विदा कॉमरेड लालबहादुर वर्मा! लाल सलाम!

प्रसेन

पिछली 17 मई को प्रसिद्ध इतिहासकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता डॉ. लालबहादुर वर्मा नहीं रहे। देहरादून के एक अस्पताल में उन्होंने अन्तिम साँस ली। अप्रैल और मई के महीने में सरकारी बदइन्तज़ामी और चौतरफ़ा घनघोर लापरवाही के बीच कोरोना ने अनेक मूल्यवान बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं को हमसे छीन लिया। डॉ. वर्मा भी इसके शिकार हुए। वे 83 वर्ष के थे लेकिन बौद्धिक रूप से बिल्कुल सक्रिय थे और विभिन्नं सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भी लगातार शामिल होते रहते थे।
कॉमरेड लालबहादुर वर्मा ने एक अकादमिक शिक्षक, एक राजनीतिक शिक्षक, इतिहासकार, सांस्कृतिक संगठनकर्ता, रंगकर्मी, साहित्यकार, अनुवादक, सम्पादक और निरन्तर ज़मीनी बौद्धिक-सांस्कृतिक सरगर्मियों के ज़रिए आम जनता के बीच सक्रिय रहने वाले ‘जन-बुद्धिजीवी’ के रूप में हज़ारों लोगों को गहराई से प्रभावित किया, सैकड़ों नौजवानों के जीवन की दिशा बदल दी। उनके अपने परिवार के लोग भी इनमें शामिल थे। बलिया के सतीशचन्द्र डिग्री कॉलेज, गोरखपुर विश्वविद्यालय, मणिपुर विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वे इतिहास के बेहद लोकप्रिय अध्यापक ही नहीं रहे बल्कि अपने सम्पर्क में आने वाले बड़ी संख्या में छात्र-छात्राओं के विचारों और जीवन मूल्यों को बदलने में भी उन्हों ने बड़ी भूमिका निभायी।
‘आह्वान’ की शुरुआत उन्होंने ही गोरखपुर में पर्चों की एक श्रृंखला के रूप में की थी, जिसने आगे चलकर अन्य साथियों की अगुवाई में पहले छात्रों-युवाओं के पाक्षिक अख़बार की और बाद में पत्रिका की शक्ल अख्तियार की।
डॉ.वर्मा आजीवन प्रगति, मुक्ति और बदलाव के आकांक्षी रहे, लेकिन इन मूल्यों की व्याख्या और इन्हें हासिल करने के रास्तों के बारे में उनके विचारों में बदलाव आता गया। अपनी युवावस्था में एक उदारतावादी बुद्धिजीवी से मार्क्सवाद तक का सफ़र उन्होंने एक लम्बी प्रक्रिया में तय किया और फिर बाद के दिनों में मार्क्सवाद की अपनी अलग व्याख्या तक, उनकी विचार यात्रा बहुत उतार-चढ़ावों-भटकावों से भरी रही, लेकिन वे जिस भी विचार के साथ रहे, निरन्तर बहस-मुबाहसा और संवाद उनके व्यक्तित्व का हिस्सा रहा। जिन लोगों से उनकी वैचारिक और सक्रियता की राह अलग हो गयी, उनके साथ भी अनेक शिकवे-शिकायतों के बावजूद उनका संवाद बना रहता था।
आज उन्हें प्यार करने वाले लोगों में भाँति-भाँति के सोशल-डेमोक्रेट्स, बुर्जुआ लिबरल्स, एन.जी.ओ.-पंथी और ‘फ्री-थिंकर्स’ आपको मिलेंगे, (खासतौर पर जो लोग पिछले पच्चीस वर्षों के दौरान उनके निकट सम्पर्क में आये), दिल्ली के बहुत सारे रंग-बिरंगे सोशल-डेमोक्रेट्स से भी उनके प्यार-भरे रिश्ते चलते थे और पिछले करीब बीस वर्षों के दौरान उनके आसपास ऐसी ही रंग-बिरंगी जमातों का जमघट होता था, लेकिन उतना ही बड़ा सच यह है कि बहुत सारे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं, बहुत सारे सच्चेे प्रगतिशील लेखकों-कवियों-संस्कृतिकर्मियों-बौद्धिकों की एक विशाल सेना अपने जीवन-काल में वर्माजी ने खड़ी की।
