लोकरंजकतावाद और भाषाई अस्मितावाद के ख़तरे

सम्पादक मण्डल, 31 अक्टूबर 2019

कम्युनिस्ट आन्दोलन में लोकरंजकतावाद (Populism) और अस्मितावाद (Identity politics) हमेशा ही एक ख़तरनाक विजातीय प्रवृत्ति की भूमिका निभाते रहे हैं। लोकरंजकतावाद कई क़िस्म का हो सकता है। एक बुर्जुआ सचेतन होता है। लेकिन दूसरे प्रकार का लोकरंजकतावाद और अस्मितावाद कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर होता है, जिसमें कई बार तो लोग अनजाने और मासूमियत में इसके शिकार हो जाते हैं, तो कई बार कठिन परिस्थितियों और प्रश्नों का जवाब दे पाने की अक्षमता के कारण। जब वे जीवित प्रश्नों से टकराने का कारगर रास्ता नहीं निकाल पाते हैं, तो लोकरंजकतावाद और किसी प्रकार के अस्मितावाद के आत्मघाती कुचक्र में जा फँसते हैं।

हाल ही में एक बेहद सस्ते और उथले क़िस्म का लोकरंजकतावाद भाषाई अस्मितावाद और राष्ट्रीय अस्मितावाद के रूप में क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों की कुछ क़तारों में प्रवेश कर गया है। कुछ वामपन्थी बुद्धिजीवियों में ऐसा रुझान पहले भी था। आज वह कुछ क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट जमातों में भी दिखलाई पड़ रहा है। जिन पाठकों ने पिछले दिनों आह्वान के फ़ेसबुक पेज से की गयी पोस्टों को पढ़ा है, वे जानते हैं कि हम हाल ही में भाषा के प्रश्न पर इस विजातीय रुझान से चलायी जा रही बहसों की ओर इशारा कर रहे हैं। इस बहस में जब इन कतिपय कम्युनिस्टों के पास कोई जवाब नहीं बचा है तो अपने ताज़ा बयान में उन्होंने निम्न दावे किये हैं :

  1. हमने (यानी आह्वान ने, जिन्हें कि ये कतिपय कम्युनिस्ट ‘दिल्ली में बैठे विद्वान’ क़रार दे रहे हैं!) उनके मुँह में कुछ बातें डाल दी हैं, जो कि वे कह ही नहीं रहे हैं। लेकिन इन्होंने यह बताने की जहमत नहीं उठायी है कि वे कौन-सी बातें हैं, जिन्हें हम उनके मुँह में डाल रहे हैं। एक बार फिर हम बता दें कि हमारे द्वारा इन कतिपय कम्युनिस्टों की क्या आलोचना पेश की गयी थी, ताकि सीधे इस पोस्ट को पढ़ रहे साथियों को मालूम रहे :(क) इनके द्वारा कहा गया कि 1966 में भाषाई आधार पर हुए राज्यों के पुनर्गठन में पंजाब के साथ अन्याय हुआ और पंजाबीभाषी बहुल सिरसा भी हरियाणा में चला गया इसलिए उस पुराने बँटवारे को रद्द करके राज्यों का नया बँटवारा किया जाना चाहिए। इस पर हमने यह कहा कि वैसे तो अबोहर-फाजिल्का के भी 83 गाँव हिन्दीभाषी हैं, लेकिन आज जबकि पंजाब या हरियाणा की जनता के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं है, तो इसे मुद्दा बनाना ग़लत है। यह पंजाब और हरियाणा की आम मेहनतकश जनता के बीच ही फूट डाल देगा। अब हम पूछते हैं : क्या आपने यह माँग नहीं उठायी है? हम यह बात तो आपके मुँह में नहीं डाल रहे हैं?(ख) इन्होंने अपने फ़ेसबुक पेज से लगातार ऐसी पोस्टें शेयर की हैं जिनमें यह माँग उठायी गयी है कि पंजाब में समस्त शिक्षण-प्रशिक्षण और सरकारी कामकाज केवल पंजाबी में होना चाहिए! वैसे तो ये कनाडा के प्रधानमंत्री ज़ायनवादी साम्राज्यवादी जस्टिन त्रूदो को इस बात के लिए बधाई दे रहे थे कि कनाडा में पंजाबीभाषियों के अल्पसंख्यक होने के बावजूद उसने संसद की कार्रवाई का पंजाबी में भी प्रसारण किया (बाद में, सम्भवतः इस पोस्ट की राजनीतिक अश्लीलता को देखकर इन्होंने ये पोस्ट हटा ली!) लेकिन पंजाब के 27 लाख मेहनतकश प्रवासियों को अपनी मातृभाषाओं में पढ़ने और समस्त सरकारी कामकाज के अधिकार से ये वंचित रखना चाहते हैं। क्योंकि यदि सारा काम सिर्फ़ पंजाबी में होगा तो फिर ज़ाहिर-सी बात है कि पंजाबी भाषा इस भारी ग़ैर-पंजाबीभाषी आबादी के लिए थोपी गयी भाषा बन जायेगी। क्या आपने पंजाबी भाषा की “सरदारी” (वर्चस्व) को स्थापित करने की माँग उठाते हुए अपने फ़ेसबुक पेज से ऐसी पोस्ट नहीं शेयर की थी? क्या यह बात हम आपके मुँह में डाल रहे हैं? चाहे वह पोस्ट मूलतः किसी ने भी लिखी हो, यदि आप अपनी पत्रिका के फ़ेसबुक पेज से उसे शेयर कर रहे हैं, तो इसका अर्थ यही है कि आप उसका अनुमोदन (एण्डोर्स) कर रहे हैं। ऐसे में, आप अब अपनी कही बातों से भाग रहे हैं और हमीं पर भड़क रहे हैं कि हमने आपके मुँह में बातें डाल दीं, हालाँकि वे कौन-सी बातें हैं, यह नहीं बता रहे। इसे कहते हैं ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’।

