पोर्नोग्राफ़ी पर प्रतिबन्ध: समर्थन और विरोध के विरोधाभास
अन्तरा घोष
हाल ही में, मोदी सरकार ने पोर्नोग्राफ़ी पर प्रतिबन्ध लगाया। बाद में, बाल पोर्नोग्राफ़ी के अलावा आम तौर पर पोर्नोग्राफ़ी पर रोक लगाने में अपनी अक्षमता भी ज़ाहिर कर दी। कुल मिलाकर, पोर्नोग्रापि़फ़क साइटों पर अभी कोई प्रतिबन्ध नहीं है। पोर्नोग्राफ़ी वाली साइटों पर प्रतिबन्ध की मिलती-जुलती नौटंकियाँ पहले भी चल चुकी हैं और उनका कुछ ऐसा ही नतीजा सामने आया है। मगर हर बार जब ऐसी कोई नौटंकी चालू होती है तो देश का बौद्धिक तबका दो हिस्सों में बँट जाता है। एक हिस्सा वह होता है जो कि पोर्नोग्राफ़ी देखने, न देखने को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का ‘नॉन-नेगोशियेबल’ मसला बना देता है और इसका निरपेक्ष विरोध करता है। उसके लिए यह किसी भी व्यक्ति के बन्द कमरे में झाँकने के समान है और ‘बिग ब्रदर इज़ वॉचिंग’ की संस्कृति को बहाल करता है। इनमें अक्सर तमाम किस्म के स्वच्छन्दतावादी वामपंथी, उत्तरआधुनिकतावादी, नारीवादी, उदारपंथी लोग शामिल होते हैं। दूसरा तबका वह होता है जो इस प्रतिबन्ध का पुरज़ोर समर्थन करता है क्योंकि उसके अनुसार इस पोर्न वेबसाइटों के फैलाव के कारण समाज में अपराधी प्रवृत्ति बढ़ती है, स्त्रियों व बच्चों की तस्करी व अमानवीय शोषण बढ़ता है और क्योंकि इसके कारण स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का पाशविकीकरण हो जाता है, उसमें निहित उदात्त मूल्य समाप्त हो जाते हैं। मज़ेदार बात यह है कि ऐसा कहने वाले तमाम लोगों में कुछ वामपंथी व मार्क्सवादी भी शामिल होते हैं, जिन्हें अभी हम सुविधा के उद्देश्य से निश्छल-निर्मल वामपंथी की संज्ञा देंगे।
इन दोनों पक्षों से अगर बहस के विस्तार में जाएँ तो ये दोनों ही पक्ष मज़ाकिया अन्तरविरोधों के गड्ढे में गिर जाते हैं। दरअसल, पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा पोर्न साइटों पर लगाये जाने वाले प्रतिबन्ध के पक्ष या विपक्ष में खड़े होते हुए, ये पक्ष सबसे अहम मसले को भूल जाते हैं। वे मसले पर विमर्श की बजाय मसले में विमर्श के कुचक्र में उलझ जाते हैं। और विडम्बना की बात यह है कि सरकार यही चाहती है। जो इस प्रकार के प्रतिबन्ध का विरोध करते हैं वे निजी स्वतन्त्रता को एक असम्बद्ध, अनैतिहासिक फेटिश में तब्दील कर देते हैं। यह पक्ष निश्चित तौर पर कहीं न कहीं प्रचलित पोर्न की पाशविक अपसंस्कृति का वस्तुगत समर्थन कर बैठता है। निश्चित तौर पर, इस प्रकार के प्रतिबन्ध का सकारात्मक समर्थन करना मौजूदा मरणासन्न, सड़ते हुए पूँजीवाद के एक उतने ही सड़े हुए उपोत्पाद के प्रति अनालोचनात्मक रुख़ अपनाना है। ऐसे लोगों पर कई निर्मल-निश्छल बौद्धिक स्वयं पोर्न के लती होने का आरोप लगाकर उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। यह बिल्कुल ग़लत अवस्थिति है। कई बार तो इन खिल्ली उड़ाने वालों को ही लोग प्रच्छन्न पोर्न एडिक्ट मानते हैं। कई बार चोरी करने वाला ही सबसे ज़ोर-ज़ोर से “चोर-चोर” चिल्लाता है! बहरहाल, यह मुद्दा ही मूर्खतापूर्ण है कि प्रतिबन्ध का समर्थन करने वाले या विरोध करने वाले स्वयं पोर्न देखते हैं या नहीं। इससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण कोई विमर्श नहीं हो सकता है और जल्द ही इसके गाली-गलौच के गर्त में गिर जाने का पूरा ख़तरा होता है। इसलिए पहले हमें इस मसले में विमर्श करने की बजाय इस मसले पर विमर्श करना चाहिए। हम इस प्रकार के प्रतिबन्ध के समर्थकों से संवाद करते हुए कुछ प्रश्न आपके समक्ष रखेंगे जिससे कि सभी पहलुओं पर कुछ स्पष्टता बन सके।
पहला और सम्भवतः सबसे अहम प्रश्न यह है कि क्या पोर्न वेबसाइटों पर प्रतिबन्ध से पोर्नोग्राफ़ी और स्त्रियों व बच्चों की तस्करी पर कोई फ़र्क पड़ेगा या यह ख़त्म अथवा कम होगी? इस सवाल का सीधा उत्तर है–कतई नहीं! उल्टे यह बढ़ भी सकती है। जो बात यहाँ समझने वाली है वह यह है कि पोर्नोग्राफ़ी इण्टरनेट के आने से पहले भी थी और इण्टरनेट पोर्न माध्यमों पर प्रतिबन्ध लगने पर भी बनी रहेगी। इण्टरनेट पोर्नोग्राफ़ी का स्रोत नहीं बल्कि तमाम माध्यमों में से एक है। दूसरी बात यह कि पोर्नोग्राफ़ी की साइट्स पर यूँ तो प्रतिबन्ध लगना ही सम्भव नहीं है, मगर अगर लग भी जाये तो स्थानीय व राजकीय बाज़ारों में पोर्न कैसेटों, सीडी व डीवीडी का मार्केट जो पोर्न साइटों के कारण कुछ कम हुआ था, वह बेहद तेज़ी से बढ़ेगा। आनुभविक अध्ययन बताते हैं कि जिन क्षेत्रों में इण्टरनेट माध्यम का सघन विस्तार नहीं हुआ है वहाँ पोर्नोग्राफ़ी के अन्य माध्यम कहीं ज़्यादा और बेकाबू किस्म के प्रचलन में हैं। इस सवाल के सन्दर्भ में तीसरी बात जो समझी जानी चाहिए वह यह है कि पोर्न सीडी व डीवीडी का पूरा उद्योग स्त्रियों व बच्चों की तस्करी पर कहीं ज़्यादा बुरी तरह से निर्भर है। पोर्न साइटों पर प्रतिबन्ध जहाँ इन अन्य माध्यमों को बढ़ावा देगा वहीं वह इन उद्योगों के आधार के तौर पर इस प्रकार की तस्करी को भी बढ़ावा देगा और स्थानीय तौर पर इसका बड़े पैमाने पर विस्तार होगा। कहने का यह अर्थ कतई नहीं है पोर्न साइट्स इस तस्करी को बढ़ावा नहीं देती हैं। लेकिन जब पोर्नोग्राफ़ी के उद्योग का ‘प्रॉविंशियलाइज़ेशन’ (प्रान्तीयकरण) होगा, तो निश्चित तौर पर यह तस्करी ज़्यादा तेज़ी से बढ़ेगी।
