पाठक मंच
आदरणीय सम्पादक मण्डल,
आह्वान का जनवरी–मार्च 2008 अंक पढ़कर अपार खुशी मिली । आज जबकि क्रान्ति पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है और गतिरोध के कारण बर्बादी का माहौल छा चुका है जिसके बलबूते पर नकारात्मक ताकतें अंधेरगर्दी, बेइंसाफी और धक्कड़शाहियों का ताण्डव दिनदिहाड़े सरेआम कर रही हैं तब ही शोषितों और मनुष्य की आजादी के परवानों को एकसूत्र में पिरोने के लिए किसी ‘‘आह्वान’’ की जरूरत थी । और यह जिम्मेदारी ‘आह्वान’ बखूबी निभा रहा है ।
इस बहुमूल्य पत्रिका में जिन्दगी के सारे पहलुओं को समेटा गया है । इसलिए पढ़ते वक्त ऐसा जान पड़ता है कि जैसे युधिष्ठर यक्ष प्रश्नों का जवाब दे रहा हो । ‘छात्र युवा आन्दोलन’ नामक लेख ऐसे समय में बहुत ही उपयोगी है जिस समय में समाज को हो चुकी बीमारी के कारण छात्र–युवा लड़ाइयाँ, तोड़फोड़ करने, गन्दी किताबें पढ़ने, घटिया फिल्में देखने आदि जैसे तमाम रोगों के शिकार हो चुके हैं । ‘‘कैम्पस के अन्दर ….ताण्डव’’ नामक लेख नकारात्मक समाज की प्रतिष्ठित शिक्षा प्रणाली को कलंकित घोषित कर सच्चाई से अवगत करवाता है ।
सामयिकी स्तम्भ के सभी लेख आज के समय में चल रहे वादों–विवादों के सारतत्व को उजागर करते हैं और मेहनतकशों को सलाह देता है कि इन वादों–विवादों से हमारा कोई तालमेल नहीं है जबकि हमारा ऐतिहासिक मिशन उस समाज को तबाह करना है जिसके पिटारे में से वर्णित वादों–विवादों के साँप निकलते हैं ।
व्याख्या तो हर लेख की बड़ी विस्तारपूर्वक की जा सकती है परन्तु पत्र की अपनी कुछ सीमाएँ होती हैं । सब कुछ को ‘‘कुछ’’ में समेटते हुए यही कहूँगा कि आह्वान का प्रत्येक अंक सम्भाल कर रखने योग्य है । इसकी सामग्री और ज्ञान का कहीं कोई जवाब नहीं । लेखों की भाषा बड़ी ही सरल और स्वादिष्ट है । इस सबसे बढ़कर आह्वान सचमुच एक ‘‘आह्वान’’ है जिन्दादिलों, बहादुरों और अलबेलों के लिए क्योंकि खुद आह्वान के ही अनुसार इतिहास के रथ के पहिये नौजवानों के उष्ण रक्त से लथपथ हुआ करते हैं ।
अब हमें प्रतीक्षा तो इस बात की है कि कब यह भयानक अंधेरों में जलता छोटा–सा दीपक आग उगलने वाला सूरज बन जाये और अपनी तपिश से तमाम नकारात्मक ताकतों को जलाकर राख कर देगा ।
शुभकामनाओं सहित
संदीप तुंगा
डाकघर कुलार खुर्द गाँव तुंगा
जिला संगरूर (पंजाब)
मैं आह्वान का नियमित पाठक हूँ । मुनाफे के दौर में, जहाँ आज मानवीय संवेदनाओं, मानवता को कुचला जा रहा है, मेहनतकशों की हड्डियो का चूर्ण बना कर लाभ कमाने की तैयारी चल रही है, ऐसे मे आह्वान अन्धेरे में मुक्ति की मशाल की तरह काम कर रहा है । पिछले अंक में संसदीय वामपंथियों का अमेरिका का प्रेम नाम से एक लेख छपा था जिसमें इनके दोहरे चरित्र की चर्चा की गयी थी । अभी ‘कामरेड( ?)’ बुद्धदेव भट्टचार्य के ताजा बयान (कि मैं बन्द और हड़तालों का कभी समर्थक नहीं रहा) भी इनके दोहरे चरित्र को उजागर करता है ।
जयप्रकाश, शाहदरा (दिल्ली)
