राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 शिक्षा पर कॉरपोरेट पूँजी के शिकंजे को क़ानूनी जामा पहनाने की कवायद
अविनाश
जिस समाज ने प्रतिभाओं को जीते–जी दफ़नाना कर्तव्य समझा है और गदहों के सामने अंगूर बिखेरने में जिसे आनन्द आता है, क्या ऐसे समाज के अस्तित्व को हमें पल भर भी बर्दाश्त करना चाहिए? — राहुल सांकृत्यायन
भाजपा सरकार द्वारा मेहनतकश जनता पर हमले का दौर बदस्तूर जारी है। बेशर्मी के साथ आपदा को अवसर बनाने की बात कहने वाली भाजपा सरकार और आरएसएस कोरोना आपदा के समय श्रम क़ानूनों को रद्द करने से लेकर निजीकरण की रफ़्तार तेज़ करने तक, राजनीतिक विरोधियों पर यूएपीए लगाने से लेकर दंगा भड़काने तक, आदि के लिए अवसर के रूप मे इस्तेमाल कर रही है। इसी कड़ी में 29 जुलाई को मोदी सरकार की कैबिनेट ने छात्रों-युवाओं और बुद्धिजीवियों के तमाम विरोध को दरकिनार करते हुए ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ को मंज़ूरी देकर मेहनतकश अवाम पर एक बार फिर हमला बोला है। सरकारी बुद्धिजीवी और मीडिया इसे “क्रान्तिकारी” क़दम बता रहे हैं। बाज़ार के नये तर्कों से लैस छात्रों-नौजवानों की एक आबादी भी इस भ्रम की शिकार है। असल में यह “जनकल्याणकारी” और “क्रान्तिकारी” शब्दावली की चाशनी में लपेटकर परोसी गयी धुर-प्रतिक्रियावादी फ़ासिस्ट एजेण्डे को अमली जामा पहनाने वाली जन-विरोधी नीतियों का दस्तावेज़ है। यह शिक्षा नीति कुल मिलाकर शिक्षा के क्षेत्र से सरकार को मुक्त करके शिक्षा को देशी-विदेशी पूँजी के लिए लूट के अड्डे में तब्दील करने की जो कोशिश सालों से चलती आयी है, उसको चरितार्थ करती है।
शिक्षा को बाज़ार के हाथों में सौंपना कोई अचानक हुई घटना नहीं है। इसकी पूर्वपीठिका काफ़ी पहले से लिखी जा रही है। 1990-91 में वित्तमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को लागू कर देश के सारे पब्लिक सेक्टरों का दरवाजा निजी पूँजी के लिए खोल दिया जिसके परिणामस्वरूप शिक्षा भी बाज़ार में ख़रीदने-बेचने वाले माल में तब्दील हो गयी। कॉरपोरेट घरानों के लिए शिक्षा के क्षेत्र में पूँजी निवेश करने और मुनाफ़ा कमाने के रास्ते खोल दिये गये। आज अज़ीम प्रेमजी, गोयनका और अब मुकेश अम्बानी जैसे बड़े कॉरपोरेट भी शिक्षा के क्षेत्र में पूँजी निवेश कर रहे हैं। शिक्षा के बाज़ारीकरण की प्रक्रिया 1986 के राजीव गाँधी सरकार द्वारा पेश की गयी नयी शिक्षा नीति के साथ ही शुरू हो गयी थी, लेकिन 1990 में भारत सरकार ने वर्ल्ड बैंक द्वारा आयोजित ‘जोमतिएन कान्फ्रेंस’ में भागीदारी के बाद इसे और तेज़ी से लागू करने का काम किया। पिछले तीन दशकों में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत शिक्षा को पूरी तरह से तबाह और बर्बाद करके इसे निजी स्कूलों-विश्वविद्यालयों और बड़े-बड़े फ़्रेन्चाइजीयों के हाथ में दे दिया गया है। शिक्षा में पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल लागू करने का प्रस्ताव भाजपा के 1998 के चुनावी घोषणापत्र में था।
