भाषाई अस्मितावादियों के हवाई दावे और भाषा-बोली को लेकर बचकानी, हठीली नासमझियाँ

सम्पादक मण्डल, 11 नवम्बर 2019

भाषाई अस्मितावादियों का दावा है कि पूरी हिन्दी पट्टी में हिन्दी भाषा बोलने वालों की तादाद केवल 4-5 करोड़ है। बाक़ी आबादी ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मागधी, हरियाणवी आदि बोलती है, जो कि अलग भाषाएँ हैं, हालाँकि हिन्दी द्वारा दमन के कारण उनका अलग भाषाओं के रूप में विकास नहीं हो पाया। हमेशा की तरह यह दावा इन्होंने ब‍िना क‍िसी स्रोत के, बिना क‍िसी साक्ष्य के उछाल दिया है। मज़े की बात है कि यह तर्क इन पंजाबी बिग नेशन शॉविनिस्ट्स द्वारा केवल हिन्दी भाषा पर ही लगाया जाता है, पंजाबी भाषा पर नहीं। इन्हीं के तर्क से पंजाबी भाषा की अलग-अलग बोलियों जैसे कि माझी, दुआबी, मुलतानी, पुआधी, मलवई, राठी, डेरावाली आदि को अलग भाषाएँ क्यों न माना जाये? क्या यह नियम सिर्फ़ हिन्दी के लिए है? यह सवाल हम पहले भी कई बार पूछ चुके हैं लेकिन इस पर इनके पास कोई जवाब नहीं है, क्योंकि इनकी पूरी अवस्थिति हिन्दी-विरोध की बन गयी है, भले ही बीच में इनका कोई साथी यह जुमला उछाल दे कि हम हिन्दी-विरोधी नहीं हैं।

अब दूसरे प्रश्न पर आते हैं। कोई मार्क्सवादी किसको भाषा और किसे बोली मानता है। यदि ये कतिपय कॉमरेड इस प्रश्न पर स्तालिन द्वारा पेश क्लासिकीय मार्क्सवादी अवस्थिति को ही मानते हैं तो हिन्दी और उसकी बोलियों के बीच सम्बन्ध के बारे में उनका पूरा नज़रिया ही भाषाई अस्मितावादी है, न कि मार्क्सवादी। देखें कि स्तालिन इस विषय में क्या कहते हैं। स्तालिन लिखते हैं :

“जैसा कि हम जानते हैं, एक भाषा के सभी शब्दों को एक साथ एकत्र करने से बने संग्रह को उस भाषा के शब्द-भण्डार (वॅकेब्युलरी) नाम से जाना जाता है। एक भाषा के शब्द-भण्डार में मुख्य चीज़ इसके शब्दों का मूल भण्डार होता है जिसमें सारतत्व के रूप में सभी मूल शब्द शामिल होते हैं। यह उक्त भाषा के पूरे शब्द-भण्डर से काफ़ी कम व्यापक होता है; लेकिन काफ़ी लम्बे समय तक, शताब्दियों तक बना रहता है और भाषा को नये शब्दों के निर्माण के लिए आधार प्रदान करता है। शब्द-भण्डार भाषा की स्थिति को प्रतिबिम्बित करता है। जितना ही समृद्ध और वैविध्यपूर्ण शब्द-भण्डार होता है उतनी ही समृद्ध और विकसित भाषा होती है।

“फिर भी, शब्द-भण्डार अपने-आप भाषा की रचना नहीं करता; बल्कि यह उसके निर्माण में लगने वाली सामग्री मात्र है। जिस तरह किसी भवन के निर्माण में केवल उसमें लगने वाली वस्तुओं से ही भवन नहीं बन जाता (हालाँकि यह उनके बिना भी नहीं बन सकता) उसी तरह शब्द-भण्डार मात्र से ही भाषा का निर्माण नहीं हो जाता; हालाँकि इसके बग़ैर भी भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन एक भाषा के शब्द-भण्डार को उस समय ज़बर्दस्त शक्ति मिल जाती है जब इसे व्याकरण का नियंत्रण प्राप्त हो जाता है, जो शब्दों में परिवर्तन और उनके वाक्यों में संयोजन के नियमों को परिभाषित करता है और इस तरह भाषा को एक सुसंगत और सार्थक क्रिया बना देता है। व्याकरण (रूप-विज्ञान, वाक्य-विन्यास) उन नियमों का संग्रह है जो शब्दों के परिवर्तन और वाक्यों में उनके संयोजन को नियंत्रित करते हैं। इसीलिए व्याकरण की बदौलत ही भाषा के लिए मनुष्य के विचारों को अपने (भाषा के) भौतिक आवरण में प्रतिष्ठापित कर पाना सम्भव हो पाता है।

