भाषाई अस्मितावादियों से न्गूगी वा थ्योंगो को बचाओ!

सम्पादक मण्डल, 9 नवम्बर 2019

हाल ही में भाषाई अस्मितावादियों ने ‘आह्वान’ के एक पुराने अंक में छपे न्गूगी वा थ्योंगो के एक लेख से एक उद्धरण पेश किया है। शायद उनका मक़सद यह साबित करना है कि इस उद्धरण के अनुसार भाषा का भी साम्राज्यवादी चरित्र हो सकता है यानी कि उसका वर्ग चरित्र हो सकता है। पहली बात तो यह है कि इस उद्धरण में न्गूगी ने ऐसी कोई बात ही नहीं कही है। अगर अपनी भाषाई कट्टरता को छोड़कर हमारे भाषाई अस्मितावादियों ने थोड़ा ठण्डे दिमाग़ से यह उद्धरण पढ़ा होता तो उनकी समझ में आ जाता कि न्गूगी यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं कह रहे हैं। न्गूगी कह रहे हैं कि भाषा भी वर्ग संघर्ष का एक क्षेत्र बन जाती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि भाषा का स्वयं कोई वर्ग चरित्र होता है। यदि कोई राज्यसत्ता किसी भाषा को अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाती है और इसे अन्य भाषाभाषियों पर थोपती है तो इसका यह अर्थ नहीं होता कि उस भाषा का ही कोई वर्ग चरित्र हो जाता है। इसका केवल यह अर्थ है कि उस भाषा को साम्राज्यवादी या शासक वर्ग अपने दमन का उपकरण बना रहे हैं। दूसरी बात यह है कि भाषा के प्रयोग-धर्म (usage) का वर्ग चरित्र होता है। मिसाल के तौर पर, एक ही भाषा को बोलने वाले कुलीन वर्ग के लोग और आम मेहनतकश आबादी उसका अलग-अलग रूप में प्रयोग करते हैं क्योंकि उनके जीवन-सन्दर्भ अलग-अलग होते हैं। लेकिन भाषा का अपने आप में कोई वर्ग चरित्र नहीं होता है। स्तालिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘मार्क्सवाद और भाषा-विज्ञान की समस्याएँ’ में इसे बेहतरीन तरीक़े से समझाया है।

इसी पुस्तक में स्तालिन यह भी कहते हैं : “लोगों के बीच परस्पर सम्पर्क के साधन के रूप में, भाषा की क्रियात्मक भूमिका दूसरे वर्गों को क्षति पहुँचाकर किसी एक वर्ग की सेवा करना नहीं बल्कि समान रूप से पूरे समाज की, उसके सभी वर्गों की सेवा करने की होती है। दरअसल यह इस बात को स्पष्ट करता है कि क्यों कोई भाषा समान रूप से पुरानी, मरणासन्न व्यवस्था और नयी उदयोन्मुख व्यवस्था – दोनों की ही (पुराने और नये – दोनों मूलाधारों की, शोषक और शोषित – दोनों की) सेवा करती है।

“यह बात हर आदमी जानता है कि रूसी भाषा ने अक्टूबर क्रान्ति के पूर्व रूसी पूँजीवाद और रूसी पूँजीवादी संस्कृति का हितपोषण उसी प्रकार किया, जिस प्रकार वह अब रूसी समाज की समाजवादी व्यवस्था और समाजवादी संस्कृति का कर रही है।

“यही बात उक्रइनी, बेलारूसी, उज़बेक, कज़्ज़ाक, जॉर्जियाई, आर्मीनियाई, एस्तोनियाई, लातवियाई, लिथुआ-नियाई, मोल्दावियाई, तातार, अज़रबैजानियाई, बश्कीर, तुर्कमान तथा सोवियत राष्ट्रों की ऐसी दूसरी अन्य भाषाओं के साथ भी लागू होती है। इन भाषाओं ने इन राष्ट्रों की पुरानी पूँजीवादी व्यवस्थाओं का उसी प्रकार पक्षपोषण किया जिस तरह नयी समाजवादी व्यवस्था का।”

