हज़ारों बेगुनाहों के हत्यारे की मौत और भोपाल गैस त्रासदी के अनुत्तरित प्रश्न
सुनील
30 साल पहले हुई भोपाल गैस त्रासदी में हज़ारों लोगों की मौत के सौदागर यूनियन कार्बाइड कम्पनी के प्रमुख वारेन एण्डरसन की मौत गत 29 सितम्बर को हो चुकी है। भोपाल गैस त्रासदी सम्पूर्ण विश्व के औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना थी, जिसमें लगभग 20,000 लोग मौत की नींद सो गये और लगभग छह लाख लोग विकलांग एवं घातक बीमारियों से ग्रस्त हो गये। दुर्घटना प्रभावित लोगों ने एण्डरसन की मौत पर ख़ुशी ज़ाहिर की, वहीं कुछ लोगों ने एण्डरसन की मौत के बाद उसकी तस्वीर पर जूते फेंककर और थूककर अपना रोष प्रकट किया। इस तरह की कार्रवाइयाँ लोगों के दिलों को भले ही क्षणिक छद्म सान्त्वना प्रदान कर सकती हो परन्तु वाकई में दुर्घटना से प्रभावित परिवारों का दुख-दर्द इससे रत्ती-भर भी घटने वाला नहीं है। वे ताज़िन्दगी अपनी नियति पर रोने के लिए मजबूर हैं। इस घटना ने नरभक्षी मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था, पूँजीवादी राजनीति से लेकर पूँजीवादी न्याय की बखिया उधेड़ दी थी।
2-3 दिसम्बर 1984 की रात को लगभग साढ़े ग्यारह बजे यूनियन कार्बाइड कम्पनी से बेहद ज़हरीली गैस मिथाइल आइसोसायनाइड का रिसाव शुरू हुआ और देखते ही देखते गैस के बादलों ने शहर के 36 वार्डों को ढँक लिया। गैस का असर इतना तेज़ था कि चन्द पलों में ही दम घुटने से सैकड़ों लोग मारे गये, हज़ारों अन्धे हो गये, बहुत-सी महिलाओं का गर्भपात हो गया, हज़ारों लोग फ़ेफड़े, लीवर, गुर्दे या दिमाग़ काम करना बन्द कर देने के कारण मर गये या अधमरे हो गये। बच्चों, बीमारों और बूढ़ों को तो घर से निकलने का मौक़ा तक नहीं मिला। हज़ारों लोग महीनों तक तिल-तिल कर मरते रहे तथा लगभग 6 लाख लोग विकलांग तथा विभिन्न गम्भीर बीमारियों से ग्रस्त हो गये। गैस का असर इतना व्यापक था कि पचासों वर्ग किलोमीटर के दायरे में मवेशी और पक्षी तक मर गये, ज़मीन व पानी में ज़हर का असर फैल गया। घटना के तीस साल बाद आज भी लोग तरह-तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं। बच्चे जन्म से विकलांग या बीमारियों से ग्रस्त होते हैं। आज भी वहाँ की ज़मीन और पानी से ज़हर का असर ख़त्म नहीं हुआ है।
इस दिल दहला देने वाली घटना की बुनियाद काफ़ी समय पहले से लिखी जा रही थी। मुनाफ़े की अन्धी हवस में कम्पनी प्रशासन चन्द पैसे बचाने के लिए सारे सुरक्षा उपायों को ताक पर रखकर काम करवा रहा था। कीटनाशक कारख़ाने की टेक्नोलॉजी बेहद पुरानी पड़ चुकी थी और ख़तरनाक होने के कारण उसे अमरीका में ख़ारिज भी किया जा चुका था। परन्तु भारत के सत्ताधारियों ने उसे लगाने की इजाज़त दी। मिथाइल आइसोसायनाइड गैस इतनी ज़हरीली होती है कि उसकी बहुत छोटी मात्रा ही भण्डारित की जा सकती है, परन्तु उसका इतना बड़ा भण्डार रखा गया था जो शहर की आबादी को ख़त्म