“व्याकरण की मुख्य गुणदर्शी विशेषता यह है कि वह शब्दों में परिवर्तन के नियमों को किन्हीं निश्चित, ठोस शब्दों के सन्दर्भ में नहीं; बल्कि सामान्य रूप से सभी प्रकार के शब्दों के सन्दर्भ में प्रस्तुत करता है। वह वाक्य-रचना के नियमों को किन्हीं विशेष प्रकार के, निश्चित वाक्यों – यों कहें कि निश्चित कर्ता और निश्चित विधेय आदि – के सन्दर्भ में नहीं; बल्कि सामान्य रूप से सभी वाक्यों के लिए, उनके सुनिश्चित रूप से निरपेक्ष होकर प्रस्तुत करता है। इस तरह, शब्दों और वाक्यों – दोनों के सन्दर्भ में, विशिष्ट और सुनिश्चित प्रकारों से अपने को अमूर्त या निरपेक्ष बनाते हुए व्याकरण उन चीज़ों को अपनाता है जो शब्दों के परिवर्तन और वाक्यों की रचना में आधारभूत और सामान्य होती हैं और उन्हें व्याकरण के नियमों की शक्ल देता है – व्याकरण मानव-मस्तिष्क द्वारा काफ़ी लम्बे समय से सम्पन्न की जा रही अमूर्तीकरण (‘एब्सट्रैक्शन’) की प्रक्रिया का प्रतिफलन है। यह चिन्तन की ज़बर्दस्त उपलब्धियों का एक पैमाना है।

“इस सन्दर्भ में व्याकरण काफ़ी हद तक ज्यामिति से मिलता-जुलता है जो ठोस वस्तुओं से अमूर्तन की प्रक्रिया द्वारा अपने नियम बनाती है और उन वस्तुओं को ठोसपन या निश्चितता से रहित पिण्डों की तरह लेती है तथा उनके बीच के सम्बन्धों को ठोस, निश्चित वस्तुओं के निश्चित सम्बन्धों के रूप में परिभाषित करने के बजाय सभी प्रकार के ठोसपन या निश्चितता (‘कांक्रीटनेस’) से रहित पिण्डों के सम्बन्धों के रूप में परिभाषित करती है।” (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और भाषाविज्ञान की समस्याएँ’)

इससे स्पष्ट है कि किसी भी भाषा की मूल चारित्रिक आभिलाक्षणिकता है : एक व्यवस्थित लेक्सिकन (शब्द भण्डार) और एक व्यवस्थित व्याकरणिक व्यवस्था। इसके बिना किसी भी बोली को भाषा नहीं कहा जा सकता है। बोलियों में एक शब्द भण्डार होता है, लेकिन वह मानकीकृत नहीं होता और एक ही बोली के शब्द कुछ ही किलोमीटर की दूरियों पर अपने अर्थ बदल सकते हैं। यही बात उनके अमानकीकृत व्याकरणिक ढाँचे के बारे में भी कही जा सकती है। ऐसे में, इन बोलियों में ज्ञान-विज्ञान व दर्शन की विभिन्न शाखाओं के जटिल विनिमय सम्भव नहीं हैं। वैज्ञानिक व दार्शनिक संवाद तभी सम्भव है, जबकि विचारों के आदान-प्रदान के रूप में इस्तेमाल की जा रही भाषा का मानकीकृत लेक्सिकन व व्याकरण हो।

भाषाओं का विकास मुख्य रूप से किसी एक बोली पर आधारित होकर होता है। लेकिन वह कई बोलियों के शब्द भण्डार और व्याकरणिक ढाँचों को ग्रहण करती है। हिन्दी के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। इसका विकास मुख्य रूप से खड़ी बोली को आधार बनाकर हुआ है। लेकिन इसने ब्रज, अवधी, मागधी, भोजपुरी, कन्नौजी, बुन्देली, कौरवी, अहीरी सभी से ग्रहण किया है। यही कारण है कि इन बोलियों को बोलने वाले सभी लोग हिन्दी को समझते हैं। यही बात हर भाषा पर लागू होती है। हर भाषा ही मुख्य रूप से किसी एक बोली पर ‍नि‍र्भर रहते हुए, कई बोलियों के ऐतिहासिक और वैज्ञानिक अमूर्तन से बनती है। स्तालिन इसके बारे में लिखते हैं :