    (ग) आपने एक अन्य वीडियो शेयर किया था जिसमें कि 1947 के पहले के पंजाब राज्य के नक़्शे को दिखाकर यह कहा गया था कि पहले 1947 में पंजाब के साथ अन्याय हुआ और फिर 1966 में भी अन्याय हुआ और आज पंजाब को कितनी कम ज़मीन पर गुज़ारा करना पड़ रहा है और पहले का महापंजाब कितना बड़ा था। आपका मानना है कि वीडियो शेयर करने से आप पुराने महापंजाब की माँग नहीं उठा रहे हैं। इस पर हमने कहा था कि किसी वीडियो को शेयर करना उसकी अवस्थिति का समर्थन ही होता है और बाद में तो अपनी लिखित पत्रिका के एक लेख में आपने बाक़ायदा 1966 के पुनर्गठन को रद्द कर नया पुनर्गठन करने की माँग भी उठा दी है। इसलिए अपनी इस बात से आप भाग नहीं सकते। हमारा आपकी इस अवस्थिति पर कहना था कि 1947 में सिर्फ़ पंजाब के साथ अन्याय की बात करना राष्ट्रवादी विचलन को दिखलाता है; 1947 में पूरे देश के साथ और विशेष तौर पर कई राज्यों के साथ अन्याय हुआ था। 1966 के राज्यों के भाषाई पुनर्गठन को रद्द कर नये पुनर्गठन की माँग करने को हम एक ग़ैर-मुद्दा मानते हैं जो कि मुद्दा बनाये जाने पर आम अवाम को ही बाँट देगा। इन दोनों ही आलोचनाओं पर कोई जवाब देने की बजाय आपने पतली गली से कट लेने और ‘हमारे मुँह में अपनी बात डाल दी’ की डफ़ली बजा दी है। क्या वाक़ई हमने आपके मुँह में कोई बात डाली है?

    (घ) इन कतिपय कम्युनिस्टों के ही पत्रिका के फ़ेसबुक पेज से एक बच्ची का वीडियो डाला गया था जिसमें कि वह पंजाबी को ‘अपने गुरुओं, अपने धर्म, और अपने देश’ की भाषा बता रही थी। इस वीडियो को भी बाद में हटा लिया गया। लेकिन यह तो पलायन की कार्रवाई थी। मूल बात यह है कि आपने वह वीडियो शेयर किया था और वह आपके पूरी पहुँच और पद्धति के अंग के तौर पर हुआ था। यह भाषा पर मार्क्सवादी नज़रिये का मख़ौल बनाना है। क्या यह वीडियो आपने शेयर नहीं किया था? क्या यह बात हमने आपके मुँह में डाल दी?

