भाषाई अस्मितावादियों का नया उत्खनन उर्फ़ बन्दर के हाथ में उस्तरा
सम्पादक मण्डल, 8 नवम्बर 2019
भाषाई अस्मितावादी और लोकरंजकतावादी इन दिनों काफ़ी परेशान हैं और विवेकपूर्वक सोचने की जगह अपनी अवस्थिति को किसी-न-किसी तरह से सही साबित करने की कोशिश में एक के बाद एक बचकानी हरकतें किये जा रहे हैं। अब उन्होंने पुरातात्विक उत्खनन का काम शुरू किया है और 19 साल पुराना एक लेख ‘दायित्वबोध’ पत्रिका से निकालकर ले आये हैं।
हालाँकि अपने भाषाई अस्मितावाद के बुखार से मुक्त होकर इस लेख को भी अगर वे एक मार्क्सवादी पाठक की तरह पढ़ लेते तो समझ जाते कि इस लेख के नतीजे भी उन नतीजों की पुष्टि नहीं करते हैं जो यह जमात लगातार पेश किये जा रही है। मगर मार्क्सवादी नज़रिये से चीज़ों को देखने-पढ़ने-सोचने की अक्षमता तो इन्होंने लगातार प्रदर्शित की ही है। तो यह लेख भी इसका अपवाद भला कैसे होता? भाषा के प्रश्न की और इस लेख की अपनी अधकचरी समझ के चलते इन्हें ऐसा लग रहा है मानो बहस में कोई ज़बर्दस्त हथियार इनके हाथ लग गया हो और ये बच्चों की तरह हर पोस्ट के क्मेंट में इस लेख का लिंक चेंपे जा रहे हैं।
लेख के निष्कर्षों पर विस्तार में जाने से पहले एक बात स्पष्ट करनी ज़रूरी है। ग्यारह वर्ष पहले बन्द हो चुकी ‘दायित्वबोध’ पत्रिका की प्रकृति मुख्यतः एक सिम्पोज़ियम की हुआ करती थी जिसमें कई ऐसी अवस्थितियों के निबन्ध प्रकाशित होते थे – चाहे राजनीतिक अर्थशास्त्र पर हों, पर्यावरण पर, स्त्री प्रश्न पर या भाषा जैसे प्रश्नों पर – जिनके साथ सम्पादक मण्डल की पूर्ण सहमति नहीं होती थी। उक्त लेख के लेखक नरेश प्रसाद भोक्ता एक अकादमीशियन हैं जिन्होंने ऐतिहासिक भाषाशास्त्रीय विश्लेषण के स्तर पर कई चूकें भी की हैं, लेकिन यह अलग मसला है जिस पर हम बाद में आयेंगे।
पहली बात, पूरा लेख कहीं यह नहीं कहता कि हिन्दी भाषा इस क्षेत्र की अन्य सारी बोलियों को कुचलकर अस्तित्व में आयी जैसाकि इन कॉमरेडों का दावा है। इसमें विभिन्न उदाहरणों के साथ जिस बात पर ज़ोर दिया गया है वह यह है कि औपनिवेशिक शासकों और उनके समर्थक मध्यवर्गीय कुलीनों ने अपनी गति से विकसित हो रही हिन्दी के विकास को अपनी ज़रूरतों के अनुसार जिस प्रकार से प्रोत्साहित किया, उसके चलते अन्य बोलियों-उपभाषाओं का विकास बाधित हुआ और कुछ लिपियाँ लुप्त हो गयीं। इसी लेख के मुताबिक़ (हिन्दी भाषा के इतिहास पर सबसे आरम्भिक काम करने वाले अंग्रेज़ विद्वान) “जी.ए. ग्रियर्सन ने व्याकरण के आधार पर हिन्दी से सम्बन्धित भाषाओं/बोलियों को तीन समूहों में बाँटा है एवं तीनों को अलग-अलग भाषाओं का दर्जा दिया है। ये हैं – बिहारी, पूर्वी हिन्दी एवं पश्चिमी हिन्दी।” यानी भाषा के तौर पर हिन्दी पहले से मौजूद थी (ज़ाहिरा तौर पर, इसके अलग-अलग रूप मौजूद थे जैसाकि अंग्रेज़ी सहित दुनिया की लगभग सभी विकसित भाषाओं के मामले में था)। लेख यह भी बताता है कि उत्तर-पश्चिमी प्रान्त एवं अवध में पूर्वी एवं पश्चिमी हिन्दी से सम्बन्धित अनेक बोलियों या लोकभाषाओं का प्रयोग किया जाता था और पश्चिमी हिन्दी का क्षेत्र पंजाब के सरहिन्द से लेकर उत्तर-पश्चिमी प्रान्त के इलाहाबाद तक फैला था। इसकी कई उपभाषाएँ हैं लेकिन इनमें अधिक प्रसिद्ध ब्रजभाषा, हिन्दुस्तानी, कन्नौजी एवं बुन्देली हैं। हिन्दुस्तानी, जो कि खड़ी बोली पर आधारित है, आधुनिक काल में साहित्यिक अभिव्यक्ति के प्रमुख माध्यम के रूप में उभरकर सामने आयी।
