लेबनानी जनता के हाथों इजरायल की शर्मनाक हार
साम्राज्यवादियों के लिए कुछ सबक जिसे वे हमेशा की तरह नहीं सीखेंगे

अभिनव

साम्राज्यवादियों की इतिहास से कुछ ख़ास दुश्मनी या खुन्नस है। इतिहास उन्हें जो सबक सिखाना चाहता है वे उसे सीखते ही नहीं हैं। पहले वियतनाम युद्ध में, कोरिया युद्ध में, इराक और अफगानिस्तान में, और भी तमाम देशों में हुए साम्राज्यवादी हमलों और हस्तक्षेपों में यह बात साबित हुई है कि युद्ध में निर्णायक जनता होती है हथियार नहीं। वियतनाम में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के मंसूबों को नाकाम बनाते हुए वियतनामी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वहाँ की जनता ने अमेरिकी सेना को मार–मारकर खदेड़ा। कोरिया में भी अमेरिकी सेना का हश्र उत्तर कोरिया की कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ ऐसा ही किया। इराक और अफगानिस्तान पर कब्जे के बावजूद यह बात साबित हो गई कि युद्ध अभी ख़त्म नहीं हुआ है बल्कि जनता का जवाब तो अब मिलना शुरू हुआ है और कब्जे के बाद हुए छापामार हमलों में हजारों अमेरिकी और मित्र देशों के सैनिक मारे जा चुके हैं। और सबसे नया उदाहरण है इजरायल की अत्याधुनिक हथियारों और अमेरिकी हथियारों से लैस सेना की लेबनान के एक छोटे–से छापामार समूह हिज़्बुल्लाह के हाथों शर्मनाक शिकस्त।

इजरायल दरअसल अमेरिका के इशारों पर लेबनान में घुसा था। सैनिकों के हिज़्बुल्लाह द्वारा अपहरण का मामला तो महज एक बहाना था। दरअसल, सीरिया को अमेरिका यह सन्देश देना चाहता था कि सुधर जाओ वरना तुम्हारे साथ भी ऐसा ही किया जाएगा। लेकिन पूरा मामला पलट गया। कुछ दिन तक अंधाधुंध बमबारी करके हिज़्बुल्लाह के सफाये की इजरायल की उम्मीद एक मृगमरीचिका बनी रही। इजरायली सेना ने लेबनान में भीषण तबाही मचाई। लेकिन इन सबके बावजूद हिज़्बुल्लाह का वह कुछ ख़ास बिगाड़ नहीं पाई। उल्टे उसे ही भारी नुकसान उठाकर पीछे हटना पड़ा और 30 सितम्बर को इजरायली सेना ने लेबनान से अपना आखिरी सैनिक भी बुला लिया। अरब की जनता में इजरायल की इस हार से ख़ासी खुशी थी। लोगों ने जगह–जगह जश्न मनाये। इजरायल की अपराजेयता के मिथक को लेबनान की जनता ने तोड़ दिया था और यह साबित कर दिया था कि हथियार चाहे कितने भी उन्नत क्यों न हों और सेना चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो, जंग जीतती अपने हकों को लेकर लड़ने वाली जनता ही है।

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चौंतीस दिनों तक चले इस युद्ध में इजरायली सेना ने लेबनान के निहत्थे नागरिकों पर बेतहाशा बम बरसाये। इनमें से हिज़्बुल्ला के बंकरों को नष्ट करने के लिए अमेरिका द्वारा दिये गए क्लस्टर बम भी थे। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक अभी लेबनानी जमीन पर ऐसे 10 लाख बम पड़े हुए हैं जो फटे नहीं हैं और आने वाले तमाम वर्षों के दौरान वे सैकड़ों जानें लेने वाले हैं। लेबनान के दक्षिणी हिस्से के अधिकांश स्कूल, अस्पताल, पुल, सड़कें इस हमले में नष्ट हो चुके हैं। इस हमले में मारे गए लोगों की संख्या 2000 के करीब है जिसमें अधिकांश बच्चे और महिलाएँ हैं। दस लाख लोग बेघर हो गए। 35,000 से भी ज्यादा इमारतें नष्ट हो गयीं। इस दौरान लेबनान पर 27 दिनों तक रोज 5000 मिसाइलें, 5–5 टन के बंकर बस्टर बम, क्लस्टर बम, फास्फोरस बम गिराए गए। आख़िरी सात दिनों के दौरान 42,000 मिसाइलें और बम गिराए गए। यानी कुल 1,77,000 बम और मिसाइलें लेबनान पर गिराई गईं।

इजरायली हमले में हिज़्बुल्लाह के सिर्फ़ 94 लड़ाके मारे गए जबकि हिज़्बुल्लाह के हमलों में 116 इजरायली सैनिक मारे गए, जबकि हिज़्बुल्लाह ने 34 दिनों में सिर्फ़ 4000 मिसाइलें ही दागीं। लेकिन इजरायलियों की हालत इसी में ख़राब हो गई। हिज़्बुल्लाह के हमलों में सिर्फ़ 41 इजरायली नागरिकों की मौत हुई। इनमें से 18 इजरायली अरब नागरिक थे जिन्हें यहूदियों के लिए बनाए गए शेल्टरों में जगह नहीं मिली।

चलो भाई जान बची! लेबनान से पिटकर लौटते इजरायली हमलावर…आखिरी इजरायली सैनिक लेबनान से वापस आकर गेट का ताला बन्द कर रहा है ।