दूसरा सवाल यह है कि पोर्नोग्राफ़ी पर प्रतिबन्ध कौन लगा रहा है? भाजपाई और हाफ़-पैण्टिये! क्या उनका इरादा ईमानदार है? नहीं! क्यों? ये वह पार्टी है जिसके विधायक विधानसभा में बैठकर मोबाइल पर पोर्न देख रहे थे। इन हाफ़-पैण्टियों में से एक की पोर्न सीडी इन्हीं के एक समारोह में बँट गयी थी। ये तो कई बार विपक्ष की महिला नेताओं तक की तस्वीरें तक देखते हुए पकड़े गये! ऐसे में, कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि उन्होंने स्वयं क्या किया, हमें तो पोर्नोग्राफ़ी पर उनके द्वारा लगाये जाने वाले प्रतिबन्ध का समर्थन करना चाहिए। यह एक अराजनीतिक अवस्थिति है। इस तर्क से मोदी और उसकी हाफ-पैण्टिया ब्रिगेड की ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ!’ का भी समर्थन करना चाहिए! जबकि यह पार्टी देश में पितृसत्ता के मूल्यों को सबसे मज़बूती से पेश करने वाली पार्टी है। एक राजनीतिक दृष्टिकोण इस बात की ताईद करता है कि हमें किसी भी राजनीतिक दल या सरकार के किसी भी कदम का विश्लेषण करते हुए यह देखना चाहिए कि कौन क्या बात कह रहा है और कहने के पीछे उसकी असल मंशा क्या है।
तीसरा प्रश्न यह है कि अगर किसी सरकार को और विशेष तौर पर भगवा फासीवादियों की सरकार को पोर्नोग्राफ़ी पर प्रतिबन्ध लगाने की इजाज़त दी जाती है तो क्या उन्हें आम तौर पर तमाम चीज़ों पर प्रतिबन्ध लगाने और लोगों की रुचियाँ-अभिरुचियाँ निर्धारित करने का लाईसेंस नहीं दे दिया जाता? अगर हम एक मसले पर (चाहे वह पोर्नोग्राफ़ी ही क्यों न हो!) सरकार को प्रतिबन्ध लगाने का प्राधिकार सौंपते हैं तो फिर हम जाने-अनजाने आम तौर पर सरकार को यह तय करने का अधिकार देते हैं या कम-से-कम उसके इस प्राधिकार को वैधता प्रदान करते हैं कि वह अपने विरोध में खड़े किसी भी सांस्कृतिक या कलात्मक रचना या उत्पाद (दोनों में फर्क है!) पर प्रतिबन्ध लगा सके। पोर्नोग्राफ़ी सड़े हुए पूँजीवाद का सड़ा हुआ उत्पाद है। लेकिन पूँजीवादी सत्ता इस पर प्रतिबन्ध लगाने के पूरे नाटक के ज़रिये प्रतिबन्ध लगाने के अपने आम प्राधिकार के लिए समर्थन या वैधता जुटाती है, और वहीं दूसरी ओर ऐसा कोई प्रतिबन्ध लग ही नहीं सकता है, यह व्यावहारिकतः सम्भव नहीं है जैसा कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार ने माना है। क्या सरकार पहले से नहीं जानती थी कि यह प्रतिबन्ध व्यावहारिकतः सम्भव नहीं है? हमें नहीं लगता! यह प्रतिबन्ध सरकार द्वारा जनता के बीच अपने अभिभावक की भूमिका के लिए वैधता ग्रहण करने के लिए उपयोग में लाई गयी एक ‘डिवाइस’ थी और आम तौर पर पूँजीवादी जनतन्त्र में प्रतिबन्धों की राजनीति इसी ‘डिवाइस’ का ही काम करती है। अगर इस पूरे राजनीतिक सन्दर्भ को पूर्णता में न समझा जाय तो आसानी से ऐसे प्रतिबन्ध के समर्थन या विरोध की ग़लती के गड्ढों में गिरा जा सकता है जो कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वास्तव में, ऐसे किसी भी प्रतिबन्ध का समर्थन करते हुए कोई भी पोर्नोग्राफ़ी का