प्रधानमंत्री का प्राथमिक शिक्षा पर स्यापा
अजय
5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के पुरस्कार वितरण समोरह के कार्यक्रम में देश के प्रधानमंत्री स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की बढ़ती दर से दुखी होते हुए बोले कि शिक्षा के प्राथमिक स्तर को बेहतर बनाने की मुहिम शुरू की जाये!
वैसे देश में शिक्षा को नागरिक अधिकार बनाने की कवायदें लम्बे समय से की जा रही है । 1964 में कोठारी आयोग ने शिक्षा को नागरिक अधिकार बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल करते हुए सिफारिशें की थीं । लेकिन चवालीस साल बाद भी कोठारी आयोग की सिफारिश अमल की बाट जोह रही है । दरअसल, सवाल यह है की आज़ादी के 61 साल बाद भी प्राथमिक शिक्षा को सार्वजनीन बनाने की प्रति सरकारों की उदासीनता क्यों बनी रही ? वैसे अभी हाल में संसद के मानसूत्र सत्र में प्राथमिक शिक्षा के लिए ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा’ विधेयक पास होना था । लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों ने अपनी वित्तीय तंगी की दुहाई देते हुऐ इसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया जिससे साफ है कि सरकार ने आम लोगों को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी से भी मुँह मोड़ लिया है । आगे लेख में हम प्राथमिक शिक्षा के सूरत–ए–हाल का जायज़ा लेंगे और देखेंगे कि आज शिक्षा के बुनियादी अधिकार को कैसे बाज़ारू माल बनाकर बेचने की साज़िश रची जा रही है ।
‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा’ विधेयक का इतिहास
सबको शिक्षा मुहैया कराने के लक्ष्य को पूरा कराने के लिए 2002 में संसद ने संविधान ने छियासीवाँ संशोधन करके शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया था । इस संशोधन में कहा गया है कि राज्य छह से चौदह साल तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करायेगा । लेकिन इस पर अमल के बारे में कहा गया – यह उस तारीख से लागू होगा जिसे सरकार अपने अधिकृत गजट में घोषित करेगी । लेकिन पाँच साल से ज्यादा का समय हो गया शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा मिले हुए, मगर इस अधिकार को कानूनी जामा पहना कर लागू करने के लिए बना ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा’ विधेयक पास नहीं हो पाया ।
राजग के शासन काल में शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया और उसे लागू करने का विधेयक बनाया गया मगर विधेयक के प्रावधानों का अकादमिक हल्कों में तीखा विरोध हुआ । असल में कॉरपोरेट हल्कों के विरोध के कारण यह संसद में पेश नहीं पाया । इस बीच यूपीए सरकार आ गई । और यूपीए सरकार पिछले चार साल से विधेयक के साथ फुटबाल का खेल खेल रही है । सरकार ने विधेयक का नया मसविदा तैयार कराया । 2005 में केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्रालय और राज्य सरकारों के पास उनकी राय जानने के लिए भेजा गया । मगर बात नहीं बनी तो प्रधानमंत्री ने मानव–संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय समूह, जिसमें वित्त मंत्री चिदम्बरम, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और प्रधानमंत्री के सलाहकार सी रंगराजन को इस बारे में राय देने का काम सौंपा गया । लेकिन उच्चस्तरीय समूह का सबसे ‘उच्चस्तरीय सुझाव’ तो यही था कि केन्द्र सरकार को इस विधेयक को पास कराने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ कर यह जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी जाय ।
फिलहाल, विधेयक लालफीताशाही का शिकार हो गया है ।
पिछले दिनों खबरें छपी थीं कि विधेयक मानसून सत्र में पेश होगा मगर मंत्रीमंडल की बैठक ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया । उसने विधेयक को पुन: विचार के लिए मंत्रीमंडल को सौंप दिया है यानी मामला जहां से शुरू हुआ था फिर वहीं पहुंच गया है बस पिछले चार बरस से यह विधेयक सरकार के विभिन्न महकमों के लिए फुटबाल बन गया है । ये महकमे इसे एक दूसरे की तरफ पास करके शिक्षा के मौलिक अधिकार को कानूनी जामा पहनाने के अपने संवैधानिक दायित्व से पल्ला झाड़ रहे है ।
वैसे शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े कुछ लोगों का कहना है कि इस विधेयक में प्राइवेट स्कूलों में 20 फीसदी सीटें गरीब छात्रों के लिए आरक्षित रखने का प्रावधान है और इस प्रावधान को लेकर प्राइवेट स्कूल विधेयक के सख्त खिलाफ है । इसीलिए इस विधेयक के लालफीताशाही की बलि चढ़ने में इनका विशेष हित था ।
आखिर ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा’ विधेयक सरकार के लिए मुसीबत क्यों बना गया ?
