थिक संरचना में परिवर्तन के साथ प्रेम के अवबोध और अवधारणा में परिवर्तन” की बात कहकर इसी तथ्य को लक्षित करती हैं। फिर, प्रेम की बहुकथित आत्मगतता/ आत्मिकता क्या है? वस्तुतः प्रेम की आत्मगतता/आत्मिकता इससे अलग कुछ नहीं है कि वह (प्रेम) अपने बोध में अधिकाधिक सूक्ष्मता एवं दीर्घकालीन स्थिरता का रूप ले चुका होता है।

जैसा कि पुस्तक की “पश्च टिप्पणी” में कहा गया है – गुजरात, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अन्तरजातीय या अलग धर्मों के बीच के रिश्ते में गये प्रेमी युगलों के साथ हिन्दुत्ववादी-फ़ासिस्ट गुण्डों और कबीलाई मानसिकता की पंचायतों की निरंकुश सत्ता द्वारा की गयी नृशंस कार्रवाइयों से उद्वेलित होकर कात्यायनी को इस विषय पर लिखने का विचार आया। अतः पुस्तक की सामयिकता सि) होती है। किन्तु, इसका आशय यह नहीं कि इस प्रकार की कृति केवल भारतीय सन्दर्भ में प्रासंगिक है। पाकिस्तान-अफ़गानिस्तान के साथ कई पिछड़े एशियाई देशों (विशेषत: अरब देशों) में युवा जोड़ों का प्रेम इसी बर्बर अभिशाप का शिकार है। इस सन्दर्भ में भी कृति पठनीय है। साथ ही, इस में “प्रेम” एवं स्‍त्री-पुरुष सम्बन्ध की जो ऐतिहासिक-भौतिकवादी समझ झलकती है, वह इसे दीर्घकालिक-वैश्विक महत्त्व प्रदान करती है।

“प्रेम” व्यक्ति को अस्तित्व बोध कराने वाली भावना है। किसी की एकनिष्ठ-आत्यन्तिक चाहत का केन्द्र बन जाना किसी व्यक्ति को अपने महत्त्व का अहसास कराता है, जिस से दबा-कुचला उसका व्यक्तित्व भी अदम्य जागृति को उपलब्ध होता है। सामाजिक संरचनाएँ इंसानों के व्यक्तित्वों को दबा-मारकर या अनुकूलित करके ही खड़ी होती हैं या अब तक ऐसा रहा है। इसी से कोई प्रेमी ऐसे समाजों के लिए एक ख़तरे से कम नहीं लगता। यही कारण है कि प्रेम करने वालों को अपनी इस प्रकृति-सि) आज़ादी के लिए समाज से विद्रोह करना पड़ता है अथवा ऐसे समाज उनके इस सहज अधिकार-प्रयोग को उनका विद्रोह मान लेते हैं। प्रेमाधिकार के लिए युवा-चित्त के विद्रोह को हार्दिक समर्थन देने के लिए कात्यायनी ने गम्भीर विचार-भूमियों की यात्रा की है। इसके साथ, वे प्रेमियों की राह में रोड़े अटकाने वाली, उन्हें हिंसा का शिकार बनाने वाली संगठित सामाजिक-मज़हबी गुण्डागर्दी के खि़लाफ़, बुद्धिजीवियों को संगठित करने के लिए भी उकसाती हैं।

प्रेम करने को सामाजिक विद्रोह मानने की इस परम्परा के सन्दर्भ में यह भी ध्यातव्य है कि समाज के पितृसत्तामक आक्टोपसी जकड़बन्दी में पड़े होने के कारण, प्रेम करने के अधिकार को कुचलना मुख्यतः स्‍त्री-अधिकार को कुचलने के रूप में ढल जाता है। इसकी पृष्ठभूमि यह है कि ऐसे समाज में स्‍त्री-मुक्ति का एक सशक्त मार्ग स्‍त्री का प्रेम में पड़ जाना भी होता है। समस्त सन्दर्भों के साथ लेखिका का समीचीन प्रतिपादन है कि – “प्रेम की आज़ादी का सवाल रूढि़यों से विद्रोह का प्रश्न है। यह जातिप्रथा के विरु) भी विद्रोह है। सच्चे अर्थों में प्रेम की आज़ादी का प्रश्न स्‍त्री की आज़ादी के प्रश्न से भी जुड़ा है, क्योंकि प्रेम आज़ाद और समान लोगों के बीच ही वास्तव में सम्भव है।” (पृष्ठ 18)