कॉ. वर्मा के व्यक्तित्व की यह ख़ासियत थी कि उन्होंने उनकी सीमाओं का अतिक्रमण करके आगे जाने वाले, स्वयं उनके व्यक्तित्व और चिन्तन के अन्तरविरोधों को भी आलोचनात्मक दृष्टि से देखने वाले और प्रयोगों की अपनी राह निकालने वाले शिष्य तैयार किये। रूढ़िग्रस्त, मंथर गति और सांस्कृतिक सड़ाँध से भरे भारतीय समाज में यह एक बड़ी बात थी, सचमुच बड़ी बात थी। उनकी वैचारिक अवास्थितियाँ सुस्थिर और सुसंगत नहीं थीं, मार्क्सवाद का उनका अध्ययन बहुत ही सीमित था (अपनी आत्मकथा में उन्होंने इसे साहस के साथ स्वीकार किया है), दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्त्र और यहाँ तक कि मार्क्सवादी इतिहासकारों और विचारकों का अध्ययन भी उनका बहुत सीमित था। काफ़ी हद तक वह ‘कॉमन सेंस लॉजिक’ और अनुभवसंगत तर्कों के उपकरण से ही काम चलाते थे और बेशक़, अपनी बातों को बेहद लोकप्रिय, सुन्दर और प्रभावी भाषा में प्रस्तुत करते थे। विचारों के धरातल पर बहुतेरे अन्तरविरोधों से ग्रस्त होते हुए भी, यही सारे कारण थे कि किसी भी युवा को सामाजिक सरोकारों के साथ जीना सिखाने में, सृजनशीलता की महत्ता बताने में, पुराने जड जमाये हुए संस्कारों को तोड़ने में और रूढ़ियों से बगावत करने के लिए प्रेरित करने में वर्माजी सचेतन जीवन की शुरुआत के प्रारम्भिक चरणों में अद्भुत प्रभावी भूमिका निभाते थे। उन प्रारम्भिक चरणों के बाद उनके बहुत सारे शिष्य अलग-अलग दिशाओं में आगे बढ़ गये और इस बात पर डॉ. वर्मा को कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि सन्तोष था।
गोरखपुर जैसे कस्बाई शहर में एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुए डा. लाल बहादुर वर्मा की प्रारम्भिक से लेकर उच्च शिक्षा तक की यात्रा वहीं पूरी हुई। इतिहास से स्नातकोत्तर उपाधि उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से ली और फिर पी-एच.डी. उपाधि के लिए शोध-कार्य अपने पुराने शिक्षक प्रो.हरिशंकर श्रीवास्तव के निर्देशन में एंग्लो-इंडियन्स के इतिहास पर किया। शोध पूरा करने के बाद उन्होंने कुछ समय तक बलिया के सतीशचन्द्र डिग्री कॉलेज में अध्यापन किया और फिर गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रवक्ता‍ बनकर आ गये। पोस्ट-डॉक्टोरल रिसर्च के लिए 1967 में वह फ्रांस चले गये। फ्रांस में उन्होंने आधुनिक भारत के इतिहास-लेखन पर प्रख्यात दार्शनिक और समाज-वैज्ञानिक रेमों आरों के साथ काम किया। ये वही रेमों आरों थे जिन्होंने पचास और साठ के दशक में कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ जमकर वैचारिक संघर्ष चलाया था और डैनियल बेल और काहन के साथ मिलकर ‘पोस्ट-इण्डस्ट्रियलिज़्म’ का सिद्धान्त प्रस्तुत किया था। लाल बहादुर वर्मा एक ओर तो प्रो. आरों की विद्वत्ता और व्यक्तित्व से काफ़ी प्रभावित थे (कुछ हद तक, बाद में भी रहे), दूसरी ओर, फ्रांस में 1968 के छात्र आन्दोलन का भी उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा था जिसके वह प्रत्यक्षदर्शी थे। एक माओवादी पत्रिका के युवा सम्पादक की गिरफ्तारी के बाद सार्त्र को स्वयं वह पत्रिका छापकर सड़कों पर बेचते हुए उन्होंने देखा था। जिस तरह वह आरों की विद्वत्ता से प्रभावित थे, उसी तरह सार्त्र के एक्टिविज्म से भी प्रभावित थे।
