असम में एनआरसी पर ‘ललकार’ के भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावाद के शिकार साथियों की ग़लत अवस्थिति पर ‘आह्वान’ की ओर से 14 दिसम्बर 2019 को डाली गयी टिप्पणी

सम्पादक मण्डल

आरएसएस के पुराने एजेण्डा को आगे बढ़ाते हुए केन्द्र की भाजपा सरकार ने एनआरसी और फिर नागरिकता संशोधन विधेयक (कैब) के ज़रिये जो ख़तरनाक खेल खेला है उसने देश के कई हिस्सों को अभी से आग की लपटों में झोंक दिया है। जहाँ देशभर में आम तौर पर इस विधेयक के ज़रिये मुसलमानों को निशाना बनाये जाने के षड्यंत्र और धर्म के आधार पर नागरिकता का फ़ैसला करने की साम्प्रदायिक कुटिल चाल का विरोध हो रहा है, वहीं असम में इस विरोध की एक अलग ज़मीन है। हालाँकि वहाँ भी काफ़ी लोग सेकुलर आधार पर इसके विरोध में हैं लेकिन बड़े पैमाने पर जो उग्र विरोध सामने आ रहा है वह जिस ज़मीन से हो रहा है उसके अपने ख़तरे हैं।

इस फ़र्क़ को समझने में कई प्रबुद्ध और प्रगतिशील लोगों से भी ग़लती हो रही है। मगर हैरत की बात तो यह है कि अपने को वाम क्रान्तिकारी कहने वाले कुछ लोग भी न सिर्फ़ असम में हो रहे कैब के विरोध के पीछे की राजनीति को समझ नहीं रहे बल्कि भाषाई अस्मितावाद और अन्धराष्ट्रवाद के अपने चश्मे से देखकर उसकी भी घोर अनर्थकारी व्याख्या पेश कर रहे हैं। वैसे, इसमें ज़्यादा हैरत की बात भी नहीं है। पिछले डेढ़ वर्षों के दौरान इनका भाषाई अस्मितावाद और राष्ट्रवादी भटकाव जिस दिशा में बढ़ता रहा है उसे यहीं तक जाना था। दूसरे, ये भी वाम आन्दोलन के अनेक हलक़ों में व्याप्त इस बीमारी से बुरी तरह ग्रस्त हैं जिसके चलते लोग इतिहास, राजनीति, भाषा, संस्कृति आदि की अधकचरी जानकारी लिये हुए हर बात पर ज्ञान बघारते रहते हैं, बिना यह समझे कि इसकी दूरगामी परिणतियाँ कितनी भयंकर होंगी।

असम की तमाम क्षेत्रीय अस्मितावादी पार्टियों को सिर्फ़ कैब से परेशानी है। एनआरसी से उन्हें कोई समस्या नहीं बल्कि बहुतेरे तो एनआरसी के समर्थक हैं। कैब के उनके विरोध का कारण बंगलाभाषियों के विरुद्ध नफ़रत है जिसे लम्बे समय से असम में भड़काया जाता रहा है। पहले बंगला विरोधी नफ़रत को भड़काकर कांग्रेस असम में अपनी राजनीति की रोटियाँ सेंकती रही और तमाम असमिया अस्मितावादी व उग्रवादी संगठनों को हिंसा की खुली छूट देकर अपनी गोटियाँ लाल करती रही। बाद में उन्हीं संगठनों का आरएसएस और भाजपा के साथ गठजोड़ हो गया क्योंकि ये उनके अन्धराष्ट्रवादी एजेण्डा को ज़्यादा खुलकर आगे बढ़ा सकते थे।

नागरिकता संशोधन विधेयक से असमिया अस्मितावादी संगठन इसलिए नाराज़ हैं क्योंकि यह धर्म के आधार पर बंगालियों और अन्य प्रवासियों के सिर्फ़ एक धार्मिक समुदाय, यानी मुसलमानों को बाहर करने की बात करता है और हिन्दुओं को नागरिकता देने की बात करता है, जबकि ये असमिया अस्मितावादी, हिन्दू और मुसलमान सभी बंगालियों और प्रवासियों से समान भाव से नफ़रत करते हैं। इन्हें एनआरसी से कोई दिक़्क़त नहीं है, इनका सिर्फ़ एक ही एजेण्डा है कि पिछले 100-150 साल से असम में रह रहे, खेती और मज़दूरी कर रहे बंगालियों को (चाहे हिन्दू हों या मुस्लिम) असम से बाहर निकाल दिया जाये।

