‘सेपियन्स’ की आलोचना: चेतना के उद्भव तथा मानव प्रजाति का हरारी द्वारा पूँजीवादी संस्कृति के अनुसार सारभूतीकरण

सनी

युवल नोआ हरारी की किताब ‘सेपियन्स’ पर बात करते हुए हमने पिछली कड़ी में सबसे पहले यह देखा कि कैसे यह ‘मूर्ख होमो सेपियन्स’ हरारी मानव उद्भव के प्रश्न को इत्तेफ़ाक बना देता है। वह मानव के उद्भव में श्रम की प्रक्रिया को ग़ायब कर देता है। वह यह सिद्ध करना चाहता है कि जींस में होने वाले कुछ आकस्मिक परिवर्तनों ने ही मानव को चेतस बना दिया और ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया शुरू हुई और उसने भाषा ईजाद की जिससे वह सामाजिक हो गया। यानी कि मानव बनने का प्रश्न केवल जैनेटिक आकस्मिकता की वजह से है। मानव चेतना किसी भौतिक प्रक्रिया का उत्पाद नहीं है। असल में यह श्रम की भौतिक प्रक्रिया ही है जो इसके निशाने पर है क्योंकि हरारी का आकस्मिक परिवर्तन, म्यूटेशन को अबूझ शक्ति में तब्दील कर देने वाला अधिभूतवादी नज़रिया है जो न्यूटन के प्राथमिक धक्के की तरह मानव के ‘ज्ञान वृक्ष परिवर्तन’ को सम्भव बना देता है। दूसरी बात, भाषा के उद्भव को भी हरारी म्यूटेशन पर सीमित कर देता है तथा भाषा के उद्भव पर चर्चा करते हुए वह मानव को गप्प करने और अवास्तविक चीज़ों को मानने वाली जादुई कल्पना मानने वाला जीव बताता है। हरारी के अनुसार यही वह कारण है कि सेपियन्स होमो जीनस की अन्य प्रजातियों से अलग है।
ख़ुद को नास्तिक बताने वाला यह साम्राज्यवादी टट्टू भाववादी नज़रिये को यहीं से ठेलना शुरू करता है। अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को ही वह अपनी किताब में इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान के रूप में पेश करता है। हम हरारी की पुस्तक के पहले हिस्से यानी ‘संज्ञानात्मक क्रान्ति’ पर ही अपनी बात जारी रखेंगे। हमने हरारी द्वारा मानव उत्पत्ति के बरक्स संक्षिप्त में अपनी बात रखी थी कि कैसे श्रम की प्रक्रिया उद्विकास को निर्देशित करती है और मानव ही ख़ुद को गढ़ कर बनाता है। यह प्रक्रिया 25 लाख साल पहले शुरू हुई। इस प्रक्रिया में पहले श्रम और फिर वाक् ने मानव को मानव बनाया। उसका हाथ, उसकी इन्द्रियाँ विकसित हुईं और उसका मस्तिष्क, उसकी वक्तृता, उसकी कलात्मक क्षमता और वैज्ञानिक क्षमता विकसित हुई। यह भी कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। मानव का अस्तित्व उद्विकास की प्रक्रिया का उत्पाद है। वानर से नर बनने की प्रक्रिया कोई एकरेखीय क्रमिक प्रक्रिया नहीं थी बल्कि एक जटिल प्रक्रिया थी जिसमें मानव की आधुनिक प्रजाति होमो सेपियन्स से पहले कई प्रजातियाँ अस्तित्वमान थी जो लम्बे समय तक स्थान और काल में भी साथ अस्तित्वमान थीं। मानव का उद्भव ख़ुद जीवन के उद्विकास की प्रक्रिया का ही अंग है। प्रारम्भिक चेतना और उसके आधार के रूप में प्रारम्भिक मस्तिष्क, जीव में वानर से पहले ही आ चुका था।

