साथी अरविन्द नहीं रहे!
छात्रों–युवाओं ने खो दिया अपना प्रिय मार्गदर्शक और नेता, मेहनतकशों ने खो दिया अपना जुझारू और भरोसेमन्द सेनापति और साथियों ने खो दिया अपने हृदय का एक टुकड़ा!
हमारे स्वप्नों, संकल्पों और संघर्षों में जीवित रहेंगे अरविन्द हमेशा–हमेशा!
विगत 24 जुलाई, 2008 को हम सभी के प्रिय अग्रज साथी, नेता और राजनीतिक शिक्षक अरविन्द हम सबसे हमेशा–हमेशा के लिए जुदा हो गये । शोक सन्तप्त, बोझिल हृदय से हम अभी भी इस बेरहम सच्चाई को स्वीकार करने की कोशिश कर रहे हैं । अरविन्द का इस तरह अप्रत्याशित हमारे बीच से हमेशा के लिए चले जाना न केवल हमारे लिए वज्राघात है, बल्कि पूरे देश के मेहनतकश अवाम और छात्रों–युवाओं के क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए एक भारी धक्का है ।
साथी अरविन्द की छिटपुट अस्वस्थता की समस्या निरन्तर आन्दोलनात्मक व्यस्तताओं, राजनीतिक यात्राओं और लेखन–कार्य की व्यस्तताओं के बीच पिछले लगभग डेढ़–दो माह से लगातार जारी थी । थॉयरायड की समस्या उन्हें पहले से थी । कुछ साथियों के आग्रह के बावजूद विस्तृत डॉक्टरी जाँच का काम राजनीतिक व्यस्तताओं के कारण वे टालते जा रहे थे । दरअसल स्वास्थ्य की समस्या की गम्भीरता का अहसास न तो उन्हें ही था और न ही साथियों को । 23 जुलाई को उन्हें बहुत अधिक कमज़ोरी और सांस लेने में परेशानी होने पर जब गोरखपुर के एक नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया तो पता चला कि फेफड़े और श्वासनली के गम्भीर संक्रमण के कारण दिल पर बहुत अधिक दबाव है । कुछ और जाँच के बाद पता चला कि गुर्दे भी काम नहीं कर रहे हैं तथा आँतों में भी गम्भीर संक्रमण है । डायलिसिस शुरू हो पाये, इसके पहले ही थोड़े–थोड़े अन्तराल पर उन्हें दिल के तीन गम्भीर दौरे पड़े और रात लगभग 9.40 से 9.45 के बीच हमारा प्यारा साथी और मेधावी और जुझारू नेता हमसे सदा के लिए दूर चला गया ।
साथी अरविन्द की मृत्यु एक सामान्य मृत्यु नहीं है । यह प्रतिक्रिया और विपर्यय के हिमयुग में जीते हुए एक ठण्डे–बेरहम समय के विरुद्ध संघर्ष में जूझते हुए दी गयी एक अनमोल अविस्मरणीय शहादत है । क्रान्तिकारी उभार के दिनों के मुकाबले ऐसे ठण्डे, गतिरोध भरे दिनों में जूझना और कुर्बानी देना कहीं अधिक कठिन होता है और दुर्लभ भी । हम एक ऐसे असामान्य कठिन समय में जी रहे हैं जब तमाम मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वामपन्थी मुहावरों की जुगाली करते हुए पद–पीठ–पुरस्कारों की कुत्तादौड़ में भाग रहे हैं और हत्यारों की महफि़ल में राग दरबारी गा रहे हैं । ज़िन्दगी के ज़िन्दा सवालों को उत्तरआधुनिक भाषाई खेल में ग़ायब कर दिया गया है और अस्मितावादी राजनीति का परचम थामे बहुतेरे भूतपूर्व क्रान्तिकारी एन.जी.ओ.-पन्थ के शरणागत हो चुके हैं ।
पाश के शब्दों में कहा जा सकता है :
यह शर्मनाक हादसा हमारे ही साथ होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने
बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊँ –
मार्क्स का सिंह जैसा सिर
दिल्ली की भूल–भूलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे ही समयों में होना था
