भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों के नये द्रविड़ प्राणायाम
सम्पादक मण्डल, 8 फ़रवरी 2020
हमने 3 फ़रवरी को एक पोस्ट डालकर भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों के साथ चली बहस के विषय में एक याददिहानी पोस्ट डाली थी कि इसमें किस पक्ष की क्या अवस्थिति थी। क्योंकि हमारे द्वारा रखी गयी आलोचना के बाद अस्मितावाद के शिकार साथी अपनी मूल अवस्थितियों को क्रमशः प्रक्रिया में बदलते हुए गोलपोस्ट शिफ़्ट कर रहे थे। इस पोस्ट में उठाये गये सवालों का ठोस जवाब देने की बजाय हमारे भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावाद के विचलन के शिकार साथियों ने एक पोस्ट डालकर दावा किया है कि हम भाषाई दमन का विरोध नहीं करते हैं, हम दमित क़ौमों की हिमायत नहीं करते हैं। इसमें पंजाब को “दिल्ली के शासकों” द्वारा दबायी गयी दमित क़ौम बताया है। इसमें से पहली दो बातें, यानी कि हम भाषाई दमन का विरोध नहीं करते और हम दमित क़ौमों के संघर्षों की हिमायत नहीं करते हैं, सरासर ग़लत और बेशर्म क़िस्म का हताशा में बोला गया झूठ है। ये अभी तक बहस को फ़ॉलो करने वाले सभी साथियों को अच्छी तरह से पता है। हमने पहले भी ‘आह्वान’ पर एक पोस्ट डालकर (4 नवम्बर की हमारी पोस्ट ‘हमारी बातों के मुख्य बिन्दु’ देखें) बताया था कि हम क्या कह रहे हैं और क्या नहीं। भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार हमारे ये साथी अपनी इस नयी पोस्ट में बस ठोस सवालों का ठोस जवाब देने से बचने का एक दयनीय प्रयास कर रहे हैं। अब इस पर आते हैं कि हमारे इन अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों ने नयी ग़लतियाँ क्या की हैं।
‘प्रतिबद्ध’ पत्रिका के फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल से हमारे अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों ने एक नयी पोस्ट डाली है, जिसमें किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया है और फिर से अपने क़ौमी जज़्बात जगाने वाले कुछ कथन डाल दिये हैं और साथ ही हम पर संघी प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद के पक्ष में खड़े होने का आरोप लगा दिया है। लेकिन यह दयनीय प्रयास करते हुए भाषाई व राष्ट्रीय विचलन के शिकार हमारे दोस्त फिर से कुछ ग़लतियाँ कर बैठे हैं। इसमें कहा गया है कि “दिल्ली के शासक” पंजाब की दमित राष्ट्रीयता को भाषाई दमन और “राजधानी छीनकर” राष्ट्रीय दमन का शिकार बना रहे हैं। इसके कई नतीजे निकलते हैं और उससे कई सवाल निकलते हैं जिनका जवाब देने से अस्मितावादी विचलन के शिकार हमारे साथी शुरू से ही कतरा रहे हैं। पहला नतीजा यह है कि यदि पंजाब एक दमित क़ौम है, तो उसके सामने स्पष्ट कार्यभार है राष्ट्रीय मुक्ति का और इसलिए वहाँ क्रान्ति की मंज़िल राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की मंज़िल बनती है। दूसरा नतीजा यह है कि यह राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति एक दमनकारी राष्ट्र के पूँजीपति वर्ग के विरोध में होगी। अब सवाल यह उठता है कि यह प्रभुत्वशील (dominant) या दमनकारी (oppressor) क़ौम कौन है? दूसरे शब्दों में, क्या “दिल्ली के शासक” किसी विशिष्ट क़ौम की बुर्जुआज़ी हैं? अगर नहीं हैं तो इन “दिल्ली के शासकों” में क्या कई क़ौमों की बुर्जुआज़ी की नुमाइन्दगी है? यदि हाँ, तो ये “दिल्ली के शासक” किन क़ौमों की बुर्जुआज़ी की नुमाइन्दगी करते हैं? क्या इनमें पंजाबी क़ौम की बुर्जुआज़ी को भी नुमाइन्दगी हासिल है? अगर नहीं, तब तो स्पष्ट तौर पर क़ौमी दमन का मसला है और क्रान्ति का कार्यक्रम स्पष्ट तौर पर राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का बनता है।
दूसरी बात, पंजाब के लोगों में और सिरसा और (अस्मितावाद के शिकार साथियों के अनुसार) फतेहाबाद, जीन्द, हिसार आदि की जनता में इन ज़िलों को पंजाब में शामिल कर लिये जाने के लिए यदि कोई स्पष्ट माँग है तो हमारे भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों को इस पर एक आन्दोलन की शुरुआत करनी चाहिए। हम कई महीनों से इसका इन्तज़ार कर रहे हैं, लेकिन यह आन्दोलन शुरू ही नहीं हो रहा है! उसी प्रकार, यदि चण्डीगढ़ को पंजाब में शामिल करने के लिए जनता के बीच माँग है, तो इन्हें चण्डीगढ़ और पंजाब में इसके लिए भी एक आन्दोलन खड़ा करना चाहिए। इसका भी हमारा इन्तज़ार लम्बा हो गया है! लेकिन इस पर साफ़ कहा जाता है कि ‘हम तो बस यह बात बोलेंगे, इस पर कोई आन्दोलन नहीं खड़ा करेंगे’। अजीब बात है! अगर यह जनता की जायज़ माँग है, तो सिर्फ़ बोलना ही क्यों, इस पर एक जनान्दोलन क्यों नहीं खड़ा किया जाना चाहिए? ये दोनों ही माँगें क्यों ग़ैर-माँगें हैं और सर्वहारा नज़रिये से इन्हें उठाने की कोई प्रासंगिकता क्यों नहीं बनती है, इस पर हमारे तर्कों को जानने के लिए हमारे 3 फ़रवरी को शेयर किये गये नोट को पढ़ें, हम वे सारे तर्क यहाँ सौवीं बार दुहरायेंगे नहीं, जिनका अभी तक अस्मितावादी विचलन के शिकार हमारे साथियों ने कोई जवाब नहीं दिया है।
तीसरी बात, हमारे अस्मितावादी विचलन के शिकार दोस्त क़ौमी दमन का मतलब ही नहीं समझते हैं। उन्हें लगता है कि केवल भाषाई दमन को क़ौमी दमन कहा जा सकता है। स्तालिन ने स्पष्ट बताया है कि भाषाई दमन क़ौमी दमन का केवल एक तत्व है और यह अपने आप में क़ौमी दमन नहीं माना जा सकता है और इसी वजह से जहाँ सिर्फ़ यह पहलू मौजूद है, वहाँ पर कोई राष्ट्रीय आन्दोलन खड़ा नहीं हो पाता और वह बस साइनबोर्डों की भाषा के तुच्छ झगड़ों में तब्दील होकर रह जाता है (जैसा कि पंजाब का राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ रखने वाला एक भूतपूर्व गैंगस्टर कर भी रहा है और उसका ‘ललकार’ के भाषाई अस्मितावाद के शिकार साथी समर्थन भी कर रहे हैं!)