वैसे तो 14 साल तक के बच्चों के लिए मुफ़्त शिक्षा संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों में शामिल है। लेकिन नीति-निर्देशक तत्वों की दूसरी लफ़्फ़ाज़ियों की तरह इसका भी कोई मतलब नहीं है। 2002 मे भाजपा सरकार ने संविधान में 86वाँ संशोधन कर एक नया अनुच्छेद 21(A) जोड़ा था जिसके तहत 6 साल से कम उम्र के बच्चों को सुरक्षित बचपन, पोषण, स्वास्थ्य आदि की कोई गारण्टी नहीं दी गयी थी। 6-14 साल के बच्चों के लिए समान और निःशुल्क शिक्षा का रूप क्या होगा, यह तय करने का अधिकार सरकार के हाथों मे सिमट गया। मज़ेदार बात यह है कि मौलिक अधिकार का हनन होने पर कोई भी नागरिक अदालत जा सकता है लेकिन ‘शिक्षा के अधिकार’ में जब निजी स्कूलों कि बात आती हैं तब किसी नागरिक को अदालत जाने से पहले अधिकृत सरकारी अधिकारी से अनुमति लेनी पड़ती है। इतना ही नहीं यदि किसी अधिकारी द्वारा किसी प्रावधान का उल्लंघन “सदिच्छा” या “अच्छी मंशा” के बावजूद हो गया हो तो उसके ख़िलाफ़ कोई मुक़दमा नहीं होगा। जिस समाज में शिक्षा को भी मुनाफ़ा कमाने के सेक्टर के रूप में देखा जाता हो, उसमें इसका अधिकार आम जनमानस के लिए ख़याली पुलाव ही साबित होता है।
नयी शिक्षा नीति-2020 और प्राथमिक शिक्षा
भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान अपने चुनावी घोषणापत्र (जुमला पत्र पढ़ें) में नेल्सन मण्डेला की पंक्ति “एक समाज की आत्मा इससे ज़्यादा और किसी बात से परिलक्षित नहीं होती कि वह अपने बच्चों का किस तरह ख़्याल रखता है” को शामिल करते हुए बच्चों को देश का भविष्य बताया था। सभी अन्य वादों की तरह शिक्षा को लेकर किया गया वादा भी मूर्तरूप में जनता को धोखा देने वाला जुमला ही साबित हुआ है। अब नयी शिक्षा नीति-2020 के जरिये भाजपा देश के भविष्य को अँधेरे में धकेल रही है।
नयी शिक्षा नीति-2020 भेदभावपूर्ण दोहरी शिक्षा प्रणाली को ख़त्म कर न्याय और समानता पर आधारित शिक्षा व्यवस्था लागू करने के नाम पर न सिर्फ़ महँगे निजी स्कूलों के शोषणकारी जाल को बनाये रखता है बल्कि उसे और ज्यादा मजबूत बनाता है। शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य और निःशुल्क करने की जगह पीपीपी मॉडल के तहत इसे भी मुनाफ़े के मातहत कर दिया गया है। शिक्षा नीति बात तो बड़ी-बड़ी कर रही है किन्तु इसकी बातों और इसमें सुझाये गये प्रावधानों में विरोधाभास है। यह नीति शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता को उन्नत करने की बात कहती है किन्तु दूसरी तरफ़ दूसरी कक्षा तक की पढ़ाई के लिए सरकार की ज़िम्मेदारी को ख़त्म करने की बात कहती है। यह शिक्षा में ग़ैर-बराबरी के आँकड़े पेश करता है कि पहली कक्षा से 12वीं में आते-आते दलितों का प्रतिनिधित्व 17% से घटकर 10% और मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 15% से घटकर 7% रह जाता है, लेकिन जिन नीतियों से यह ग़ैर-बराबरी पैदा हुई है उसको और मज़बूत करने की कोशिश करता है। इस नीति का दस्तावेज़ बदहाल सरकारी शिक्षा का रोना रोता है लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में प्राइवेट स्कूलों द्वारा चल रही भयानक लूट को ख़त्म कर सबके लिए एकसमान व निःशुल्क सरकारी शिक्षा व्यवस्था लागू करने की जगह यह प्रस्ताव