इटली में फ़ासीवाद के उदय से हमारे लिए अहम सबक
खुशबू
साम्प्रदायिक दंगों की चुनावी राजनीति ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि राजनीतिक तौर पर संकटग्रस्त भारतीय पूँजीवाद फ़ासीवादी ताकतों को फलने-फूलने का पूरा मौका दे रहा है ताकि जनता का ध्यान जीवन के मूल प्रश्नों जैसे- शिक्षा, रोज़गार, चिकित्सा, भुखमरी, बेकारी की ओर न जाये। इसलिए उसे एक छद्म दुश्मन के नाम पर भाषा, धर्म, क्षेत्र, नस्ल में बाँट दिया जाता है। फ़ासीवादी उभार की जमीन हमेशा पूँजीवादी विकास से पैदा होने वाली बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, अस्थिरता, असुरक्षा, अनिश्चितता और आर्थिक संकट से तैयार होती है। फ़ासीवादी प्रतिक्रिया का ख़तरा उन देशों में सबसे अधिक होता है जहाँ पूँजीवादी विकास किसी क्रान्तिकारी प्रक्रिया के द्वारा नहीं, बल्कि एक विकृत, विलम्बित और ठहरावग्रस्त प्रक्रिया से होता है। भारत एक ऐसा ही देश है जहाँ का पूँजीवाद रुग्ण, विकृत तथा बौने किस्म का है। यहाँ के पूँजीवाद ने सामन्ती सम्बन्धों के साथ गठजोड़ कायम किया है। भारतीय फ़ासीवाद जर्मनी और इटली के फासीवाद का मिला-जुला संस्करण है।
मुसोलिनी के भारतीय मानस-पुत्रों के पैदा होने के कारणों को समझने के लिए इटली में फ़ासीवादी उभार को समझना ज़रूरी है। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद बेनिटो मुसोलिनी के नेतृत्व में 1919 में इटली में फ़ासीवादी उभार पैदा हुआ। मुसोलिनी पहले इतालवी समाजवादी पार्टी में शामिल था। यह समाजवादी पार्टी अपने जन्म से ही दक्षिणपंथी भटकाव का शिकार थी और एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी से बिल्कुल भिन्न थी। ग्राम्शी भी पहले इसी पार्टी में थे, लेकिन बाद में वह इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक बने। इतालवी समाजवादी पार्टी में शुरु से ही संघाधिपत्यवाद, सुधारवाद और अर्थवाद के तत्व थे। मुसोलिनी इसी समाजवादी पार्टी से निकला और फिर उसने फासीवादी पार्टी की स्थापना की।
प्रथम विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की तरफ से युद्ध में हिस्सा लेने के बाबजूद इटली को कुछ ख़ास फ़ायदा नहीं मिला था। जबकि युद्ध में उसे काफ़ी क्षति उठानी पड़ी थी। इस क्षति के कारण इटली में आर्थिक अराजकता और अव्यवस्था भी फैली और साथ ही इटली की जनता में एक रोष का माहौल पैदा हुआ। समूचे देश में एक प्रतिक्रिया का माहौल था। ख़ासकर, सैनिक वर्गों में ज़्यादा रोष था। वहीं दूसरी तरफ देश के आर्थिक हालात बद से बदतर हो चुके थे। मौजूदा सरकार कमज़ोर होने के साथ-साथ बिलकुल अप्रभावी भी हो गयी थी। ऐसे समय में जनता के व्यापक हिस्से में असन्तोष व्याप्त था जिससे मज़दूर उभार हो रहे थे। तभी मुसोलिनी ने फ़ासीवादी आन्दोलन की शुरुआत की।