एक नौजवान की मौत
दोस्तो! ‘आह्वान’ के एक नियमित पाठक अमित ने हाल ही में गहरी हताशा में आत्महत्या कर ली । अमित ‘आह्वान’ के संवाददाता गौरव का मित्र था और क्रान्तिकारी जनकार्यों का एक शुभचिन्तक था । आत्महत्या करने से पहले उसने गौरव को एक पत्र लिखा था । हम इस पत्र को यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं और साथ ही हम इस पत्र पर एक सम्पादकीय टिप्पणी भी प्रकाशित कर रहे हैं । अमित की मौत कई परेशान कर देने वाले सवाल उठाती है । हर संवेदनशील व्यक्ति को अमित का यह पत्र बेचैन कर देता है और सोचने पर मजबूर कर देता है कि हम किस समाज में जी रहे हैं । –सम्पादक
अमित का पत्र
3 अगस्त, 2008
क्रान्तिकारी अभिवादन
प्रिय मित्र गौरव,
दोस्त, मैं तुम्हे पहले एक बात बताऊँ । मैंने कई महीनों से कुछ भी पढ़ा नहीं है । जब बहुत ज्यादा किसी बात पर परेशान हो जाता हूँ तो आर्मी की विरान–सुनसान सड़कों पर अकेला ही निकल पड़ता हूँ । कभी कुछ लिखने की कोशिश भी करता हूँ और पढ़ने की भी सिर्फ कोशिश ही कर पाता हूँ । अपने अन्दर की कला व इंसानियत को ख़त्म नहीं करना चाहता पर अवसाद जैसी कई चीजे़ हैं जो अन्दर ही अन्दर अपना काम करती हैं । पर कई बार पेंटिंग करने का मन करता है, कभी लिखने–पढ़ने का, कभी संगीत का, पर अधिकतर उदासी और नकारात्मकता हर काम पर अपनी छाप छोड़ देती है ।
चलो छोड़ो यार इन सब बातों के बारे में! अपने स्वभाव के बारे में क्या कहूँ ? यह सब तो तुम जानते ही हो पर मैं भी क्या करूँ ? इन बेकार की बातों के पीछे भी कई कारण है ।
दिसम्बर में तुम से मिलना चाहता था पर मिल नहीं पाया । पुस्तक मेले का पिछले 4 सालों से बेसब्री से इंतज़ार था पर एक किताब तक लेने न आ सका । दिल्ली जिसे मैंने बचपन से ही अपना घर माना वो कई बार पराई हो जाती है । ऐसे ही कई कारण है कि मैं सही समय पर सही काम नहीं कर पा रहा हूँ । मैं दिल्ली– एन.सी.आर. में अपना रेजूमे नहीं दे पा रहा हूँ । मेरा शरीर भी बईमान ही है वह किसी भी पल धोखा कर जाता है ।
तुम्हें मैं लिखूँ भी तो क्या लिखूँ दोस्त! आज–कल लाइफ में कुछ भी चल तो रहा नहीं हैं । सारी लाईफ ही रुक सी गई है और तुम तो जानते ही हो जब लाइफ और पानी रुक जाता है तो वो सड़ने लगता है और मेरा भी कभी–कभी यही हाल हुआ करता है ।
गौरव यार! तुम्हें भी लगेगा कि अमित अपने ही इर्द–गिर्द घूमता रहता है और बोर करता है । पर दोस्त मैं ऐसा हरगिज नहीं चाहता पर मेरे आस–पास और कोई है भी तो नहीं सिवाय तुम्हारे और अपनी बहन के । तुम दोनों ही हो जो सिर्फ हिम्मत ही नहीं देते हौसला व तकनीक भी देते हो । थैंक्स यार! मैं जानता हूँ तुम्हीं लोग हो मेरे सच्चे साथी और उनमें भी तुम सर्वश्रेष्ठ हो ।
तुम्हें बताया था न कि मेरा डॉक्टर जिससे मेरी दवाई आया करती है जिसके काबू में कुछ भी नहीं है । बस मेरे जन्मदाता की और भगवान की दुहाई देता है और फिर खुद ही कहता है मुझे कि तू तो नास्तिक है!