स्‍त्री-पुरुष के प्रेम करने की आज़ादी के प्रश्न को कात्यायनी बुनियादी अधिकार का प्रश्न मानती हैं। उनके मत से प्रेम चूँकि “सोशल कंस्ट्रक्ट” है, इसलिए प्रेम करने की आज़ादी का प्रश्न सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के बुनियादी प्रश्न पर टिका हुआ है। तात्कालिक तौर पर, जातिवादी पंचायतों अथवा तालिबान-श्रीराम सेना आदि कट्टरपन्थी संगठनों की गुण्डागर्दी के संगठित प्रतिरोध में युवाओं के प्रेमाधिकार की रक्षा हो सकती हो, परन्तु यह अनिवार्य कार्यभार बिना आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक ढाँचे में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये स्थायित्व को प्राप्त न होगा। चूँकि प्रेम का अधिकार जातिगत-धार्मिक रूढि़यों से मुक्ति और स्त्रियों की आज़ादी के सवाल से भी अविभाज्यतः जुड़ा हुआ है, इसलिए इस समस्या का हल एक दीर्घकालीन संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में ही सम्भव हैं।

“प्रेम” व स्‍त्री-पुरुष-सम्बन्ध को ऐतिहासिक-सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए लेखिका ने कम्युनिज़्म के सिद्धान्तों का सहारा लिया है। फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक “परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति” को उद्धृत कर वे मानव-विकास के तीन मुख्य युगों के अनुरूप स्‍त्री-पुरुष सम्बन्ध (या विवाह) के तीन रूपों की उपलब्धि की बात रखती हैं – (1) जंगल युग में बहुविवाह (2) बर्बर युग में युग्म विवाह (3) सभ्यता युग में एकनिष्ठ विवाह और उसी से जुड़े व्यभिचार व वेश्यावृत्ति। एंगेल्स की प्रमुख स्थापना यह है कि एकनिष्ठ विवाह/परिवार की अन्तिम विजय या सभ्यता की शुरुआत का एक लक्षण था। पर, एकनिष्ठ परिवार पुरुष-श्रेष्ठता पर आधारित था, जिसमें पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकार के लिए निर्विवाद पितृत्व वाली सन्तान पैदा करना स्‍त्री के लिए ज़रूरी था। यानी, यहाँ एकनिष्ठता का मतलब केवल स्‍त्री की एकनिष्ठता था; पुरुष कितनी भी स्त्रियों से वैवाहिक या विवाहेतर (काम) सम्बन्ध बनाने को स्वतन्‍त्र था। इस संरचना में स्पष्टतः स्‍त्री पुरुष के अधीन तथा वस्तुकृत थी – उसकी वासना-तृप्ति या उसके उत्तराधिकारी पैदा करने की मशीन बनकर। इस रूप में, इतिहास का प्रथम श्रम-विभाजन, वर्ग-भेद, वर्ग-शोषण/ उत्पीड़न स्थापित हुए। इस संरचना का आधार स्‍त्री का सम्पत्ति शून्य होना और पुरुष के हाथों व्यक्तिगत सम्पत्ति का संकेन्द्रित होना था, जिसकी तरफ़ कात्यायनी ने सीधे-सीधे ध्यानाकर्षण न कराया है। एंगेल्स ने सवाल उठाया कि एकनिष्ठ [यानी स्‍त्री की एकनिष्ठता वाले] विवाह का कारणीभूत आर्थिक आधार – व्यक्तिगत सम्पत्ति – नष्ट कर देने अथवा उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व हो जाने यानी, समाजवादी क्रान्ति हो जाने पर वेश्यावृत्ति के ख़ात्मे के साथ क्या एकनिष्ठ विवाह भी मिट जायेगा? इस पर उनका प्रतिपादन है कि वेश्यावृत्ति तो मिट जायेगी, किन्तु “एकनिष्ठ विवाह-प्रथा मिटने के बजाय, पहली बार पुरुषों के लिए भी वास्तविकता बन जायेगी।” (पृष्ठ 31)। इस का कारण इतिहास में आविर्भूत वह नया तत्व है, जिसे “यौन-प्रेम” (सेक्स लव), भावावेगी प्रेम (पैशन लव) या “रूमानी प्यार” कहा जाता है। यह व्यक्तिगत होता है, प्रकृति से ही ऐकान्तिक होता है, इसी से इसके विकास के साथ सच्चे अर्थों में पुरुष-स्‍त्री का एकनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित होगा। सामन्ती युग में “प्रेम” विवाह का कारण नहीं, बल्कि अनुपूरक होता था – पति-पत्नी (पत्नियों) के बीच आभासित प्रेम मनोगत प्रवृत्ति नहीं, वस्तुगत कर्तव्य था। वहाँ, स्‍त्री केवल भोग्या एवं वंश चलाने का निमित्त थी। “विवाह” से विद्रोह करके ही वहाँ “प्रेम” का सही रूप मिल सकता था।

