5 नवम्बर 2019 को ‘आह्वान’ के फ़ेसबुक पेज पर डाली गयी टिप्पणी
सम्पादक मण्डल
आह्वान के फ़ेसबुक पेज पर भाषा के सवाल पर बहस में अपना पक्ष रखते हुए हमने शुरू से दूसरे पक्ष के अन्धराष्ट्रवादी नॉस्टैल्जिया, सस्ते लोकरंजकतावाद और भाषाई अस्मितावाद को अपनी आलोचना का निशाना बनाया है। हमारे द्वारा तमाम उदाहरण दिये जाने के बावजूद दूसरा पक्ष बार-बार इस बात को गोल-मोल या सीधे इन्कार करने की कोशिश करता रहा कि वह तो ‘महापंजाब’ जैसे किसी नॉस्टैल्जिया की बात करता ही नहीं। मगर हमारी आलोचनाओं का कोई जवाब न दे पाने की हालत में अपनी पोज़ीशन को किसी-न-किसी तरह से सही ठहराने के चक्कर में उन्हें जो कसरतें करनी पड़ रही हैं, उसके चलते भाषाई उत्पीड़न और भाषाई ग़ैर-बराबरी के झोले में छिपे उनके वैचारिक भटकाव लुढ़क-लुढ़ककर झोले से बाहर आ जा रहे हैं।
हमने अपनी कई पोस्ट में “महापंजाब” की याद में टसुए बहाने की प्रवृत्ति या 1966 के राज्यों के भाषावार पुनर्गठन को फिर से किये जाने की माँग की सख़्त आलोचना रखी थी जिस पर दूसरे पक्ष का कहना होता था कि हम ऐसी कोई बात कह ही नहीं रहे हैं। महापंजाब माँग कौन रहा है? हम तो बस दूसरों के वीडियो अपनी आधिकारिक पत्रिका के पेज से शेयर कर रहे हैं और शेयर करने का मतलब वीडियो में प्रस्तुत विचारों को मानना तो नहीं होता?! (इस बात पर वे चुप मार जाते थे कि किसी तथ्य की प्रस्तुति मूल्यविहीन नहीं होती और बिना किसी टिप्पणी के वीडियो को शेयर करने का मतलब उसमें प्रस्तुत विचारों का समर्थन ही होता है।)
मगर अभी उनकी तरफ़ से लिखी गयी एक पोस्ट में आख़िर दिल की बात ज़ुबाँ पर आ ही गयी! पोस्ट में कहा गया है कि अगर पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी और उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम एक हो सकते हैं और कोरिया के एकीकरण की प्रबल सम्भावना है, तो भला पंजाब (हिन्दुस्तानी पंजाब और पाकिस्तानी पंजाब) क्यों नहीं एक हो सकता? और फिर ऐसे “बौने बुद्धिजीवियों” पर क्षोभ व्यक्त किया गया है जो ऐसी एकता की चाहत नहीं रखते। पहली बात, हर कम्युनिस्ट पंजाब ही क्यों, पूरे उपमहाद्वीप के फिर से एक होने की ख़्वाहिश रहता है। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में तमाम राष्ट्रीयताओं का एक साझा समाजवादी संघ बने यह हर सच्चे कम्युनिस्ट की दिली इच्छा होगी। लेकिन कम्युनिस्ट, अगर वे वाक़ई कम्युनिस्ट हैं तो, यह भी जानते हैं कि तीनों मुल्क़ों में समाजवादी क्रान्ति के कामयाब होने के बाद ही ऐसी एकता मुमकिन है। उसके पहले ऐसे ख़याली पुलाव पकाने और उसकी याद में आँसू बहाने की हरकतों पर कोई भी कम्युनिस्ट हँसेगा ही। और साथ ही, चिन्तित भी होगा, क्योंकि इस तरह के विचार दरअसल ऐसी एकता की सम्भावना को सच बनाने की राह पर चलने वाले आन्दोलन को भटकाव और बिखराव के रास्ते पर ही ले जायेंगे।
जर्मनी का उदाहरण देने वाले यह भूल गये कि उसका एकीकरण दोनों देशों की जनता की फिर से मिल जाने की इच्छा का नतीजा नहीं था, बल्कि नकली समाजवाद के मॉडल के ढहने और साम्राज्यवादी पूँजी की जीत का नतीजा था। बर्लिन की दीवार का गिरना पूरी दुनिया में भूमण्डलीकरण की नीतियों के विजय अभियान का एक प्रतीक यूँ ही नहीं बन गया था। वियतनाम का एकीकरण क्रान्ति की जीत का नतीजा था और अगर कोरिया का आज फिर से एकीकरण होता है (जिसकी सम्भावना निकट भविष्य में कम ही है), तो यह भी एक बार फिर नकली समाजवाद की पराजय और साम्राज्यवादी पूँजी की जीत का नतीजा होगा।