लेकिन साथी अरविन्द ऐसे क्रान्तिकारी थे, जो मेहनतकश जनता की अन्तिम विजय में अडिग विश्वास के साथ हमेशा धारा के विरुद्ध तैरते रहे । दुनियादारी और मौकापरस्ती से उन्हें गहरी नफरत थी । घोंसलावादी कुर्सीतोड़ “क्रान्तिकारियों,” भगोड़ों–गद्दारों और कैरियरवादियों के विरुद्ध वे समझौताहीन संघर्ष के हिमायती थे । वे एक ऐसे क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी थे, जो सच्चे अर्थों में अपनी मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि एवं संस्कारों से निर्णायक विच्छेद करके बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के जीवन और संघर्ष को दिल से अपना बना चुका थे। इक़बाल की ये पंक्तियाँ वे अक्सर साथियों को सुनाते रहते थे :
नहीं तेरा बसेरा कस्रे–सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चट्टानों पर ।
आज ‘आह्वान’ के सम्पादकों और नियमित लेखकों की जो पूरी टीम है, उसे साथी अरविन्द ने ही गहरे सरोकार, लगाव और सख़्त अनुशासन के साथ ढाला था और शिक्षित–प्रशिक्षित किया था । आज दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा की अगली कतार के जो युवा संगठनकर्ता हैं, उनमें से अधिकांश की राजनीतिक भरती और शिक्षा–दीक्षा का काम अरविन्द ने ही किया था । विगत कुछ वर्षों से वे मुख्यत: मज़दूर मोर्चे पर सक्रिय थे, मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी राजनीतिक अख़बार ‘बिगुल’ और बौद्धिक पत्रिका ‘दायित्वबोध’ के लिए लेखन और सम्पादन–कार्य में अपना अधिक समय दे रहे थे तथा देश के विभिन्न क्रान्तिकारी वाम ग्रुपों से सम्पर्क–संवाद और क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास एवं समस्याओं पर शोध–अध्ययन के काम में व्यस्त थे, लेकिन फिर भी हम युवाओं को उनका नेतृत्व और मार्गदर्शन लगातार मिलता रहता था । हमें गर्व है कि हमें एक ऐसे क्रान्तिकारी के साथ जीने और उनसे सीखने का अवसर मिला । हमें उनका राजनीतिक शिष्य होने पर गर्व है और हम संकल्प लेते हैं कि हम साथी अरविन्द की तरह निष्कलुष, समझौताहीन क्रान्तिकारी जीवन जियेंगे । हम उनके सपनों और लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्राणप्रण से संघर्ष करेंगे । हम वायदा करते हैं, परचम लहराता रहेगा, मशाल जलती रहेगी, यात्रा जारी रहेगी । दिवंगत होने के बाद, हमारा साथी और नेता हमारी आत्मिक सम्पदा का एक हिस्सा बन चुका है । उसकी स्मृतियाँ एक भौतिक शक्ति के रूप में हमारे साथ हैं । अब वह मनुष्य से एक प्रतीक–चिह्न में रूपान्तरित हो चुका है, परचम पर अंकित एक निशान बन चुका है, जिसे हम कभी भी अपने से जुदा नहीं कर सकते ।
साथी अरविन्द ने मात्र चौवालीस वर्षों का छोटा–सा जीवन पाया, पर इसे उन्होंने भरपूर ढंग से, तूफानी तरीके से जिया और इसके चैबीस वर्ष भारतीय मेहनतकश जनता के मुक्ति–महासमर में लगा दिये ।
अरविन्द का जन्म सुल्तानपुर ज़िले के भेलारा गाँव में एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार में 12 मार्च 1964 को हुआ था । पिता वाराणसी में टेलीफोन विभाग में कार्यरत थे, इसलिए पूरा परिवार 1965 में वाराणसी आ गया । वहीं अरविन्द की स्कूली शिक्षा की शुरुआत हुई । कटिंग मेमोरियल इण्टर कॉलेज से हाई स्कूल और सेण्ट्रल हिन्दू स्कूल से इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के बाद उन्होंने बी.एससी. (ऑनर्स) की शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पूरी की ।