हम पहले से बार-बार कह रहे हैं कि शासक वर्ग किसी भाषा को निर्मित नहीं करता है, कर भी नहीं सकता। वह अपने आर्थिक-सामाजिक हितों के मद्देनज़र आर्थिक क्रिया-व्यापार और सामाजिक-सांस्कृतिक क्रिया-व्यापार को बढ़ाने के लिए समाज-विशेष में जिस भाषा या बोली को अधिक अनुकूल पाता है उसके विकास पर बल देता है, उसे प्रोत्साहित करता है। केवल भारत नहीं, यूरोपीय इतिहास में भी इसके दर्जनों उदाहरण हैं।
औपनिवेशिक शासकों और औपनिवेशिक काल में विकसित मध्यवर्गीय कुलीनों के वर्ग ने हिन्दी भाषा को जन्म नहीं दिया, बल्कि उन्होंने अपने हितों के अधिक अनुकूल जानते हुए हिन्दी को अन्य बोलियों पर प्राथमिकता दी, उसके विकास पर ज़ोर दिया। इतिहास के और विस्तार में जायेंगे तो पायेंगे कि शुरुआती दौर में उन्होंने कचहरियों और सरकारी कामकाज में अंग्रेज़ी के अतिरिक्त फ़ारसी पर ज़ोर दिया, मगर कालान्तर में उर्दू-हिन्दी पर उनका ज़ोर अधिक रहा।
न.प्र.भो. के लेख में दिये गये आँकड़ों के अनुसार उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पूर्वी हिन्दी (जिसमें अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी आती थीं) को बोलने वालों की संख्या 95,11,647 थी और इसका दायरा 1,87,500 वर्ग मील में फैला था और पश्चिमी हिन्दी (जिसमें हिन्दुस्तानी, बघेली (बंगारू), ब्रजभाषा, कन्नौजी और बुन्देली आती थीं) को बोलने वालों की संख्या 3,80,13,922 थी और इसका दायरा 2,00,000 वर्ग मील में फैला था। इनमें सबसे बड़ी संख्या हिन्दुस्तानी बोलने वालों की (1,66,33,163) थी। यह लेख ही बताता है कि हिन्दी भाषा बोलियों की “हत्या करके” नहीं बनी। हिन्दी के अलग-अलग रूप पहले से मौजूद थे जिनमें से शासक वर्गों ने उस रूप के विकास को अपने हिसाब से प्रोत्साहित किया जो उनके वांछित आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक क्रिया-व्यापार के लिए अधिक अनुकूल था।
अब दूसरे प्रश्न पर आते हैं। न.प्र.भो. ने अपने लेख में कहा है कि ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली जैसी लोकभाषाएँ बिहार एवं उत्तर-पश्चिमी प्रान्त की बहुसंख्य जनता की सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ थीं। पहली बात भाषा की आधुनिक अवधारणा को समझने की है। हम इसे उसी रूप में समझते हैं जिस रूप में स्तालिन ने अपनी रचना ‘मार्क्सवाद और भाषाविज्ञान की समस्याएँ’ में इसकी व्याख्या की है। मध्ययुगीन समाज में, जो धर्मकेन्द्रित समाज था, भारत ही नहीं, अन्य देशों में भी साहित्य की रचना बोलियों या उप-भाषाओं में मिलती है। कौन नहीं जानता कि तुलसी का रामचरित मानस अवधी में और कबीर, सूर, जायसी, रसखान आदि का साहित्य विभिन्न बोलियों/उपभाषाओं में है। मध्ययुगीन समाज में जनता की सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरतों को ये बोलियाँ/उपभाषाएँ पूरा कर सकती थीं। इनमें वे स्वयं को किसी हद तक अभिव्यक्त कर सकते थे। लेकिन आधुनिक काल में विज्ञान व तकनोलॉजी के विकास व आर्थिक-सामाजिक जीवन की बढ़ती जटिलताओं के साथ इन बोलियों में सामाजिक जन-जीवन की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति अब सम्भव नहीं रह गयी थी। न केवल भौतिकी, रसायनशास्त्र, गणित, तर्कशास्त्र, दर्शन, विधिशास्त्र आदि की बल्कि साहित्य-संस्कृति-कला आदि के क्षेत्र में भी अभिव्यक्ति अब इन बोलियों में पूरी तरह सम्भव नहीं थी। ऐसे में आधुनिक भाषा का विकास समाज की आवश्यकता थी। भारत में पूँजीवादी विकास स्वाभाविक गति से नहीं बल्कि औपनिवेशिक सत्ता द्वारा थोपी गयी सामाजिक-आर्थिक संरचना में विकृत गति से हुआ। ऐसे में भाषा का विकास भी निश्चित रूप से कई थोपे गये क़दमों से प्रभावित हुआ। इससे इतर कुछ हो भी नहीं सकता था। मगर इसका अर्थ यही क़तई नहीं होता कि अगर यह थोपी गयी प्रक्रिया न घटित हुई होती तो सभी बोलियाँ भाषा के रूप में विकसित हो गयी होतीं।
जैसा कि स्तालिन अपनी पुस्तक में बताते हैं,
“स्थानीय ‘क्षेत्रीय’ उपभाषाएँ या बोलियाँ जनसमूह का हितसाधन करती हैं। इनका अपना व्याकरण-तंत्र और मूल शब्द-भण्डार होता है। इस दृष्टि से, कुछ क्षेत्रीय उपभाषाएँ, राष्ट्रों के बनने की प्रक्रिया के दौरान, राष्ट्रीय भाषाओं का आधार बन सकती हैं और स्वतंत्र राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में विकसित हो सकती हैं। उदाहरण के लिए रूसी भाषा की कुर्स्क ओरेल उपभाषा (कुर्स्क ओरेल स्पीच) के साथ ऐसा ही हुआ जो रूसी राष्ट्रीय भाषा का आधार बनी। यही बात उक्रइनी भाषा की पोल्तावा कीव उपभाषा के साथ भी हुई जो उक्रइनी राष्ट्रीय भाषा का आधार बनी। ऐसा ही दूसरी उपभाषाओं के साथ हुआ; उन्होंने अपना मूल स्वरूप खो दिया और उन्हीं में विलीन हो गयीं।
“इसके विपरीत प्रक्रियाएँ भी होती हैं, जब किसी एक राष्ट्रीयता की, जो विकास के लिए आवश्यक आर्थिक परिस्थितियों के अभाव में एक राष्ट्र न बन पायी हो, एक भाषा उस राष्ट्रीयता के राज्य के विघटन के फलस्वरूप ध्वस्त हो जाती है और क्षेत्रीय उपभाषाएँ, जिनके एक भाषा के रूप में एकीकृत होने का उपयुक्त समय नहीं आया रहता है, पुनर्जीवित होकर कई अलग, स्वतंत्र भाषाओं का निर्माण करती हैं। सम्भवतः ऐसा ही हुआ था जब एक मंगोल भाषा कई भाषाओं में विघटित हो गयी थी।” (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और भाषाशास्त्र की समस्याएँ’)
न.प्र.भो. अपने लेख में इस कालिक प्रवर्गीकरण (temporal categorization) की उपेक्षा करते हैं। भारत में आधुनिक शिक्षा और उद्योग-व्यापार का विकास औपनिवेशिक काल में शुरू हुआ। ज़ाहिरा तौर पर, उपनिवेशवादियों और उनसे जुड़े वर्गों ने जिस भाषा-लिपि को सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर्क्रिया के सर्वाधिक अनुकूल पाया, उसी में उन्होंने शिक्षा देने की शुरुआत की। उत्तर भारत में मुख्य रूप से यह काम अंग्रेज़ी-हिन्दी-उर्दू में हुआ, कहीं-कहीं एक दौर में फ़ारसी भी इसका माध्यम बनी। इसमें अंग्रेज़ी ऐसी भाषा थी जिसकी जड़ें भारत में नहीं थीं। लेकिन हिन्दी की जड़ें इसी क्षेत्र में थीं। न.प्र.भो. का लेख बताता है कि यहाँ की बोलियों का जो विशद दायरा था उसी की एक धारा में से पूर्वी और एक धारा से पश्चिमी हिन्दी का विकास हुआ।