पश्चिम एशिया की सबसे बड़ी सैन्य ताकत ने दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य ताकत की पुरजोर मदद से एक छोटे–से मुल्क लेबनान के ऊपर जो युद्ध थोपा था उसमें उसे शर्मनाक शिकस्त का सामना करना पड़ा। दुनिया भर में निहत्थे लेबनानी बच्चों, महिलाओं और आम नागरिकों पर घातक और प्रतिबन्धित बम गिराने के लिए इजरायल की थू–थू हुई। अरब जनता में इजरायल के ख़िलाफ नफरत और बढ़ी। हिज़्बुल्लाह की लोकप्रियता और बढ़ी और अमेरिका और इजरायलियों द्वारा फैलाए गए इस मिथक का खण्डन भी हो गया हिज़्बुल्लाह ईरान और सीरिया के इशारों पर काम करने वाला एक आतंकवादी शिया संगठन है। हिज़्बुल्लाह के मारे गए लड़ाकों में से 20 प्रतिशत गैर–शिया थे। इस युद्ध से यह भी साबित हो गया कि हिज़्बुल्लाह एक रैडिकल राष्ट्रवादी संगठन है जो दक्षिण लेबनान पर इजरायल के कब्जे के ख़िलाफ लड़ रहा था और जिस लड़ाई में वह सफल भी रहा। हिज़्बुल्लाह पूरे अरब में अमेरिकी साम्राज्यवाद और इजरायली जियनवाद के ख़िलाफ संघर्ष का एक प्रतीक चिन्ह बन गया है। एक सर्वे के अनुसार हिज़्बुल्लाह को उस इलाके के 80 प्रतिशत ईसाइयों, 80 प्रतिशत द्रुज और 89 प्रतिशत सुन्नियों का समर्थन हासिल था। हिज़्बुल्लाह के लड़ाके युद्ध की समाप्ति के साथ ही पूरे देश में पुनर्निर्माण के कार्यों में लग गए हैं और लेबनान बहुत तेजी से जियनवादियों द्वारा मचाई गई तबाही के गर्त से बाहर निकल रहा है। हिज़्बुल्लाह लेबनानी सरकार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है कोई आतंकवादी धार्मिक संकीर्णतावादी शिया संगठन नहीं। हाँ, यह जरूर है कि वह केन्द्रीय सरकार की समझौतापरस्त नीतियों का विरोध करता है। यह युद्ध सिर्फ हिज़्बुल्लाह और इजरायल के बीच नहीं था। इजरायल के हमले के साथ ही यह युद्ध लेबनानी जनता का प्रतिरोध युद्ध बन गया था।

इस युद्ध के अन्त के साथ इस फरेब का भी पर्दाफाश हो गया कि इजरायल ने अपने दो सैनिकों को हिज़्बुल्लाह की कैद से छुड़ाने के लिए हमला किया था क्योंकि वे सैनिक अभी भी हिज़्बुल्लाह की कैद में ही हैं। अब इजरायल का प्रधानमन्त्री एहुद एल्मर्ट उनको छुड़ाने के लिए तमाम सौदेबाजियों का प्रस्ताव रख रहा है। इस युद्ध से इजरायल को भारी आर्थिक घाटा भी उठाना पड़ा है। इसमें उसके करीब 5 अरब डॉलर खर्च हुए हैं जो उसके सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 4 प्रतिशत है। एहुद एल्मर्ट की सरकार पर भी ख़तरा मण्डराने लगा है। इजरायल में शान्ति चाहने वाले लोगों की आवाज को और ताकत मिली है। दूसरी ओर इजरायल को अरब में भारी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है। हार के सामने आने पर आखिरी दिनों में बौखलाहट में इजरायल ने बमबारी और तेज कर दी थी और कई प्रतिबन्धित हथियारों का इस्तेमाल भी किया था। हाल ही में इज़रायल ने बेशर्मी के साथ यह बात स्वीकार भी की कि उसने फास्फोरस बमों का इस्तेमाल किया था। इस हार के बाद की बौखलाहट में इजरायली हत्यारों ने गाजा पट्टी पर हमले शुरू किये और ताजा ख़बर तक 250 फिलिस्तीनियों की हत्या अब तक की जा चुकी है। इनमें से लगभग 70 बच्चे हैं। अपने दो सैनिकों के अपहरण पर हल्ला मचाने वाले इजरायल ने फिलिस्तीनी सरकार के कई मंत्रियों और हमास के कई नेताओं तक को बन्दी बना रखा है और हजारों फिलिस्तीनी और लेबनानी नागरिक इजरायल की जेलों में बन्द हैं और यातना झेल रहे हैं। लेकिन लेबनान के हाथों इजरायल की हार ने फिलिस्तीनी लड़ाकों के हौसलों को बढ़ाया है और आने वाले समय में इजरायल को फिलिस्तीन में भी भयंकर प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा।

अमेरिकी साम्राज्यवाद के मुँह पर भी यह हार एक करारा तमाचा थी। इससे इराक और अफगानिस्तान के छापामारों का हौसला बढ़ा है और उनका आत्मविश्वास दोगुना हो गया है। वे नये उत्साह के साथ अमेरिकी सेना पर हमले कर रहे हैं और उनका जीना दूभर बना रहे हैं।

इस युद्ध ने एक बार फिर यह साबित किया है कि बड़ी से बड़ी फौजी ताकत को जनसंघर्षों के आगे झुकना पड़ता है और हथियारों के बड़े से बड़े जखीरे जनता के महासमुद्र में डूब जाया करते हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद और इजरायली जियनवाद कागजी बाघ हैं और अरब और दुनिया भर की जनता इनके सामने कभी घुटने नहीं टेकेगी।

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स, जुलाई-सितम्‍बर 2006

 

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