दरअसल ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा’ विधेयक के प्रावधान सरकार के लिए मुसीबत का सबब बन गये । आइये इसके प्रावधान पर नज़र डाले । सरकार ने सबको शिक्षा उपलब्ध करने के लिए तीन वर्ष के भीतर गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा और नजदीक शिक्षा व्यवस्था का प्रावधान रखा था । ऐसा न होने पर कोई भी नागरिक, सरकार से व्यवस्था करने की माँग कर सकता है और इस प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए सरकार को देश के हर कोने में स्कूल खोलने पडे़गा जो काफी खर्चीला काम है । सरकारी अनुमानों के मुताबिक सबको प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने पर लगभग 2.25 लाख करोड़ का खर्च आयेगा । उच्चस्तरीय समूह यह चाहता है कि खर्च और जिम्मेदारी राज्य सरकारें उठायें । मगर राज्य सरकारें संसाधनों की कमी का रोना रोकर इस जिम्मेदारी से बचना चाहती है ।
वैसे बड़े आश्चर्य की बात है क्योंकि अभी लगभग दो साल पहले जब संसद के मानसूत्र सत्र में लोकसभा के सांसदों के वेतन भत्तों और सुविधाओं की बढ़ोत्तरी का विधेयक पेश हुआ तब देश के ‘जनसेवकों’ ने संसाधनों और खर्च की कमी का रोना न रोकर, आपसी मतभेद भुलाकर आपने हित के विधेयक को एकमत होकर पारित किया । लेकिन ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा’ विधेयक के लिए सभी संसदीय पार्टियों के ‘जनसेवकों’ ने एक स्वर से देश में संसाधनों और धन की कमी का रोना रो दिया ।
वैसे भी शिक्षा के मौलिक अधिकार को कानूनी जामा पहना भी दिया जाता तो भी शिक्षा के स्तर में कोई मूलभूत फर्क नहीं आने वाला है । क्योंकि 61 साल की आजादी में प्राथमिक शिक्षा प्रसार के लिए न जाने कितनी योजनायें बनीं । जैसे सर्वशिक्षा अभियान, शिक्षा गारंटी योजना आदि । लेकिन स्थिति वहीं ढाक के तीन पात ।
आइये अब सरकारी सर्वेक्षण के जरिये प्राथमिक शिक्षा की तस्वीर देखते हैं । प्राथमिक शिक्षा की तस्वीर बयान करते सरकारी सर्वेक्षण यह बताते हैं-
देश में 3200 प्राथमिक स्कूलों में एक भी छात्र नहीं है । सबसे खराब स्थिति हाइटेक प्रांत कर्नाटक की है जहां 799 ऐसे स्कूल हैं जिनमें छात्र ही नहीं है । जबकि कई स्कूलों में एक–एक शिक्षक दिहाड़ी पर नियुक्त है । शिक्षकों की यह स्थिति बिहार, उत्तरप्रदेश, केरल के साथ–साथ राजधानी दिल्ली में भी है ।
जबकि बिना इमारतों वाले 92.35 प्रतिशत विद्यालय ग्रामीण इलाकों में है जहां अशिक्षा को दूर करने की सबसे बड़ी मुहिम चलाई जा रही है । इसमें मध्यप्रदेश में सबसे अधिक 38.74 प्रतिशत बिना इमारतों वाले स्कूल है ।