लेखिका के मत से, व्यक्तिगत यौन-प्रेम की अवधारणा पूँजीवादी जनक्रान्तियों की देन है। “पूँजीवाद ने कम से कम प्रेम-विवाह के अधिकार (और प्रेम टूटने पर अलग होने के अधिकार) को मान्यता देने का एक प्रगतिशील काम किया।” (पृष्ठ 36)। किन्तु, जब तक पूँजीवाद का विनाश नहीं होगा तब तक सच्चे प्रेम की प्रतिष्ठा नहीं होगी। एकबारगी यह रोचक असंगति प्रतीत होती है, पर सच्चाई यह है कि बुर्जुआ जनवाद/पुनर्जागरण ने इस प्रेम का आदर्श भले दिया है, परन्तु बुर्जुआ (पूँजीवादी) सामाजिक-आर्थिक संरचना के रहते यह साकार नहीं हो सकता। पूँजीवाद इंसान की इंसान रूप में मुक्ति का दर्शन नहीं है। कात्यायनी कहती हैं कि बुर्जुआ नागरिक आत्म-अलगाव के शिकार होते हैं – भावना, सम्बन्ध आदि हर चीज़ को वस्तु के रूप में देखने की आदत से ग्रस्त होते हैं। इसी से वे प्यार करने में अक्षम होते हैं। पूँजीवाद ने स्‍त्री-पुरुष सम्बन्ध को आर्थिक हितों के अधीन रखा है। स्‍त्री वहाँ पुरुष के अधीन है तथा पुरुष अमानवीयता का शिकार। विवाह के अनुपूरक रूप में वेश्यावृत्ति भी वहाँ है तथा “विवाह” कानून-सम्मत वेश्यावृत्ति बनकर रह गया है। सामन्ती मध्य युग में सर्वहारा स्त्रियाँ यदि सामन्त प्रभुओं (मर्दों) के खुले भोग की वस्तु थीं, तो पूँजीवादी युग में पूँजीपति/कारख़ानेदार (मर्दों) के लिए परदे के पीछे भोग का सामान बनी हुई हैं। इसके अलावा, बुर्जुआ नागरिक का पाखण्ड भी बड़ा है। वह परिवार/विवाह संस्था के आदर्शों का पालन नहीं करता, उसकी वचनबद्धता से पलायन करता हुआ, आपातकालीन निकासद्वार (बदचलनी, नाजायज़ रिश्ते, वेश्यागमन) खोजता रहता है, किन्तु फिर भी परिवार/विवाह संस्था को बनाये रखता है, क्योंकि बुर्जुआ उत्पादन-प्रणाली और उसके आधिपत्य के लिए इसका बना रहना ज़रूरी है। “परिवार ही वह व्यावहारिक बुनियाद है, जिस पर बुर्जुआ वर्ग का आधिपत्य विकसित हुआ। (बुर्जुआ) परिवार की संस्था निहायत व्यावहारिक मसलों पर – आर्थिक मसलों पर टिकी होती है।” (पृष्ठ 43)। पूँजीवादी श्रम-विभाजन उत्पादन में शोषक-शोषित की कोटि बनाता है, उसी प्रकार परिवार में मानवीय पुनरुत्पादन के दायरे में स्‍त्री एवं पुरुष को क्रमशः गुलाम एवं मालिक का दर्जा दे देता है। पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्ध के अन्तर्गत सामाजिक श्रम-विभाजन से जनमे “अलगाव (एलियनेशन)” के मार्क्‍सवादी सिद्धान्त पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए कात्यायनी ने अलगाव का चरम रूप इंसान के व्यक्तित्वहीन (यन्‍त्रीकृत साधन) हो जाने को माना है – जीवनानन्द, प्रेरणा, स्वप्न/कल्पना, प्यार की सम्भावना सबसे विलग पशु, दास या मशीन बनकर रह जाने को माना है। अलगाव का बुनियादी शिकार शारीरिक श्रम करने वाला मज़दूर होता है, परन्तु मानसिक श्रम करने वाले यानी पूँजीवादी उत्पादन-तन्‍त्र के संचालक और पूँजीपति भी अलगावग्रस्त होते हैं। आम इंसान को पूँजीपति चलाता या नचाता है, तो पूँजीपति को “पूँजी” नचाती है। इसी से कह सकते हैं कि पूँजीवादी समाज में सबको अन्ततः “पूँजी” ही नचाती है – उन्हें अलगाव का शिकार बनाती है। वे आत्म-अलगावग्रस्त चेतना से जिसे जीवनोपभोग, आनन्द या प्यार समझते हैं, वह वास्तव में एक विकृत व मिथ्या चेतना ही है। वह स्वयं पूँजी का ही व्यक्ति रूप होता है। इस तरह के प्रतिपादन करते हुए कात्यायनी की भाषा में कहीं-कहीं अधूरापन भी झलक जाता है, यद्यपि उनकी बातें तथ्यपूर्ण रहती हैं। मसलन, वे कहती हैं – “इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि एक बुर्जुआ नागरिक को सबसे अधिक ख़तरनाक स्‍त्री का स्वतन्‍त्र व्यक्तित्व लगता है, पर विडम्बना यह है कि बुर्जुआ उत्पादन-प्रणाली की स्वतन्‍त्र आन्तरिक गति से स्त्रियों के स्वतन्‍त्र व्यक्तित्व और स्वतन्‍त्र अस्मिता का पैदा होना भी अपरिहार्य है।” (पृष्ठ 42)। या, “पत्नी भी उसके लिए (पूँजीपति के लिए) अपने पूँजी-साम्राज्य का उत्तराधिकारी पैदा करने वाले उत्पादन के साधन से अधिक कुछ नहीं होती।” (पृष्ठ 41) उनके ये कथन हों अथवा उनके द्वारा उद्धृत मार्क्‍स के कथन – “बुर्जुआ अपनी पत्नी को उत्पादन के एक उपकरण के सिवा कुछ नहीं समझता” (पृष्ठ 48) या “मुद्रा स्वयं एक सार्वभौमिक वेश्या है और कौमों और राष्ट्रों की सर्वमान्य कुटनी है जो मानवीय आवश्यकता और उसकी पूर्ति के साधनों के बीच, मनुष्य और उसके जीवन के बीच, एक मनुष्य और अन्य मनुष्यों के बीच सौदेबाज़ी कराने और रिश्ते पटाने का काम करती है।” (पृष्ठ 45) भाषा के ये प्रयोग यह मानकर चलते हैं कि पूँजीपति या पूँजीवादी नागरिक “पुरुष” है। मुद्रा की वेश्या से उपमा भी पुरुषवादी भाषा के अन्तर्गत है, जिस तरह भृतहरि ने राजनीति को वेश्या की तरह बतलाया था (“वारांगनैव नृपनीतिरनेकरूपा” – नीतिशतकम्), उसी तरह यहाँ है। कात्यायनी का यह विचार तो सही है कि निजी सम्पत्ति या पूँजीवादी श्रम-विभाजन को समाप्त करके ही इंसान के व्यक्तित्व को विघटित होने से रोका जा सकता है – अलगाव (परकीयकरण) को समाप्त किया जा सकता है; जिससे वह प्यार करने में सक्षम बनेगा। परन्तु, इसी के साथ पूँजीवाद को स्‍त्री के वस्तुकरण के एक कारण के रूप में व्याख्यायित करना सवाल खड़े करता है। वैवाहिक वेश्यावृत्ति, वेश्यावृत्ति, सेक्स-रैकेटिंग, ट्रैफि़किंग आदि पूँजीवाद से जुड़े हैं अथवा पूँजीवाद की पितृसत्तात्मक संरचना से? यदि पूँजी पर पुरुष की तरह स्‍त्री का भी अधिकार हो – दुनिया की पचास-पचास प्रतिशत पूँजी पुरुष व स्‍त्री में बँट जाये, तो भी क्या स्‍त्री को ही पुरुष नचाता रहेगा? तब, क्या जिस तरह व जिस मात्रा में पुरुष स्‍त्री को वस्तु बनाता है, उसी तरह व उसी मात्रा में स्‍त्री भी पुरुष को वस्तु नहीं बनायेगी? परस्पर-अन्योन्य वस्तुकरण जब होगा, तब एकमुखी वस्तुकरण से जनमी उक्त संरचनाएँ (विवाह, वेश्यावृत्ति आदि) क्या नहीं बदलेंगी? क्या अन्योन्य वस्तुकरण में परस्पर व्यक्तित्व का उदय नहीं होगा? इस सवाल पर भी लेखिका को विचार करना चाहिए था। फिर भी, उनके इस प्रतिपादन में फि़लहाल आपत्ति की गुंजाइश नहीं है कि पुनर्जागरण कालीन दार्शनिकों या यूटोपियाई समाजवादियों द्वारा प्रस्तुत “यौन-प्रेम” का आदर्श यथार्थ में तभी बदलेगा जब बुर्जुआ आत्म-अलगाव/आत्म-निर्वासन ख़त्म होगा। आत्म-अलगाव के ख़त्म होने के लिए पूँजीवादी ढाँचे (निजी सम्पत्ति, श्रम-विभाजन का प्रचलित तरीका) का ख़ात्मा ज़रूरी है। इसमें, सच्चाई है क्योंकि यह ढाँचा अन्ततः इंसान को वस्तु बनाकर रख देता है। सच्चे एकनिष्ठ यौन-प्रेम का मानवीय रूप केवल वर्ग-विहीन समाज में सम्भव होगा।