लेकिन उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू यह था कि भारत लौटकर मार्क्सवादी बनने के बाद तक न तो उन्हें आरों की घोर प्रतिगामी राजनीतिक अवस्थिति की स्पष्ट समझ थी, न ही मार्क्सवाद के निकट आने के प्रयासों में तमाम अन्तरविरोधों में जा उलझे सार्त्र के अस्तित्ववाद के बारे में उनका कोई अध्ययन था। फ्रांस के ऐतिहासिक छात्र-युवा आन्दोलन से भी वह वैसे ही रोमांचित और अभिभूत हुए, जैसे तमाम देशव्यापी स्वतःस्फूर्त जन-उभारों और जन-विद्रोहों की लहर से आज भी बहुतेरे प्रगतिशील बुद्धिजीवी रोमांचित और अभिभूत हो जाया करते हैं।1968 के आन्दोलन के उत्तरवर्ती नकारात्मक प्रभावों और परिणतियों के पक्ष के बारे में वर्माजी की बाद तक कोई समझ नहीं बनी थी। यही वह दौर था जब फ्रांस में विचारधारात्मक उथल-पुथल भी ज़बरदस्त रूप में जारी था। 1968 से ’71 का काल ही गोदार के बौद्धिक मार्क्सवादी सिनेमा का स्वर्णिम काल भी था। पर इन बौद्धिक-दार्शनिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक विमर्शों के सरगर्म माहौल से सॉरबॉन विश्वविद्यालय में रहते हुए भी वर्माजी काफी हद तक अप्रभावित ही रहे। कुछ वर्षों पहले फ्रांस के छात्र-आन्दोलन को केन्द्र में रखकर उन्होंने जो उपन्यास लिखा, उससे भी इस बात का पता चलता है। इन बातों से उनके व्यक्तित्व और मानस की बनावट-बुनावट को हम बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।
व्यक्तित्वों, विचारों और ऐतिहासिक घटनाओं का तात्कालिक और आभासी प्रभाव, उनकी कौंध और आभा वर्माजी के लिए सम्मोहनकारी हुआ करती थी। और यह बात मार्क्सवादी बनने के बाद भी किसी हद तक उनके व्यक्तित्व में मौजूद रही। इसके चलते चीज़ों से प्रभावित होने के दौर में वह एकदम अनालोचनात्मक और अति-प्रशंसात्मक रुख अपनाते थे और फिर उतने ही मनोगतवादी ढंग से दूसरे अतिरेकी छोर तक भी जाते थे और बिना किसी विश्लेषण के उन्हीं चीजों के आलोचक हो जाते थे। उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि वह जहाँ भी रहे, नयी मण्डलियाँ बनाते रहे। वह बुनियादी तौर पर सड़क की सरगर्मियों के व्यक्ति थे, लेकिन वैचारिक-दार्शनिक मशक्क़तों की दुनिया उनकी दुनिया नहीं थी और यही कारण था कि उनकी अनुभववादी सोच अक्सर ही लोकरंजकतावाद के मुकाम तक चली जाती थी। इसलिए, यह अनायास नहीं था कि 1990 के बाद कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन के ठहराव-बिखराव के ऐतिहासिक कारणों की पड़ताल करने की जगह वर्माजी उनके लिए व्यक्तियों को ज़िम्मेदार मानने लगे जो नितान्त अनैतिहासिक और भाववादी नज़रिया है। इस सोच की तार्किक परिणति उन्हें मार्क्स के साथ बुद्ध, गाँधी, अम्बेडकर आदि को मिलाने की मंजिल तक ले गयी।
