कोरोना महामारी में चरमराई भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था

सनी

कोरोना महामारी की दूसरी लहर से देश में श्मशान और लाशों के ढेर लग चुके हैं। गंगा के किनारे श्मशान में तब्दील हो गये। अपने परिजनों की लाशों को लोगों ने श्मशान की कमी और महँगे दाम की वजह से गंगा से लेकर रेवती नदी में बहा दिया। केन्द्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें केवल अपनी छवि चमकाने का काम करती रहीं। ऑक्सीेजन की कमी से लोग तड़पते रहे और प्रधानसेवक नरेन्द्र मोदी ने आकर कहा कि उन्होने बहुत मेहनत कर कोरोना बीमारी को रोक लिया। क्या इससे अधिक बड़ा झूठा और बेशर्म फ़ासीवादी नेता कोई हो सकता है? वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया को निजी कम्पनियों के हाथों में सौंपा गया और जनता के पैसे से बनी वैक्सीन के लिए वापस जनता से ऊँची क़ीमतें वसूली जा रही हैं। देश की सरकार खुलकर इन कम्पनियों की सेवा कर रही है। कोवैक्सीन, कोविशील्ड से लेकर स्पुतनिक बाज़ार में उतर चुकी हैं और विक्रेता कम्पनियाँ जनता से जमकर मुनाफ़ा पीट रही हैं। इन सभी वैक्सीन को तैयार करने में जो भी शोध हुआ, फार्मास्युटिकल कम्पनियों ने पेटेण्ट करवाकर इस महामारी में लोगों की जान बचाने के बदले पैसा कमाना शुरू कर दिया है। अगले महीने तीसरी लहर आने की सम्भावना भी व्यक्त की जा रही है और हमारे देश में फ़िर क़हर बरपा होगा ही। इस महामारी ने सरकार की नीतियों और स्वास्थ्य व्यवस्था के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातों को इंगित किया है।
एक, सरकारों का ग़रीब जन विरोधी चेहरा साफ़ हुआ है। हर बीमारी ग़रीबों की बस्तियों में भयानक नरसंहार करती है। इस बीमारी को महामारी में तब्दील करने की मुख्य़ ज़िम्मेदारी मोदी सरकार की ही है। पिछले साल की ही तरह दोबारा सरकार ने न कॉण्टैक्ट ट्रेसिंग की और न ही बीमारी को रोकने के लिए कोई क़दम उठाये। केवल मास्क‍ न पहनने पर जुर्माना लगाने के जरिये सरकारी ख़ज़ाना भरा गया जबकि असल में संक्रमण बस्ती -बस्ती फैलता रहा। जब यह संक्रमण फैल रहा था तब मोदी और भाजपा के नेताओं ने बिना किसी सामाजिक दूरी के चुनावी रैलियाँ की। पिछले साल नमस्ते ट्रम्प के आयोजन के ज़रिये तो इस साल चुनाव के ज़रिये प्रधानमन्त्री मोदी सुपरस्प्रैडर साबित हुए हैं। न सिर्फ़ बीमारी के कारण लोगों की मृत्यु हुई है बल्कि भूख और बेघर होने के डर से बीमारी में ही लोग पैदल चल पड़े। सरकार ने हर क़दम में जो लापरवाही की, वह ग़रीबों के हिस्से में आयी और जो पहलक़दमी की, उसने अमीरों के घरों को बचाया। परन्तु दूसरी लहर में न केवल ग़रीब बस्तियों पर मौत का मसीहा मंडरा रहा था बल्कि इसने अमीरों की बसावट पर भी अपने पंख फैलाये।