इसी सन्दर्भ में, कात्यायनी सावधान करती हैं कि प्रेमाधिकार की प्राप्ति हेतु, मध्ययुगीन सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों/संस्थाओं के विरु) संघर्ष पर्याप्त नहीं है। ऐसा करने से बुर्जुआ (पूँजीवादी) प्रेम का आदर्शीकरण होगा, जो वस्तुतः मिथ्याभासी प्रेम है – भेदभावमूलक भी है। सच्चे प्रेम के मार्ग में रोड़े अटकाने की बात केवल मध्यकालीन सामन्ती अवशेष नहीं है, बल्कि नवयुगीन पूँजीवादी कृतियाँ भी रोड़े बनाती हैं। उदाहरणार्थ, दहेज। इसे आमतौर पर पुरानी सामन्ती चीज़ माना जाता है, परन्तु आज नगरों के आधुनिक मध्यवर्ग में, व्यापारियों में इसका चलन सर्वाधिक है। दहेज के लिए स्त्रियाँ मार डाली जाती हैं और फिर दहेज बटोरने के लिए एक और विवाह का रास्ता साफ़ हो जाता है। यानी, दहेज व्यापार या उद्योग के लिए पूँजी जुटाने का एक माध्यम बन गया है – न कि महज़ सामन्ती शान का प्रतीक। यही कारण है कि पहले दहेज का ख़ूब प्रदर्शन होता था, पर आज यह परदे की ओट में लिया जाता है – पहले से कहीं ज़्यादा चमकदार चीज़ों के रूप में। इसी से, सामन्ती मूल्यों के साथ पूँजीवादी संरचनाओं को भी ध्वस्त करना होगा, ताकि सच्चे प्रेम करने वाले पुरुष-स्‍त्री सम्भव हों।