करने के लिए काफ़ी था। इतना ही नहीं सुरक्षा इन्तज़ामों में भी एक-एक करके कटौती की गयी थी। मिथाइल आइसोसायनाइड गैस को 0 से 5 डिग्री तापमान पर भण्डारित करना आवश्यक होता है। जबकि कूलिंग सिस्टम 6 महीने पहले से ही बन्द था। गैस टैंक का मेण्टेनेंस स्टाफ़ घटाकर आधा कर दिया गया था और गैस लीक होने की चेतावनी देने वाला सायरन भी बन्द कर दिया गया था। फ़ैक्टरी में काम करने वाले मज़दूर जानते थे कि शहर मौत के सामान के ढेर पर बैठा है किन्तु उनकी सुनने वाला भला वहाँ कौन था? गैस जिस दिन मौत बनकर शहर पर टूटी तो सफ़ेदपोश कातिलों में से किसी को खरोंच तक नहीं आयी, क्योंकि वे फ़ैक्टरी इलाक़े से कई किलोमीटर दूर अपने आलीशान बँगलों में मुम्बई व अमरीका में बैठे थे।
इस भयावह मंज़र के दोषियों की करतूत पर पर्दा डालने के लिए केन्द्र और राज्य की सरकारों और कांग्रेस, भाजपा आदि जैसी पूँजीपतियों के तलवे चाटने वाली चुनावी पार्टियों और यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट से निचली अदालतों तक पूरी न्यायपालिका और स्थानीय नौकरशाही ने जिस नीचता का परिचय दिया उस पर नफ़रत से थूका ही जा सकता है। 7 जून 2010 को भोपाल की एक निचली अदालत के फ़ैसले में कम्पनी के 8 पूँजीपतियों को 2-2 साल की सज़ा सुनायी और कुछ ही देर बाद उनकी जमानत भी हो गयी और वे ख़ुशी-ख़ुशी अपने घरों को लौट गये। दरअसल इंसाफ़ के नाम पर इस घिनौने मज़ाक़ की बुनियाद 1996 में भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस अहमदी द्वारा रख दी गयी थी जिसने कम्पनी और मालिकान पर आरोपों को बेहद हल्का बना दिया था और उन पर मामूली मोटर दुर्घटना के तहत लागू होने वाले क़ानून के तहत मुक़दमा दर्ज़ किया गया जिसमें आरोपियों को 2 साल से अधिक की सज़ा नहीं दी जा सकती। और इसके बदले में अहमदी को भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर बने ट्रस्ट का आजीवन अध्यक्ष बनाकर पुरस्कृत किया गया। अगर वह वाकई में इंसाफ़ के पक्षधर होते तो वे देश की संसद से विशेष क़ानून बनाकर या अध्यादेश लाकर दोषियों के ख़िलाफ़ कठोर कार्रवाई की माँग कर सकते थे। अगर सरकार की भी नीयत साफ़ होती तो घटना के तुरन्त बाद विशेष अध्यादेश लाकर दोषियों पर कड़ी कार्रवाई का प्रावधान किया जा सकता था परन्तु मामले को लगातार कमज़ोर किया जाता रहा। केन्द्र सरकार के इशारे पर काम करने वाली सीबीआई ने भी मुक़दमे की पैरवी से लेकर वारेन एण्डरसन को भारत लाने में पर्याप्त ढिलाई बरती। गैस काण्ड के कुछ ही दिनों बाद वारेन एण्डरसन भारत आया भी था, लेकिन उसे भारत से भाग जाने में तत्कालीन सरकार ने पूरी मदद की और उसके बाद उसे कभी भारत नहीं लाया जा सका। जनता के सच्चे प्रतिनिधियों की कोई भी सरकार इस भीषण हत्याकाण्ड रचने वाली किसी भी कम्पनी और मालिकान की सारी सम्पत्ति ज़ब्त कर लेती और इससे पीड़ितों के मुआवज़े, इलाज, पुनर्वास और भोपाल के मिट्टी-पानी में फैले ज़हर की सफ़ाई का बन्दोबस्त करती। लेकिन कई वर्ष बाद सरकार ने कम्पनी के साथ शर्मनाक समझौता किया जिसके तहत कम्पनी ने मात्र 47 करोड़ डॉलर का जुर्माना देकर पूरी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। दुनिया में शायद पहली बार अपराधी पर जुर्माने की रक़म उसकी मर्ज़ी से तय की गयी।