दो, कोविड-19 के महामारी बनने की वजह जनस्वास्थ्य सुविधाओं का जर्जर ढाँचा है। सार्वजनिक स्वास्थ्य ढाँचे को गिराकर उसकी जगह खड़ा हुआ निजी अस्पतालों, निजी लैब, नर्सिंग होम से लेकर एम्बुलेंस का मकड़जाल स्वास्थ्य सेवा को बाज़ार में बिकने वाला माल समझता है। इस कारण ही यह महामारी भारत से लेकर तमाम देशों में विकराल रूप लेकर सामने आयी।
तीन, वैक्सीन को बनाने में लगे तमाम शोध संस्थान पूरी तरह बड़ी फार्मास्युटिकल कम्पनियों के मातहत हैं। इनका एकमात्र मक़सद बाज़ार में माल बेचना है। वैज्ञानिकों की विज्ञान के प्रति प्रतिबद्धता मुनाफ़े के प्रति प्रतिबद्धता है।
चार, इस बीमारी के पैदा होने का कारण प्रकृति की तबाही है। जंगलों की कटाई, आधुनिक खेती का होता विस्तार और मनुष्यों का उस दायरे में प्रवेश जो पहले अनछुआ था। दुनिया भर की सरकारें वायरस की उत्पत्ति को भी अपने राजनीतिक एजेण्डे के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। वायरस के पैदा होने को लेकर तमाम अटकलें भी साम्राज्यवादी ताकतों के बीच राजनीतिक रस्साकसी के लिए ज़मीन दे रही हैं। अमरीका की इण्टेलिजेंस एजेन्सी इस प्रचार को आग देने में लगी हुई हैं कि वायरस वुहान के लैब में षड्यन्त्र के तहत बनाया गया। अपनी मूर्खता के चलते कोविडियट्स इस मूर्खता के वाहक बने हुए हैं।

मोदी सरकार की अमीरपरस्ती और मूर्खताएँ

भारत में ही 3 करोड़ से ज्यादा केस आ चुके हैं और 4 लाख लोगों की मृत्यु हो चुकी है। दुनिया भर में अब तक इस बीमारी से लगभग 39 लाख मौतें हो चुकी हैं और दुनिया भर में 18 करोड़ केस आ चुके हैं।
इस साल भी सरकार ने पहले साल की तरह आम जनता के जीवन में त्राहि मचने दी। पिछले साल की तबाही के बाद बनी कोविड टास्क फोर्स की कोई भी मीटिंग नहीं की गयी। तमाम चेतावनियों के बावजूद सरकार ने न ऑक्सीजन प्लाण्ट चालू कराये और ऑक्सीजन की कमी होने पर भी कई औद्योगिक इकाइयों को मेडिकल ऑक्सीजन देने के लिए हरी झण्डे देने में मोदी सरकार को फ़ुरसत नहीं मिली। फ़ुरसत होती भी क्यों? देश का पूरा केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल बंगाल चुनाव में 18-18 घण्टे़ काम कर रहा था। भाजपा लोगों में हिन्दूू और मुसलमान के नाम पर नयी दरार डालने की योजना बनाने में व्यस्त थी। जब मौतों के मंज़र के चलते जनता में सरकार की नीतियों पर सवाल उठने लगे तो सरकार का मक़सद जनता की चीखों को दबाने और दम घुटते लोगों के दृश्योंे पर पर्दा डालना था। डॉक्टरों से लेकर तमाम स्वास्थ्य कर्मियों की मौतों को भी सरकार ने ढँक दिया। उत्तर भारत के गाँव-गाँव में संक्रमण ने घर-घर में लोगों को मौत की आगोश में ले लिया। शहरों में लोग ऑक्सीजन से लेकर कोविड-19 संक्रमण के इलाज में प्रयोग होने वाली दवाइयों के लिए दर-दर भटकते रहे। जब लोग ऑक्सीजन और दवाइयों के लिए मर रहे थे, देश की सरकार और मन्त्री चुनाव में व्यस्त थे और जब वे चुनाव से वापस आये तो वे उन लोगों पर ही मुक़दमे करने लगे जो दवाइयों और ऑक्सीजन के लिए सोशल मीडिया पर गुहार लगा रहे थे। ऑक्सीजन से लेकर तमाम