रेटॉरिकल विरोध करता है, वास्तविक नहीं। रेटॉरिकल विरोध किये जा सकते हैं, बशर्ते कि वास्तविकता में भी उनकी कोई पंजी (रजिस्टर) हो, दूसरे शब्दों में, यदि वास्तविकता में विरोध के अंग के तौर पर रेटॉरिकल विरोध किया जा रहा हो। मगर पोर्न साइट्स पर सरकार द्वारा प्रतिबन्ध का समर्थन महज़ एक जुमला है। हमें पोर्न पैदा करने वाली पूँजीवादी संस्कृति और समाज का विरोध करने के लिए सरकार द्वारा इस पर लगाये जाने वाले प्रतिबन्ध का समर्थन करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह हमारे असल उद्देश्य को निष्फल कर देता है। हमें इसका वास्तविक और सकारात्मक तौर पर विरोध करना चाहिए और ऐसा कोई भी विरोध महज़ पोर्नोग्राफ़ी का विरोध हो ही नहीं सकता है।
चौथा अहम प्रश्न यह है कि एक दक्षिणपंथी, फासीवादी, पुनरुत्थानवाद को बढ़ावा देने वाली आधुनिक पूँजीवादी सरकार आने वाले समय में पोर्नोग्राफ़ी अथवा अश्लीलता के दायरे में किन-किन चीज़ों को ले आयेगी? यानी कि परिभाषा का प्रश्न बेहद अहम है। कल को यह सरकार नग्नता, इरॉटिका, सेंशुअस के कलात्मक चित्रण या रिप्रेसेण्टेशंस को भी अश्लीलता या पोर्नोग्राफ़ी की श्रेणी में शामिल कर सकती है। इसमें न सिर्फ़ साइट्स शामिल हो सकती हैं, बल्कि तमाम फिल्में, साहित्य, चित्र, फोटोग्राफ़ी आदि की रचनाएँ भी पोर्नोग्राफ़ी में डाली जा सकती हैं। हुसैन, सल्वाडोर डाली, पिकासो के कई चित्र अश्लील या पोर्न की श्रेणी में डाले जा सकते है; फेदेरिको फेलिनी, पासोलीनी, गोदार, बर्तोलूची, क्यूब्रिक आदि की कई फिल्मों को भी पोर्न या अश्लील सामग्री की श्रेणी में डाला जा सकता है। तसलीमा नसरीन, तहमीना दुर्रानी, मण्टो और इस्मत चुग़ताई, माया एंजेलो, मारकेस आदि की कई साहित्यिक रचनाओं को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। और जो ताक़तें आज सत्ता में हैं, वे अपने विचारधारात्मक मंशा से प्रस्थान करते हुए इन्हें अश्लीलता और पोर्न की श्रेणी में वाकई डाल सकती हैं। आप उपरोक्त तमाम कलाकारों की रचनाओं की निश्चित तौर पर आलोचना कर सकते हैं; आप उनसे असहमत हो सकते हैं और उनके वर्ग चरित्र पर और राजनीतिक विचारधारा पर प्रश्न उठा सकते हैं। मगर उन पर प्रतिबन्ध लगाने के ‘ट्रेण्ड’ का समर्थन करने का अर्थ होगा मौजूदा सीमित पूँजीवादी जनतन्त्र या पूँजी के ‘बनाना रिपब्लिक’ को ‘बैन-आना रिपब्लिक’ या ‘प्रतिबन्धों के जनतन्त्र’ में तब्दील कर देने की प्रक्रिया को वस्तुगत तौर पर समर्थन प्रदान करना। निश्चित तौर पर, हाफ-पैण्टिया ब्रिगेड कभी ‘कामसूत्र’ या खजुराहो पर प्रतिबन्ध नहीं लगाएगी और इसके कारणों पर ज़्यादा चर्चा करना फालतू में पन्ने काले करने के समान होगा। वे सिर्फ़ उन चीज़ों पर प्रतिबन्ध लगायेंगे जो उनके ख़िलाफ़ जाती हैं। और एक दफ़ा यह गाड़ी चल पड़ी तो उसके लपेटे में हर जनवादी और प्रगतिशील ताक़त भी आ जायेगी।