1981 में सत्रह वर्ष की आयु में बी.एच.यू. में प्रवेश के साथ ही छात्रों के एक रैडिकल सुधारवादी ग्रुप एस.एस.डब्ल्यू. के साथ अरविन्द ने अपनी राजनीतिक गतिविधियों की शुरुआत की । लेकिन एस.एस.डब्ल्यू. अपनी वैचारिक अस्पष्टता और दिशाहीनता के चलते जल्दी ही गतिरोध एवं बिखराव का शिकार हो गया । 1984 में बी.एच.यू. में गतिविधि विचार मंच नामक छात्रों का एक रैडिकल मंच गठित हुआ । यहीं से क्रान्तिकारी छात्र राजनीति की उस धारा का सूत्रपात हुआ, जिसकी विरासत को आज दिशा छात्र संगठन दिल्ली, उत्तर प्रदेश और पंजाब के विभिन्न हिस्सों में आगे बढ़ा रहा है । सितम्बर 1984 में अरविन्द ‘गतिविधि विचार मंच’ में सक्रिय हुए । एक वर्ष के भीतर विभिन्न आन्दोलनों, प्रचारात्मक कार्रवाइयों और गोष्ठियों–अध्ययन चक्रों आदि बौद्धिक उपक्रमों में प्रभावी भागीदारी के द्वारा अरविन्द ने एक मेधावी व्यावहारिक संगठनकर्ता और अध्ययनशील क्रान्तिकारी के रूप में अपने सभी साथियों का विश्वास जीत लिया । आम छात्रों में वे काप़़ी लोकप्रिय थे । 1986 में ‘छात्र आन्दोलन की दिशा’ पर आयोजित अखिल भारतीय सेमिनार में उनकी प्रभावी भूमिका ने सभी का ध्यान आकृष्ट किया था ।
1986–87 के दौरान बी.एच.यू. में नयी शिक्षा नीति के विरुद्ध चले लम्बे छात्र आन्दोलन में अरविन्द ने नेतृत्वकारी भूमिका निभायी थी । पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में नयी शिक्षा नीति विरोधी अभियान के अतिरिक्त 1985–89 के बीच कई प्रचार अभियानों का अरविन्द ने प्रभावशाली ढंग से नेतृत्व किया था । जुलाई–अगस्त ’87 में पूर्वी उत्तर प्रदेश में इण्टर कॉलेज के छात्रों का जो जुझारू फीस– बढ़ोत्तरी आन्दोलन चला था, उसमें अरविन्द की नेतृत्वकारी भूमिका रही थी । पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में तब पूर्वांचल नौजवान सभा नामक संगठन सक्रिय था, जिसे वर्तमान नौजवान भारत सभा का पूर्वज संगठन कहा जा सकता है । छात्र मोर्चे के बाद कुछ वर्षों तक अरविन्द ने गाँवों में नौजवान मोर्चे पर ‘पूर्वांचल नौजवान सभा’ के संगठनकर्ता के रूप में काम किया । इसी बीच क्रान्तिकारी वाम संगठनों से सम्पर्क–संवाद और अनुभवों के आदान–प्रदान के लिए उन्होंने दो बार बिहार–बंगाल की यात्रा की । एक क्रान्तिकारी राजनीतिक लेखक–पत्रकार के रूप में अरविन्द की भूमिका की शुरुआत नौजवान पत्रिका से हुई जिसके 1988 में चार अंक प्रकाशित हुए थे ।
जून, 1990 में गोरखपुर में मार्क्सवाद ज़िन्दाबाद मंच के बैनर तले समाजवाद की समस्याओं और सांस्कृतिक क्रान्ति पर आयोजित पाँच दिनों के अखिल भारतीय सेमिनार में अरविन्द ने चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान शिक्षा के क्षेत्र में हुए संघर्ष और प्रयोग पर एक सारगर्भित शोधपत्र प्रस्तुत किया था । सेमिनार में उनकी प्रभावी भागीदारी ने पूरे देश से आये क्रान्तिकारी नेताओं और बुद्धिजीवियों का ध्यान आकृष्ट किया था ।