दवाइयों की कालाबाज़ारी की गयी। एक ऐसी बीमारी जिसने इस व्यवस्था के भीतर सड़ाँध को उसकी जंग लगे स्तम्भों के सतह के ऊपर ला दिया। हर घर में जब मौत एक तथ्य बनने लगी तब सरकार ने बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन लागू किया जिसमें लोगों को अपने घरों में बन्द छोड़ दिया गया। शहर बन्द हुए और निर्माण कार्य से लेकर तमाम काम धन्धे बन्द हुए और एक साल पुराना मंज़र फ़िर दोहराने लगा। कई लोग दिल्ली, मुम्बई, पुणे और चेन्नई व अन्य शहरों से फ़िर घर की ओर वापस लौटने लगे। इस बार सरकार ने मज़दूरों को अपने घर जाने से नहीं रोका और कई फैक्ट्रियाँ चलती रहीं। बीमारी को क़ाबू करने के लिए सरकारों ने लॉकडाउन में मज़दूरों को बेरोज़गार होने के लिए सड़क पर छोड़ दिया और भुखमरी के कगार पर पहुँचा दिया है। आर्थिक संकट की मार से जूझ रही अर्थव्यवस्था इन दो लॉकडाउन में चरमरा कर धराशायी हो गयी और हमेशा की तरह इसका बोझ आम मेहनतकश जनता के ऊपर ही आया है। जितनी मौतें आम लोगों की कोरोना बीमारी से हो रही है उतनी ही मौतें कोरोना के दौरान आर्थिक बन्दी व अन्य बीमारियों से हो रही हैं। सरकार ने कॉण्टैक्ट ट्रेसिंग, व्यापक टेस्टिंग और क्वारण्टीन की नीति को लागू नहीं किया। लॉकडाउन दरअसल एक मीटिगेशन रणनीति होती है जिसका मक़सद संक्रमण को तेज़ी से फैलने से रोकना होता है। यह भी केवल रोगियों की पहचान कर उन्हें ठीक करने के दौरान ही कारगर हो सकती थी परन्तु ऐसा नहीं हुआ। कोविड-19 के रोगियों में ब्लैक फ़ंगस बीमारी का संक्रमण भी तेजी से बढ़ रहा है। कई रोगियों ने इस कारण अपनी आँख भी गँवा दी है। अब बाज़ार में वैक्सीेन आ चुकी है परन्तु यह भी बाज़ार के हवाले है और उत्पादक कम्पनियाँ करोडों रूपये मुनाफ़े में पीटने वाली हैं। सरकार ने काफ़ी आलोचना के बाद घोषणा की कि सभी को वैक्सीन मुफ़्त में लगेगी परन्तु़ अभी भी प्राइवेट अस्पतालों में ऊँची क़ीमतों पर अमीरज़ादे वैक्सीन लगवा रहे हैं।
ऐसे में सवाल तो उठता है कि क्या वैज्ञानिक शोध इसलिये करते हैं कि आम लोग जब मृत्यु के कगार पर हों तब उन्हें जि़न्दगी देने के बदले जमकर पैसा वसूला जाए? ऐसा विज्ञान किसके लिए है जो लोगों की जि़न्दगी न बचा सके? भूख और बेबसी के कारण हो रही मौतों पर विज्ञान कौन सी खोज करेगा? इन मौतों के कारण अमीरपरस्त राजनीति से लेकर जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था की सारी समस्याएँ लोगों के सामने उजागर हो गयी। यह साफ़ है कि इस बीमारी को महामारी बनने देने का कारण भारत सरकार की तात्कालिक मूर्खताएँ और लापरवाही हैं। दूसरी तरफ़ इस हालात के लिए भारत की जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था भी ज़िम्मेदार है। सरकार अगर त्वरित कार्यवाही भी करती तब भी ग़रीब जनता जिन सरकारी अस्पातालों के सहारे हैं वे अवसंरचना और सुविधाओं के मामलों में खोखले हैं और उनकी नींव खोदकर ही निजी अस्पलताल खड़े हुए हैं। इस बीमारी ने जहाँ फ़ासीवादी सरकार की तमाम नीतियों की पोल खोलकर रख दी है वहीं दूसरी ओर स्वास्थ्य व्यवस्था के ढाँचे पर वैसे ही रौशनी डाली है जैसे अँधेरी रात में आकाश से गिरने वाली बिजली अपनी चमक से भूदृश्य को जगमग कर देती है।