मस्तिष्क और उसका विकास: श्रम की प्रक्रिया जीव और पर्यावरण की भौतिक अन्तरक्रिया का ही गुणात्मक विस्तार है

पहली बात यह कि हरारी समेत तमाम बुर्जुआ क़लमघसीट मानव होने की पहचान का पैमाना चेतना को बना देते हैं। यानी यह उसका मस्तिष्क ही है जो इंसान को अन्य प्रजातियों से अलग करता है। अगर हम जीवन के इतिहास पर ग़ौर फरमायें तो पता चलता है कि यह मसला इतना सीधा-सादा नहीं है। मसलन यह अन्तिम नतीजे के तौर पर तो चीज़ों को समझा देता है परन्तु ऐतिहासिक कालक्रम में चीज़ों को नहीं समझाता है। दूसरी बात यह कि मस्तिष्क कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो केवल हम इंसानों में पायी जाती है। एक अंग के रूप में मस्तिष्क का भी विकास हुआ है। उद्विकास की प्रक्रिया में जैसे हाथ, पैर, खुर, गलफड़े बने हैं, वैसे ही मस्तिष्क भी बना है।
अगर इस रूप में देखें कि यह मस्तिष्क ही है जो चेतना का अंग है और उसकी मौजूदगी ही मानव को चेतस बनाती है तो इस पर भी एक नज़र डालना उपयोगी होगा कि जीवन में मस्तिष्क का विकास किस प्रकार हुआ। यह अस्तित्व के प्रश्न का ही विस्तार है। जहाँ पहले हिस्से में हमने यह देखा था कि कैसे वानर से मानव, श्रम के ज़रिये बनता है। परन्तु स्वयं जीवन में किस प्रकार निम्न स्तर की चेतना भी पैदा होती है यह समझना ज़रूरी है। एक मधुमक्खी के पास भी मस्तिष्क होता है, एक हाथी, एक ह्वेल और एक ऑक्टोपस के पास भी। इन मस्तिष्कों के प्रकार जटिल होते हैं और कई एक दूसरे से बहुत अलग हैं। मानव मस्तिष्क इनमें सबसे अलग इसलिए होता है कि यह शरीर के भार के अनुपात में सबसे भारी होता है।
किसी भी वस्तु या प्रक्रिया को समझने के लिए हमें उसके उद्भव और विकास का अध्ययन करना चाहिए। अगर हम चेतना के भौतिक आधार का अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि हमें पहले जहाँ से शुरू करना होगा वह इन्द्रियाँ और न्यूरॉन के तन्त्र के उद्भव का अध्ययन है। इन्द्रिय कोशिकाएँ भी न्यूरॉन के तन्त्र का ही हिस्सा होती हैं। इन्द्रियों का पैदा होना वह क़दम था जिसके बाद मस्तिष्क विकसित हो सकता था। जीव जगत में सबसे पहले न्यूरॉन तन्त्र का उद्विकास क़रीब 50-60 करोड़ साल पहले हुआ जब बहुकोशिकीय जीव अस्तित्व में आ चुके थे। इन जीवों में एक तो ऐसी कोशिकाओं का तन्त्र अस्तित्व में आता है जो एक-दूसरे तक रासायनिक या इलैक्ट्रिकल सन्देश पहुँचा सकती थीं और साथ ही ऐसी कोशिकाएँ भी जो रोशनी, महक, कम्पन और छूने पर या अन्य पर्यावरणीय प्रभावों से प्रभावित होती थीं। पहली कोशिकाएँँ न्यूरॉन हैं और दूसरी इन्द्रियग्राह्य न्यूरॉन कोशिकाएँ। इन आदिम बहुकोशिकीय जीवों सरीखा प्रारूप आज भी जेलीफिश में दिखायी दे जाता है जिसके पास कोई मस्तिष्क नहीं होता है हालाँकि इसके पास न्यूरॉन का एक जाल तथा इन्द्रियग्राह्य न्यूरॉन कोशिकाएँ होती हैं।