सबसे पहले इतिहास के कुछ तथ्यों को जान लिया जाये। असम में रह रहे “बाहरी” लोग कोई वहाँ जाकर क़ब्ज़ा करके बस जाने वाले उपनिवेशवादी नहीं हैं, जैसाकि असमिया जातीयतावादी (राष्ट्रवादी) उन्हें पेश करते हैं। और इन लोगों में केवल बंगाली ही नहीं हैं। इनमें बड़ी संख्या में गोरखा, बिहारी, नेपाली और संथाली लोग भी हैं। इन लोगों के असम में बसने का सिलसिला 19वीं सदी के तीसरे दशक से शुरू हुआ था जब पहले ईस्ट इण्डिया कम्पनी और फिर ब्रिटिश राज द्वारा बड़ी तादाद में मज़दूरों, क्लर्कों आदि को वहाँ अपना काम कराने के लिए ले जाया गया। उसी तरह जैसे बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गिरमिटि‍या मज़दूरों को जमैका, दक्षिण अफ़्रीका या फिजी जैसे देशों में ले जाया गया था। इसके बाद बंगलादेश (1971 से पहले पूर्वी पाकिस्तान) से दो बार शरणार्थियों का आना हुआ – पहले बँटवारे के बाद और फिर बंगलादेश युद्ध के बाद। इसके अलावा भी असम के चाय बाग़ानों, लकड़ी और अन्य उद्योग-व्यापार में काम करने के लिए देश के दूसरे हिस्सों से ग़रीब मेहनतकश लोग वहाँ जाते रहे और बसते भी रहे हैं। बल्कि अगर बाहर से आकर क़ब्ज़ा करने वाले लोगों की संघ-भाजपा की परिभाषा (जिसे वे मुसलमानों और ईसाइयों पर लागू करते हैं) के हिसाब से देखा जाये, तो वास्तव में “बाहरी” ताई अहोम लोग ही कहलायेंगे जो 13वीं सदी में बर्मा से आकर असम में बसे थे!

यह सच है कि अंग्रेज़ नौकरशाही के तमाम कामों को करवाने के लिए भी बंगाली पढ़ी-लिखी आबादी में से लोगों को लेकर गये थे क्योंकि असम के लोगों में उन्हें अपने काम लायक़ शिक्षित लोग बहुत कम मिलते थे। इसी वजह से असम की नौकरशाही में आज़ादी के बाद भी काफ़ी समय तक बंगाली लोग बड़ी तादाद में बने रहे और पूरे बंगाली समुदाय के विरुद्ध नफ़रत भड़काने में इस बात का इस्तेमाल किया जाता रहा।

मगर यह भी सच्चाई है कि असम में प्रवासियों की बहुसंख्यक आबादी बेहद ग़रीब और मेहनतकश लोगों की है जो पीढ़ि‍यों से वहाँ रह रही है। जनता के विभिन्न तबक़ों के बीच सांस्कृतिक, भाषाई अन्तरों आदि को लेकर अन्तरविरोध प्रायः होते ही हैं जिन्हें कोई जनपक्षधर सत्ता दुश्मनाना अन्तरविरोधों में बदले बिना हल करने के क़दम उठाती है। मगर असम में प्रवासी और ग़ैर-असमिया लोगों के साथ असमिया लोगों के अन्तरविरोधों को भारतीय शासक वर्गों और फ़िरकापरस्त असमिया बुर्जुआ राष्ट्रवादी ताक़तों ने अपने हित में भड़काया और उन्हें ऐसे शत्रुतापूर्ण विरोध में बदल दिया जिसके चलते लगी आग अब उनसे भी नहीं सँभल रही है।

पूँजीवाद असमान विकास के ज़रिये इस प्रकार की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को लगातार पैदा करता है जिसके कारण पूँजी और श्रम की आवाजाही और प्रवास एक अवश्यम्भावी परिघटना बन जाती है। पूँजीवादी राज्यसत्ता और तमाम बुर्जुआ दल राष्ट्रवाद और अस्मितावाद की ज़मीन पर खड़े होकर अपने राजनीतिक एजेण्डा को पूरा करने के लिए इसका फ़ायदा उठाते हैं। इस मसले को सर्वहारा वर्ग के नज़रिये से देखने के बजाय बुर्जुआ उपराष्ट्रवाद (sub-national chauvinism), अस्मितावाद और मूलनिवासीवाद के प्रतिक्रियावादी नारे के साथ सुर में सुर मिलाने वाले लोग किस मुँह से अपने को वामपन्थी या क्रान्तिकारी कहते हैं?