    (ड) आपका दावा है कि हर बोली को भाषा के रूप में विकसित किया जाना चाहिए और ऐसा किया जा सकता है और यह कि हिन्दी कई बोलियों को “मारकर” विकसित हुई है। हमने इस पूरे तर्क को सन्दर्भों समेत खण्डित किया और आपको बताया कि हर बोली भाषा के रूप में नहीं विकसित होती है। दूसरी बात, भाषाएँ महज़ राज्यसत्ता की ज़बर्दस्ती से भाषाएँ बन ही नहीं सकती हैं। वे ऐतिहासिक प्रक्रिया में कई बोलियों के वैज्ञानिक और ऐतिहासिक अमूर्तन के ज़रिये भाषाएँ बनती हैं। वास्तव में, 1947 में भारतीय पूँजीपति वर्ग के सत्ता में आने के काफ़ी पहले ही हिन्दी और उर्दू दोनों ही हिन्दुस्तानी की खड़ी बोली से विकसित हो चुकी थीं और करोड़ों लोगों की मातृभाषाएँ बन चुकी थीं। बाद में यदि भारतीय पूँजीपति वर्ग ने उसे अपनी पूँजीवादी राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का कैरियर बनाया (जिसके निश्चित ऐतिहासिक कारण थे, जिन पर हम पिछली पोस्ट में चर्चा कर चुके हैं) तो इसमें हिन्दी भाषा की कोई ग़लती नहीं है। दूसरी बात, मुख्य रूप से खड़ी बोली से विकसित होने के बावजूद हिन्दी ने मागधी, कौरवी, ब्रज, वज्जिका, भोजपुरी, अवधी, कन्नौजी, अहीरी आदि सभी से लेक्सिकन, संरचना, व व्याकरणिक तौर पर चीज़ें ली हैं। इसी को हम कई बोलियों का ऐतिहासिक व वैज्ञानिक सामान्यीकरण व अमूर्तन कह रहे हैं। कोई भी भाषा बाहर से आकर बोलियों को नहीं दबाती है। वह इन्हीं बोलियों के अमूर्तन, वैज्ञानिक मानकीकरण, मानक लेक्सिकन के निर्माण (जो कि बाद में भी काफ़ी लचीला रहता है) और कर्ता-कारक-क्रिया क्रम से सीखकर विकसित होती है। भाषा के बारे में इन कतिपय कम्युनिस्टों का नज़रिया ही बेहद बचकाना, मूर्खतापूर्ण, अनैतिहासिक, अवैज्ञानिक, अस्मितावादी और लोकरंजकतावादी है। हमारी पहले की पोस्टों में इस बाबत रखे गये किसी भी तर्क या तथ्य का इन कतिपय कम्युनिस्टों ने कोई जवाब नहीं दिया है और इन्हें “विद्वानों की बातें” बताकर ख़ारिज कर दिया है। आम तौर पर, विज्ञान से रिक्त लोगों में एक प्रकार का प्रतिक्रान्तिकारी और ग़ैर-सर्वहारा ‘एण्टी-इण्टलेक्चुअलिज़्म’ पैदा हो जाता है। वे पहले तर्कसम्मत बात को विद्वानों की बात बोल देते हैं और फिर घबराकर मूर्खता और अज्ञान का जश्न मनाने लग जाते हैं।

    (च) जो मूर्खतापूर्ण बात हमारे कतिपय कम्युनिस्ट भाषा और बोलियों के रिश्ते पर करते हैं, वह बात यह केवल हिन्दी भाषा पर ही लागू करते हैं। हमने इन्हीं के तर्क को पंजाबी भाषा और उसकी तमाम बोलियों पर लागू करके इनसे पूछा था कि क्या मानकीकृत पंजाबी भाषा भी इन बोलियों की “हत्या” करके पैदा हुई है? इस सवाल पर इन्हें सनाका मार गया है! इस पर ये कोई जवाब देने से भाग रहे हैं और तरह-तरह की चीख़ें मार रहे हैं जैसे कि “हमारे मुँह में बातें डाल दीं”, “ये तो विद्वानों की बातें हैं”, “ये तो दिल्लीवाले हैं”, “ये तो हिन्दीवाले हैं” वग़ैरह जैसी अहमकाना बातें। हम कहेंगे कि ‘भागिए मत! जुमलेबाज़ी मत करिए। ठोस सवालों का ठोस जवाब दीजिए।’ लेकिन पलायन का एक ट्रेडमार्क तरीक़ा इन लोगों ने अपनाया है : ‘सवालों से भागो और सवालों को ही दोषी ठहराओ!’