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का जर्जर ढाँचा

भारत का स्वाास्थ्य ढाँचा आज़ादी मिलने के बाद से ही बौना रहा है। सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य का विकास केवल आपदाओं में किया तथा यह भी बेहद संकुचित रहा। 1946 में भोरे कमेटी की रिपोर्ट में प्रति एक लाख की आबादी पर 567 अस्पताल बेड, 62.3 डॉक्टर और 150.8 नर्सों का जो लक्ष्य रखा गया था वह आज तक पूरा नहीं हो पाया है। आज भारत में प्रति एक लाख आबादी पर मात्र 140 अस्पताल बेड, 66.18 डॉक्टर और 149.25 नर्स हैं। स्वास्थ्य तन्त्र को कोरोना महामारी के तूफ़ान के समक्ष भहराकर गिरना ही था। नवउदारवाद के दौर से पहले जो भी स्वास्थ्य नीतियाँ बनीं, वे केवल ज़ुबानी जमाखर्च करते हुए जन स्वास्थ्य की बातें करती रहीं। 1995 में ‘डब्लूटीओ गैट्स’ की नीतियों पर अमल करते हुए स्वास्थ्य सेवा को माल में तब्दील कर दिया गया। 1994 में आये ‘ड्रग प्राइस कण्ट्रोल ऑर्डर’ के तहत अधिकांश दवाओं की क़ीमत पर सरकारी नियन्त्रण हटा दिया गया। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ) के ‘ट्रेड रिलेटेड इण्टेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स’ के आने के बाद भारत सरकार ने भी 1970 के ‘पेटेण्ट एक्ट’ में 2005 में संशोधन कर दिया। 2005 से पहले पुराने एक्ट के चलते भारत में सस्ती जेनेरिक दवाओं के उत्पादन में कुछ हद तक छूट थी जो किसी हद तक देश की ग़रीब जनता को सस्ती दवाएँ मुहैया कराने में मददगार था। परन्तु 2005 के बाद दवा का बाज़ार देशी-विदेशी दवा कम्पनियों द्वारा मुनाफ़ा पीटने के लिए पूरी तरह से खोल दिया गया। यही वज़ह है कि अब दवा की क़ीमतें आकाश छू रही हैं। वहीं 2017 में कैबिनेट द्वारा पारित राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति जन-स्वास्थ्य सुविधाओं का बचा-खुचा हिस्सा भी तबाह करने, पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को निजी क्षेत्र के हाथों में देने का दस्तावेज़ था। इस नीति के जरिये सरकार बहुसंख्यक लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएँ देने से बेशर्मी के साथ मना करने और पैसे वालों के लिए ‘अति आधुनिक’ स्वास्थ्य सुविधाएँ क़ायम करने और निजी अस्पतालों को खुलकर लूटने की इजाज़त दे चुकी थी। यह सरकार की तमाम नीतियाँ थीं, जिसके चलते भारतीय स्वास्थ्य सेवा को माल बनाया गया है।

अगर आँकडों की निगाह से देखें तो इन योजनाओं के नतीजे सामने आ जाते हैं:

2017 में भारत का स्वास्थ्य बजट जीडीपी का एक प्रतिशत था। भारत की जनसंख्या 2011 से 16 करोड़ तक बढ़ी है परन्तु इस बीच कुल सरकार द्वारा बजट पर खर्च केवल 0.39 प्रतिशत ही बढ़ा है। 2019-2020 का बजट जीडीपी का केवल 1.29 प्रतिशत था। भारत के पास कुल 25778 सरकारी अस्पताल हैं, 713986 बेड हैं, 35700 आईसीयू और 17850 वेण्टिलेटर हैं। वहीं अगर हम निजी क्षेत्र को देखें तो भारत में 43486 निजी अस्पताल हैं, 11 लाख 80 हजार बेड हैं, 59264 आईसीयू हैं और 29631 वेण्टिलेटर हैं। भारत के स्वास्थ्य की अवसंरचना का 62 प्रतिशत निजी अवसंरचना के मातहत है।
क्रिस्टोफर जैफरोलेट एक रिपोर्ट में बताते हैं कि 2013 में केवल 72 प्रतिशत भारतीयों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच है। गाँव में 32 प्रतिशत से अधिक लोगों को ओपीडी तक पहुँचने में 5 किलोमीटर से अधिक चलकर जाना होता है। 2018-2019 के आर्थिक सर्वे के अनुसार भारत के 60 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में केवल एक डॉक्टर था तो वहीं दूसरी तरफ़ 5 प्रतिशत के पास एक भी नहीं।
कोरोना बीमारी के बावजूद भी इस देश की ग़रीब जनता उन बीमारियों से मारी जाती है जिनका इलाज सालों पहले खोजा जा चुका है। जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था और मोदी सरकार की मूर्खताओं के चलते ही इस बीमारी ने भयानक रूप लिया।
भारत में 2019 में टीबी के 24 लाख केस दर्ज किए गये थे जिससे 79144 मृत्यु हुई। वहीं 2017 में 120334 लेप्रसी के केस आए और 7071 टिटनेस के केस व 9622 डिप्थिरिया के केस दर्ज हुए। इनका कारण जहाँ एक तरफ़ साफ़-सफ़ाई व शौचालय का अभाव है तो दूसरी तरफ़ जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था है। आँकड़ों की ज़ुबान यह साफ़ करती है कि उत्तर प्रदेश की ही नहीं बल्कि इस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था इलाहबाद कोर्ट के शब्दों में ‘राम भरोसे’ है।
दिल्ली के वज़ीरपुर की झुग्गियों में, 12 फुटा दड़बों में, मुम्बई की धारावी से लेकर लल्लू भाई कम्पाउण्ड, अहमदनगर की दलित बस्तियों, चेन्नई की व्यसरपाड़ी, पटना में गंगा के किनारे बसी झोपडि़यों में बसने वाली ग़रीब मज़दूर आबादी इन झुग्गियों की हालात के चलते बीमारियों से मरने को मजबूर है। यहीं टीबी, कैंसर, टिटनेस से लेकर डेंगू, मलेरिया और अन्य बीमारियों से हर साल लोग मारे जाते हैं। तो गाँवों में ग़रीब आबादी की हालत और भी बदतर है जहाँ शहरों के मुक़ाबले कोई सुविधा ही मौजूद नहीं है। कोरोना महामारी इन बस्तियों में कहर बरपा करती ही और उसने किया भी। गंगा में बह रही अनगिनत लाशों से लेकर अस्पतालों के बाहर तड़प रहे लोग मोदी सरकार की मूर्खताओं की वजह से तो दम तोड़ ही रहे हैं, परन्तु इसका एक बड़ा कारण इस देश की खोखली सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था है।