शुरूआती जीव के पास भी केवल न्यूरॉन का जाल मौजूद था और साथ में ऐसी कोशिकाएँ जो संवेदनाओं में सक्षम होती हैं। आँखों सरीखी जटिल संरचना के उद्धव से पहले ऐसी कोशिकाओं का अस्तित्व में आना ज़रूरी था जो रोशनी के प्रति संवेदनशील हों। यह भी पर्यावरण और जीव के बीच अन्तरक्रिया से ही पैदा हुई। हालाँकि यह जीव की आन्तरिक संरचना ही है जिसमें यह परिवर्तन होते हैं परन्तु यह पर्यावरण के साथ अन्तरक्रिया में ही सम्भव होता है।
जैसे मानव का उद्भव यानी वानर से नर बनने को श्रम की प्रक्रिया निर्देशित करती है वैसे ही पर्यावरण से जीवन के रूपों की अन्तरक्रिया जीव-जगत में प्रारम्भिक चेतना के उद्भव का कारण है। बदलती पर्यावरण की परिस्थितियों के साथ अन्तरक्रिया में ही जीव की इन्द्रियाँ विकसित होती हैं। यह भौतिक-अन्तरक्रिया ही जीव-रूपों में चेतना को पैदा करती है। कोशिकाओं का ऐसा तन्त्र विकसित होता है जो जीव को दी गयी परिस्थिति में अपने व्यवहार को निर्देशित करता है।
न्यूरॉन सिस्टम का एक लम्बी प्रक्रिया में उद्विकास हुआ और ख़ुद नर्व का भी भिन्न विकास हुआ। मसलन स्तनपायी जीवों का मस्तिष्क और ऑक्टोपस सरीखे जीवों का मस्तिष्क अलग तरह से विकसित हुआ। प्रारम्भिक बहुकोशिकीय जीव में बने न्यूरल जाल का ही न्यूरॉन तन्त्र के रूप में उद्विकास होता है। भिन्न पर्यावरण की परिस्थितियों में विविध व्यवहार के चलते ही भिन्न न्यूरॉन तन्त्र विकसित होता है। यही तन्त्र विकसित होकर न्यूरॉन के सान्द्रण के रूप में मष्तिष्क को जन्म देता है जो उद्विकास की प्रक्रिया में संरचना के स्तर पर कई मंज़िलों से होकर गुजरता है। आँख, कान, नाक, स्पर्श और जीभ इन्द्रियाँ, उनका तन्त्रिका जाल तथा मस्तिष्क विकसित होता है। इसमें कहीं कोई रहस्य नहीं बचता है।
आधुनिक मानव का मस्तिष्क बेहद जटिल होता है तथा जिसमें अन्य स्तनपायी के समान ही एक तहदार सेरेब्रम, सेरेबेलम और ब्रेन स्टैम होता है। यह उद्विकास की प्रक्रिया में विकसित हुआ और यह वैसी ही भौतिक क्रिया है जैसे फसलों का उगना, सूरज का बनना और इंसानों के जीवन का आगे बढना। न्यूरल सिस्टम, इन्द्रियग्राह्य अंगों और मस्तिष्कों का जटिल तानाबाना विकसित होता है जिससे जीवों के पास जानकारी के आधार पर फ़ैसले लेने की क्षमता आने लगती है। यह प्रक्रिया है जिससे कि जीवन ने इन्द्रियग्राह्य ज्ञान से आगे बढकर प्रारम्भिक बुद्धिसंगत ज्ञान तक पहुँचने की क्षमता हासिल की। यह प्रक्रिया भी ‘व्यवहार’ द्वारा निर्देशित थी, एक केंचुए सरीखे जीव से मानव बनने की लम्बी उद्विकास की प्रक्रिया के दौरान के जीव और पर्यावरण की भौतिक अन्तरक्रिया प्रारम्भिक चेतना पैदा करती है और यह ‘व्यवहार’ की प्रक्रिया ही वानर से नर बनने में श्रम की प्रक्रिया बन जाती है जिससे उसका उद्विकास निर्देशित होता है। मानव चेतना कोई हेगेलियन निरपेक्ष विचार नहीं जो आदि काल से मौजूद थी, जो मानव चेतना के रूप में प्रकट होती है बल्कि यह जीवन की प्रक्रिया में पैदा होने वाला गुण है जो प्रकृति को भौतिक अन्तरक्रिया में प्रतिबिम्बित करती है।