। अन्य कारकों की मौजूदगी के साथ भाषाई दमन राष्ट्रीय दमन हो सकता है, या नहीं हो सकता है। इन अन्य कारकों में बुनियादी है किसान प्रश्न और साम्राज्यवादी औपनिवेशिकीकरण का प्रश्न। स्तालिन बोहेमिया का उदाहरण देकर इस बात को समझाते हैं। हम यहाँ कुछ उद्धरण पेश कर रहे हैं, क्योंकि हमारे भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावाद के विचलन के शिकार साथी कॉमरेड लेनिन और कॉमरेड स्तालिन के कुछ उद्धरण बिना किसी सन्दर्भ के और सन्दर्भों से काटकर पेश करते हैं, ताकि अपनी उल्टी-सीधी अवस्थितियों को अपने उन क़रीबियों के समक्ष सिद्ध कर सकें, जिनमें उनकी अस्मितावादी अवस्थिति को लेकर कुछ संशय, कुछ सवाल पैदा हो चुके हैं। निम्नलिखित उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जायेगा कि राष्ट्रीय दमन क्या है, उसमें भाषाई दमन का क्या स्थान है, वग़ैरह।
निम्न उद्धरणों में स्तालिन बताते हैं कि राष्ट्रीय आन्दोलन का सारतत्व क्या होता है और राष्ट्रीय दमन किसे कहते हैं :
“सटीक तौर पर कहें तो संघर्ष पूरे के पूरे राष्ट्रों के बीच नहीं शुरू होता है, बल्कि प्रभुत्वशील देशों के शासक वर्ग और उन देशों के शासक वर्गों के बीच शुरू होता है जो कि पृष्ठभूमि में धकेल दिये गये हैं। यह संघर्ष आम तौर पर दमित राष्ट्रों के निम्न-पूँजीपति वर्ग और प्रभुत्वशाली राष्ट्रों के बड़े पूँजीपति वर्ग (चेक व जर्मन), या दमित राष्ट्रों के ग्रामीण पूँजीपति वर्ग और प्रभुत्वशाली राष्ट्रों के भूस्वामी वर्ग (पोलैण्ड में यूक्रेनी) के बीच होता है, या फिर दमित राष्ट्रों के समूचे ‘राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग’ और प्रभुत्वशाली राष्ट्रों के शासक कुलीन सामन्त वर्ग के बीच होता है (रूस में पोलैण्ड, लिथुआनिया और यूक्रेन)।” (Stalin, 1998, Marxism and the National Question, Selected Works, Volume 2, New Horizon Book Trust, Kolkata, p. 259)
आगे भी देखें :
“हर रूप में दबाया गया दमित राष्ट्र का पूँजीपति वर्ग नैसर्गिक तौर पर आन्दोलन में कूद पड़ता है। यह अपने ‘देशी लोगों’ से अपीलें करता है और ‘पितृभूमि’ के बारे में शोर मचाना शुरू कर देता है; यह दावा करते हुए कि उसका लक्ष्य ही पूरे राष्ट्र का लक्ष्य है। यह अपने ‘देशवासियों’ के बीच से…‘पितृभूमि’ के हितों में एक सेना खड़ी करता है। ‘लोग’ भी हमेशा उसकी अपीलों का जवाब न दें ऐसा नहीं होता; वे भी उसके झण्डे तले एकत्र होते हैं : ऊपर से दमन उन्हें भी प्रभावित करता है और उनके असन्तोष को भी बढ़ावा देता है।
“इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन शुरू होता है।
“राष्ट्रीय आन्दोलन की शक्ति इस बात से निर्धारित होती है कि राष्ट्र के व्यापक हिस्से, यानी कि मज़दूर और किसान वर्ग, किस हद तक इसमें हिस्सेदारी करते हैं।
“सर्वहारा वर्ग पूँजीवादी राष्ट्रवाद के झण्डे तले जाता है या नहीं यह वर्ग अन्तरविरोधों के विकास की मंज़िल पर, सर्वहारा वर्ग की वर्ग चेतना और उसके संगठन की मंज़िल पर निर्भर करता है। वर्ग-सचेत सर्वहारा का अपना परखा हुआ झण्डा है, और उसे पूँजीपति वर्ग के झण्डे तले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