आधुनिक काल में जो बुर्जुआ समाज विकसित हुए उनमें पूँजीवादी श्रम विभाजन के साथ-साथ निश्चय ही आम उत्पादक वर्गों की अभिव्यक्ति की भाषा तथा बौद्धिक वर्ग की चिन्तन और अभिव्यक्ति की भाषा के बीच एक अलगाव पैदा हो जाता है। हिन्दी पट्टी की बोलियों वाले क्षेत्रों में गाँव के आम किसान अपनी सामान्य बोलचाल में बोलियों का ही इस्तेमाल करते हैं लेकिन आबादी के उस हिस्से में से भी जो लोग शिक्षा हासिल करके विचारों की दुनिया में दख़ल देने लगते हैं उन्हें हिन्दी में सोचने-बोलने-अभिव्यक्त करने की ज़रूरत होती है। विभिन्न बोलियों वाले व्यापक हिन्दी क्षेत्र की यह विशिष्टता है। लेकिन अगर तमिल, मलयालम, कन्नड़ या बंगला को देखें तो यह फ़र्क़ इस रूप में वहाँ मौजूद नहीं है, हालाँकि वहाँ भी आम बोलचाल की भाषा और लिखित भाषा में पर्याप्त अन्तर है।
एक बार फिर यह स्पष्ट कर दें कि हरेक बोली भाषा के तौर पर विकसित हो सके, यह ज़रूरी नहीं। आमतौर पर होता यह है कि विभिन्न बोलियों का साहित्य (लिखित या अलिखित) और शब्दभण्डार भाषा को आधार मुहैया कराता है। आगे चलकर मानकीकरण की प्रक्रिया से गुज़रने के बाद कोई भाषा ढलती है और विकसित होती है। यह मानकीकरण स्वाभाविक गति से भी होता है और शासक वर्गों द्वारा लागू नीतियों के दबाव में भी होता है। भाषा के विकसित हो जाने के लम्बे समय बाद तक भी बोलियाँ जीवित रह सकती हैं। मगर विकास की इस प्रक्रिया में जो बोलियाँ पीछे छूट जाती हैं, इतिहास में पीछे जाकर उन्हें फिर से विकसित करने के मन्सूबे बचकाने और निरर्थक होते हैं और भाषा की मार्क्सवादी समझ के विपरीत होते हैं।
भाषा ही क्यों, वर्ग समाज के इतिहास में हुई तमाम त्रासदियों, दुर्घटनाओं, अन्यायों को जो लोग पीछे जाकर ठीक करना चाहते हैं वे मार्क्सवादी नहीं, रूमानी यूटोपियावाद के शिकार हैं। उन्हें मार्क्सवाद के उपकरण की नहीं बल्कि किसी टाइममशीन की तलाश करनी चाहिए। जैसाकि प्लेखानोव ने कहा है, “ज़िन्दा लोग ज़िन्दा सवालों पर सोचते हैं।” वे गड़े मुर्दे उखाड़ने में नहीं लगे रहते। पूरे भारत के भाषाई परिदृश्य को हमारे औपनिवेशिक अतीत ने जिस तरह से प्रभावित किया है, उसे हम अतीत में पीछे जाकर ठीक नहीं कर सकते।
इतिहास-विकास के क्रम में भाषा न बन पायी बोलियों/उपभाषाओं को आज की तारीख़ में फिर भाषा के रूप में विकसित करने का कार्यभार हमारा नहीं है। किसी समाजवैज्ञानिक या क्रान्तिकारी के सामने यह जीवन्त-ज्वलन्त सवाल है ही नहीं। जो लोग ऐसे ग़ैर-मुद्दों को मुद्दा बनाने में लगे हुए हैं वे जनता की सस्ती भावनाओं को भुनाने के चक्कर में आज के वास्तविक सवालों को दरकिनार करके अनजाने में ही किसकी मदद कर रहे हैं, इसे कोई भी समझ सकता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!