यह याद रखना ज़रूरी होगा कि यही वह समय था जब साम्राज्यवाद अपने पहले संकट की तरफ़ बढ़ रहा था। साथ ही यह याद रखना भी ज़रूरी है कि जब इटली का एकीकरण हो रहा था और वहाँ पूँजीवादी विकास की स्थितियाँ पैदा हो रही थीं, उस समय दुनिया में विश्व पूँजीवादी व्यवस्था साम्राज्यवाद की मंज़िल में प्रवेश कर चुकी थी। इस वजह से इटली में पूँजीवादी विकास बहुत ही द्रुत गति से हुआ जिसने आम मेहनतकश आबादी, निम्न मध्यवर्गीय आबादी और आम मध्यवर्गीय आबादी को इस गति से उजाड़ा जिसे व्यवस्थित करने की क्षमता इस देश के अविकसित पूँजीवादी जनवाद में नहीं थी। वहीं दूसरी तरफ, विश्वव्यापी पूँजीवादी मन्दी (1921-1923) ने इस देश के पूँजीपति वर्ग की हालत खस्ता कर दी थी। जिसका परिणाम ये निकला कि पूँजीपति वर्ग अब उदार पूँजीवादी जनवाद और उसकी कल्याणकारी नीतियों के ख़र्चे उठाने के लिए कतई तैयार नहीं था। इसके लिए सभी जनवादी अधिकारों का दमन और मज़दूर आन्दोलन को कुचलना ज़रूरी था। इस आन्दोलन को एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन के जरिये ही कुचला जा सकता था।
फ़ासीवादी उभार हर हमेशा मुख्य तौर पर दो वर्गों को ही फ़ायदा पहुँचाता है -1.वित्तीय और औद्योगिक बड़ा पूँजीपति वर्ग और धनी किसान, 2. कुलक व फार्मरों का वर्ग, यानी बड़ा ग्रामीण पूँजीपति वर्ग। इटली में भी ऐसा ही हुआ। पूँजीवाद के संकट से निपटने के लिए इन्हीं शासक वर्गों को एक ऐसी प्रतिक्रियावादी राजनीतिक धारा की ज़रूरत होती है जो कि मज़दूर उभार और ग़रीब किसानों की बग़ावत से “कठोरता और निर्णायकता” से निपटकर “देश के खोए हुए गौरव को पुनर्स्थापित कर सकता है।” इटली में 1890 के दशक में उद्योगीकरण की शुरुआत हुई। इसकी रफ़्तार काफ़ी तेज़ होने के बावजूद भी यह विकास क्षेत्रीय तौर पर बहुत ही असमानतापूर्ण रहा। उत्तरी इटली में मिलान, तूरिन और रोम के मिलने से बने त्रिभुजाकार इलाके में उद्योगों का ज़बर्दस्त विकास हुआ और इतालवी समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में एक मज़दूर आन्दोलन भी पैदा हुआ। बाद में इसके नेतृत्व में इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी का भी प्रवेश हुआ। उत्तरी इटली के क्षेत्र में भूमि-सुधार भी एक हद तक लागू हुआ। नतीजतन, औद्योगिक और कृषि क्षेत्र, दोनों में ही एक मज़दूर आन्दोलन पैदा हुआ।
वहीं दूसरी ओर दक्षिणी इटली था जहाँ सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों का वर्चस्व कायम था। यहाँ कोई भूमि सुधार लागू नहीं हुए थे और विशाल जागीरें थी जिसपर बड़े भूस्वामियों का कब्ज़ा था। इन जागीरों को ही लातिफुन्दिया कहा जाता था। इसके अतिरिक्त, छोटे किसानों और खेतिहर मज़दूरों की एक विशाल आबादी थी जो पूरी तरह इन बड़े भूस्वामियों के नियंत्रण में थी। ये भूस्वामी अपने सशस्त्र गिरोहों द्वारा इस नियंत्रण को कायम रखते थे। इन्हीं गिरोहों को इटली में माफ़िया कहा जाता था जो बाद में स्वायत्त शक्ति बन गये और चोट पहुँचाने का काम करने लगे। फ़ासीवादियों ने इन माफ़िया गिरोहों का खूब लाभ उठाया। परन्तु 1919-20 के मज़दूर उभार ने सम्पत्तिधारी वर्गों के दिल में खौफ़ पैदा कर दिया था। उस समय इटली में मज़दूरों ने कारखानों पर कब्ज़ा करना, अपनी परिषदें बनाना और सत्ता का प्रश्न उठाना शुरू कर दिया था। तब मुसोलिनी ने उद्योगपतियों से वादा किया कि वे उसका समर्थन करें और बदले में औद्योगिक अनुशासन प्राप्त करें। (क्या आज मोदी के लिए अम्बानी, मित्तल, जिन्दल जैसे पूँजीपतियों से मिल रहे समर्थन में इटली में मुसोलिनी को पूँजीपतियों से मिल रहे समर्थन की छाया नहीं दिख रही है?) नतीजतन, मुसोलिनी को उद्योगपतियों से भारी आर्थिक मदद मिलनी शुरू हो गयी। और इसी आर्थिक मदद के बूते पर फासीवादियों के सशस्त्र दस्तों ने शहरों में मज़दूर कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं, कम्युनिस्टों, हड़तालियों आदि पर हमले किये और उनकी हत्याएँ करनी शुरू कर दी।