लगातार पंजाब के साथ होने वाले अन्याय और पंजाब के एक होने की बातें करने वाले जब इस बात का कोई तार्किक जवाब नहीं दे पाये कि 1947 में जब पूरे देश के साथ भयंकर अन्याय हुआ तो केवल पंजाब की बात उठाने का क्या मतलब है, तो अब लीपापोती के प्रयास में वे पंजाबी क़ौम के साथ बंगाली क़ौम का भी नाम लेने लगे हैं। मगर इतना ही क्यों, क्या 1947 में कश्मीर के टुकड़े नहीं हुए? क्या सीमा के दोनों तरफ़ उजड़ने वाली करोड़ों की आबादी के साथ अन्याय नहीं हुआ? पूरे उपमहाद्वीप की जनता क्या उपनिवेशवादियों के उस अन्याय की क़ीमत आज तक नहीं चुका रही है? मगर इन कॉमरेडों को केवल पंजाब के साथ होने वाले अन्याय को ‘अनडू’ (undo) करने की क्यों पड़ी हुई है?
एक और बात भी है! जर्मनी का एकीकरण दो मुल्क़ों का एकीकरण था – ऐसा नहीं था कि वहाँ सैक्सनी और लोअर सैक्सनी प्रान्तों के लोग अलग से अपने बँटवारे पर रुदाली गा रहे थे और महासैक्सनी बनाने के लिए आहें भर रहे थे।
और अगर तमाम आलोचनाओं के बावजूद उन्हें लगता है कि अपने-अपने देशों के भीतर समाजवादी क्रान्ति के लिए काम करने के बजाय भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में “टुकड़े-टुकड़े हो गयी क़ौमों” को सबसे पहले आपस में मिल जाने की कोशिशें करनी चाहिए तो उन्हें शर्माने के बजाय इसी माँग का झण्डा थामकर आगे बढ़ना चाहिए।
इन्होंने भाषा के आधार पर ‘पंजाब पुनर्गठन एक्ट’ के तहत 1966 में हुए पंजाब, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश के गठन को अन्यायपूर्ण बताया और बाक़ायदा यह माँग उठा दी कि राज्यों का पुनर्गठन फिर से किया जाना चाहिए (ज़ाहिर है कि वे केवल पंजाब को उसका “हक़” दिलाने के मक़सद से ऐसी माँग उठा रहे हैं)। चण्डीगढ़ को हरियाणा-पंजाब की संयुक्त राजधानी बनाये जाने को वे “क़ौम से उसकी राजधानी छीन लिये जाने” की धक्केशाही क़रार देते हैं। यह सच है कि 58 पंजाबी भाषी गाँवों को विस्थापित करके चण्डीगढ़ बना है लेकिन इतिहास में हर ग़लती को पीछे जाकर दुरुस्त नहीं किया जा सकता। अगर इसी तर्क को आगे बढ़ाया जाये तो बात बहुत दूर तक जायेगी। इतिहास के एक दौर में यहूदियों को इज़राइल-फ़िलिस्तीन के इलाक़े से उजड़कर जाना पड़ा था, तो इनके तर्क से तो 1948 में इज़राइल को फिर से “बसाना” और फ़िलिस्तीनियों को उजाड़ना सही होना चाहिए!? पूँजीवादी विकास के क्रम में विशाल कारख़ाने लगाने या औद्योगिक टाउनशिप बसाने के लिए दर्जनों गाँवों को, वहाँ के मूल निवासियों को उजाड़ा गया; तो क्या उन सभी जगहों पर इतिहास का चक्का उल्टा घुमाया जायेगा? इतिहास की ग़लतियों को दुरुस्त करने की यह पूरी सोच प्रतिक्रियावादी है। कभी 1966 के विभाजन पर तो कभी चण्डीगढ़ पर और कभी भाषाई आधार पर दोबारा बँटवारे की माँग पर अटक जाने की प्रवृत्ति को पंजाबी ‘बिगनेशन शॉवनिज़्म’ नहीं, तो भला और क्या कहा जायेगा? महापंजाब की लालसा करने को “अन्धराष्ट्रवादी नॉस्टैल्जिया” नहीं तो भला और क्या कहा जायेगा?