1991 से लेकर 2003 के बीच उन्होंने गोरखपुर, लखनऊ, सुल्तानपुर, वाराणसी, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में छात्रों–युवाओं के बीच काम करते हुए छात्र–नौजवान संगठनकर्ताओं की कई टीमें तैयार कीं । 1991 में दायित्वबोध और आह्वान का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ । इनमें नियमित लेखन और सम्पादन का काम करते हुए अरविन्द ने इन पत्रिकाओं की विशिष्ट पहचान बनाने में अहम भूमिका निभायी और नियमित लेखकों की पूरी टीम खड़ी करने का काम किया । 1996 में मज़दूर अख़बार बिगुल का प्रकाशन शुरू हुआ । दायित्वबोध के साथ ही अब ‘बिगुल’ के लिए भी नियमित लेखन और सम्पादन में सहयोग का दायित्व अरविन्द के कन्धों पर था । लेकिन ‘आह्वान’ के युवा सम्पादकों और लेखकों के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी का काम भी उन्होंने बदस्तूर जारी रखा ।
ग्रामीण मेहनतकश आबादी के बीच मर्यादपुर (मऊनाथभंजन) और सुल्तानपुर में अरविन्द ने 1991–93 के दौरान राजनीतिक कामों की शुरुआत की थी । वर्ष 2000 में दिल्ली आने के बाद छात्रों–युवाओं के बीच काम करते हुए उन्होंने नोएडा में असंगठित क्षेत्र के औद्योगिक मज़दूरों के बीच राजनीतिक काम करना शुरू किया और फिर यही उनका मुख्य मोर्चा बन गया । इसी दौरान उनके ही मार्गदर्शन में लुधियाना में भी मज़दूर मोर्चे पर कामों की शुरुआत हुई । दिल्ली में मज़दूर मोर्चे पर काम करने के साथ–साथ अरविन्द जनवादी अधिकारों से जुड़े मुद्दों–मसलों पर होने वाली साझा कार्रवाइयों में लगातार सक्रिय रहे और साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण–विरोधी विभिन्न अभियानों में भी उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी ।
अरविन्द एक कविहृदय क्रान्तिकारी थे । उनकी बौद्धिक–सांस्कृतिक अभिरुचियों और अध्ययन का दायरा काफी व्यापक था । समग्र सांस्कृतिक कार्यशाला (फरवरी–मार्च ’95, गोरखपुर) और साझा सांस्कृतिक अभियान (1999–2000) की बैठकों–संगोष्ठियों के प्रतिभागी संस्कृतिकर्मी उनकी प्रतिभा, सरोकार और अध्ययन की गहराई से अत्यधिक प्रभावित हुए थे । वे आज भी उन्हें बेहद प्यार और लगाव के साथ याद करते हैं । ‘राहुल फाउण्डेशन’, ‘परिकल्पना प्रकाशन’ और ‘अनुराग ट्रस्ट’ की स्थापना एवं गतिविधियों में, विशेषकर प्रकाशन–सामग्री के चयन–सम्पादन में वे हमेशा अहम भूमिका निभाते रहे । विश्व–क्लासिकी साहित्य में उनकी गहरी दिलचस्पी थी । व्यस्त राजनीतिक जीवन से समय निकालकर उन्होंने दिदेरो की विश्व–प्रसिद्ध कृति रामो का भतीजा का हिन्दी अनुवाद (राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित) किया था जो काफी चर्चित–प्रशंसित हुआ ।
2005 से अरविन्द फिर से गोरखपुर और मर्यादपुर में काम कर रहे थे और इलाहाबाद में कार्यरत राजनीतिक संगठनकर्ताओं का भी मार्गदर्शन कर रहे थे । इस दौरान उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश में ग्रासरूट स्तर पर कई जनान्दोलन चलाये और युवा ऊर्जस्वी संगठनकर्ताओं–कार्यकर्ताओं की एक पूरी नयी टीम खड़ी कर डाली । निधन के दो माह पहले से वे गोरखपुर नगर निगम के सफाईकर्मियों के सफल जुझारू आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे । ज़मीनी स्तर की इन व्यस्तताओं और सम्पादन–लेखन तथा शोध–अध्ययन के कामों के बीच से समय निकालकर वे कोलकाता, आसनसोल, बर्दवान और पटना के क्रान्तिकारी ग्रुपों से सम्पर्क–संवाद भी कर आते थे । एक सच्चे क्रान्तिकारी की तरह वे हर क्षण का इस्तेमाल करते थे । वे जीवन को सघन ढंग से जीने और पल–पल को उपयोगी बनाने का सलीका जानते थे । क्रान्ति उनके लिए तौरे–ज़िन्दगी थी ।
