दिल्ली विवि में दिशा छात्र संगठन द्वारा व्याख्यान का आयोजन
‘‘अब अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने ही होंगे और तोड़ने ही होंगे मठ और द्वार सब’’

अपने समय के अंधेरे की पहचान किये बगै़र कोई रचना कारगर नहीं हो सकती है। यह वक्तव्य हिन्दू कॉलेज के रीडर डॉ. रामेश्वर राय ने मुक्तिबोध की 42वीं पुण्यतिथि पर आयोजित संगोष्ठी में दिया। इस संगोष्ठी का आयोजन दिशा छात्र संगठन ने किया था, जिसका विषय था-‘अँधेरा : मुक्तिबोध के समय का और हमारे समय का’। कार्यक्रम में गजानन माधव मुक्तिबोध के अध्‍येता डॉ. रामेश्वर राय मुख्य वक्ता और अध्यक्षता हेतु डॉ. आनन्द प्रकाश आमन्त्रित थे।

डॉ. रामेश्वर राय ने अपने सारगर्भित व्याख्यान में भारतीय जनमानस की मानसिक बुनावट और अलग–अलग समयों में साहित्य के माध्‍यम से उठते सवालों की चर्चा की। मुक्तिबोध को पढ़ते हुए हम तंत्र को पढ़ते हैं। आज के ठहराव और यथास्थिति की चर्चा करने से पहले यह बात जान लेना बेहद ज़रूरी है कि आज़ादी के ठीक बाद जो ताना–बाना हमारे सामने उभर कर आता है वह कैसा था ? राजनीतिक नेतृत्व द्वारा प्रचारित  दु:ख भरे दिन बीते रे …. के सुख को मुक्तिबोध जैसा लेखक संशय और दुविधाग्रस्त निगाह से क्यों देख रहा था ? रामधारी सिंह दिनकर ने तो यहां तक कह दिया था कि जितने हरामज़ादे थे सरकार हो गये/ टोपी बदल–बदलकर नम्बरदार हो गये।

डॉ. रामेश्वर राय ने कहा कि आज़ाद भारत के राजनीतिक, पूँजीपति और बुद्धिजीवी वर्ग को मिलाकर बना त्रिकोण एक नये प्रकार का यथास्थितिवादी माहौल का निर्माण कर रहा है। आज माल की अंधभक्ति में बुद्धिजीवी वर्ग भी डूबा हुआ है। यह वर्ग सामाजिक विसंगतियों पर सवाल खड़ा करने की बजाय साहित्यजगत में चैंक–चमत्कार या भ्रम पैदा करने का काम कर रहा है । या मुख्य सवालों से किनाराक़शीं करके परिधि के सवालों को केन्द्रीय बनाकर पेश करते है। ये जनसंगऊष्मा से लैस होने की बजाय मध्यवर्गीय संस्कारों से ग्रस्त हैं।

मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष मध्यवर्गीय संस्कारों को लेकर है। उनकी कविता का केन्द्रीय सरोकार कलात्मक नहीं बल्कि सामाजिक समस्या है। जब वे समाज की समस्याओं की निगहबानी करने की कोशिश करते हैं तो उन्हे कवि, कलाकार उद्योगपति, राजनेता और अपराधीगण एक साथ विचरण करते, मन्त्रणा करते नज़र आते हैं । ऐसे में मुक्तिबोध अभिव्यक्ति के समस्त ख़तरों को उठाते हुये अपना पक्ष तय करते हैं।