अपनी पीढ़ी के अधिकांश प्रबुद्ध नागरिकों की तरह वर्माजी एक सेक्युलर और डेमोक्रेटिक चेतना के व्यक्ति थे। यह वह पीढ़ी थी जो टीटो, नेहरू, नासेर, सुकर्णो, पैट्रिस लुमुम्बा, क्वामे एन्क्रूमा, कास्त्रो-चे आदि-आदि को एक साथ प्यार करती थी, मार्क्सवाद को आलोचना और शंका के साथ सराहती थी, स्तालिन और माओ के प्रति संशय-भाव रखती थी और केनेडी को भी पसंद करती थी और उसकी हत्या को लेकर दुखी रहती थी। फ्रांस-प्रवास और यूरोप के कुछ अन्य देशों की यात्रा ने डॉ. वर्मा की जनवादी चेतना को रेडिकलाइज़ कर दिया था और भारतीय समाज की कूपमण्डूकता, ठहराव की सड़ांध, किसानी समाज की लिसलिसी रागात्मकता और “प्राच्य निरंकुशता” से नफ़रत करना सिखा दिया था, हालाँकि अपने समाज और ज़मीन के जन्मचिह्न फिर भी कहीं न कहीं स्वाभाविक तौर पर, उनके अवचेतन और व्यवहार में बने रहे। वर्माजी जब सेण्ट एण्ड्रयूज़ कॉलेज में छात्र थे तब एस.एफ.आई. समर्थित उम्मीदवार के रूप में छात्रसंघ-अध्यक्ष का चुनाव लड़े थे और जीते थे। उस समय संशोधनवादी विपथ-गमन के बावजूद, गोरखपुर क्या, पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्ट आन्दोलन का व्यापक जनाधार था, साफ़ और जुझारू छवि थी। उनके कुछ मित्र भी एस.एफ.आई. में सक्रिय थे लेकिन वर्माजी पार्टी या एस.एफ.आई. से नहीं जुड़े।
1972 के अन्त के किसी महीने में डॉ. वर्मा ने ‘भंगिमा’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। शुरू में पत्रिका का स्वरूप न तो पूरी तरह साहित्यिक था, न ही वर्माजी की चेतना मार्क्सवाद तक पहुँची थी। ‘भंगिमा’ शुरू करते समय उनके दिमाग़ में रोमेश थापर सम्पादित पत्रिका ‘सेमिनार’ और किसी एक ऐसी ही फ्रांसीसी पत्रिका का मॉडल था – जो तमाम जनवादी, सेक्युलर, प्रगतिशील विचारों का एक मंच या सिम्पोजियम हो। शुरू के चार-पांच अंक ऐसे ही निकले भी। लेकिन उन दिनों गोरखपुर का माहौल क्रान्तिकारी वामपंथी सरगर्मियों से भरा हुआ था।1973-74 के वर्ष वे वर्ष थे जब वर्माजी की वैचारिक अवस्थिति भी तेज़ी से बदली और उसी के हिसाब से ‘भंगिमा’ का स्वरूप भी। इस प्रक्रिया में कई उपादानों की एकसाथ महत्वपूर्ण भूमिका थी। गोरखपुर विश्वविद्यालय में छात्रों के एक मार्क्सवादी ग्रुप के साथ सम्पर्क-संवाद के सिलसिले ने वर्माजी के वैचारिक रूपान्तरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आनन्दस्वरूप वर्मा, भगवान सिंह, डॉ.माहेश्वर आदि के साथ भी वर्माजी के सम्पर्क-संवाद ने उनकी विचार-यात्रा में एक भूमिका निभाई जिसकी चर्चा आ चुकी है। ‘भंगिमा’ की पहली और दूसरी वार्षिकी में दूधनाथ सिंह, कामतानाथ, भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कंडेय आदि साहित्यकार आये। वर्माजी इलाहाबाद जाकर भी वहाँ के साहित्यकारों से मिले। ‘भंगिमा’ के अंक लेकर एकाधिक बार वह कलकत्ता में इसराइल, विमल वर्मा, तड़ित कुमार, ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’ आदि-आदि से मिले। दिल्ली में अजय सिंह, पंकज सिंह, मंगलेश डबराल, प्रभाती नौटियाल, त्रिनेत्र जोशी, शिवमंगल सिद्धांतकार, विष्णुचंद्र शर्मा, सुरेश सलिल, बिभास दास आदि-आदि से भी उनका सम्पर्क हुआ। इस तरह ‘भंगिमा’ ने वर्माजी के वैचारिक रूपान्तरण में अहम भूमिका निभाई और उनके मार्क्सवादी प्रतिबद्धता की सुस्पष्टता के साथ ‘भंगिमा’ भी लगभग दस से पन्द्रह अंकों तक की यात्रा तय करके वाम धारा की महत्वपूर्ण लघु पत्रिकाओं में गिनी जाने लगी।