पाँचवाँ महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि वेश्यावृत्ति, अश्लीलता, स्त्रियों व बच्चों की तस्करी या यौन उत्पीड़न पोर्नोग्राफ़ी से पैदा हुआ है या मामला उल्टा है? कुछ लोगों ने इस प्रकार के भी विचार प्रस्तुत किये कि पोर्न साइट्स के कारण स्त्रियों व बच्चों के यौन शोषण व तस्करी को बढ़ावा मिल रहा है। यह भी एक पहलू है, मगर मूल बात यह है कि स्त्रियों व बच्चों की तस्करी व यौन उत्पीड़न के संस्थाबद्ध उद्योग के कारण ही पोर्न साइट्स को बढ़ावा मिल रहा है। बल्कि कह सकते हैं कि पोर्नोग्राफ़ी उस उद्योग के तमाम उपोत्पादों में से महज़ एक उत्पाद है। जैसा कि हमने पहले बताया, पोर्न साइट्स व सीडी-डीवीडी के उद्योगों के पहले से ही वेश्यावृत्ति व मानव तस्करी का उद्योग फलता-फूलता रहा है और वैसे तो पोर्नोग्राफ़ी को ख़त्म करने का कार्य पूँजीवाद कर ही नहीं सकता है, लेकिन यदि इस पर कोई प्रभावी रोक लगा भी दी जाय तो वेश्यावृत्ति व मानव तस्करी का धन्धा ख़त्म या कम हो जायेगा, यह मानना नादानी होगा।
पूँजीवादी व्यवस्था हर चीज़ को माल में तब्दील कर देती है। यह स्त्रियों ही नहीं, बल्कि पुरुषों व बच्चों को भी माल में तब्दील करती है। निश्चित तौर पर, जो समाज में ज़्यादा अरक्षित होगा उसका वस्तुकरण व मालकरण पूँजी की ताक़तों के लिए ज़्यादा सहज और सरल होगा और साथ ही व ज़्यादा अमानवीय, घृणित और पाशविक रूप लेगा। यह बात जितना स्त्रियों व बच्चों के श्रम के अतिशोषण पर लागू होती है, उतनी ही उनके शरीर के मालकरण व अतिशोषण पर भी लागू होती है। पोर्नोग्राफ़ी के किसी भी माध्यम पर प्रतिबन्ध अव्वलन तो यह सरकार लगा ही नहीं सकती है और यह व्यावहारिकतः उसके लिए सम्भव नहीं होगा; दूसरी बात यह है कि एक फासीवादी पूँजीवादी सरकार द्वारा लगाये जाने वाले ऐसे निष्प्रभावी और ‘मीडिया गिमिक’ के तौर पर लगाये गये प्रतिबन्ध का समर्थन करना कहीं न कहीं प्रतिबन्धों की राजनीति करने के उसके प्राधिकार के वैधीकरण का काम करेगा और उसके लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करने के अधिकार को भी बढ़ावा देगा; तीसरी बात यह है कि यह उन्हें पोर्न की परिभाषा के दायरे में तमाम ऐसे कलात्मक रूपों को लाने का अवसर देगा जो विचारधारात्मक-राजनीतिक तौर पर उनके ख़िलाफ़ हैं; और यह अवस्थिति अपनाना पोर्नोग्राफ़ी का समर्थन करना नहीं है। इस प्रतिबन्ध के समर्थन और विरोध की बजाय सरकार की मंशा और उसकी नौटंकी के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया जाना चाहिए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्टूबर 2015
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