देता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कम्प्यूटर, प्रयोगशाला, पुस्तकालय आदि सुविधाओं से लैस 12वीं तक का एक बड़ा हायर सेकेण्डरी स्कूल काम्प्लेक्स, ब्लॉक, तहसील या ज़िला मुख्यालयों पर खोला जाये। आस-पास के अन्य स्कूलों को आपस में प्रशासनिक तंत्र के ज़रिये इस कॉम्प्लेक्स से जोड़ा जायेगा। लेकिन यह ड्राफ़्ट यह नहीं बताता कि उन कॉम्प्लेक्सों तक दूर-दराज़ के छात्र पहुँचेंगें कैसे? इससे निजी स्कूलों में जो बच्चे पढ़ रहे हैं वो वापस कैसे आयेंगे? यह शिक्षा नीति का मूल प्रारूप देश में स्कूली स्तर पर 10 लाख अध्यापकों की कमी को तो स्वीकार करता है परन्तु इन पदों की भर्ती की कोई ठोस योजना पेश नहीं करता।
‘नयी शिक्षा नीति’ का दस्तावेज़ ख़ुद स्वीकार करता है कि देश में अब भी 25% यानी 30 करोड़ से ऊपर लोग अनपढ़ हैं फ़िर भी नयी शिक्षा नीति में शिक्षा की सार्वभौमिकता का पहलू छोड़ दिया गया है। यानी शिक्षा की पहुँच को आख़िरी आदमी तक ले जाने की कोई ज़रूरत नहीं! वैसे तो यह ड्राफ़्ट 2030 तक 100% साक्षरता के लक्ष्य को पाने की बात करता है परन्तु दूसरी तरफ़ यह नीति 50 से कम छात्रों वाले सरकारी स्कूलों का विलय करने या बन्द करने की भी सिफ़ारिश करता है। इस सिफ़ारिश को मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में मोदी की अध्यक्षता में नीति आयोग द्वारा 80% सरकारी स्कूल बन्द करने के फ़ैसले से जोड़कर देखना चाहिए। आज स्कूलों को बढ़ाने की ज़रूरत है किन्तु यह नीति ठीक इसके उलट उपाय सुझा रही है। पुरानी शिक्षा नीति कहती थी कि स्कूल पहुँच के हिसाब से होना चाहिए न कि बच्चों की संख्या के हिसाब से।
नयी शिक्षा नीति के तहत मौजूदा 10+2 के ढाँचे को खत्म कर 5+3+3+4 लागू किया जायेगा। 3-6 साल के बच्चों को ‘अर्ली चाइल्डहुड केयर एण्ड एजुकेशन’ दी जायेगी जिसकी ज़िम्मेदारी आँगनबाड़ी केन्द्रों की रहेगी और जिसके लिए बड़ी संख्या में स्वयंसेवकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और एनजीओ की मदद ली जायेगी। ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग अभी सिर्फ़ आरएसएस के पास हैं और इस प्रकार इस नीति के ज़रिये आरएसएस को अपने ज़हरीले प्रयोग के लिए नन्हें मस्तिष्क की पूरी नर्सरी ही सौंपी जा रही है इसीलिए यह मसौदा 3 से 6 वर्ष के बच्चों की पूर्व प्राथमिक शिक्षा पर इतना ज़ोर दे रहा है। इस शिक्षा नीति मे कक्षा 6 से ही बच्चों को ‘वोकेशनल ट्रेनिंग’ के नाम पर छोटे-मोटे काम (जैसे गार्डेनिंग, वैल्डिंग, प्लम्बरिंग आदि) की ट्रेनिंग भी दी जायेगी। पूँजीवाद अपने ढाँचागत संकट में बुरी तरह से उलझ चुका है, जिसकी वजह से कोरोना संकट से पहले ही देश के उद्योगों में उत्पादन क्षमता का सिर्फ़ 73% ही पैदा किया जा रहा है। मुनाफ़े की गिरती दर को पाटने के लिए पूँजीपति सस्ते श्रम की तलाश में वोकेशनल सेण्टरों, आईटीआई, पॉलिटेक्निक इत्यादि का रुख कर रहे हैं ताकि इन्हें सस्ते मज़दूर मिल सकें और शिक्षा पर ख़र्च भी कम करना पड़े। यह क़दम इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर नयी शिक्षा नीति में शामिल किया गया है।