अगर कोई व्यक्ति लघु पत्रिका आन्दोलन या अस्सी के दशक के वाम साहित्यान्दोलन पर शोध करे तो ‘पहल’, ‘उत्तरार्द्ध’, ‘उत्तरगाथा’, ‘वाम’, ‘पुरुष’, ‘आईना’, ‘आमुख’, ‘सर्वनाम’, ‘परिबोध’ और ‘युग-परिबोध’, ‘वर्त्तमान’ (आगे ‘वर्तमान साहित्य’ के रूप में पुनर्प्रकाशित), ‘फिलहाल’, ‘तनाव’, ‘शेष’ आदि-आदि के साथ अगर उसने ‘भंगिमा’ की फाइलें न देखी हों तो उसका शोध पूरा नहीं माना जा सकता। और सबसे बड़ी बात यह थी कि कई सयुक्तांको के प्रकाशन और बीच-बीच की अनियमितता के बावजूद ‘भंगिमा’ साहित्य की अकेली नियमित मासिक पत्रिका थी! ’72 के अन्त से लेकर ’77 के मध्य तक उसके कुल तिरेपन अंक निकले जिनमें आपातकाल के दौरान निकले बहुचर्चित कहानी विशेषांक और कविता विशेषांक, पचासवाँ विशेष अंक और पंजाबी कविता विशेषांक तो दस्तावेज़ी थे। पंजाबी कविता विशेषांक की सारी सामग्री जुटाने और अनुवाद करने का काम पंकज सिंह और शकुन्तला चन्दन ने बहुत मेहनत से किया था। उसके पहले पाश और अमरजीत चन्दन की इक्की-दुक्की कविताओं से ही हिन्दी पाठक परिचित थे। पहली बार पाश, अमरजीत चन्दन, सुरजीत पात्तर, लाल सिंह दिल, हरभजन हलवारवी आदि सभी प्रतिनिधि पंजाबी कवियों की रचनाओं से हिन्दी पाठकों का साक्षात्कार ‘भंगिमा’ के पंजाबी कविता विशेषांक के ज़रिये ही हुआ था।
आपातकाल के दौरान डा. लाल बहादुर वर्मा रंगकर्म की दुनिया में आये और रंगकर्म के ज़रिए न सिर्फ़ गोरखपुर के सांस्कृतिक माहौल में नई हलचल पैदा की बल्कि अनेक युवाओं को रंगकर्मी और अनेक रंगकर्मियों को सामाजिक कार्यकर्ता भी बना दिया। बौद्धिक से अधिक वह ज़मीनी कार्रवाइयों की दुनिया के आदमी थे। कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक सरगर्मियों के बिना वह रह ही नहीं सकते थे। हर साल कुछ छात्रों की टीम लेकर वह राप्ती-रोहिन नदियों के कछारों में बाढ़ से प्रभावित होने वाले गाँवों में, शहर में घर-घर से सहयोग इकट्ठा करके राहत बाँटने जाया करते थे। उस समय गोरखपुर में सिनेमा हालों में सुबह के शो में पोर्न या सॉफ्ट-पोर्न फ़िल्में चला करती थीं। इनके ख़िलाफ़ वह पर्चा लेकर ऐसे सिनेमा हालों के बाहर कई दिनों तक मुहि‍म चलाते रहे जिसका नतीजा यह हुआ कि काफी समय के लिए शहर में ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन बन्द हो गया।
आपातकाल के तुरन्त बाद ही वह क्रान्तिकारी वाम की धारा से जुड़ गये थे और अगले डेढ़ दशक तक इस धारा के साथ जुड़कर राजनीतिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में लगातार सक्रिय रहे। 1980 में गठित ‘राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृ़तिक मोर्चा’ के वह महासचिव थे और ‘भंगिमा’ के बन्द होने के बाद शुरू हुई इसकी पत्रिका ‘लोकचेतना’ के सम्पादक मण्डल में थे। हालाँकि इसके कुछ ही अंक निकल सके। बाद में ‘इतिहासबोध’ पत्रिका का प्रकाशन सांगठनिक योजना के तहत ही शुरू हुआ था, हालाँकि कुछ अंकों के बाद ही संगठन में हुई टूट के बाद वह इसे स्वतन्त्र रूप से निकालते रहे।