इस विश्लेषण से यह भी साफ़ है कि माखवादी दार्शनिकों का यह दावा कि भौतिक जगत ‘केवल संवेदनाओं का समुच्चय’ है, ग़लत है। यह चर्चा हरारी की इस बकवास का जवाब देने के लिए भी ज़रूरी थी क्योंकि वह चेतना के गुण को एक अनोखे जैनेटिक बदलाव के करिश्मे में बदल देता है जो मानव चेतना को पैदा कर देता है। यह बदलाव कोई ऐसा बदलाव नहीं था जो उद्विकास की क्रिया में कोई चमत्कारिक क़दम हो बल्कि यह उद्विकास की प्रक्रिया की ही एक विशिष्ट मंज़िल है। अब हम वाक् और भाषा के उद्भव को भी समझ सकते हैं। परन्तु इससे पहले कि हम हरारी के ‘ज्ञानवृक्ष म्यूटेशन’ के नतीजे के तौर पर पैदा ‘भाषाई चमत्कार’ पर बात करें, दो बातें और हैं जिनपर चर्चा कर लेना बेहतर होगा। मानव बोध की क्षमताओं के विकास को चमत्कारी बताने के बाद हरारी यह बताता है कि हमारी प्रजाति की प्रकृति ही असल में असुरक्षित, मतलबी, लालची और हत्यारी है। इसे सिद्ध करने के लिए वह पहली दलील देता है कि सेपियन्स प्रजाति इसलिए बेहद असुरक्षित है कि वह एक नवदौलतिये की तरह अचानक ही ‘एपेक्स प्रीडेटर’ के पद पर पहुँच गयी है।

हरारी की ‘एपेक्स प्रीडेटर’ और ‘नवदौलतिये मानव’ की कठदलीली

हरारी के अनुसार मानव अपने स्वभाव से ही बेहद असुरक्षित होता है। यह इसलिए कि मानव अचानक ही 30000 साल पहले खाद्य श्रृंखला में शिखर पर पहुँच गया। इस अचानक मिली उपलब्धि को मनुष्य पचा नहीं पाया और इस वजह से ही वह इतना असुरक्षित है। यहाँ हरारी पूँजीवादी व्यवस्था में लोगों की असुरक्षा की ओर इशारा कर रहा है कि जहाँ लोग बाज़ार व्यवस्था की कुत्ता-घसीटी में एक दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा में उलझे होते हैं। एक व्यक्ति की सफलता जहाँ दूसरे की असफलता से जुड़ी हो वहाँ यह असुरक्षा का भाव नैसर्गिक ही है। पूँजीवादी समाज की मूल्य-मान्यताओं का हरारी सारभूतीकरण करता है और कहता है:
“यह हमारे इतिहास और मनोविज्ञान को समझने की एक कुंजी है। भोजन की श्रंृखला में मानव ‘जीनस’ की स्थिति हाल ही के समय तक लगातार बीच की हुआ करती थी। लाखों वर्षों तक मनुष्यों ने छोटे प्राणियों का शिकार किया, जो कुछ बटोर सकते थे, उसे बटोरा। इस दौरान वे बड़े शिकारियों द्वारा शिकार बनाये जाते रहे। ये महज़ 4,00,000 साल पहले की बात है, जब मनुष्यों की कई प्रजातियों ने नियमित रूप से बड़े शिकार करना शुरू किये, और ये – होमो सेपियन्स के अभ्युदय के साथ घटित महज़ पिछले 1,00,000 सालों की घटना है कि मनुष्य