    (छ) बागड़ी बोली को इन्होंने पंजाबी की बोली क़रार दिया था और इस आधार पर बागड़ी बोलने वालों के क्षेत्र और आबादी को मिलाकर हरियाणा के 30 प्रतिशत लोगों को पंजाबीभाषी घोषित कर दिया था! हमने अपनी पिछली दो पोस्टों में तथ्यों, तर्कों और वैज्ञानिक शोधकार्यों के सन्दर्भ समेत दिखाया कि बागड़ी बोली हिन्दी की उपभाषा हरियाणवी, राजस्थानी (जो कि एक भिन्न भाषा है) और पंजाबी के बीच की सेतु बोली है, लेकिन इसमें भी बागड़ी की सापेक्षिक निकटता हरियाणवी तथा राजस्थानी के साथ ज़्यादा बनती है, पंजाबी के साथ नहीं। यह आधिकारिक तौर पर राजस्थानी की उपभाषा/बोली मानी भी जाती है। लेकिन इन महानुभावों की कार्यदिशा के अनुसार तो बागड़ी को भी इन्हें पंजाबी की बोली नहीं बोलना चाहिए और उसे स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित करना चाहिए। कहीं ये बागड़ी बोली का पंजाबी भाषा द्वारा दमन और उसकी हत्या का प्रयास तो नहीं है!? इन महानुभावों के हिसाब से तो ऐसा ही नतीजा निकालना चाहिए! ग़लत कार्यदिशा के पक्ष में कुतर्क गढ़ते जाने के साथ यही समस्या होती है : ऐसे लोग ख़ुद ही भूल जाते हैं कि उन्होंने पहले क्या कहा था और और उनकी कार्यदिशा का क्या अर्थ निकलता है!

    (ज) हमारे कतिपय कम्युनिस्टों का मानना है कि पंजाबीभाषी लोग हरियाणा में और देश में दमित समुदाय हैं, जो डर के मारे अपनी मातृभाषा हिन्दी बताते हैं। हमने स्पष्ट किया था कि यह बात ही तथ्यतः ग़लत है। उल्टे हरियाणा की अर्थव्यवस्था से लेकर राजनीति में पंजाबीभाषियों की अच्छी साझेदारी रही है। स्पष्ट है कि मेहनतकश आबादी तो हर जगह ही दमित होती है। लेकिन वह दूसरी बात है। इन कतिपय कम्युनिस्टों ने अपनी पत्रिका के फ़ेसबुक पेज से एक ऐसा वीडियो भी शेयर किया था जिसमें दिल्ली में एक सरदार ऑटो चालक की पुलिस द्वारा पिटाई की जा रही थी और इन कतिपय कम्युनिस्टों का यह कहना था कि उसे इसलिए पीटा जा रहा था क्योंकि वह सिख था। इस पर पंजाब के ही कई सूझबूझ बाले साथियों और कॉमरेडों और साथ ही अन्य तमाम लोगों ने आपत्ति दर्ज करायी थी कि इसे धर्म का रंग देना ग़लत है और यह तो हर धर्म के ही ऑटोचालकों के साथ दिल्ली में पुलिस वाले आये दिन करते हैं। इस पर इन्होंने एक बेहद कमज़ोर सफ़ाई भी दी थी, जो कि किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए कन्विंसिंग नहीं थी।

    यह बात भी हमने अपनी शुरुआती एक पोस्ट में कही थी और बाद में भी कही थी कि पंजाबी राष्ट्रीयता भारत में या हरियाणा में कोई दमित राष्ट्रीयता नहीं है। इस बारे में हमने दमित राष्ट्रीयता के अर्थ को भी स्पष्ट किया था और साथ ही पंजाबी राष्ट्रीयता पर उसके लागू न होने के तथ्य और तर्क भी पेश किये थे। लेकिन इन पर इन कतिपय कम्युनिस्टों ने कोई जवाब देने की बजाय वही धुन्ध फैलाने की रणनीति अपनायी है, यानी जुमले उछालो (“ये दिल्ली के विद्वानों की बातें हैं”, “ये हिन्दीवालों की बातें हैं”, वग़ैरह) और जवाब दिये बिना भागो।