डॉ रामेश्वर राय ने कहा कि मुक्तिबोध के संघर्ष में बद्धमूलवर्गीय संस्कारों से मुक्ति पाने की छटपटाहट दिखती है। सिर्फ राजनीतिक बदलाव करने से बदलाव किसी काम का नहीं होगा। आज बदलाव के लिए वैकल्पिक रचनात्मक संस्कृति विकसित करने की भी ज़रुरत है। जब मीडिया, वर्ग–विशेष की सेवा करते हुए नौजवानों की संवेदनशीलता सोख ले रही है और सपने देखने की आदत भुला देना चाहती है तब प्रतिरोध की संस्कृति के तौर पर दिशा के कार्यकर्ताओं का यह प्रयास एक उम्मीद जगाता है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ. आनन्द प्रकाश ने अपने वक्तव्य की शुरुआत मुक्तिबोध की कविता ‘‘अँधेरे में ’’ से की, उन्होने कहा कि आज साहित्य और सांस्कृतिक मोर्चे के लोग बात तो जनता की करते हैं पर असलियत तो यह है कि वे शासक वर्ग के साथ खड़े हैं। भाड़े की कलमनवीसी करने वाला बौद्धिक वर्ग आत्मिक तौर पर मृत प्राय पूँजीवादी समाज की वाहवाही करते नहीं थकता। इस बात का तो ज़ोर–शोर से प्रचार किया जाता है कि आज प्रतिरोध के समस्त केन्द्र नष्ट हो चुके हैं, लेकिन वहीं लातिन अमेरिका से लेकर एशिया के तमाम हिस्सों में उठते जनदबाव पर चुप्पी साध लेते हैं।

यह सच है कि मुक्तिबोध के समय में एक संघर्ष की आग दिखती है और मोहभंग की अवस्था भी। वहीं उम्मीद की किरण साफ़–साफ़ दिख जाती है। जबकि आज के वातावरण में धुंध ज़्यादा है, यहाँ पर मुक्तिबोध जैसा लेखन ज़्यादा प्रासंगिक हो जाता है। जो सीधे–सीधे पूछ बैठता है कि-‘‘ पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है।’’

उन्होंने कहा कि आज चाहे जितनी भी निराशा और ठण्डापन हो, आने वाला समय संघर्षों का है जो कि नई उम्मीदों की किरणों को लेकर आयेगा। आज साहित्य में जीवन की गर्मी ग़ायब है, साहित्यकार मेहनतक़श अवाम के  दु:ख–दर्दों से बेहद दूर आलीशान बंगलों में बैठकर लिख रहे हैं। इसलिये उनका लेखन कृत्रिम–कृत्रिम सा है।

डॉ. आनन्द प्रकाश ने संघर्षशील पुरानी पीढ़ी को याद करते हुए कहा कि राहुल सांकृत्यायन, निराला, मुक्तिबोध आदि जनसंघर्षों में बढ़चढ़कर हिस्सा भी लेते थे, इसीलिये उनका लेखन आज भी हमें ऊर्जा देता है। उनके मुताबिक आज का पराजय बोध तभी समाप्त होगा जब साहित्य जनता से जुड़कर रचा जायेगा। उन्होंने दिशा के इस प्रयास की करते हुए कहा कि नई पीढ़ी तभी लड़ सकती है जब वह संघर्षरत लेखकों की विरासत को आत्मसात करे।

वक्तव्य के बाद एक संवाद सत्र भी रहा, जिसमें तमाम छात्रों ने दोनों वक्ताओं से कई प्रश्न पूछे, ज़्यादातर प्रश्न मुक्तिबोध की प्रासंगिकता को लेकर रहे। कार्यक्रम में हिन्दी साहित्य में रुचि रखने वाले तमाम छात्रों और शोधार्थियों के बीच, समयांतर के संपादक और लेखक पंकज बिष्ट और वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार कृषक भी उपस्थित रहे।

कार्यक्रम का संचालन कर रहे दिशा के कार्यकर्ता आशीष ने कहा कि मुक्तिबोध को याद करना सिर्फ़ याद करना ही न रह जाये, बल्कि उनके लेखन से आज के दौर में लड़ने की जो उ़र्जा प्राप्त होती है उसे जीवन में उतारा जाये। आशीष ने कार्यक्रम का समापन मुक्तिबोध की इस कविता अंश से किया :

समस्या एक….

मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में

सभी मानव

सुखी, सुन्दर व शोषण–मुक्त

कब होंगे ?

कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में

उमगकर

जन्म लेना चाहता फिर से

कि व्यक्तित्वान्तरित होकर,

नये सिरे से समझना और जीना

चाहता हूँ, सच!!

(‘‘चकमक की चिनगारियाँ’’ का एक अंश)

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स, जुलाई-सितम्‍बर 2006

 

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