इस संक्रमण को वैश्विक महामारी बनने देने में इस व्यवस्था की ज़िम्मेदारी है। कोविड के जरिये हुए नरसंहार का कारण संरचनात्मक रूप से ध्वस्त जनस्वास्थ्य सेवाएँ हैं जिन्हें निजी अस्पतालों और फ़ार्मा कम्पनियों के मुनाफ़े के लिए व्यवस्थित तरीके से बर्बाद किया गया है। हालाँकि अगर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो साउथ कोरिया, वियतनाम, क्यूबा, ताइवान और न्यूजीलैण्ड सरीखे मॉडल में बीमारी बेहद कम फैली तो वहीं भारत, अमरीका से लेकर ब्राजील में संक्रमण भयंकर तौर पर फैला। दोनों ही मामलों में सरकार की मूर्खताएँ और स्वास्थ्य व्यवस्था का ढाँचा ज़िम्मेदार रहा है। भारत में सरकार की गलत नीतियों और देश की बर्बाद स्वास्थ्य सुविधाओं ने जितनी बड़ी आबादी को मरने के लिए छोड़ दिया, उसे आसानी से बचाया जा सकता था। कई देशों में दूसरी लहर में अभी तक मौतें थमी नहीं हैं और कुछ जगह तीसरी लहर ने दस्तक दे दी है। परन्तु भारत में तीसरी लहर फ़िर से कहर बरपा करेगी यह स्पष्ट है।
वैज्ञानिकों और डॉक्टरों ने इस बीमारी से लड़ने और उसे समझने में अग्रणी भूमिका निभायी है लेकिन जिस परिदृश्य को हमने ऊपर पेश किया है वह भयावह है। 1918 के समय फैली फ्लू महामारी से भी करोड़ों लोग मारे गये थे और आज क़रीब 100 साल बाद भी इस बीमारी से एक साल में ही क़रीब 38 लाख लोग मारे गये हैं और बीमारी क़ाबू में नहीं आ रही है। यह हमारे सामने एक प्रश्न खड़ा करता है कि मेडिकल साइंस के ज़बरदस्त विकास के बावजूद कोरोना बीमारी जैसे संक्रमण महामारी क्यों बन रहे हैं।

बीमारी को रोकने के नाम पर वैक्सीन के जरिये मुनाफ़ा कमाना ही मक़सद

बीमारी के महामारी बनने में न सिर्फ़ मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही और भारत की जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था ज़िम्मेदार है बल्कि सरकार की वैक्सीन की पॉलिसी भी सवालों के घेरे में है। सरकार ने देश की दो निजी कम्प‍नियों को वैक्सी‍न बनाने का ठेका दिया और जनता के पैसे से बनी वैक्सीेन को पुन: जनता में बेचा जा रहा है। इस मसले पर काफ़ी फ़ज़ीहत होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने वैक्सीन पॉलिसी की आलोचना की और अन्त में प्रधानमन्त्री़ मोदी ने घोषणा की कि अब लोगों को वैक्सीन मुफ्त में मिल जाएगी परन्तु अभी भी यह बेहद कम संख्या में मिल रही है। गाँव तो छोडिए, दिल्ली जैसे शहरों में वैक्सीन नहीं मिल रही है। आम मध्य वर्ग के लोगों को भी इण्टरनेट कनेक्शन के बावजूद वैक्सीन के लिए स्लॉट नहीं मिल रहे हैं। वहीं प्राइवेट अस्पतालों में सरकार ने एक कोटा तय किया है जो असल में अमीरों की वैक्सीन का कोटा है। देश के बड़े निजी अस्पतालों में ऊँची कीमतों पर अमीर आबादी सरकारी अस्पतालों की भीड़ से दूर वैक्सीन लगवा रही है। वहीं ग़रीब आबादी तो अभी वैक्सीन मिलने की क़तारों में भी दूर-दूर तक नहीं है। वैक्सीन से भी निजी कम्पनियों को मुनाफ़ा हो इसलिये मोदी सरकार ने 15 से अधिक पब्लिक सेक्टर कम्पनियों को वैक्सीन बनाने की हरी झण्डी नहीं दी। वैक्सीन की कमी होने पर विदेशी फार्मास्युटिकल कम्पनियों से वैक्सीन आयात करने का फैसला किया है। साफ़ है कि मोदी सरकार पूँजीपति वर्ग की सबसे खुली तानाशाही लागू कर रही है।