  1. अपनी नयी पोस्ट में इन कतिपय कम्युनिस्टों ने हमारे ऊपर झूठे आरोपों की (जिनका खण्डन हम पहले भी कर चुके हैं और अगले पैरा में भी कर रहे हैं) बारिश कर भारत के सभी बोलियों के लोगों और (हिन्दी के अलावा) अन्य सभी भाषा के लोगों का आह्वान किया है कि वे उनके एक मातृभाषा सम्मेलन में शामिल होकर हम “दिल्ली के हिन्दीभाषी विद्वानों” को ग़लत सिद्ध कर दें! यह पूरा तर्क लोकरंजकतावाद से ही निकलता है और इससे इनका भाषाई अस्मितावाद भी एकदम निपट नंगा हो जाता है। पहली बात तो यह कि हम दिल्ली के हैं और आप लुधियाना के, इससे हमारे और आपके तर्कों (हालाँकि आपके पास ऐसा कुछ है नहीं जिसे तर्क कहा जा सके) की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर हमारा तर्क ग़लत है, तो हम इस तर्क के समर्थन में सम्मेलन करके 10 लाख लोग भी जुटा लें (जैसा कि लोकरंजकतावादी तर्कों पर तात्कालिक तौर पर अक्सर हो जाया करता है) तो भी हमारा तर्क इससे सही नहीं हो जाता। आप भी यदि सम्मेलन में लाखों लोगों को एक ग़लत तर्क पर इकट्ठा कर लें, तो इससे आपका तर्क सही नहीं हो जाता, बल्कि उस लोकरंजकतावादी तर्क के ख़तरे ही और बढ़ जाते हैं। इस तर्क से तो आज संघी लोगों का तर्क सबसे सही साबित हो जायेगा! जैसाकि एक विद्वान ने कहा था, “अगर दस लाख लोग भी एक ग़लत बात कहें, तो वह ग़लत बात ही होती है।” तर्क ख़त्म हो जाने पर ही लोग भीड़ जुटाने और उसके लिए अस्मितावाद और लोकरंजकतावाद की बैसाखी पकड़ने का काम करते हैं। ये कतिपय कम्युनिस्ट भी ऐसा ही कर रहे हैं।

कुछ परिधिगत प्रश्न भी थे लेकिन उनके जवाबों के लिए आप हमारी पिछली तीन पोस्टों को देख सकते हैं।

अब आते हैं इस बात पर कि हमने क्या नहीं कहा था जो इन कतिपय कम्युनिस्टों ने बार-बार हम पर थोपने की कोशिश की है और अब भी कर रहे हैं, ताकि भ्रम का धुँआ फैलाकर अपनी ग़लत कार्यदिशा पर समर्थन ले सकें। हमने निम्न बातें बार-बार स्पष्ट की हैं :