पूँजीवाद चाहे कितने भी उत्कृष्ट रूप में उभरकर आये, पर प्रेम की आज़ादी के लिए उसका अन्त करना ही होगा। ऐसा ही मन्तव्य है कात्यायनी का। फिर, भारत देश का क्या होगा जहाँ पूँजीवाद का विकास उनके अनुसार सामन्ती अवशेषों की पर्याप्त उपस्थिति के बीच हुआ। यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति एवं पुनर्जागरण की शताब्दियों व्याप्त लम्बी प्रक्रिया से गुज़रकर पूँजीवादी समाज अस्तित्व में आया। इस प्रक्रिया में अधिकांश मध्ययुगीन मूल्यों-मान्यताओं का वर्चस्व वहाँ लगभग समाप्त हो गया तथा अपेक्षाकृत सेक्युलर (इहलौकिक) जीवन-दृष्टि व जनवादी मूल्य वहाँ के जीवन में रच-बस गये हैं। पर, भारत मे मध्ययुगीन सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संरचना जब अन्दर से टूटने-बिखरने की दिशा में थी, उसी समय उपनिवेशीकरण (ब्रिटिश दासता) ने भारतीय समाज की स्वाभाविक आन्तरिक गति की हत्या कर दी। इसी से, आज जो भारतीय पूँजीवाद दिखता है, वह (यूरो-अमेरिकी) पूँजीवादी प्रगतिशील तत्वों से रहित – प्राक्पूँजीवादी मूल्यों (सामन्ती पितृसत्तात्मक मूल्यों) के साथ गँठजोड़ किये खड़ा – बेहद रुग्ण-विकलांग-बौना पूँजीवाद है। यह न मध्ययुगीन आर्थिक मूलाधार को तोड़ पाता है, न उसकी अधिरचना (जाति, जेण्डर आदि) को ही ध्वस्त कर पाता है। यही वह भेद है, जिसके तहत यूरो-अमेरिकी समाज में प्रेम दो व्यक्तियों का निजी मामला माना जाता है, किन्तु भारत में “प्रेम” को इस हद तक समाज विरोधी कृत्य माना जाता है कि प्रेमियों को बाकायदा जन-पंचायतों के निर्णय के तहत मार डालने तक की घटनाएँ हो जाती हैं; नहीं, होती रहती हैं। यूरोप-अमेरिका में बहुत हुआ तो दो लोगों के प्रेम/विवाह को किसी की व्यक्तिगत नापसन्दगी/विरोध झेलना पड़ सकता है, परन्तु भारत की तरह उसका संगठित मुखर विरोध या उस पर जालिम प्रतिक्रिया कभी नहीं होती। भारत का जनतन्‍त्र भी, इस देश के रुग्ण – विकलांग समाज के तुष्टीकरण पर टिका होने से प्रेम की आज़ादी को कुचलने वाली शक्तियों का ही कुल मिला-जुलाकर पोषण करता है। इन बातों का बेबाक बयान करने वाली कात्यायनी इस देश के बुद्धिजीवियों और तथाकथित प्रगतिशीलों की जमात को भी आड़े हाथों लेती हैं, जो प्रेमियों की हत्या करने वाली बर्बर घटनाओं पर चुप्पी साधे रहती है अथवा विरोध की रस्मी कार्रवाई भर करके अपने सुविधाजीवी खोल में लौट जाती है – जो प्रेम-हन्ता समाज/संस्कृति के प्रति किसी संगठित जन-विद्रोह को आकार देते हुए इसलिए डरती है, क्योंकि इसमें उसे अपनी सुख-सुविधा के छिनने का जोखिम है। कात्यायनी का यह कहना बिल्कुल जायज़ है कि जिस समाज में तमाम जनवादी अधिकारों एवं समानता के दावों के बावजूद स्त्रियाँ दोयम दर्जे की नागरिक हैं, वहाँ सच्चे अर्थों में प्रेम सम्भव ही नहीं है। सच्चे प्रेम या स्वस्थ विवाह की प्रतिष्ठा के लिए स्‍त्री की गुलामी का अन्त होना ज़रूरी है। स्‍त्री की गुलामी लम्बी समाजार्थिक संरचना से जुड़ी है, अतः स्‍त्री-मुक्ति हेतु पूरी संरचना (सामन्तवाद से लेकर पूँजीवाद तक) में आमूल-चूल परिवर्तन लाना होगा। यानी, वर्ग-विहीन समाज की रचना। इस तरह, इस पुस्तक के ज़रिये कात्यायनी स्‍त्री-विमर्श को समाजवादी दायरे में विस्तार देती हैं।