डॉक्टर मुझे बोला :– ‘हमारे शरीर में कार्टिलेज नाम की कोई चीज ही नहीं होती है ।’ वो मुझसे बिना सिर–पैर की बहस करता रहता है । फिर कहता है कि कई सारे बड़े–बड़े सर्जन के साथ भी बहस कर सकता हूँ, मैं बोला बहस तो वह लोग भी करते थे जो कहते थे कि पृथ्वी स्थिर है और सूरज उसके चारों ओर घूमता है । पर उन सभी बकवासों को गलत साबित होना पड़ा ।
चलो यार, यह सब अपने बारे में बातें तो हम करते ही रहेंगे अब काम की बातें भी साथ–साथ करते हैं ।
तो ऐसा है कि मैंने तुम्हें बताया था न कि वाटर सप्लाई एंड ट्यूबवेल ऑपरेटर एंड इलेक्ट्रिसिटी पावर हाउस इंचार्ज के काम के लिए 10वीं, 12वीं, आई.टी.आई और डिप्लोमा वाले लड़कों को ठेकेदारों की नौकरी पर रखा जाता है । वेतन मिलता है 1800 से 2200 रुपये । फिर एक साथ कई सारे नौजवानों को नौकरी से निकाल दिया जाता है और उनकी एक–दो महीनों की तनख्वाह भी रोक दी जाती है जो कभी नहीं दी जाती । जब मैंने कुछ लोगों से मिल कर, जैसे कि उन कुछ निकाले गए युवकों से, और बीच के कुछ दलाल जो ठेकेदारों तक इन लेबर की सप्लाई करते हैं, उनसे मिल कर कुछ जानकारी बटोरनी चाही तो कुछ इस तरह की बातें सामने आई हैं :–
सवाल
1– कितने मज़दूरों को निकाला गया है ?
2– कितनों का कितना–कितना पैसा रुका है ?
3– कारण क्या बताया गया ?
जवाब
1– लगभग 40 लड़कों को निकाला गया हैै ।
2– पैसा तो लगभग सभी का कुछ न कुछ रुका ही है ।
3– कारण हैं :–
क– नया ठेका नए ठेकेदार को मिला है ।
ख– पुराने लड़कों पर चोरी और कामचोरी का आरोप है ।
ग– नए ठेके के अनुसार इनके पास अनुभव व योग्यता का अभाव है । Now the technical qualification is a must
यह सब तो बस दिखावा है जबकि हकीकत तो यह है कि अपनी ज़रूरत पूरी करने के समय पर तो किसी भी Under matric को भी काम में लगा लेते हैं । फिर मौका पाते ही उसके साथ भी यही सब कुछ होता है ।
घ– कुछ उपकरणों को ख़राब कर देने का आरोप है ।
मेरा मोबाइल चोरी हो गया है, दरअसल मैं एक दिन Sunday morning में क्रिकेट खेलने गया था बस वही एक भांजे को दिया था और बस–––
मैं इसकी FIR दर्ज करवा चुका हूँ ।
मैं जिस कम्प्यूटर कोर्स की ट्रेनिंग पर आया था वह तो पूरा होने पर भी कम्प्यूटर सेंटर का मालिक मेरे सर्टिफिकेट्स मुझे नहीं दे रहा है । वह मुझे अपने सेंटर पर भी कभी नहीं मिलता । अगर मैंने उस दिन (दिल्ली–द्वारका) में उसके कॉल सेन्टर की पोल न खोली होती तो मुझे बिना क्लास लगाये, बिना ट्रेनिंग के भी मेरे सर्टिफिकेट्स मिल जाते, जैसे औरों को मिलते हैं । But don’t worry I’ll try to do my best
मैं अगस्त 13 को दिल्ली आ रहा हूँ पाँच–सात दिनों के लिए । ‘आह्वान’ व ‘बिगुल’ मुझे नियमित प्राप्त हो रहे हैं । कुछ लिखने–पढ़ने की भी कोशिश करता रहता हूँ । बहुत तरह–तरह के जतन करने पड़ते हैं खुद को ज़िन्दा रखने के लिए । एक साथ कई चीज़ों से लड़ना पड़ता है, बेरोजगारी, निकम्मापन, उदासी, निराशा और शरीर का रोग है । मेरा शरीर धोखेबाज है । यह मुझे इस ज़िन्दगी की दौड़ में शामिल कर लेता है, पर न तो जीतने देता है न हारने । मैं भी हर बार उठने की कोशिश करता रहता हूँ जबकि मैं भी जानता हूँ कि मैं ये दौड़ जीत नहीं सकता पर फिर भी मैं हर बार दौड़ता हूँ जीतने के लिए नहीं, पहला स्थान पाने के लिए भी नहीं, बल्कि अपने आत्मसम्मान को बचाने के लिए, अन्तिम स्थान पर आने के कलंक से बचने के लिए ।
इस बहुत तेज़ रफ़्तार दुनिया में लगता है कि कई बार मैं कहीं पीछे छूट गया हूँ पर एक आवाज़ मेरे अन्दर से आ जी जाती है कि :–
‘‘इस जिन्दगी की दौड़ में वो दूर तक दौड़े हैं
पर गिर–गिर के उठे हम ज्यादा है ।’’
अभी–अभी मुझे उदास पाकर घर वालों ने कुछ पैसे दिये जो मैं सहयोग राशि के रूप में भेज रहा हूँ ।
दोस्त! मेरी ज़िन्दगी कोई रेस नहीं । जिन्दगी एक सफ़र है और इसे मैं अपने दम पर पूरा करने के लिए बाध्य हूँ ।
जीत–हार फिर किसने देखी, जब लड़ने का इरादा है ।
मौत को वापस जाना है, ‘संजीदा’ जीने पर आमादा है ।
अमित की आत्महत्या एक बर्बर समाज और व्यवस्था द्वारा की गयी हत्या है!