मतलब साफ़ है कि यह शिक्षा नीति पहले से तबाह प्राथमिक शिक्षा को पूरी तरह से निजी पूँजी के मातहत ला खड़ा कर देगी। समान और निःशुल्क शिक्षा की बात किताबी बात बन गयी है। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि 3-6 साल के बच्चों पर आरएसएस को फ़ासीवादी प्रयोग करने की खुली छूट होगी।
नयी शिक्षा नीति और उच्च शिक्षा की बात करें तो लोकतंत्र और जनवाद का ढिंढोरा पीटने वाली इस शिक्षा नीति में इस बात का कहीं ज़िक्र तक नहीं है कि विश्वविद्यालयों में छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाला छात्रसंघ होगा या नहीं। छात्रों का प्रशासन और अध्यापकों के साथ सम्बन्ध कैसा होगा इसकी कोई चर्चा नहीं की गयी है। बल्कि बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स (बीओजी) का एक नया तंत्र सुझाया गया है जो विश्वविद्यालय समुदाय के प्रति किसी भी रूप में जवाबदेह नहीं होगा। ज़रूरी नहीं है कि बोर्ड के ये ‘मानिन्द’ लोग शिक्षा से जुड़े लोग ही हों। बीओजी के पास फ़ीस पर फैसला करने, उच्च शिक्षा संस्थान (एचईआई) के प्रमुख सहित नियुक्तियाँ करने और शासन के बारे में निर्णय लेने का अधिकार होगा। शासन का यह मॉडल स्वायत्तता और अकादमिक उत्कृष्टता को केन्द्रीकृत और नष्ट कर देगा। इस तरह यह दस्तावेज़ कैम्पसों के बचे-खुचे जनवादी स्पेस का भी गला घोंट देता है। यह शिक्षा नीति शिक्षण-संस्थानों को शैक्षिक-प्रशासनिक और वित्तीय स्वायत्तता देने की बात करता है। लेकिन दूसरी तरफ़ प्रशासनिक केन्द्रीकरण का पुरज़ोर समर्थन भी करता है। विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग गठित किया जायेगा, जिसकी अध्यक्षता शिक्षा मंत्री करेंगे, और राज्य सरकारों के संस्थानों पर भी केन्द्र का नियंत्रण होगा। आयोग के सदस्यों का चयन भी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एक कमेटी करेगी। यानी पूरे देश में केजी से लेकर पीजी तक – पूरी शिक्षा व्यवस्था पर अकेले प्रधानमंत्री का हुक्म चलेगा। नयी शिक्षा नीति 2020 लागू होने के बाद उच्च शिक्षा के हालात और भी बुरे होने वाले हैं। पहले से ही लागू सेमेस्टर सिस्टम, एफ़वाईयूपी, सीबीडीएस, यूजीसी की जगह एचईसीआई इत्यादि स्कीमें भारत की शिक्षा व्यवस्था को अमेरिकी पद्धति के अनुसार ढालने के प्रयास थे। अब विदेशी शिक्षा माफ़िया देश में निवेश करके अपने कैम्पस खड़े कर सकेंगे और पहले से ही अनुकूल शिक्षा के ढाँचे को सीधे तौर पर निगल सकेंगे। शिक्षा के मूलभूत ढाँचे की तो बात ही क्या करें, यहाँ तो शिक्षकों का ही टोटा है। केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में क़रीबन 70 हजार प्रोफ़ेसरों के पद ख़ाली हैं।
अब नयी शिक्षा नीति के तहत उच्च शिक्षा से जुड़े एमए, एमफ़िल, तकनीकी कोर्सों और पीएचडी के कोर्सों को भी मनमाने ढंग से पुनर्निर्धारित किया गया है। एमफ़िल के कोर्स को ही समाप्त कर दिया गया है। इससे सीधे-सीधे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ होगा। नयी शिक्षा नीति में मल्टीएण्ट्री और एग्ज़िट का प्रावधान किया गया है यदि कोई छात्र बीटेक किसी कारणवश पूरा नहीं कर पाया तो उसे एक साल के बाद सर्टिफ़िकेट, दो