भोजन-श्रृंखला के शिखर पर जा पहुँचा। मध्यवर्ती स्थिति से शिखर पर लगायी गयी इस शानदार छलाँग के व्यापक नतीजे हुए। शेर और शार्क जैसे जो दूसरे प्राणी इस पिरामिड के शिखर पर पहुँचे थे, वे लाखों वर्षों के दौरान धीरे-धीरे उस स्थिति तक पहुँचे थे। इस चीज़ ने पारिस्थितिकीय तन्त्र (इकोसिस्टम) की उन नियन्त्रणों और सन्तुलनों को विकसित करने में मदद की, जो शेरों और शार्कों को भारी तबाही मचाने से रोकते हैं। जब शेर ज़्यादा घातक होते गये, तब हिरणों ने और तेज़ दोड़ने, लकड़बग्धों ने बेहतर ढंग से सहयोग करने और गैण्डों ने और ज़्यादा गुस्सैल होने की सामर्थ्य विकसित कर ली। इसके विपरीत, मानव इतनी फुर्ती से शिखर पर जा पहुँचा कि पारिस्थितिकीय तन्त्र को तालमेल बैठाने का समय ही नहीं मिल सका। इसके अलावा, ख़ुद मनुष्य तालमेल बैठाने में नाक़ामयाब रहा। महाद्वीप के सबसे शीर्षस्थ शिकारी तेजस्वी जीव हैं। लाखों वर्षों के प्रभुत्व ने उन्हें आत्मविश्वास से भर दिया है। सेपियन्स इसके विपरीत काफ़ी हद तक छोटे अविकसित देश की तरह है, जिसकी अर्थव्यवस्था विदेशी कम्पनियों पर निर्भर होती है। अभी हाल ही के वक़्त तक घास के मैदान (सवाना) की एक कमज़ोर नस्ल रह चुकने के बाद हम अपनी स्थिति को लेकर भय और उद्विग्नताओं से भरे हैं। यह स्थिति हमें और भी क्रूर तथा ख़तरनाक बनाती है। इस अति-उतावली छलाँग के नतीजे में घातक युद्धों से लेकर पर्यावरण सम्बन्धी तबाहियों तक अनेक ऐतिहासिक आपदाएँ घटित हुई हैं।’’
पहली बात खाद्य श्रृंखला के वर्गीकरण से उस प्रजाति में कोई गुण नहीं आते हैं। यह बात कहना कि मानव इतनी फुर्ती से शिखर पर जा पहुँचा कि पारिस्थितिकीय तन्त्र को तालमेल बैठाने का समय ही नहीं मिल सका” हरारी की बकवास है, कोई वैज्ञानिक तथ्य नहीं। प्रकृति में लगातार ही इस तरह की छलाँग लगती रहती है। दूसरी बात, एपेक्स प्रीडेटर जैसी उपाधि को जंगल के राजा की उपाधि में तब्दील कर हरारी बेहद भोंडा सरलीकरण करता है। असल में वह वर्ग समाज के पदानुक्रम को जीव जगत पर लागू करता है। वैसे भी यह शब्दावली ‘एपेक्स प्रीडेटर’ पर्यावरण विज्ञान में तमाम प्रजातियों के अनुपात का अध्ययन के लिए इस्तेमाल होती है। इससे कोई जीव वैज्ञानिक अवधारणा नहीं जुड़ी है। बब्बर शेर जानवर ही रहता है जिसकी चेतना में इस पद पर होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है जैसे गधे को गधा बोलने से उसकी चेतना में काई फ़र्क़ नहीं आ जाता है। ख़ैर, हरारी पूँजीवादी व्यवस्था का सस्ता क़लमघसीट है और इन अभिव्यक्तियों से यह बार-बार उजागर हो जाता है। ऐसी ‘टिप्पणियाँ’ उसकी पूरी किताब में शुरू से आख़िर तक भरी हुई हैं। हम यहाँ उनमें से कुछ नगीने ही आपके सामने उपस्थित कर रहे हैं।

हरारी का सामाजिक डारविनवाद : हमारी प्रजाति हत्यारी है! मानव होना ही हत्यारा होना है!