दोस्तो
अभी–अभी आपने पत्र पढ़कर समाप्त किया । इसमें एक नौजवान की व्यथा है और अपने लोगों के बारे में संवेदना । उम्मीद भरी निगाहों से अपनों की तलाश करता यह नौजवान लोगों के दु:ख–दर्द को बाँटना चाहता है । ज़िन्दगी के सफर में रेस की तरह नहीं बामकसद जीने की तमन्ना पाले हुए है । अमित नाम का यह नौजवान पिछले तीन साल से ‘आह्वान’ पत्रिका का पाठक है । आज यह लिखते हुए मन कचोटता है कि अब अमित हमें कभी पत्र नहीं लिखेगा । अब वह हमारे बीच नहीं है । खुदगर्ज़ी भरे ताने–बाने में एक संवेदनशील नौजवान अपनी जगह नहीं तलाश सका । और अन्तत: उसने मौत का रास्ता अख्तियार किया । विगत 17 सितम्बर की दोपहर को अमित ने अम्बाला कैंट में ट्र्रेन की नीचे आकर अपना जीवन समाप्त कर लिया । आत्महत्या करने के ठीक पहले अमित ने अपनी बहन गीतांजलि को एस–एम–एस– करके बताया था कि “U dont knw my energy level n wish to living is zero. I really want death n peace. This is not my kind of world.” आख़िर इतनी गहरी निराशा का कारण क्या है कि जीने की चाह ही खत्म हो जाये ? दुनिया से पूरी तरह से मायूस होकर महज 27 साल का नौजवान ऐसा कठोर निर्णय ले लेता है । कि ये दुनिया मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं है ।
अमित ‘आह्वान’ को नियमित पत्र लिखता था । उसके पत्रों/कविताओं में हमें एक नौजवान की गहरी जिजीविषा व जीवन जीने का उद्दाम आवेग दिखता था । वहीं हमें उसकी बातों में एक टीस लगातार मिलती थी, जीवन की सार्थकता को लेकर । ऐसे भी जिन्दगी दुरूह हो जाती है । कितना भयावह है जब दुनिया से इस कदर नाउम्मीदी पैदा हो जाये । यही अमित के साथ हुआ और अमित जैसे तमाम–तमाम नौजवानों के साथ हो रहा है । चौतरफा संवादहीनता का माहौल पसरा है । किससे अपनी बात कहें ? अगर हमारा आपसे फायदा नहीं तो हमारा आपसे कोई रिश्ता नहीं । आज के समाज में रिश्तों की यही वास्तविकता है । पूँजीवादी समाज का अलगाव और बेगानापन दोस्तियों को दीमक की तरह चाट जा रहा है और अन्दर से खोखला बना दे रहा है ।
ये ठण्डी हत्यायें हैं । एक सड़ी हुई सामाजिक व्यवस्था द्वारा की गयी हत्यायें, जिसमें अगर कोई नौजवान संवेदनशील है, वो देश के कमजोर तबके के साथ सरोकार रखता है, कहीं कुछ गलत दिखने पर तो आवाज़ उठाता है, और जिसका एकमात्र मकसद सिर्फ यह नहीं कि किसी भी तरह एक–दूसरे को लांघकर बस आगे बढ़ा जाये, उसके लिए इस समाज में कोई जगह नहीं । उसे असामाजिक और अक्षम घोषित कर दिया जाता है उससे अजीब तरह का व्यवहार किया जाता है । ऐसे में अगर किसी नौजवान के सामने कोई रास्ता न दिखे और वह अपनी लड़ाई को सबके साथ जोड़ नहीं पाता है तो अपने आपको निरुपाय और असहाय महसूस करता है यही चीज़ उसे अलगाव में डाल देती है । इसलिए ये वो हत्यायें हैं जो भूख/अभाव के चलते नहीं बल्कि संवेदनहीन, ठहरावग्रस्त सामाजिक जकड़बन्दी के चलते हो रही हैं ।