आगे फिर वे बताते हैं : “पूँजीवाद के उदय, सामन्ती वर्गीकरण की समाप्ति एवं राष्ट्रीय बाज़ारों के निर्माण के साथ ही राष्ट्रीयताओं का विकास राष्ट्रों में एवं राष्ट्रीयताओं की भाषाओं का विकास राष्ट्रीय भाषाओं में हुआ। इतिहास बताता है कि राष्ट्रीय भाषाएँ वर्ग-भाषाएँ नहीं बल्कि सामान्य भाषाएँ थीं जो राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए सामान्य थीं और पूरे राष्ट्र में एक थीं।

“ऊपर कहा जा चुका है कि भाषा एक समाज के लोगों के बीच सम्पर्क-सूत्र के रूप में उस समाज के सभी वर्गों की सेवा समान रूप से करती है। और इस सन्दर्भ में, हम कह सकते हैं कि यह समाज के वर्गों के प्रति तटस्थता का रुख़ अख़्तियार करती है! लेकिन लोग, विभिन्न सामाजिक जमातें, या यूँ कहें कि विभिन्न वर्ग भाषा के प्रति तटस्थ क़तई नहीं होते। वे भाषा का अपने हित में उपयोग करने का सदैव प्रयास करते हैं, भाषा पर अपनी विशेष ‘जमाती भाषा’ (‘लिंगो’), विशेष पारिभाषिक शब्दों और विशेष अभिव्यक्तियों को आरोपित करना चाहते हैं। विशेषकर अभिजात सामन्त वर्ग और बड़े पूँजीपतियों जैसे ऊपरी तबक़े के धनी वर्ग, जो जनता से स्वयं को पूर्णतः काट चुके हैं और उससे नफ़रत करते हैं, इस सन्दर्भ में अपने को भिन्न या आम लोगों से अलग प्रदर्शित करते हैं। इस तरह वर्ग-उपभाषा (‘क्लास डायलेक्ट’), वर्ग-बोली (‘जार्गन’) या उच्चवर्गीय भाषा बनती हैं। इन वर्ग-उपभाषाओं या वर्ग-बोलियों का हवाला साहित्य में अक्सर ग़लत ढंग से ‘अभिजात भाषा’ या ‘पूँजीवादी भाषा’ के रूप में, ‘सर्वहारा भाषा’ या ‘किसान भाषा’ के विरोध में रखते हुए दिया जाता है।…” (सभी उद्धरण, स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और भाषाशास्त्र की समस्याएँ’)

हमारे भाषाई अस्मितावादियों ने हिन्दी को हत्यारी भाषा क़रार दे दिया है! उनके कुछ समर्थक इसे साम्राज्यवादी भाषा बता रहे हैं। आइए देखते हैं कि स्वयं न्गूगी वा थ्योंगो के उस भाषा और उसके साहित्य के बारे में, यानी अंग्रेज़ी भाषा के बारे में क्या विचार थे जिसको थोपे जाने और जिसे राज्यसत्ता द्वारा साम्राज्यवाद का वाहक बनाये जाने के विरुद्ध वे संघर्ष कर रहे थे। न्गूगी कहते हैं : “मेरे शेक्सपियर हमेशा मेरे पास रहते हैं। डिकेंस के चरित्रों का दायरा अद्भुत था। ये बात शेक्सपियर के बारे में भी कही जा सकती है। और अब जबकि मैं एक लेखक हूँ तो मैं ज़्यादा अच्छी तरह से समझ सकता हूँ कि वे क्या करने की क्षमता रखते थे। इसलिए मेरी आलोचना अंग्रेज़ी साहित्य की गुणवत्ता और उसके मूल्य के विषय में नहीं है, बल्कि विभिन्न भाषाओं और साहित्यों के बीच बना दिये गये पदानुक्रम और सत्ता सम्बन्धों की है, जिसके कारण अंग्रेज़ी और अन्य यूरोपीय भाषाओं को उस पदानुक्रम में ऊपर रख दिया जाता है।

