न्यायपालिका का स्पष्ट होता जनविरोधी चरित्र

वेरा

बुर्जुआ “जनवाद” के तीन सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में निश्चित तौर पर न्यायपालिका ही वह स्तम्भ है जिसकी कार्यकुशलता पर आम आदमी की अटूट आस्था बनी रहती है । लेकिन हाल के दिनों में इस अटूट आस्था में दरारें पड़नी शुरू हो गई हैं । ऐसा होना लाजिमी था । जो “जनतंत्र” देश की बहुसंख्यक आम आबादी को गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, महँगाई, शोषण, तबाही–बरबादी के सिवा कुछ और दे नहीं सकता, उस जनतंत्र को कायम रखने में कार्यरत हर उस संस्था, व्यवस्था और प्रणाली से लोगों का विश्वास आज नहीं तो कल उठ ही जाएगा । गौरतलब है कि न्यायपालिका की “न्यायशीलता” के तर्क और इस प्रकार के तर्क पेश करने वाले लोगों में भी इस “दैवीय” न्यायिक प्रणाली के ख़िलाफ आक्रोश पनप रहा है, कि देश की न्याय–व्यवस्था सबके लिए समान न्याय के सिद्धान्त पर चलती है, कि इस “लोकतान्त्रिक” व्यवस्था की तमाम दिक्कतों की जड़ तो सरकार और नौकरशाही के काम करने के तरीकों में है, आदि । इन तर्कों से कुछ ऐसा लगता था कि न्यायपालिका तो इस व्यवस्था से इतर या परे कोई ताकत है । पढ़ी–लिखी मध्यमवर्गीय आबादी जो इस न्यायपालिका की ईमानदार सक्रियता के प्रति मुग्ध–अभिभूत रहती थी, अब उसकी नजरों में भी इसका पूँजीपरस्त जनविरोधी चरित्र उजागर होता जा रहा है । जेसिका लाल काण्ड केस, नितीश कटारा हत्याकाण्ड जैसे तमाम ऐसे मुकदमों ने, जिसमें पुख़्ता सबूतों के अभाव और सारे गवाहों के पलट जाने के कारण आरोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया गया, मध्यम वर्ग की आँखों से पूँजीवादी न्यायशीलता के पाखण्ड की पट्टी को उतार फेंका है । कहने की जरूरत नहीं है कि जेसिका लाल–प्रियदर्शिनी मट्टू वे मामले थे जिन्हें पर्याप्त मीडिया कवरेज मिली क्योंकि जेसिका लाल एक ख्याति प्राप्त मॉडल थी और प्रियदर्शिनी मट्टू भी खाते–पीते घर से आती थी । लेकिन देश भर में ऐसी न जाने कितनी स्त्रियों को इंसाफ नहीं मिल पाता है । उनका नाम मीडिया में भी नहीं आ पाता है क्योंकि वे इस समाज के सर्वाधिक शोषित और उत्पीड़ित तबकों से आती हैं और पूँजी और पितृसत्ता की दोहरी मार झेल रही होती हैं । भँवरी देवी को आज तक न्याय नहीं मिला क्योंकि जिन व्यक्तियों ने भँवरी देवी के साथ बलात्कार किया था, वे उच्च वर्ग के और ग्रामीण समाज के प्रभावशाली लोग थे । उसी न्यायपालिका की “न्यायशीलता” का आलम यह था कि यह मामला कोर्ट ने यह कहकर खारिज कर दिया कि सवर्ण हिन्दू भँवरी देवी जैसी दलित स्त्री का बलात्कार कर ही नहीं सकते क्योंकि वह उनके लिए अछूत होती है ।

पूँजीवादी न्यायपालिका का वर्ग चरित्र और वर्गीय पूर्वाग्रह हर रोज एक नये अवतार में बड़ी बेशर्मी के साथ सामने आ रहा है । इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण दिल्ली के रिहायशी इलाकों से उद्योग–धन्धे हटाने का निर्णय था जिसमें पर्यावरण के संरक्षण के नाम पर लाखों मजदूरों को दिल्ली से बाहर खदेड़ दिया गया । हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा कि समाज के ऐसे लोग जिनकी आर्थिक–सामाजिक हैसियत दिल्ली में जीवन बिताने लायक नहीं है, वे दिल्ली छोड़ दें । ऐसे लोगों को राजधानी में रहने का कोई हक नहीं है । इन मामलों से न्यायपालिका का वर्ग चरित्र साफ़ उजागर होता है और अगर सज़ा मिलने की दर को देखा जाय कि जिन मामलों में ग़रीब फँसते हैं उनमें कितने प्रतिशत को सज़ा मिलती है और जिनमें अमीर फँसते हैं उनमें कितने प्रतिशत को, तो साफ़ देखा जा सकता है कि न्यायपालिका का जनविरोधी चरित्र किस तरह और अधिक प्रत्यक्ष होता जा रहा है ।

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स, जुलाई-सितम्‍बर 2006

 

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