  1. हम किसी भी क़ौम पर किसी भी भाषा को थोपे जाने के ख़िलाफ़ हैं। हमारा मानना है कि हरेक नागरिक को अपनी मातृभाषा में पढ़ने-लिखने और सभी कामकाज का हक़ होना चाहिए। हम सभी भाषाओं को बराबर मानते हैं और यही माँग भी रखते हैं कि उन्हें हर रूप में समान दर्जा मिलना चाहिए। हम राष्ट्रभाषा और राजकीय भाषा की अवधारणा के ख़िलाफ़ हैं और एक साझा राज्य के तहत रहने वाली समस्त आबादी की हरेक भाषा को बराबरी का दर्जा मिलने की हिमायत करते हैं और आज से नहीं बल्कि इस बहस के शुरू होने से बहुत पहले से कर रहे हैं। इसके दस्तावेज़ी और सोशल मीडिया सम्बन्धी प्रमाण उपलब्ध हैं। इसलिए हम पर हिन्दीवादी होने या हिन्दी को थोपने वाले “विद्वान” का जो आरोप ये कतिपय कम्युनिस्ट लगा रहे हैं, वह वास्तव में पलायन की प्रक्रिया में इनके द्वारा फैलाया जा रहा धुँआ है।
  2. हम मानते हैं कि किसी भाषा को कहीं बाध्यतापूर्ण नहीं बनाया जाना चाहिए बल्कि हर राज्य में सभी नागरिकों के समक्ष अपनी भाषा में पढ़ने-लिखने व समस्त कामकाज का विकल्प होना चाहिए। हमने यह भी पहले ही कहा है कि यही कम्युनिस्टों के लिए सही राजनीतिक माँग है और यह न तो अव्यावहारिक है और न ही असम्भव है। यह सोवियत संघ में काफ़ी हद तक हो गया था और आज तो यूरोपीय संघ के कुछ बहुभाषी पूँजीवादी राज्यों में भी यह विकल्प उपलब्ध है। ऐसे में हम हिन्दी को कहीं भी किसी के लिए भी बाध्यताकारी बनाने के ख़िलाफ़ हैं और हम पंजाब में केवल पंजाबी भाषा में ही शिक्षण-प्रशिक्षण व सरकारी कामकाज की माँग और पंजाबी की “सरदारी” को स्थापित करने के भी उतना ही ख़िलाफ़ हैं।
  3. हम यह नहीं मानते हैं कि किसी मानकीकृत भाषा के विकास के साथ उसकी बोलियों और उपभाषाओं को ख़त्म हो जाना चाहिए या वे ख़त्म हो जाती हैं। वास्तव में, ऐतिहासिक तौर पर बोलियाँ हमेशा ही भाषा के साथ अस्तित्वमान रही हैं। घरों के भीतर और आम अनौपचारिक संवाद में उनका इस्तेमाल होता रहा है और फिर भी वैज्ञानिक शोध, चिन्तन, शिक्षण-प्रशिक्षण हेतु भाषा आवश्यक होती है क्योंकि बिना लेक्सिकन के मानकीकरण, व्याकरणि‍क संरचना तथा कर्ता-कारक-क्रिया क्रम के मानकीकरण के, वैज्ञानिक शोध, चिन्तन, शिक्षण-प्रशिक्षण हेतु किसी बोली का प्रयोग हो ही नहीं सकता है। जब किसी बोली का ऐसा मानकीकरण और वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक अमूर्तन होता है, साथ ही, इस प्रक्रिया में और इसके लिए ही वह अन्य बोलियों से भी लेक्सिकन, व्याकरणिक ढाँचे और कर्ता-कारक-क्रिया क्रम के मामले में ग्रहण भी करती है, तब तो वह भाषा का ही स्वरूप ले लेती है। इसके बारे में हमने पिछली पोस्ट में विस्तार से लिखा है, जिज्ञासु पाठक जो कि इस अस्मितावाद और लोकरंजकतावाद में बहे नहीं हैं, वे उन्हें देख सकते हैं।

मातृभाषा पर सम्मेलन करना, उसके विकास की माँग उठाना, उसमें पढ़ने और सभी कामकाज की माँग उठाना बिल्कुल सही है, बशर्ते कि इसके पीछे उपरोक्त ग़लत कार्यदिशा, यानी भाषाई अस्मितावाद और लोकरंजकतावाद की और बिग नेशन शॉविनिज़्म और राष्ट्रवादी विचलन की सोच न हो। हर नागरिक के अपने मातृभाषा में लिखने-पढ़ने व समस्त सरकारी कामकाज के लिए लड़ना कम्युनिस्टों की क्लासिक माँग रही है। लेकिन जब इसे राज्यसत्ता द्वारा भाषा को थोपे जाने का विरोध बनाने की बजाय आम तौर पर किसी या किन्हीं भाषाओं का विरोध बना दिया जाता है, जब इसे अपनी भाषा की “सरदारी” स्थापित करने की राजनीति बना दिया जाता है, जब इसे किसी भी विशिष्ट भाषा या भाषाओं के अस्तित्व को ही नकारने का माध्यम बना दिया जाता है (जैसे कि बोलियों और भाषा के रिश्ते के प्रश्न पर हमारे कतिपय कम्युनिस्ट कर रहे हैं) तब यह एक प्रतिक्रियावादी लोकरंजकतावाद और भाषाई अस्मितावाद का रूप ले लेती है। इस मसले पर सही राजनीति और अस्मितावादी लोकरंजक राजनीति के बीच की विभाजक रेखा इतनी भी बारीक नहीं है, लेकिन अहं, पूर्वाग्रह और अपने प्रतिक्रियावादी ग़ैर-सर्वहारा एण्टी-इण्टेलेक्चुअलिज़्म में हमारे कतिपय कम्युनिस्ट इस रेखा को देख नहीं पा रहे हैं।

