‘महापंजाब’ का आइडिया और राष्ट्रीय प्रश्न पर मार्क्सवादी अवस्थिति : आरज़ी तौर पर विचारार्थ कुछ बातें
इन्दरजीत
रमेश खटकड़
अजय स्वामी
(16 सितम्बर 2019, ‘आह्वान’ के फ़ेसबुक पेज की पोस्ट जो कि ‘ललकार’ के फ़ेसबुक पेज द्वारा महापंजाब के रूमानी यूटोपिया को लेकर रुदन करने वाली वीडियो को शेयर करने की आलोचना के रूप में डाली गयी थी – सम्पादक)
पंजाब में खालिस्तानी पृथकतावाद की लहर को पीछे छूटे हुए एक लम्बा अर्सा बीत चुका है। उस समय खालिस्तानियों को पंजाबी राष्ट्रीय बुर्जुआ का प्रतिनिधि मानकर समर्थन करने वाली एक छोटी-सी क्रान्तिकारी वाम धारा भी थी जिसे विलुप्त होना ही था और वह हो चुकी है। यह बात अजीब नहीं लगती कि अभी भी यहाँ-वहाँ से बीच-बीच में खालिस्तानी पृथकतावाद जैसी आवाज़ें सुनाई पड़ जाती हैं। अजीब बात यह है कि क्रान्तिकारी वाम धारा में भी कभी-कभार पंजाबी ‘बिगनेशन शॉविनिज़्म’ का हैंगओवर अभी भी सिर उठाता रहता है। जैसे अचानक बीच-बीच में यहाँ-वहाँ से कुछ ऐसी आहें और कराहें सुनाई देने लगती हैं कि पिछले 70 वर्षों के दौरान हमारा “गौरवशाली महापंजाब” कितने टुकड़ों में बँट गया और अब हम कितने छोटे से पंजाब में गुज़ारा करने के लिए मजबूर कर दिये गये हैं।
पहली बात 1947 में पंजाब का जो विभाजन हुआ वह देश विभाजन की पूरी राजनीति का एक पार्ट था। और हम पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास के उस दौर में भारतीय बुर्जुआ वर्ग और उपनिवेशवादियों के बीच हुई दुरभिसन्धि के सारे परिणामों को अलग से पलट नहीं सकते और इस सवाल को महज़ पंजाबी राष्ट्र के साथ हुए अन्याय के रूप में अलग-थलग करके देखना भी एक अनैतिहासिक नज़रिया होगा। भारत में भाषाई आधार पर राज्यों का जो गठन था वह अलग-अलग राष्ट्रों एवं राष्ट्रीयताओं की आकांक्षाओं को शान्त करने की एक अधूरी और विरूपित कोशिश थी। दरअसल, भारत सच्चे अर्थों में एक संघात्मक राज्य होने की जगह अन्तरवस्तु की दृष्टि से एक एकात्मक राज्य ही है। लेकिन यह एक सर्वथा दीगर सवाल है। मूल प्रश्न यह है कि क्या आज इतिहास के चक्के को उल्टा घुमाकर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश को पंजाब में मिलाकर फिर से एक महापंजाब बनाये जाने की आकांक्षा इस पूरे इलाक़े की (न सिर्फ़ हरियाणा और हिमाचल की बल्कि पंजाब की भी) व्यापक मेहनतकश आबादी की कोई आकांक्षा और माँग है? क्या हरियाणा और हिमाचल की व्यापक जनता की पंजाबीभाषी जनता से अलग कोई पहचान बनती है या नहीं? क्या यह सच नहीं है कि हरियाणा और हिमाचल की हिन्दीभाषी जनता कई उपराष्ट्रीयताओं, जातीय उपराष्ट्रीयताओं और भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों का समुच्चय है? क्या इन दो राज्यों की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी कथित रूप से प्रस्तावित महापंजाब में शामिल होने की भावना या आकांक्षा रखती है? सबसे बड़ा सवाल तो यह बनता है कि अगर पंजाब की (और हमें ध्यान रखना होगा कि पंजाब में कार्यरत मेहनतकश आबादी का बड़ा हिस्सा ग़ैर-पंजाबी है चाहे वह खेतों की बात