हर समस्या का कारण भाषाई आधार पर राज्यों का सही पुर्नगठन न होने को बताने के अन्धे जुनून में इन भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावाद के शिकार साथियों ने असमि‍या राष्ट्रवादियों को भी धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफ़ि‍केट जारी करते हुए कह डाला है कि वह आन्दोलन केवल असमिया पहचान के लिए था और उसमें कोई साम्प्रदायिक मसला नहीं था! अधजल गगरी छलकाने वाले इन नौबढ़ क्रान्तिकारियों से पूछा जाना चाहिए कि भारतीय इतिहास का सबसे वीभत्स साम्प्रदायिक हत्याकाण्ड – नेल्ली जनसंहार – किन ताक़तों ने अंजाम दिया था, जब 1983 में मात्र 6 घण्टों में 14 गाँवों के 2200 से भी ज़्यादा मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया था! हर बात को भाषाई पहचान के अपने चश्मे से देखने वाले इन लोगों से पूछा जाना चाहिए कि उल्फ़ा के अन्धराष्ट्रवाद के बारे में उनके क्या विचार हैं? असमिया राष्ट्रवाद के नारे से शुरुआत करने वाले इस संगठन का बाद के दौर में जिस जुनूनी क़िस्म के अन्धराष्ट्रवाद में पतन हुआ उसने असम में रोज़ी-रोटी कमाने के लिए गये बिहार, उत्तरप्रदेश आदि के ग़रीब मज़दूरों को ही असमिया पहचान के लिए ख़तरा मानकर उनकी हत्या करना शुरू कर दिया था।

असम की आबादी के क़रीब 13 प्रतिशत आदिवा‍सी समुदायों के प्रति असमिया राष्ट्रवादियों की नफ़रत और उनके साथ होने वाले भेदभाव पर भी इनकी नज़र नहीं जाती। कोई भी संवेदनशील व्यक्ति कुछ वर्ष पहले की उस घटना को गहरी नफ़रत के साथ याद किये बिना नहीं रह सकता जब अपने अधिकारों के लिए गुवाहाटी की सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों पर असमिया राष्ट्रवादियों द्वारा उकसाई भीड़ ने हमला किया था और एक आदिवासी युवती को निर्वस्त्र करके घुमाया था।

असम की बराक घाटी के तीन ज़ि‍लों में बंगलाभाषियों की बहुसंख्या है। पूरे असम में असमिया को एकमात्र सरकारी भाषा बनाये जाने के सरकारी क़दम के विरुद्ध और बंगला को आधिकारिक भाषा की मान्यता दिलाने के लिए 1960-61 में व्यापक आन्दोलन हुआ जिसमें पुलिस की गोली से 11 लोग मारे गये थे। कोई भी इन्साफ़पसन्द व्यक्ति इस बात का समर्थन करेगा कि हर जगह पर आबादी के सभी समुदायों को अपनी भाषा में सभी काम-काज, शिक्षा आदि की सुविधाएँ बराबरी से मिलनी चाहिए। अगर किसी जगह पर किसी भाषाई समुदाय की बहुसंख्या है तब तो निश्चय ही उसकी भाषा को भी आधिकारि‍क भाषा की मान्यता मिलनी चाहिए। कोई एक ही भाषा आधिकारिक भाषा हो, यह माँग ही ग़लत है। शासक वर्ग लोगों को आपस में लड़ाये रखने के लिए अक्सर ऐसी चालें चलते रहते हैं। इसके बदले सही जनपक्षधर माँग यही हो सकती है कि उस क्षेत्र में रहने वाले सभी भाषाई समुदायों को अपनी भाषा में समस्त अधिकार मिलने चाहिए। इसकी अनदेखी करके केवल राज्य की बहुसंख्यक आबादी की भाषा की चिन्ता में दुबले हुए जाना इन भाषाई अस्मितावादियों की अपनी राजनीति का एक स्वाभाविक विस्तार है।

असम में असमिया लोगों के अल्पसंख्यक हो जाने और उनकी पहचान खो जाने को लेकर ये जिस तरह से आहें भर रहे हैं और चिन्तातुर हुए जा रहे हैं वह कुछ उसी तरह का है जैसे संघ और भाजपा भारत में हिन्दुओं के अल्पसंख्यक हो जाने और पहचान खो जाने का शोर मचाते हैं। पहली बात तो अगर असम में रह रहे सभी प्रवासियों को नागरिकता दे दी गयी तो वहाँ की डेमोग्राफ़ी में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आने वाला है क्योंकि ये लोग तो पहले से ही वहाँ रह रहे हैं। एनआरसी की बरसों चली क़वायद के बाद भी कुल 19 लाख लोगों के नाम ही रजिस्टर में दर्ज नहीं किये गये थे। इनमें भी भारी घपला था और यहाँ तक कि एक ही परिवार के कुछ सदस्यों के नाम शामिल थे तो कुछ के बाहर कर दिये गये थे। दूसरे, असम की पहचान केवल असमिया समुदाय के लोगों से ही नहीं है। वहाँ रहने वाली आदिवासी आबादी और कई पीढ़ि‍यों से वहाँ रह रहे बंगाली और अन्य प्रवासी समुदायों की भाषा-संस्कृति भी इस पहचान का एक अभिन्न हिस्सा है।

असम में कैब के विरोध पर इन लोगों के स्टैण्ड से इनके भाषाई अस्मितावाद और राष्ट्रवादी भटकाव की कलई पूरी तरह खुल गयी है। इनकी राजनीति का समर्थन करने वालों को अब ज़रा ठहरकर सोचना चाहिए कि यह भटकाव किस ख़तरनाक दिशा में लेकर जायेगा।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020

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