आप कहते हैं कि “अगर पंजाब का फिर से एकीकरण होता है तो इससे किसे तकलीफ़ हो सकती है?” दरअसल सवाल यह होना चाहिए कि पूरे उपमहाद्वीप के एकीकरण के बजाय केवल पंजाब के एकीकरण के बारे में सोचने वाले किस तरह के कम्युनिस्ट हैं। वैसे किसी भी तरह के एकीकरण को लेकर हवाई क़िले बनाने और आह-वाह करने वाले भी कम्युनिस्ट नहीं हो सकते। कम्युनिस्ट यथार्थ की ठोस ज़मीन पर खड़े होकर सोचते और काम करते हैं, भावुक विचारों के बादलों में बैठकर गगन विहार नहीं किया करते।
कम्युनिस्टों को साफ़गो भी होना चाहिए। जब आपका शुरू से यही मानना था तो खुलकर यही कहना चाहिए था कि हमको बड़ा पंजाब चाहिए, इतने छोटे-से पंजाब में हमसे क्रान्ति नहीं हो पा रही। तब भाषा और बोलियों आदि पर घुमा-घुमाकर नाक पकड़ने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती। जैसाकि एक साथी ने कहा है, “फिर तो माँ बोली सम्मेलन नहीं बल्कि वाघा बॉर्डर पर महापंजाब सम्मेलन ही बुला लिया होता!” उसके छाते के नीचे आपकी सारी माँगें ज़्यादा अच्छी तरह आ जातीं।
एक बार फिर दोहरा दें कि हम पंजाब और बंगाल ही नहीं, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के एकीकरण के समर्थक हैं। हम पूँजीवाद और साम्राज्यवाद द्वारा खींची गयी राष्ट्रों की नकली सीमाओं के अन्ततः ख़ात्मे का सपना देखते हैं। लेकिन हम जानते हैं कि यह तभी सम्भव है जब पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की मेहनतकश जनता उठ खड़ी होगी और पूँजीवाद-साम्राज्यवाद को अपनी सरज़मीं से उखाड़ फेंकेगी। केवल तभी तमाम राष्ट्रीयताओं के साझे संघ की स्थापना सम्भव है। भारतीय और पाकिस्तानी पूँजीवादी राज्यसत्ताओं के रहते भला कौन-से जादू से पंजाब एक हो जायेगा? आने वाले दशकों में यह सपना हक़ीक़त तभी बन सकेगा जब आज हवाई मुद्दे खड़े करके मेहनतकशों के बीच बँटवारे पैदा करने के बजाय लोगों को उनकी ज़िन्दगी के वास्तविक मुद्दों पर एकजुट किया जाये। ऐसा न करके, अन्धराष्ट्रवाद, अस्मितावाद और लोकरंजकता को हवा देने वाले दरअसल इस सपने के ख़िलाफ़ ही काम कर रहे हैं। उनकी नासमझी पर हँसी नहीं, तरस आता है और चिन्ता होती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020
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