साल करके छोड़ने पर डिप्लोमा तो तीन साल के बाद डिग्री दी जा सकेगी। मतलब नयी शिक्षा नीति यह मानकर चल रही है कि छात्र अपना कोर्स पूरा नहीं कर पायेंगे। सरकार को ऐसे तमाम कारणों के समाधान ढूँढ़ने चाहिए थे ताकि किसी छात्र को अपनी पढ़ाई बीच में ना छोड़नी पड़े। इससे तकनीकी कोर्सों की शिक्षा की गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव ही पड़ेगा। पोस्ट-ग्रेजुएट शिक्षा में भी बदलाव किये गये हैं। यदि किसी छात्र को शोधकार्य करना है तो उसे चार साल की डिग्री और एक साल का एमए करना होगा, उसके बाद उसे बिना एमफ़िल किये पीएचडी में दाखिला दे दिया जायेगा। अगर किसी को नौकरी करनी है तो उसे तीन साल का डिग्री कोर्स करना होगा। एमए करने का समय एक साल कम कर दिया गया है और एमफ़िल को बिल्कुल ही ख़त्म कर दिया गया है, इससे शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रैक्टिकल काम न के बराबर होते हैं जिसके चलते हमारे देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए नयी शिक्षा नीति में कोई क़दम नहीं उठाया गया है। मानविकी विषय तो पहले ही मृत्युशैया पर पड़े हैं अब इनमें उच्च शिक्षा प्राप्त करना और भी मुश्किल हो जायेगा। उच्च शिक्षा पर पहले से जारी हमलों को उच्च शिक्षा नीति और भी द्रुत गति प्रदान करेगी। बड़ी पूँजी के निवेश के साथ ही केन्द्रीकरण बढ़ेगा और फ़ीसों में बेतहाशा वृद्धि होगी। यह शिक्षा नीति देश के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में ऑनलाइन दूरस्थ शिक्षा प्रदान करने कि बात कर रही है। यह नीति दूरस्थ शिक्षा के मूल्यांकन, नियोजन, प्रशासन (स्कूल और उच्च शिक्षा दोनों के लिए) के लिए एक स्वायत्त निकाय, नेशनल एजुकेशनल टेक्नोलॉजी फ़ोरम (एनइटीएफ़) बनाने की बात करती है। नीति एनइटीएफ की फण्डिंग के विषय में कुछ स्पष्ट नहीं करती जिसका सीधा अभिप्राय यह है कि इसका भार विद्यार्थियों पर थोप दिया जायेगा। स्पष्ट है की ऑनलाइन दूरस्थ शिक्षा लागू होने का सीधा मतलब है, दूर-दराज़ के गाँवों मे बसने वाले लाखों-लाख छात्र इण्टरनेट की अनुपलब्धता, गैजेट न होने कि वजह से सीधे शिक्षा से दूर हो जायेंगे। दूसरे जब छात्र विश्वविद्यालयों में रहेंगे ही नहीं तो सरकार के जन-विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ एकजुट आवाज़ भी नहीं उठा सकेंगे। कुल मिलाकर ‘नयी शिक्षा नीति 2020’ जनता के हक़ के प्रति नहीं बल्कि बड़ी पूँजी के प्रति समर्पित है। शिक्षा की नयी नीति हरेक स्तर की शिक्षा पर नकारात्मक असर डालेगी।
शिक्षा के लिए अनुदान
नयी शिक्षा नीति का मूल ड्राफ़्ट शिक्षा पर जीडीपी का 6% और केन्द्रीय बजट का 10% ख़र्च करने की बात करता है, किन्तु साथ ही उसमें यह भी कहा गया है कि यदि कर (टैक्स) कम इकठ्ठा हो तो इतना ख़र्च नहीं किया जा सकता। एक तरफ़ यह नीति शिक्षा को प्रशासनिक जकड़बन्दी में क़ैद करने पर तुली हुई है वहीं दूसरी तरफ वित्तीय स्वायत्तता का राग अलाप रही है। वित्त के लिए इस नीति ने विश्वविद्यालय को पूरी छूट दे रखी है कि पूँजीपतियों, बैंकों, देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों आदि से पैसा