वर्ग-विहीन समाज की दिशा में जाने के लिए “समाजवादी व्यवस्था’’ की संक्रमण अवधि से गुज़रना पड़ता है। इस सन्दर्भ में, लेखिका सोवियत संघ (1917-1953), चीन (1949-1976), कोरिया, क्यूबा, पूर्वी यूरोपीय देशों में हुए समाजवादी प्रयोगों के दौरान, स्‍त्री की परिस्थिति में आये बदलाव के साथ सेक्स, विवाह, परिवार व स्‍त्री-पुरुष सम्बन्धों में आये परिवर्तनों का इतिहास, विश्वसनीय स्रोतों से जानने की ज़रूरत बतलाती हैं। वेश्यावृत्ति और यौन अपराधों का उनमें पूरी तरह से ख़ात्मा हो गया था, जो मानव समाज के ज्ञात इतिहास में पहली बार हुआ था। इसी के साथ, कात्यायनी मार्क्‍स व लेनिन को उद्धृत कर फ्री-सेक्स की अवधारणा (“गिलासभर पानी” का सिद्धान्त) को अराजक-उत्तरदायित्वहीन यौन सम्बन्ध के हिमायती भ्रान्तजनों का विचार ठहराती हैं। लेनिन यौन/प्रेम पिपासा की तृप्ति को गिलासभर पानी पीने की तरह सहज एवं महत्त्वहीन मानने वालों को ग़ैर-मार्क्‍सवादी व समाज विरोधी ठहराते हैं। उनका तर्क है कि पानी पीना व्यक्तिगत मामला है, पर प्यार में दो जीवन भागीदार होते हैं और एक तीसरा (नया) जीवन भी अस्तित्व में आता है। यहीं सामाजिक हित निहित है और यहीं समाज के प्रति कर्तव्य की उत्पत्ति होती है।