अमित जीना चाहता था, तमाम सपनों और उम्मीदों के साथ । अपने दोस्तों में खुशदिल व्यक्ति के तौर पर मशहूर अमित कोई लद्धड़ विद्यार्थी नहीं था । वह दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद विज्ञान संकाय से इण्टरमीडियट की पढ़ाई कर रहा था कि इसी दौरान शारीरिक दिक्कत के चलते (जो कालान्तर में गम्भीर बीमारी बनी) 12वीं की परीक्षा नहीं दे सका । फिर भी पढ़ने की ललक बरकरार रही । शारीरिक तौर पर बेहद तकलीफों के बावजूद उसने सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा हासिल किया । माँ–बाप पर आश्रित रहना उसे अपने गरिमा के ख़िलाफ़ लगता था । काम की तलाश की । एक प्राइवेट कम्पनी में बतौर सिविल इंजीनियर उसने काम भी किया । ज़िन्दगी की दौड़ में वह बार–बार हमउम्रों से पिछड़ जाता था । 3 अगस्त, 2008 को भेजे पत्र में उसने लिखा ‘‘मैं भी जानता हूँ कि मैं ये दौड़ जीत नहीं सकता पर फिर भी मैं हर बार दौड़ता हूँ जीतने के लिये नहीं पहला स्थान पाने के लिए भी नहीं बल्कि अपने आत्मसम्मान को बचाने के लिये अन्तिम स्थान पर आने के कलंक से बचने के लिए ।’’
अमित के शब्दों में यह अभिव्यक्ति आज के नौजवान की मन:स्थिति है । जहाँ सामान्य सहज जिन्दगी दुर्लभ होती जा रही है । गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा व पाखण्डपूर्ण दिखावे की संस्कृति में जो सफल उसके लिये इस समाज में जगह नहीं है । क्या आत्मसम्मान पूर्वक जीवन जीने की ललक एक अपराध है ? जो शख़्स नफ़ा–नुकसान के बटखरे पर फिट न बैठे उसकी ज़िन्दगी की कोई कीमत नहीं ।
अमित की मौत इस सारी व्यवस्था और सामाजिक ढाँचे को कठघरे में खड़ा कर देती है । इस व्यवस्था में इंसान इंसान की तरह जी ही नहीं सकता । वह जीता है एक माल की तरह । जब उस माल का मूल्य समाप्त होने लगता है तो समाज और अपने लोग ही उसे स्टोर रूम में सड़ने के लिए फेंक देते हैं । रिश्तों में प्यार की गर्माहट नहीं बल्कि दया और रहम का सड़ा–बदबूदार मरहम रह जाता है । दोस्त तो धीरे–धीरे साथ ही छोड़ देते हैं । ज़िन्दगी में अर्थहीनता और अकेलेपन का जानलेवा अहसास लगातार आत्मा के मांस को कुतरता और काटता रहता है । और अन्तत: जीवन इतना पीड़ादायी हो जाता है कि जीवन और मृत्यु के बीच की बारीक रेखा की अनुभूति ही जाती रहती है । बल्कि जीवन इस कदर असहनीय हो जाता है कि मौत कहीं ज़्यादा आसान और प्रीतिकर लगने लगती है । इस आदमखोर समाज और व्यवस्था से हम यही उम्मीद कर सकते हैं । यह अमित जैसे संजीदा, संवेदनशील और ज़हीन नौजवानों का इसी तरह भक्षण करती रहेगी । अगर इस पत्र को पढ़कर इस पूरे समाज को मानव–केन्द्रित सिद्धान्तों पर पुनर्गठित करने की तमन्ना किसी नौजवान और नागरिक में नहीं पैदा होती तो निश्चित रूप से उसे अपने मानस के मरुस्थल के बारे में सोचना चाहिए और सोचना चाहिए कि कौन–सी वे कसौटियाँ हैं एक अच्छा इंसान कहलाने की जिस पर वह खरा उतरता है ।
अमित के रूप में हमने अपना एक बेहद प्यारा दोस्त खो दिया है । अमित की मौत ने हमें इस पूरे निज़ाम को बदल डालने की चाहत और ज़िद से और अधिक सराबोर कर दिया है । अमित एक अहम लड़ाई हार गया, बहुत लड़ा, मगर हार गया । हम इस हार का बदला लेंगे और भगतसिंह के रास्ते पर चलते हुए इस समाज को आमूल ढंग से बदल डालने की लड़ाई को और आगे बढ़ाते जाएँगे ।
सम्पादक
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर-दिसम्बर 2008
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