अरविन्द एक खुशमिज़ाज, ज़िन्दादिल और परिवेश को ताज़गी से भर देने वाले सरल चित्त, तरल हृदय, पारदर्शी व्यक्तित्व वाले इन्सान थे । वे साहसी और जुझारू थे, कठिन समय में भी विवेक नहीं खोते थे और कामों के दौरान सख़्त अनुशासन और योजनाबद्धता के कायल थे । श्रम के प्रति उनका दृष्टिकोण सर्वथा क्रान्तिकारी था । छात्रों–युवाओं के कम्यून में साफ–सफाई, खाना बनाना सबकुछ वह स्वयं करके सिखाते थे । फुरसत मिलते ही हम लोगों को अपने हाथों बेसन का हलवा बनाकर खिलाते थे, बढ़िया चाय पिलाते थे, क्रिकेट की बारीकियों पर बहस करते थे, पंजा लड़ाते थे, दौड़ लगाते थे, अन्ताक्षरी खेलते थे और कभी–कभी पुराने फिल्मी गीत भी सुनाते थे । वे हमेशा हमउम्र साथी लगते थे । ज्ञान, उम्र और अनुभव का कहीं कोई आतंक नहीं होता था । हमें गर्व होता है कि हमने ऐसे क्रान्तिकारी के साथ जीवन के कुछ वर्ष बिताये और राजनीतिक कामों की शिक्षा पायी । हमें अभी भी विश्वास नहीं होता कि साथी अरविन्द हमारे बीच नहीं हैं ।
अरविन्द का जाना पूरे देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए एक ज़बरदस्त क्षति है । यह अनायास नहीं कि न केवल गोरखपुर, मर्यादपुर, लखनऊ, दिल्ली, लुधियाना आदि उनके कार्यक्षेत्रों में, बल्कि बिहार और छत्तीसगढ़ में भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने शोक–सभाओं का आयोजन किया । न केवल देश के कोने–कोने से राजनीतिक कार्यकर्ताओं और क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों के शोक–सन्देशों का सिलसिला अभी तक जारी है, बल्कि नेपाल के क्रान्तिकारी संगठनों ने भी उनके निधन पर गहरा शोक प्रकट किया है ।
अरविन्द की स्मृति को अक्षुण्ण बनाने के लिए उनके साथियों की ओर से ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ स्थापित करने का निर्णय लिया गया है । न्यास की विभिन्न गतिविधियों में ‘अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान’ की स्थापना प्रमुख होगी । यह संस्थान भारतीय समाज, राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर शोध–अध्ययन को अपना प्रमुख कार्यभार बनायेगा । इन उपक्रमों के हम भी भागीदार हैं और इनमें भागीदारी के लिए सभी परिवर्तनकामी छात्रों–युवाओं का आह्वान करते हैं ।
साथी अरविन्द की मेज़ पर बुकमार्क लगी कई किताबें, कई अधूरे लेख, कई लेखों की रूपरेखा, तरह–तरह के नोट्स, राजनीतिक यात्राओं की अधूरी रपटें और बैठकों के अधूरे कार्यवृत्त पड़े हुए हैं । बहुत सारे अधूरे काम वे निपटाने के लिए छोड़ गये हैं और यहीं से हमें एक नयी शुरुआत करनी है ।
अरविन्द अचानक, अप्रत्याशित हमारे बीच से चले गये, लेकिन उन जैसे लोग अपने पीछे विरासत सम्हालने वाले उत्तराधिकारियों की नयी पीढ़ी छोड़ जाते हैं । हम अरविन्द की विरासत को सम्हालने के लिए संकल्पबद्ध हैं । जिस मुकाम पर मृत्यु ने हमसे हमारा साथी छीन लिया है, वहीं से जीवन–संघर्ष–सृजन की नयी यात्रा शुरू होगी ।
शोक से जब शक्ति का इस्पात ढलता है
तब कहीं अवसाद का हिमखण्ड गलता है ।
हम अरविन्द की स्मृति से प्रेरणा और विचारों से दिशा लेने की शपथ लेते हैं और हर इन्साफपसन्द, प्रगतिकामी, साहसी, स्वाभिमानी, संवेदनशील युवा का आह्वान करते है : उनके जैसा जियो!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर-दिसम्बर 2008
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