माँग लें जिसका मूलधन विश्वविद्यालय को इकट्ठा करना होगा और ब्याज़ सरकार भर देगी। ज़ाहिर है कि जो पैसा देगा वह हमारे संस्थानों पर अपनी शर्तें भी थोपेगा। इन संस्थानों में कोर्स, किताबों व शिक्षकों की क़ाबिलियत और शिक्षकों के मापदण्ड के फ़ैसले भी यही पैसा देनेवाले करेंगे, चाहे वे विद्यार्थियों, समाज व देश के हित में हो या न हो। उच्च शिक्षा को सुधारने के लिए ‘हायर एजुकेशन फ़ाइनेंसियल एजेंसी (HEFA)’ बनी हुई है जिसका बजट विगत साल 650 करोड़ से घटाकर 2,100 करोड़ कर दिया है। उससे पिछले वर्ष इसका बजट 2,750 करोड़ था किन्तु हैरानी की बात तो यह है कि ख़र्च सिर्फ़ 250 करोड़ ही किया गया था। दरअसल हेफ़ा अब विश्वविद्यालयों को अनुदान की बजाय क़र्ज़ देगी जो उन्हें वापस 10 वर्ष के अन्दर चुकाना होगा। सरकार लगातार उच्च शिक्षा बजट को कम कर रही है। सरकार की मानें तो विश्वविद्यालय को अपना फ़ण्ड, फ़ीसें बढ़ाकर या किसी भी अन्य तरीक़े से जिसका बोझ अन्ततः विद्यार्थियों पर ही पड़ेगा, करना होगा। निजी विश्वविद्यालयों को पाठ्यक्रम, प्रशासनिक व्यवस्था, फ़ीस आदि चीज़ों को निर्धारित करने की स्वायत्तता रहेगी, इस प्रकार निजी विश्वविद्यालयों पर सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं रहेगा जिसका सीधा मतलब है कि इन निजी विश्वविद्यालयों के दरवाज़े आम मेहनतकश वर्ग से आने वाले लोगों के लिए हमेशा के लिए बन्द हो जायेंगे।
मध्य वर्ग के जो छात्र पैसे के दम पर प्राइवेट शिक्षा की सुविधा लेकर उच्च शिक्षा हासिल भी कर लेंगे उनके लिए भी भविष्य का संकट मुँह खोले बैठा है। एमएससी, पीएचडी, पोस्ट- डॉक्टोरेट करने वाले देश के बहुत से छात्र यदि अपनी प्रतिभाओं का इस्तेमाल सही दिशा में करने का मौक़ा मिले तो कुछ नया कर सकते है पर आज इनमें से अधिकतर को अपनी डिग्रियाँ लेने के बाद बैंक, रेलवे, एलआईसी आदि की टेबल नौकरियों के लिए मारामारी करते, और बेरोज़गारी के भेड़ियाधँसान में एक अदद ढंग की नौकरी के लिए मशक़्क़त करते हुए अपने भाग्य को कोस रहे है। इन मेधावी छात्रों की वर्षों की मेहनत पर इससे भद्दा मज़ाक़ क्या होगा कि देश का फ़र्ज़ी डिग्रीधारी प्रधानमंत्री इन्हें पकौड़ा तलने की नसीहत दे। ऑटोनॉमी के नाम पर निजीकरण और विभिन्न ज़रूरी प्रोजेक्ट्स से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सेल्फ फ़ण्डिंग की सूची में डालना, फ़ेलोशिप में भारी कटौती करना, उच्च शिक्षा का दरवाज़ा देशी और विदेशी पूँजीपतियों के लिए खोलना, देर-सबेर उच्च शिक्षा को भी उसी दलदल में पहुँचा देगा जहाँ प्राथमिक शिक्षा का तंत्र है।
शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार और अन्य नागरिक अधिकारों को लेकर चलने वाले आन्दोलनों पर सरकारें जिस तरह से डण्डा बरसाने का काम कर रही हैं उससे यह स्पष्ट है कि हमारे देश में सत्ता का दमनकारी चरित्र दिन प्रति दिन और ख़ूँखार होता जा रहा है। ऐसे में शिक्षा-रोज़गार की लड़ाई को आम जनता की लड़ाई से जोड़े बग़ैर नहीं जीता जा सकता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्टूबर 2020
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