ये आँकडे़ भारत में प्राथमिक शिक्षा की हालत बयान करने के लिए काफी है इन आँकडों का खुलासा पिछले दिनों हुए सरकारी सर्वेक्षण में किया गया है । यह सर्वेक्षण नेशनल यूनिवर्सिटी आफ प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्र्रेशन (एन.यू.ई.पी.ए.) द्वारा किया गया है । ‘देश में 2005–2006 में प्राथमिक शिक्षा’ नाम से जारी इस रिपोर्ट में 25 राज्यों और केन्द्र शासित क्षेत्रों के 11,24,033 स्कूलों की स्थिति का जायजा लिया गया है ।
वैसे इन आँकड़ों से अलग देश की राजधानी दिल्ली के प्राथमिक स्कूल की बदतर हालात पर एक हिन्दी दैनिक अखबार की रिपोर्ट सामने आई है जिसमें दिल्ली के अलग–अलग स्कूल के हालात का जायजा लिया गया है जहां कई स्कूल में कमरों की संख्या कम होने के कारण छात्रों को पुराने जमाने के गुरूकुल की तरह पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई करनी पढ़ती है । दिन की पाली में धूप की वजह से बच्चों को कक्षाओं में बैठाया नहीं बल्कि ठूंसा जाता है । बाकी मूलभूत सुविधाओं की उचित व्यवस्था नहीं है और अभी हाल में इसी बाबत दिल्ली में सोनिया विहार के राजकीय माध्यमिक कन्या विद्यालय की छात्राओं ने स्कूल में असुविधाओं और प्रिंसिपल की मनमानी के विरोध में चक्का जाम कर दिया । स्कूल की 2500 छात्राओं का आरोप है कि सिर्फ प्रिंसिपल के कमरे और स्टॉफ रूम में पंखे हैं । बाकि पूरा स्कूल सभी सुविधाओं से वंचित है यहां एक कक्षा में 100–100 बच्चों को बिना पंखों के गर्मी में बिठाया जाता है
ये कुछ घटनाएं और आंकड़े प्राथमिक शिक्षा के स्तर का सूरत–ए–हाल बयान कर देते हैं जो 61 साल की आजादी की देन है ।
प्राथमिक शिक्षा की बदतर हालात का जिम्मेदार कौन ?
‘‘अगर तुम आम लोगों को उनके सभी हकों से वंचित बनाये रखना चाहते हो तो उनसे शिक्षा का हक छीन लो ।’’ शासक वर्गों की यह बहुत पुरानी नीति है । प्राचीन काल में आम लोगों को शिक्षा प्राप्त करने का हक नहीं था क्योंकि ज्ञान के प्रति लोगों की जिज्ञासा हमेशा उन्हें शिक्षा हासिल करने के लिए लड़ने की प्रेरणा देती रही है और लोगों ने लम्बे संघर्षों के बाद ही सामाजिक न्याय और शिक्षा का अधिकार प्राप्त किया था ।
लेकिन आज जब देश में विकास के लम्बे–लम्बे कसीदे पढ़ते हुए अशिक्षा और निरक्षरता को दूर करने के लिए आकर्षक घोषणायें और कार्यक्रम तय किये जाते हैं तो उनका अमली रूप वही होता है जो मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक या सर्वशिक्षा अभियान का हुआ ।
इसी से जुड़ा प्रश्न है कि बच्चे स्कूल क्यों छोड़ देते हैं ? असल में सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था उन्हें स्कूल से बाहर छोड़ आती है । ऐसा नहीं है कि स्कूल छोड़ने वाले बच्चे अपने जीवन में शिक्षा के महत्व को समझते ही नहीं या उनके मां–बाप को शिक्षा से कोई जन्मजात बैर हो । ऐसे ख्याल कई बार खाते–पीते मध्यवर्गीय को खासा मनोरंजन और संतुष्टि देते हैं कि ये लोग तो पढ़ना और आगे बढ़ना ही नहीं चाहते । यह बात भुला दी जाती है कि