अन्त में, हम सभी सोचने-समझने वाले कॉमरेडों से फिर से अपील करेंगे : साथियो, इस प्रकार के भाषाई अस्मितावाद और लोकरंजकतावाद में बहना आत्मघाती होगा। दूरगामी तौर पर यह आन्दोलन के लिए भी ख़तरनाक होगा। यह जनता में बँटवारा पैदा करेगा और इसका लाभ पूँजीवादी दल ही उठायेंगे। इस प्रकार के अस्मितावाद की हिमायत विभिन्न भाषाओं के (हिन्दी समेत) बौद्धिक जगत में उत्तर-आधुनिकतावादी करते हैं। मिसाल के तौर पर, भोजपुरी के बौद्धिक जगत में कुछ बेहद पतित और दलाल क़िस्म के उत्तरआधुनिक बुद्धिजीवी भाषाई अस्मितावाद का झण्डा बुलन्द किये हुए हैं। उनका भी मानना है कि हर बोली को ही भाषा बनाया जाना चाहिए! यह एक प्रतिक्रियावादी, प्रतिगामी और अनैतिहासिक सोच है। उत्तरआधुनिक विमर्श में भी बोलियों और वर्नैक्युलर्स तथा दूसरी ओर भाषा के बीच एक कृत्रिम विरोध खड़ा करने का प्रयास किया जाता रहा है। किसी एक भाषा को आधुनिक राज्यसत्ता के दमन का उपकरण बताया जाता है और बोलियों, जार्गन, वर्नैक्युलर, उपभाषाओं को इस दमन के प्रतिरोध की ‘साइट’ या ‘लोकेशन’! यह एक टिपिकल उत्तरआधुनिकतावादी तर्क है। जिन्होंने भी मार्क्सवाद द्वारा की गयी उत्तरआधुनिकतावाद की आलोचना को पढ़ा है, वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं। किसी भी राज्यसत्ता द्वारा किसी भाषा को थोपे जाने का विरोध करना एक बात है। लेकिन इसे किसी भाषा के विरोध में तब्दील कर देना मूलतः भाषाई अस्मितावाद का तर्क है जिसकी जड़ें उत्तरआधुनिकतावाद में हैं। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट न सिर्फ़ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में इसकी मुख़ालफ़त करते रहे हैं और सही ही करते रहे हैं। हमारे कतिपय कम्युनिस्टों में चूंकि एक तर्कणा-विरोधी ग़ैर-सर्वहारा एण्टी-इण्टेलेक्चुअलिज़्म पैठा हुआ है और वे “विद्वत्ता-विरोध” के नाम पर किसी तर्क, किसी वैज्ञानिक बात, किसी तथ्य को सुनना नहीं चाहते, इसलिए वह इन बातों से सम्भवतः वाक़िफ़ नहीं हैं। इसीलिए वह अनजाने ही एक ख़तरनाक भंवर में फँसते जा रहे हैं। ऐसे में, हम सभी सोचने वाले कॉमरेडों से यही अपील करते हैं कि वे इस भयंकर आत्मघाती कार्यदिशा से बचें। ऐसा अस्मितावाद और लोकरंजकतावाद क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में भस्मासुर के समान होता है। यह बाद में कार्यदिशा को क्रमिक प्रक्रिया में, चोर-दरवाज़े से दुरुस्त करने का प्रयास करने का (जैसा कि इन कतिपय कम्युनिस्टों की “हमारे मुँह में बातें डाल दी गयीं” जैसी बातें करने और यह न बताने कि कौन-सी बातें डाल दी गयीं, से पता चलता है) मौक़ा नहीं देता है। इस ग़लत सोच की अपनी गति होती है और वह किसी के पूर्ण नियंत्रण में नहीं रहती है।

हम समझते हैं कि हरेक व्यक्ति ऐसी ख़तरनाक कार्यदिशा के प्रभाव में नहीं आ जायेगा। हम यह भी उम्मीद करते हैं कि जो अभी प्रतिक्रिया और पूर्वाग्रह के कारण इस ग़लत कार्यदिशा के प्रभाव में हैं, वे भी ठण्डे दिमाग़ से सोचेंगे और इस कार्यदिशा के आसन्न विनाशकारी नतीजों को हक़ीक़त में तब्दील होने से रोकेंगे।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020

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