भोपाल में जिस समय लाशों के ढेर लगे थे और शहर के अस्पताल घायलों एवं विकलांगों से पटे पड़े थे, उसी समय तत्कालीन राज्य सरकार हत्यारे वारेन एण्डरसन को बेशर्मी के साथ ससम्मान अमेरिका भेजने की जुगत में लगी हुई थी। भोपाल पहुँचते ही एण्डरसन की गिरफ्तारी हुई। 6 घण्टे बाद ही उसे ज़मानत पर रिहा करके सरकार के विशेष हवाई जहाज़ से दिल्ली लाया गया जहाँ से वह अमरीका भाग गया और फिर कभी सुनवाई के लिए अदालत में हाज़िर नहीं हुआ। उस समय मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे अर्जुन सिंह इस मुद्दे पर अपना बचाव करते हुए पक्ष रखते हैं कि क़ानून-व्यवस्था को बनाये रखने के लिए उस समय एण्डरसन को भोपाल से बाहर निकालना ज़रूरी था तथा वित्तमन्त्री प्रणव मुखर्जी भी अर्जुन सिंह से सहमति में सिर हिलाते हैं। यह बेहूदा तर्क देकर हज़ारों बेगुनाहों के हत्यारे एण्डरसन को भाग जाने दिया गया। तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की मर्ज़ी के बग़ैर भी यह सम्भव नहीं हो पाता। परन्तु यहाँ सवाल व्यक्तिगत आक्षेप का नहीं है। सच यह है कि पूँजीवादी सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती हैं और पूँजीपति वर्ग और उनके हितों की रक्षा करना इनकी नियति व परम धर्म है। इसलिए अमेरिकी पूँजी की चाकर अमेरिकी सत्ता जब एण्डरसन की रिहाई का दबाव भारतीय राज्यसत्ता पर बना रही थी तो अपनी औक़ात से बाहर निकलकर अपने सीनियर पार्टनर की अवहेलना करने की कूवत भारतीय सरकार में नहीं थी।
बात सिर्फ़ एण्डरसन की ही नहीं बल्कि कार्बाइड के भारतीय सब्सिडियरी के प्रमुख केशव महेन्द्रा सहित सभी बड़े अधिकारियों की भी है, जो कठोरतम सज़ा के हक़दार थे। लेकिन पूरा सत्तातन्त्र तन-मन-धन से उन्हें बचाने में लगा हुआ था। आज उस भयावह नरसंहार के इतने सालों बाद भी दोषी धड़ल्ले से आज़ाद घूम रहे हैं, वहीं पीड़ित आज भी अपने हश्र पर आँसू बहाने को मजबूर हैं, उनका दर्द सुनने वाला कोई नहीं। भोपाल गैस काण्ड पूँजीवादी व्यवस्था की एक प्रतीक घटना है। इसने साफ़ तौर पर पूरी व्यवस्था की, चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो या न्यायपालिका हो, असलियत को सरेआम बेपर्द कर दिया था। आज भी भारतीय इतिहास का यह भयानक अध्याय चीख़-चीख़कर इस मानवद्रोही व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने की माँग कर रहा है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-दिसम्बर 2014
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