“दूसरी ओर स्थानीय (‘क्षेत्रीय’) उपभाषाएँ या बोलियाँ जनसमूह का हितसाधन करती हैं। इनका अपना व्याकरण-तंत्र और मूल शब्द-भण्डार होता है। इस दृष्टि से, कुछ क्षेत्रीय उपभाषाएँ, राष्ट्रों के बनने की प्रक्रिया के दौरान, राष्ट्रीय भाषाओं का आधर बन सकती हैं और स्वतंत्र राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में विकसित हो सकती हैं। उदाहरण के लिए रूसी भाषा की कुर्स्क ओरेल उपभाषा (कुर्स्क ओरेल ‘स्पीच’) के साथ ऐसा ही हुआ जो रूसी राष्ट्रीय भाषा का आधार बनी। यही बात उक्रइनी भाषा की पोल्तावा कीव उपभाषा के साथ भी हुई जो उक्रइनी राष्ट्रीय भाषा का आधार बनी। ऐसा ही दूसरी उपभाषाओं के साथ हुआ; उन्होंने अपना मूल स्वरूप खो दिया और उन्हीं में विलीन हो गयीं।”

स्तालिन की इस बात को हमारे भाषाई अस्मितावादी समझने में बुरी तरह से असफल हैं। इनकी समझ में नहीं आता कि भाषाएँ अपने आप में बोलियों की हत्याएँ करके नहीं बनती हैं, बल्कि मुख्य रूप से एक बोली पर निर्भर रहते हुए कई बोलियों के ऐतिहासिक और वैज्ञानिक अमूर्तन से पैदा होती हैं। जब भाषा शासक वर्ग द्वारा अपने राजकीय प्रयोग के लिए अपनायी जाती है तो दूसरी भाषाओं के साथ अन्याय अवश्य हो सकता है। लेकिन यह भाषा द्वारा बोलियों की हत्या नहीं है। ऐसा मानना ही अस्मितावादी तर्क है।

राजस्थानी की बात बिल्कुल भिन्न है। राजस्थानी एक स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित हो गयी। उसी प्रकार मैथिली भी एक स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित हो गयी। इनकी हरियाणवी बोलियों, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मागधी से कोई तुलना ही नहीं है। इन अस्मितावादियों की मानसिक दरिद्रता यह है कि ये खड़ी बोली को ही हिन्दी समझते हैं और उसके अलावा अन्य सभी भाषाओं, उपभाषाओं और बोलियों को स्वतंत्र भाषा जिनका ‘हिन्दी द्वारा दमन के कारण’ विकास नहीं हो पाया। अब यह सभी भोजपुरी, ब्रज, बुन्देली, कन्नौजी आदि बोलने वालों का आह्वान कर रहे हैं कि वह इन सभी बोलियों का अलग-अलग भाषाओं के रूप में विकास करें। इन बोलियों की तुलना ये दागिस्तानी, उज़बेकी, तुर्कमानी, आदि भाषाओं से कर रहे हैं, जो कि अलग भाषाएँ थीं और ज़ारकालीन रूस में राष्ट्रीय दमन के कारण विकसित नहीं हो पायी थीं और समाजवादी सोवियत संघ में पुनः विकसित हुईं क्योंकि वहाँ सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा था। कहीं के ईंट और कहीं के रोड़े को हमारे भाषाई अस्मितावादियों और राष्ट्रवादियों ने मनमाने ढंग से जोड़ दिया है।

असली बात यह है कि ये भाषाई अस्मितावादी और राष्ट्रवादी तीन बातें नहीं समझते हैं : पहला, भाषाएँ बोलियों की हत्याएँ करके नहीं पैदा होती हैं, बल्कि किसी एक बोली को मुख्य रूप से आधार बनाते हुए कई बोलियों से ग्रहण करके पैदा होती हैं, यानी कि उनके ऐतिहासिक व वैज्ञानिक अमूर्तन से पैदा होती हैं, हालाँकि राज्यसत्ता द्वारा अपनी राजकीय भाषा बनाये जाने पर शासक वर्ग इन्हें थोप सकता है और इस रूप में अन्य भाषाओं व बोलियों का दमन हो सकता है। दूसरी बात, जो बोलियाँ भाषा के रूप में ऐतिहासिक प्रक्रिया में (आम तौर पर, पूँजीवाद और एकीकृत बाज़ार व सामाजिक-आर्थिक अन्तर्क्रिया के एकीकृत नेटवर्क के विकसित होने की प्रक्रिया में) भाषाएँ नहीं बन पातीं, वे बोलियों के रूप में अस्तित्वमान रहती हैं और लोग सामाजिक जीवन में आम बातचीत में उनका इस्तेमाल भी जारी रखते हैं। तीसरी बात, इन सभी बोलियों को भाषा के रूप में विकसित करने की ज़िद एक अनैतिहासिक, अवैज्ञानिक, अस्मितावादी और रूमानी नज़रिया है। ऐतिहासिक प्रक्रिया स्वतः किसी बोली को भाषा का मुख्य आधार बनाने के लिए चुन लेती है। आम तौर पर, यह वह बोली होती है जो बहुसंख्यक आबादी द्वारा बोली जाती है और मानकीकरण के लिए अपेक्षाकृत रूप से ज़्यादा उपयुक्त होती है। सभी बोलियाँ ऐतिहासिक तौर पर एकदम एकसमान विकसित नहीं होती हैं। ऐसा सम्भव भी नहीं है।