वैक्सीन ही नहीं, सरकार ने कोरोना महामारी के हर क़दम में ‘आपदा को अवसर’ में तब्दील किया है। पिछले साल सरकार ने कोरोना के टेस्ट के लिए निजी प्रयोगशालाओं को मनचाहे दामों पर जनता को लूटने की इजाज़त दी थी। टेस्ट की कीमत शुरूआत में 4500 रु रखी गई थी जिसे कि एक बड़ी आबादी खरीदने में सक्षम नहीं थी। ग्लव्स, पीपीई किट, वेण्टिलेटर से लेकर तमाम मेडिकल उपकरण तक सब बाज़ार के हवाले हैं। डॉक्टर, नर्स और अस्पताल स्टॉफ, आशा वर्कर से लेकर स्वास्थ्य सेवा में जुटे लोगों को मिलने वाली सभी सुविधाएँ बाज़ार के हवाले थीं। इस कारण ही स्वास्थ्य सेक्टर से जुड़े लोगों की बीमारी के दौरान बेइन्तहाँ मौतें हुई हैं। डॉक्टर, नर्स से लेकर आशाकर्मी तक हड़ताल पर गये परन्तु सरकार और सम्बन्धित विभागों के कान पर जूँ भी नहीं रेंगी। मुनाफ़ा आधारित व्यवस्था ही वह कारण है जिसकी वजह से यह बीमारी भी पूँजीपतियों के लिए मुनाफ़ा बनाने का अवसर बन गयी। असल में इस बीमारी के उद्भव के पीछे भी यह मुनाफ़ा आधारित व्यवस्था ही ज़िम्मेदार है।

कोविड-19 के उद्भव का कारण पर्यावरण की तबाही है

कोविड-19 बीमारी सार्स कोरोना वायरस-2 के कारण होती है। कोविड के उद्भव की सबसे अधिक सम्भावना यह है कि वायरस वुहान के वेटमार्केट से चमगादड़ के जरिये मनुष्यों के सम्पर्क में आया। मानव इतिहास पर नज़र डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वायरल संक्रमण तो होते रहते हैं परन्तु पिछले 30-40 सालों में संक्रमण दर बढ़ चुकी है। मानवसमाज पाषाण युग से लेकर दास व्यवस्था के युग से लेकर आधुनिक समाज में वायरस और उससे होने वाली बीमारियों से ग्रसित होता था और अब मनुष्य ने इन वायरसों से लड़ने की समझ भी हासिल की है। स्पैंनिश फ्लू, ब्लैक डेथ जैसी महामारियों से लेकर आधुनिक काल में ही इबोला, एड्स से लेकर स्वा इन फ्लू सरीखी वायरल बीमारियाँ हम झेल चुके हैं। यह वायरस कहाँ से आते हैं? प्रकृति में तमाम ऐसे संक्रामक वायरस तमाम जीव प्रजातियों में मौजूद होते हैं जो मनुष्य के सम्पर्क में आने और इवोल्युशन के बाद बेहद ख़तरनाक रूप हासिल कर सकते हैं। कोरोना वायरस मनुष्यों में चमगादड़ के जरिए आया है। इस तरह ही स्वाइन फ्लू सुअर से आया है। इसे ही हम स्पिशिज़ जम्प कहते हैं। यह इस वजह से होता है कि उत्पादन की प्रक्रिया में इंसान जंगलों में जीव जगत की उन प्रजातियों के सम्पर्क में आता है जिनमें वायरस मौजूद होता है।