मार्क्‍स के अनुसार, पुरुष व स्‍त्री का सम्बन्ध मानव प्राणी का मानव प्राणी के साथ सबसे प्राकृतिक सम्बन्ध है। (“मैनुस्क्रिप्ट्स ऑफ़ 1884”)। इस पुस्तक के माध्यम से कात्यायनी ने इस सवाल का ऐतिहासिक विश्लेषण किया है कि वह सम्बन्ध (प्रेम) सहज सम्बन्ध क्यों नहीं रह गया है और फिर उसे सहज रूप में स्थापित होने देने के लिए क्या परिवर्तन जीवन-व्यवस्था में लाना चाहिए? वे स्पष्ट कहती हैं कि “बुर्जुआ उत्पादन प्रणाली और अलगाव की अनिवार्य समाप्ति के बाद, विवाह और परिवार के बुर्जुआ स्वरूप का भी उन्मूलन हो जायेगा, स्‍त्री-पुरुष स्वतन्‍त्रता और समानता के साथ जोड़े बनायेंगे, स्त्रियाँ तब भोग एवं पुनरुत्पादन का साधन नहीं होंगी, वे पुरुषों पर निर्भर नहीं होंगी, दम्पत्ति नागरिक एवं आर्थिक परिस्थितियों पर निर्भर नहीं होंगे, बच्चे अपने माता-पिता पर निर्भर नहीं होंगे और चूल्हे-चैखट की दासता से मुक्त स्त्रियाँ सभी उत्पादक एवं सामाजिक कार्रवाइयों में बराबर की भागीदार होंगी।” (पृष्ठ 47-48)। फिर इसी का परिणाम “प्रेम” की दिशा में होगा, जो एंगेल्स के उद्धरण से वे कहती हैं – “ऐसे पुरुषों की पीढ़ी पनपेगी जिसे जीवनभर कभी किसी नारी की देह को पैसा देकर या सामाजिक शक्ति के किसी अन्य साधन के द्वारा ख़रीदने का मौका नहीं मिलेगा, और ऐसी नारियों की पीढ़ी जिसे कभी सच्चे प्रेम के सिवा और किसी कारण से किसी पुरुष के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा और न ही जिसे आर्थिक परिणामों के भय से अपने को अपने प्रेमी के सामने आत्मसमर्पण करने से कभी रोकना पड़ेगा।” (“परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति”) इसी के साथ, सम्बन्ध बनाना, जारी रखना या भार होने पर तोड़कर स्वतन्‍त्र होना – स्‍त्री-पुरुष की स्वेच्छा पर होगा, किसी मजबूरी/दबाव या प्रलोभन पर नहीं। तभी सच्चे प्रेम का आदर्श पूरी तरह साकार होगा।