हरारी बताता है कि होमो ‘जीनस’ में कई और प्रजातियाँ मौजूद थीं जो एक प्रक्रिया में ख़त्म हो गयीं। वह बताता है कि हमारी यानी सेपियन्स की ”कोठरी में कंकाल” मौजूद हैं जिसे वह छिपाता है। वह कहता है कि :
”होमो सेपियन्स ने इससे भी ज़्यादा विचलित करने वाले एक रहस्य को छिपाकर रखा है। हमारे ना सिर्फ़ बड़ी तादाद में चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाई-बहन हैं, बल्कि एक समय में अच्छी-ख़ासी तादाद में भाई-बहन भी हुआ करते थे। हमें अपने बारे में इस तरह सोचने की आदत है कि हम एकमात्र मनुष्य हैं, क्योंकि पिछले 10,000 सालों से हमारी प्रजाति वाक़ई एकमात्र मनुष्य प्रजाति रही है, लेकिन ह्यूमन शब्द का वास्तविक अर्थ ‘होमो नामक जीनस से ताल्लुक रखने वाला प्राणी’ है, और इस जीनस की होमो सेपियन्स के अलावा भी कई प्रजातियाँ हुआ करती थीं। इसके अतिरिक्त जैसा कि हम इस पुस्तक के आख़िरी अध्याय में देखेंगे, वह भविष्य बहुत दूर नहीं, जब हमें एक बार फिर ग़ैर-बुद्धिमान (नॉन-सेपियन्स) मनुष्यों से निपटना पड़ सकता है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए मैं बुद्धिमान मनुष्य (होमो सेपियन्स) प्रजाति के सदस्यों को दर्शाने के लिए अक्सर ‘बुद्धिमान’ (‘सेपियन्स’) पद का प्रयोग करूँगा, वहीं ‘मनुष्य’ पद का इस्तेमाल मैं होमो नामक जीनस के सारे मौजूदा सदस्यों के लिए करूँगा।”
“लेकिन अगर नीएण्डरथल्स, डेनिसोवंस और अन्य मनुष्य प्रजातियाँ सेपियन्स में विलीन नहीं हुईं, तो फिर वे ग़ायब क्यों हो गयीं?”
वह यहाँ तर्क इस तरह से गूँथ-बुन रहा है कि पाठकों को लगता है कि यह कोई डिटेक्टिव उपन्यास है और वह भेद खोलेगा। वह भेद खोलता भी है कि यह सेपियन्स ही हैं जो हत्यारे हैं। यह बात वह सम्भावना, अटकलें आदि शब्दों के पीछे रखकर करता है। यह कहकर वह यह तर्क गढ़ता है कि नीएण्डरथल और डेनिसोवंस की हत्या कर ही सेपियन्स आगे बढ़े हैं। यह तर्क इस किताब के मूल तर्को में से एक है जो मानवता के गुणों को परिभाषित करता है। यह कि मानव हत्यारे होते हैं, दूसरों की खोपड़ी पर पैर रखकर आगे बढ़ते हैं। हरारी यह सिद्ध करना चाहता है कि नस्लवाद, साम्प्रदायिकता और तमाम विभाजनकारी विचारधाराएँ वर्ग समाज की देन नहीं बल्कि मानव गुण हैं। यह ऐसा लगने लगता है कि आप किसी धन्धेबाज़ आदमी से मुख़ातिब हों। असल में हरारी यहाँ फिर से पूँजीवादी व्यवस्था के सम्बन्धों का मानवीय सारभूतीकरण कर रहा है। वह बताता है कि:
”ज़रा सेपियन्स समूह के बाल्कान घाटी में पहुँचने की कल्पना कीजिए, जहाँ नीएण्डरथल्स सैकड़ों हज़ारों साल से रह रहे थे। इन नवागन्तुकों ने उन हिरणों का शिकार करना और वे बीज (नट्स) और बेरियाँ बटोरना शुरू कर दिया, जो नीएण्डरथल्स की पारम्परिक भोजन सामग्री थे। सेपियन्स बेहतर टेक्नोलॉजी और श्रेष्ठ सामाजिक दक्षताओं के कारण शिकार और संग्रह करने के मामले में ज़्यादा कुशल थे। उनके मुक़ाबले कम चतुर नीएण्डरथल्स को अपना पोषण करना उत्तरोत्तर मुश्किल होता गया। आबादी कमज़ोर होती गयी और वे धीरे-धीरे मरते गये, शायद एक-दो सदस्यों को छोड़ कर, जो अपने सेपियन्स पड़ोसियों में शामिल हो गये।