हो या कारख़ानों की) व्यापक मेहनतकश आबादी के बहुलांश की आज यह कोई माँग या आकांक्षा ही नहीं है तो इस मुद्दे को उठाना गड़े मुर्दे को उखाड़ना नहीं है? इतिहास के पन्ने पलटकर देखिए, अतीत में तो यूरोप के बहुतेरे राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के साथ भी कई भीषण अन्याय हुए थे, (पंजाब के साथ ऐसी कोई बात नहीं है) तो क्या अतीत में पीछे जाकर उन ऐतिहासिक ग़लतियों को ठीक किया जा सकता है? यह तो मार्क्सवादी समझ का एक प्रहसन है।
संक्षेप में, यहाँ पर हम राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के प्रश्न पर मार्क्सवादी अवस्थिति के कुछ कुंजीभूत बिन्दुओं को भी अति-संक्षेप में रख दे रहे हैं। लेनिन ने स्तालिन द्वारा राष्ट्रीय प्रश्न पर लिखी रचना को पूर्ण अनुमोदन दिया था और कहा था कि “इस शानदार जॉर्जियाई” द्वारा लिखित पुस्तिका को सभी के द्वारा पढ़ा जाना चाहिए। स्तालिन ने इस रचना में ‘राष्ट्र’ को इन शब्दों में परिभाषित किया है : “एक राष्ट्र एक साझा संस्कृति में अभिव्यक्त होने वाली साझा भाषा, साझे परिक्षेत्र, साझे आर्थिक जीवन और साझी मनोवैज्ञानिक बनावट के आधार पर ऐतिहासिक रूप से संघटित होने वाला जनता का एक स्थायी समुदाय है।
“कहने की आवश्यकता नहीं है कि हर ऐतिहासिक परिघटना के समान राष्ट्र भी परिवर्तन के नियमों के अधीन है, इसका एक इतिहास होता है, इसका एक आरम्भ और अन्त होता है।
“इस बात पर बल दिया जाना अनिवार्य है कि उपरोक्त में से किसी एक चारित्रिक अभिलाक्षणिकता के ज़रिये राष्ट्र को परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसके अलावा अगर उपरोक्त में से एक भी चारित्रिक अभिलाक्षणिकता न हो तो राष्ट्र राष्ट्र नहीं रह जाता…
“जब ये सारी अभिलाक्षणिकताएँ एक साथ मौजूद हों तभी हम कह सकते हैं कि हमारे समक्ष एक राष्ट्र है।” (‘मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न’, जे.वी. स्तालिन)
इसी रचना में स्तालिन यह भी स्पष्ट करते हैं कि दमित राष्ट्रीयता का प्रश्न अविभाज्य रूप से भूमि प्रश्न और औपनिवेशिक प्रश्न से जुड़ा हुआ है। कोई राष्ट्र दमित है या नहीं यह सिर्फ़ इस बात से तय नहीं होता कि सांस्कृतिक या भाषाई तौर पर वह पीछे छूट गया या उसके साथ भाषाई अन्याय हो रहा है क्योंकि ऐसा कई अन्य ऐतिहासिक परिस्थितियों में भी हो सकता है और होता रहा है। मिसाल के तौर पर, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक समेकन के कारण, आर्थिक आदान-प्रदान और श्रम और पूँजी की आवाजाही के कारण विशिष्ट ढाँचागत और ऐतिहासिक सन्दर्भ में कोई एक भाषा स्वतः ही सामाजिक अन्तर्क्रिया का चुना हुआ माध्यम बन जाती है। इसके लिए किसी राज्यसत्ता द्वारा किसी भाषा को थोपे जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। निश्चित तौर पर, राज्यसत्ता द्वारा किसी भाषा को किसी राष्ट्रीयता पर थोपे जाने का पुरज़ोर विरोध किया जाना चाहिए और शिक्षण-प्रशिक्षण व अन्य अन्तर्क्रियाओं के माध्यम के तौर पर मातृभाषा के प्रयोग के अधिकार के लिए हरसम्भव रूप में