जंगल से बाहर निकलकर शहर और गाँव बसने और उत्तरोत्तर बढ़ती उत्पादक शक्तियों ने अधिक से अधिक ऐसे क्षेत्र को उत्पादन के क्षेत्र के दायरे में लाया है जिससे कि मनुष्य अलग-अलग जीव प्रजातियों के सम्पर्क में आया है। ख़ासतौर पर पिछले 500-600 सालों में और पिछले 30 सालों में यह बेहद तेज़ रफ़्तार से हुआ है जिसके पीछे का कारण मुनाफ़ा आधारित पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था है जो इंसान से लेकर प्रकृति का मुनाफ़े के लिए शोषण करती है। पूँजीवादी व्य‍वस्था़ ने बेहद विराट उत्पांदक शक्तियां जागृत की हैं। यह अफ़्रीका के जंगलों से लेकर बंगाल के मानग्रुव तक अण्टार्कटिक से लेकर चाँद तक को पूँजी के चक्र में ले आता है। विश्व स्तर पर अंधाधुन्ध प्रतिस्पर्धा में सस्ते माल के लिए प्रकृति की अबाध लूट और तबाही जारी है। सस्ते‍ मांस के लिए जंगलों में शिकार करने तक और पूँजीवादी खेती का बेहद असन्तुलित विकास उन ज़मीनों, नदियों, समन्दर और जंगलों को भी बाज़ार की शक्तियों के हवाले कर रहा है जहाँ तमाम प्रजातियां रहती थीं। इन प्रजातियों के वायरस मनुष्यों तक पहुँच जाते हैं।
मनुष्य प्रकृति की अन्धी शक्तियों से बँधा नहीं होता है बल्कि वह प्राकृतिक शक्तियों को समझ कर अपनी ज़रूरतों के लिए उत्पादन करता है। समाज प्रकृति का ही विस्तार होता है। मनुष्य प्रकृति के साथ केवल तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित कर सकता है और मनुष्य द्वारा पर्यावरण की तबाही खुद उसकी तबाही की तरफ़ धकेलेगी। आज पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली ने हमारे सामने वास्तव में यही विकल्प ला खड़ा किया है – विनाश या समाजवाद। पूँजीवादी व्यवस्था के चलते बहुसंख्य‍क मेहनतकश इस पर्यावरणीय तबाही का प्रकोप झेल रही है।
वुहान लैब में वायरस बनने की अवधारणा को अमरीका-ब्रिटेन के तमाम टुकड़खोर प्रचारित कर रहे हैं ताकि चीन को घेरने का एक मुद्दा बन जाए। हालाँकि वैज्ञानिक समुदाय ने इस अवधारणा में कोई दम नहीं पाया है परन्तु चमगादड़ से मनुष्य तक आने की अवधारणा के पुख़्ता प्रमाण न होने के कारण समय-समय पर तमाम हवाहवाई अवधारणाएँ भी उठती रहती हैं।
कोविड महामारी ने पुन: यह स्पष्ट कर दिया है कि पूँजीवादी व्यवस्था मानवता को पर्यावरण की तबाही के जरिये एक तरफ़ कोविड महामारी देगी तो दूसरी तरफ़ चन्द मुट्ठीभर लुटेरों की जन्नत सँवारेगी। फ़ासीवादियों की सरकार कोविड महामारी में हुई बदनामी को ढँकने के लिए साम्प्रदायिक माहौल तैयार करने में जुट चुकी है। जब देश में कोविड की चपेट से जनता मर रही थी और लाशें गंगा में बह रही थीं और शव गृह का लोहे का ढाँचा लाशों को जलाने की प्रक्रिया में गल रहा था देश के अमीरज़ादे विदेशों में कोविड से बचते हुए छुट्टियाँ मना रहे थे। वैक्सीन का कोटा भी इन अमीरज़ादों के लिए महँगे कॉरपोरेट अस्पतालों में सुरक्षित है और जनता के पास इन्तजार के अलावा कोई विकल्प नहीं है। नहीं, एक विकल्प है। असल में एकमात्र विकल्प‍ है और वह इस व्यवस्था के ध्वंस के जरिए मानवकेन्द्रित व्यवस्था बनाने का है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-जून 2021

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