कात्यायनी की प्रस्तुत पुस्तक स्‍त्री व पुरुष के प्रेम को असम्भव बनाने वाली समाजार्थिक परिस्थितियों का ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्लेषण करते हुए, उसे सम्भव बनाने हेतु समाजवादी क्रान्ति की पक्षधर है। इस विषय को स्पष्ट करने हेतु, कम्युनिज़्म की सैद्धान्तिकी का सहारा वे लेती हैं, जिससे किसी हद तक वह सैद्धान्तिकी भी पुस्तक विवेचित कर देती है। मात्र 64 पृष्ठों में दीर्घ निबन्ध की शक्ल में लिखी, यह स्‍त्री विमर्श से कुछ आगे की किताब है, जो भाषा की दुरूहता के बावजूद, पठनीय है। इस विषय पर इतनी यथार्थपरक वैचारिक कृति हिन्दी में अब तक, कम से कम मेरी दृष्टि में, नहीं आयी थी। “प्रेम” की हत्या करने की परम्परा से सन्दर्भित प्रत्यक्ष सामाजिक संकट से शुरू हुई यह रचना गहन विमर्श में परिणत होती है। यह शोध है, जो हमें बोध देता है, जिससे प्रेम की राह के अवरोध दूर करने की प्रेरणा मिलती है। “प्रेम’’ को बचाना नर-नारी समता को बचाना है, “प्रेम” को लाना जीवन की सरसता व मधुरता को लाना है – इसी सन्दर्भ में पुस्तक का लेखन हुआ लगता है, तो अनुशीलन भी इसी सन्दर्भ में होना चाहिए।

 

पुस्तक –     “प्रेम परम्परा और विद्रोह”

लेखिका      –     कात्यायनी

मूल्य  –     बीस रुपये

पृष्ठ    –     64

प्रकाशक      –     परिकल्पना प्रकाशन, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226006

समीक्षक     –     डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक

(व्याख्याता, हिन्दी विभाग, जी.एल.ए. कालेज, डाल्टनगंज, झारखण्ड-822102)

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011

 

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