बाद के दशकों में वह क्रमशः मार्क्सवाद से दूर होते गये, या यह कहें कि मार्क्सवाद की उनकी एक अपनी व्याख्या अस्तित्व में आयी जिसमें वर्ग-संघर्ष, सर्वहारा अधिनायकत्व, पार्टी की लेनिनवादी समझ, समाजवादी प्रयोगों की मार्क्सवादी-लेनिनवादी व्याख्या आदि से वह काफी दूर हो गये थे। वह कहते भी थे कि वह किसी वाद से बँधे हुए नहीं हैं, और बिना किसी दार्शनिक विस्तृत-गहन विमर्श के, मार्क्स के साथ ही गाँधी (कुछ मामलों में), अम्बेडकर और बुद्ध को भी रखने लगे थे। इतिहास-पुरुषों की भूमिका, अन्तर-वैयक्तिक मानवीय संबंधों और भावनाओं (जैसे प्रेम, दोस्ती आदि) की समझ उनकी ज्यादा से ज्यादा हेगेलियन भाववादी होती चली गयी थी और समाज को बदलने से पहले व्यक्ति के बदलने पर उनका बल भी अधिक से अधिक भाववादी किस्म का होता चला गया था। समाजवाद की परियोजना को लागू करने को लेकर जड़सूत्रवाद के अतिरेकी और असंगत विरोध ने डॉ. वर्मा के विचारजगत में एक पश्चगामी यात्रा को जन्म दिया। इसे विज्ञान से यूटोपिया की ओर यात्रा, वैज्ञानिक समाजवाद से यूटोपियाई समाजवाद के एक नये संस्करण की ओर यात्रा कह सकते हैं। बाद के वर्षों में सम्पर्क में आये युवाओं को भी वह किसी सांगठनिक दायरे में बँधे बिना बौद्धिक और सामाजिक कार्य करने का सुझाव देते थे।
लेकिन उनकी ख़ास बात यह थी कि अपनी इन अवस्थितियों पर भी वह स्थिर और सुसंगत नहीं थे। उनसे एकदम अलग विचार रखने वाला नयी पीढ़ी का कोई व्यक्ति, जैसे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन की किसी भी उपधारा का कोई युवा, उन्हें अगर कुछ मौलिक और श्रमसाध्य काम करता हुआ दीखता था तो वह मुक्त कण्ठ से उसकी प्रशंसा करते थे और उसके कामों के बारे में विस्तार से जानकारी लेते थे।
पहले उनसे जुड़ा रहा कोई पुराना साथी या उसी धारा का कोई नया परिपक्व साथी कहीं उनसे टकरा जाता था तो उनके सैद्धान्तिक कामों, योजनाओं और ज़मीनी प्रयोगों की विस्तार से जानकारी लेते थे और विभिन्न मुद्दों पर उनकी पोज़ीशन जानने में न केवल दिलचस्पी दिखाते थे, बल्कि प्रशंसा और प्रोत्साहन का भाव भी प्रदर्शित करते थे। उनसे मिला हुआ व्यक्ति आज चाहे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन की जनदिशा वाली धारा में कहीं खड़ा हो, चाहे माओवादी पार्टी के साथ खड़ा हो, चाहे कोई स्वतन्त्र वाम बुद्धिजीवी हो, चाहे कोई एन.जी.ओ. का शीर्ष ओहदेदार हो, या लेखक अथवा इतिहासकार हो, वे सभी इस बात को स्वीकार करते हैं कि युवावस्था में डॉ. लालबहादुर वर्मा ने उनकी जीवन की दिशा को मोड़ देने में, रू‍ढ़ि‍यों-संस्कारों-आदतों से मुक्त होने में, परम्परा से विद्रोह करके जीवन को सोद्देश्य बनाने में सबसे अहम भूमिका निभायी थी और लीक से हटकर जीने-सोचने का प्रारम्भिक संवेग उन्हें वर्माजी से ही मिला था।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2021

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