एक और सम्भावना यह है कि संसाधनों को हासिल करने की होड़ भड़क कर हिंसा और जाति-संहार में बदल गयी हो। सहिष्णुता सेपियन्स की विशेषता नहीं है। आधुनिक युगों में चमड़ी का रंग, बोली या धर्म का छोटा-सा भेद सेपियन्स के एक समूह को दूसरे समूह के विनाश के लिए भड़काने को काफ़ी रहा है। क्या प्राचीन सेपियन्स एक नितान्त भिन्न मनुष्य प्रजाति के प्रति अधिक सहिष्णु रहे होंगे? पूरी सम्भावना है कि जब सेपियन्स की मुठभेड़ नीएण्डरथल्स से हुई होगी, तो उसका नतीजा इतिहास के पहले और सबसे महत्त्वपूर्ण जाति-संहार के रूप में सामने आया होगा।
यह सब जिस किसी भी तरह हुआ हो, लेकिन नीएण्डरथल्स (और अन्य मनुष्य प्रजातियाँ) इतिहास की एक सबसे बड़ी अटकल पेश करती हैं।”
आइये इसे भी तथ्यों और सन्दर्भों की रोशनी में देख लेते हैं। हरारी की किताब आने से पहले भी तमाम तथ्य यह बताते थे कि ऐसा भी सम्भव है कि दोनों प्रजातियाँ लम्बे समय तक साथ रही हों और 2022 के नोबल पुरस्कार विजेता का शोध यही सिद्ध करता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह वह समय था जब मनुष्य (यहाँ हम सभी प्रजातियों को साथ लेकर बात कर रहे हैं) ख़ुद को गढ़ रहा था। कबीलाई समाज में संसाधनों को लेकर युद्धरत था। निश्चित ही ऐसा मुमकिन है कि दोनों प्रजातियों के कबीलों के बीच भी संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा रही होगी जिस प्रक्रिया में नीएण्डरथल, सेपियन्स में सम्मिलित भी हुए और दूसरी तरफ़ वे ख़ास प्राकृतिक परिस्थितियों में अनुकूलित थे जो बदलती हुई परिस्थितियों में ख़ुद को अनुकूलित नहीं कर पाये। औज़ार बना पाने की उन्न्ततर क्षमता जिस प्रजाति में मुमकिन थी वे ही आधुनिक मानव के रूप में यानी सेपियन्स के रूप में आगे विकसित हुए। मसला यह है कि ‘सेपियन्स’ नीएण्डरथल के विरुद्ध किसी प्रजाति-बोध की रोशनी में युद्ध में नहीं उलझे थे। यहाँ हरारी जानबूझकर धर्म और नस्ल के नाम पर जारी वर्ग संघर्ष को नैसर्गिक मानवीय गुण के तौर पर पेश करता है कि मानव कैसे अपने से अलग लोगों को मार देते हैं, नष्ट कर देते हैं।
परन्तु हरारी को अपना लुगदी साहित्य बेचना है तो वह यह बताता है कि कैसे हमारा इतिहास हत्याओं और दग़ाबाज़ियों का इतिहास है। हरारी की इस किताब का नाम और मूल तर्क यही है। यह बात सामाजिक डारविनवाद में पगे दिमाग़ की ही उपज थी कि सेपियन्स ने भिन्नता के चलते नीएण्डरथल की हत्या कर दी। हालिया शोध यह सिद्ध कर चुके हैं कि दोनों प्रजातियाँ लम्बे समय तक साथ रह रही थीं और अन्तरप्रजाति सहवास भी कर रही थीं। इसका पुख़्ता तथ्य यह है कि इन दोनों प्रजातियों का डीएनए हमारे डीएनए में मौजूद है। जीवाश्म के तथ्य यह बताते हैं कि सेपियन्स क़रीब 55000 साल पहले ही यूरोप आ चुके थे, दूसरा सेपियन्स के जीनोम में नीएण्डरथल केे डीएनए का अंश मौजूद है और तीसरा यह कि नीएण्डरथल की विलुप्ति 40000 साल पहले हुई। यानी 15000 साल तक वे साथ रह रहे थे और उसके बाद नीएण्डरथल विलुप्त हुए। हम इस बात को अगले लेख में आगे विस्तार से रखेंगे कि मानव का उद्धव जंगलों से किस प्रकार हुआ और होमो जीनस की प्रजातियाँ कैसे पूरी दुनिया भर में फैलीं और अन्तत: होमो सेपियन्स कैसे अस्तित्व में आये और साथ ही किस प्रकार भाषा का उद्धव और विकास हुआ जिससे सामूहिक श्रम एक नये स्तर पर पहुँचता है। हमने अब तक की दो कड़ियों में हरारी के जैव वैज्ञानिक पूर्वाधारों का खण्डन रखा है जो मानव उद्भव को रहस्यवादी बना रहे थे।

(मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2024)

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