इन बच्चों और उनके परिवारों के लिए ये व्यवस्था दो जून खाने और रोज कमाने के बीच ज्यादा फासला नहीं छोड़ती । अध्ययनों में भी सामने आया है कि वंचित तबकों के ज्यादातर बच्चे ग्यारह साल की उम्र तक स्कूल से बाहर चले जाते है यह उम्र का वह मोड़ होता है, जहां से एक रास्ता स्कूल की तरफ आगे जाता है और दूसरा परिवार का पेट भरने में हाथ बंटाने की तरफ । और ऐसे में ये बच्चे अगर अपना नाम लिखना भी सीख लेते है तो सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ये साक्षर मान लिये जाते हैं । दूसरी ओर शिक्षा प्रणाली के नीतिकार प्राथमिक स्तर पर ही मूल्य आधारित शिक्षा को अमली जामा पहना चाहते हैं । 2005 में एन.सी.ई.आर.टी. के नेशनल फ्रेमवर्क फॉर करिकुलम नामक अपने दस्तावेज में इस कमेटी ने इस बात सिफारिश की कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ही छात्रों को वर्ग और क्षमता के आधार पर वर्गीकृत कर दिया जाना चाहिये । यानी स्कूल शिक्षा के दौरान ही औकात (वर्ग) के हिसाब से यह तय कर दिया जाना कि कौन आई.आई.टी., मेडिकल, इंजनियरिंग की फीसों को चुकाने की औकात रखता है कौन है जो तकनीकी शिक्षा (आई.टी.आई, पॉलटेक्निक) तक औकात रखता है । बाकी जो उनमें भी न पहुँच सके वे दसवीं या बारहवीं के बाद देश की कुशल–अर्द्धकुशल मजदूर आबादी में शामिल हों और जो इतना भी न कर पाये वे देश बेरोजगार की फौज में शामिल हो जाये ।
दोस्तो, ये तस्वीर बाजार के किसी शोरूम की लगती है जहां सबकी जेब की औकात के हिसाब से शिक्षा बिकाऊ माल के रूप में सजी हुई है । अब जिसकी जैसी औकात है वह वैसी शिक्षा खरीद ले ।
वैसे भी हर शिक्षा प्रणाली में व्याप्त असमानता, सामाजिक–आर्थिक ढाँचे में व्याप्त असमानता से ही उत्पन्न हुई है और शासक वर्ग ने शिक्षा उसी हिसाब से ढाला है जिससे यह समाज के स्वामी वर्ग का ज्यादा से ज्यादा हित साधन कर सके । क्योंकि शिक्षा का ढांचा सत्ताधारी वर्ग ही तय करते है ।
इन तमाम विश्लेषण, तथ्य और आंकड़ों की रोशनी में देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था का जनतांत्रिक स्वरूप केवल एक ढकोसले के रूप में सामने आता है । यह शिक्षा व्यवस्था आज शिक्षा को बाजारू माल के रूप में बेचने की साजिश रच रही है । वैसे भी जनता के शोषक सत्ताधारियों और उनकी सरकारों से जनकल्याणकारी शिक्षा की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती ।
लेकिन शिक्षा का अधिकार जनता के सबसे बुनियादी नागरिक अधिकारों में से एक है । इसलिए हमें शिक्षा और रोजगार को बुनियादी अधिकार बनाने के लिए संघर्ष करना होगा । क्योंकि यह अहम मुद्दा है और इसके प्रति उपेक्षा का रवैया घातक होगा ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर-दिसम्बर 2008
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