रोम पर चढ़ाई करने के बाद 1922 में मुसोलिनी इटली का प्रधानमंत्री बना और उसकी गठबंधन सरकार में इतालवी संशोधनवादी भी शामिल थे। उनका मानना था कि मुसोलिनी को वे उदारवादी धारा का अंग बना लेंगे। परन्तु ऐसा हो न सका। कालान्तर में मुसोलिनी ने फ़ासीवादी शासन को सुदृढ़ रूप से स्थापित करने के सारे हथकण्डों को अपनाना शुरू कर दिया। उसने सारे मज़दूर यूनियनों की बागडोर फ़ासीवादी पुजारियों के हाथ में थमा दी, जिसका परिणाम यह था कि मज़दूरों का जबर्दस्त शोषण जारी रहा। इतालवी फ़ासीवाद को कृषक पूँजीपति वर्ग का भी भरपूर समर्थन प्राप्त था।
इटली में फ़ासीवाद के उभार का एक बहुत बड़ा कारण मज़दूर वर्ग के गद्दार सामाजिक जनवादियों की हरकतें रहीं। जबकि इस देश में क्रान्तिकारी सम्भावना ज़बर्दस्त रूप से मौजूद थी। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने मज़दूर आन्दोलन को अर्थवाद, सुधारवाद, संसदवाद और ट्रेड यूनियनवाद की चौहद्दी में ही कैद रखा। और तब ऐसा समय था जब मेहनतकश अवाम पूँजीवाद के संकट के एक व्यवस्थागत विकल्प की तलाश कर रहा था। कोई ठोस विकल्प मौजूद नहीं होने कि वजह से क्रान्तिकारी सम्भावना ने अपना रुख प्रतिक्रियावाद की तरफ कर लिया जिसका भरपूर इस्तेमाल करने के लिए यहाँ कि फ़ासीवादी पार्टी तैयार खड़ी थी। इसलिए कहा जा सकता है कि फ़ासीवादी उभार की सम्भावना विशेष रूप से उन पूँजीवादी देशों में हमेशा पैदा होगी जहाँ पूँजीवाद बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के जरिये नहीं आया बल्कि किसी प्रकार की क्रमिक प्रक्रिया से आया, जहाँ क्रान्तिकारी भूमि सुधार लागू नहीं हुए, जहाँ पूँजीवाद का विकास किसी लम्बी, सुव्यवस्थित, गहरी पैठी प्रक्रिया के ज़रिये नहीं बल्कि असामान्य रूप से अव्यवस्थित, अराजक और द्रुत प्रक्रिया से हुआ, जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजीवाद इस तरह विकसित हुआ कि सामन्ती अवशेष किसी न किसी मात्रा में बचे रह गए। ऐसे सभी देशों में पूँजीवाद का संकट बेहद जल्दी उथल-पुथल की स्थिति पैदा कर देता है जिसके कारण समाज में बेरोज़गारी, ग़रीबी, अनिश्चितता, असुरक्षा का पैदा होना और करोड़ों कि संख्या में जनता का आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक तौर पर उजड़ना बहुत तेज़ी से होता है। वैसे अब यह बात सिर्फ़ ऐसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में लागू नहीं हो रही बल्कि कुछ उन्नत पूँजीवादी देशों में भी पूँजीवाद के संकट के गहराने के साथ एक अलग रूप में फासीवादी उभार हो रहे हैं। बहरहाल, ऐसे में पैदा होने वाली क्रन्तिकारी परिस्थिति को कोई तपी-तपाई क्रन्तिकारी पार्टी ही संभाल सकती हैं। फ़ासीवादी उभार हर-हमेशा सामाजिक जनवादियों की घृणित गद्दारी के कारण और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों कि अकुशलता के कारण सम्भव हुआ है। इन तथ्यों का साक्ष्य स्वयं इटली है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-दिसम्बर 2013
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