लड़ा जाना चाहिए। लेकिन लेनिन ने यह भी बताया है कि यदि कोई भाषा आर्थिक विकास की नैसर्गिक प्रक्रिया में स्वतः ही, राज्यसत्ता के दबाव के बिना ही, चुनी हुई सम्पर्क भाषा बन जाये तो इस गति का विरोध करना भी व्यर्थ और अनैतिहासिक है। इसलिए जैसा कि स्तालिन ने कहा, उपरोक्त पाँचों अभिलाक्षणिकताओं की मौजूदगी के आधार पर ही किसी समुदाय को राष्ट्र का दर्जा दिया जा सकता है और असमाधित भूमि प्रश्न और औपनिवेशिक दमन के आधार पर ही किसी दमित राष्ट्रीयता की सही-सही पहचान की जा सकती है, हालाँकि यह भूमि आधारित व औपनिवेशिक दमन अपने आपको अन्य रूपों को भी अभिव्यक्त करता ही है। क्या इन पैमानों पर महापंजाब का आइडिया एक प्रतिगामी क़िस्म की रूमानियत नहीं है?
यदि इन पैमानों पर राष्ट्रीय दमन मौजूद है और विभाजन उस राष्ट्रीय दमन का परिणाम है तो बेशक किसी महापंजाब के विचार पर सोचा जा सकता है। स्तालिन ने उपरोक्त रचना में ही उदाहरण दिया है कि जॉर्जिया में रूस विरोधी भावना की बजाय आर्मेनिया विरोधी भावना मौजूद है क्योंकि जॉर्जिया में भूस्वामी वर्ग आर्मेनियाई है। क्या इसी रूप में पंजाब के राष्ट्रीय दमन की कल्पना की जा सकती है? इन पैमानों पर विश्लेषण करें तो उल्टे ही नतीजे सामने आयेंगे! यही बात हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली और यहाँ तक कि उत्तराखण्ड और उत्तरप्रदेश के तराई क्षेत्र में भूस्वामित्व और व्यापार में पंजाबी वर्चस्व के बारे में भी कही जा सकती है। स्तालिन उपरोक्त पुस्तिका में यह भी स्पष्ट करते हैं कि ऐसे राष्ट्रीय दमन की अनुपस्थिति में राष्ट्रीय आन्दोलन केवल बुर्जुआ वर्ग की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व कर सकता है। तो प्रश्न यह उठता है कि क्या किसी महापंजाब की माँग की पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश के सर्वहारा वर्ग, ग़रीब किसान वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के बीच कोई अनुगूँज है? और यदि नहीं है तो क्या यह मसला सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की वर्ग एकजुटता को तोड़ेगा नहीं?
इन पैमानों के आधार पर महापंजाब के आइडिया पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। हम समझते हैं कि बेहद ज़रूरी है कि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी राष्ट्रीय प्रश्न पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी लेखन का गहराई से अध्ययन करें और पंजाब के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार के राष्ट्रीय प्रतिगामी नॉस्टैल्जिया से मुक्त हों। भारत के मेहनतकश और भारत के क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन जिन जलते हुए सवालों के रूबरू आज खड़े हैं उन्हें देखते हुए हमें तो यह नितान्त अवान्तर प्रसंग लगता है। इस प्रश्न पर और गहन सैद्धान्तिक अध्ययन और पंजाब, हिमाचल, हरियाणा की ठोस परिस्थितियों और इतिहास के अध्ययन के आधार पर हम विस्तार से फिर अपनी बातें रखेंगे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!