ये भाषाई अस्मितावादी कह रहे हैं कि हमने भाषा को कभी साम्राज्यवादी भाषा नहीं कहा। लेकिन इनके ही एक साथी ने अपनी एक टिप्पणी में “साम्राज्यवादी भाषा, साम्राज्यवादी संस्कृति और साम्राज्यवादी सभ्यता” की स्पष्ट शब्दों में बात की है। अब ये अपनी बात से भाग रहे हैं क्योंकि इनके भी समझ में आ गया है कि ऐसी बात न्गूगी पर भी थोप पाना मुश्किल है।

असल बात यह है कि लाख प्रयासों के बावजूद ये हिन्दी पट्टी की सभी बोलियों के अस्मितावादियों को एकजुट नहीं कर पा रहे हैं। ये प्रयास भी करें तो उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में इनकी लाइन की बात कोई नहीं सुनने वाला, हालाँकि अपने जैसे ही कुछ अस्मितावादी इन्हें ज़रूर मिल जायेंगे। उस वैज्ञानिक बात को जनता व्यावहारिक तौर पर समझती है, जिसे सैद्धान्तिक तौर पर इनका अस्मितावादी मन समझ नहीं पा रहा है।

इन्होंने 1947 में सिर्फ़ पंजाब के साथ हुए अन्याय की बात फिर से करके अपने राष्ट्रवादी विचलन को फिर से नंगा कर ही दिया। हम पहले ही लिख चुके हैं कि कोई कम्युनिस्ट 1947 के विभाजन को केवल पंजाब के साथ हुई त्रासदी के रूप में नहीं देखता बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के साथ हुई त्रासदी के रूप में देखता है। उसी प्रकार इन्होंने 1966 के भाषाई बँटवारे को भी पंजाब के साथ दोबारा अन्याय बताकर अपने बिग नेशन शॉविनिज़्म को भी फिर से ज़ाहिर कर दिया है। हम इन्तज़ार कर रहे हैं कि इस माँग को ये उन प्रदेशों में भी जाकर अभियान चलाकर उठायें जिन प्रदेशों के कई ज़िलों को पंजाब में शामिल करने की ये माँग कर रहे हैं। वहाँ की जनता स्वयं ही इन्हें जवाब दे देगी। हमने पहले भी लिखा है कि ऐसे मसलों का सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के लिए कोई अर्थ और प्रासंगिकता नहीं है, न ही जनता यह माँग उठा रही है और न ही इसे लेकर कोई स्वतःस्फूर्त आन्दोलन है। ऐसी बात को पंजाब के भीतर एक छोटी-सी आबादी में अन्धराष्ट्रवाद पैदा करने के लिए तो इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में इस पर कोई कान भी नहीं देगा। उल्टे यह इन तीनों ही राज्यों की जनता के बीच दरारें ज़रूर पैदा कर सकता है, जिसका इस्तेमाल फ़िरकापरस्त पूँजीवादी ताक़तें ही करेंगी। वास्तव में, यह एक ग़ैर-सर्वहारा और प्रतिक्रियावादी एजेण्डा है।

लुब्बेलुबाब यह कि इनके पास कहने के लिए कुछ भी नया नहीं है। और जो पुराना है वह अस्मितावादी और अन्धराष्ट्रवादी बकवासों से भरा हुआ है। और ऐसे कतिपय कॉमरेडों को इतिहास और व्यवहार ही सिखा देगा कि ऐसी कार्यदिशा के नतीजे विनाशकारी ही हो सकते हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।