“अगर आप पदानुक्रम को ख़त्म कर दें और उसकी जगह एक नेटवर्क स्थापित कर दें, तो विभिन्न भाषाओं में निहित संस्कृतियाँ ऑक्सीज़न पैदा करती हैं। वे एक-दूसरे को उर्वर बनाती हैं। संस्कृतियाँ एक दूसरे में जीवन फूँकती हैं। हर संस्कृति को अन्य संस्कृतियों का अनुमोदन करते हुए पढ़ाया जाना चाहिए।” (न्गूगी वा थ्योंगो, तनुज राउत से साक्षात्कार में)

अब ज़रा हमारे राष्ट्रवादी विचलन और भाषाई अस्मितावाद से पीड़ित कतिपय कॉमरेडों की सोच से न्गूगी की सोच की तुलना करिए। वैसे तो न्गूगी भी एक रैडिकल जनपक्षधर बुद्धिजीवी हैं, कोई मार्क्सवादी-लेनिनवादी नहीं और भाषा के सवाल पर उनके सभी विचार अनालोचनात्मक तौर पर स्वीकारे नहीं जा सकते हैं। लेकिन न्गूगी के विचारों का जो अर्थ ये भाषाई अस्मितावादी ज़बरन निकालने में लगे हैं, वह न्गूगी के साथ सरासर ज़्यादती है। ज़रा देखें और न्गूगी के विचारों से तुलना करें। ये लोग तो एक प्रोफे़सर द्वारा पंजाब में पंजाबी की “सरदारी” स्थापित करने की सोच, वहाँ केवल पंजाबी भाषा में ही शिक्षण-प्रशिक्षण और सरकारी कामकाज का समर्थन करते हैं! वे तो हिन्दी को साम्राज्यवादी और हत्यारी भाषा क़रार देते हैं! पंजाब के प्रवासी मज़दूरों और उनके बच्चों पर पंजाबी थोपना उनके अनुसार सही है! उनके बच्चों को पंजाबी को मातृभाषा मानने की तख्तियाँ पकड़ाना और जो अन्य भाषाभाषी हैं, लेकिन पंजाब में जन्मे हैं, उनके लिए पंजाबी को मातृभाषा क़रार देने को वे पंजाबी को थोपना नहीं मानते हैं! ज़रा फ़र्ज़ करें कि जो पंजाबीभाषी हरियाणा, उत्तर प्रदेश या बिहार में जन्मे हैं, उनके बारे में भी कहा जाये कि उनकी मातृभाषा पंजाबी नहीं बल्कि हिन्दी होनी चाहिए, तो इन भाषाई अस्मितावादियों की क्या प्रतिक्रिया होगी?

इनके पास कोई तर्क नहीं है। तर्क की जगह इन्होंने भावनाओं को रख दिया है। ये भावनाएँ भाषाई अस्मितावादी और राष्ट्रवादी भावनाएँ हैं। इसी ज़मीन से इनका सारा कुतर्क पैदा होता है, इसी से इनके सवाल पैदा होते हैं। लेकिन ये किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहते हैं। इनसे हमने जितने सवाल पूछे या तो उन पर इन्हें सनाका मार गया है या ये गोलमाल कर रहे हैं। इनके तमाम प्रश्नों का हमने विस्तार से उत्तर दिया, उन उत्तरों पर भी इनका कोई उत्तर नहीं है। इनके पास बस एक ही चीज़ बची है : राष्ट्रवादी और भाषाई अस्मितावादी ज़मीन से भावनाओं को उभारना। ये उभर भी गयीं तो इसका नतीजा भविष्य में विनाशकारी ही होने वाला है। हम उम्मीद करते हैं कि इन्हें सद्बुद्धि आये।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020

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