“जहाँ तक किसानों का प्रश्न है, तो राष्ट्रीय आन्दोलन में उनकी भागीदारी प्राथमिकतः दमनों के चरित्र पर निर्भर करती है। अगर दमन ‘ज़मीन’ को प्रभावित करते हैं, जैसा कि आयरलैण्ड में था, तो किसानों के व्यापक जनसमुदाय तत्काल राष्ट्रीय आन्दोलन के झण्डे तले गोलबन्द हो जाते हैं।” (ibid, p. 260)
और देखें :
“लेकिन, दूसरी ओर, मिसाल के तौर पर, जॉर्जिया में अगर कोई रूसी-विरोधी राष्ट्रवाद नहीं है तो इसका प्रमुख कारण यह है कि वहाँ कोई रूसी ज़मीन्दार वर्ग या रूसी बड़ा पूँजीपति वर्ग नहीं है जो कि जनसमुदायों के बीच इस राष्ट्रवाद को हवा दे सके। जॉर्जिया में, एक आर्मेनियाई-विरोधी राष्ट्रवाद है; लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि अभी भी वहाँ एक आर्मेनियाई बड़ा पूँजीपति वर्ग है, जो छोटे और अभी भी सशक्त नहीं बने जॉर्जियाई पूँजीपति वर्ग पर अपनी वरीयता स्थापित करके उसे आर्मेनियाई-विरोधी राष्ट्रवाद की ओर धकेलता है।
“इन कारकों के आधार पर, राष्ट्रीय आन्दोलन या तो एक जन चरित्र अपनाता है और तेज़ी से बढ़ता है (जैसा कि आयरलैण्ड और गैलीशिया में हुआ) या फिर तुच्छ टकरावों में बदल जाता है, जो कि जल्द ही साइनबोर्डों को लेकर लड़ाइयों और ‘झगड़ों’ में बदल जाता है (जैसा कि बोहेमिया के छोटे शहरों में हुआ)” [कहना होगा कि ऐसा भारत में भी कुछ राज्यों में हुआ है, जैसा कि पंजाब में एक भूतपूर्व गैंगस्टर द्वारा साइनबोर्डों से हिन्दी मिटाने की मुहिम में देखा जा सकता है, हालाँकि कुछ राष्ट्रीय व भाषाई अस्मितावाद के शिकार “मार्क्सवादी” भी इसे “राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति” मानते हैं! – लेखक] (वही, p. 260-61)
यह है राष्ट्रीय प्रश्न का सारतत्व। यदि यह मौजूद नहीं है तो भी भाषाई दमन हो सकता है, सांस्कृतिक दमन हो सकता है, लेकिन वह अपने आप में राष्ट्रीय दमन नहीं बन सकता है। स्तालिन ने बार-बार और अन्य स्थानों पर भी इस बात की याददिहानी की है कि किसान प्रश्न के बग़ैर राष्ट्रीय प्रश्न का कोई बुनियादी तत्व नहीं बचता है। किसान प्रश्न भी अपने आप में राष्ट्रीय प्रश्न नहीं है, लेकिन यह उसकी अन्तर्वस्तु का बुनियादी तत्व है। यदि यह प्रश्न हल है, तो फिर एक ही सूरत में राष्ट्रीय मुक्ति का कार्यभार तात्कालिक तौर पर प्रधान अन्तरविरोध बनता है : औपनिवेशिकीकरण, यानी किसी अन्य देश द्वारा क़ब्ज़ा। किसान प्रश्न मूलतः राष्ट्रीय प्रश्न का सारतत्व है, इसे स्तालिन निम्न उद्धरण में स्पष्ट कर देते हैं :
“यह ग़लती उसे (सेमिच को) एक और ग़लती की ओर ले जाती है, यानी इस बात से उसका इन्कार करना कि राष्ट्रीय प्रश्न अपने सार में वस्तुतः किसान प्रश्न ही है। कृषि प्रश्न नहीं बल्कि किसान प्रश्न क्योंकि ये दोनों अलग चीज़ें हैं। यह बिल्कुल सही है कि किसान प्रश्न ही हूबहू राष्ट्रीय प्रश्न नहीं हैं, क्योंकि, किसान प्रश्न के साथ-साथ राष्ट्रीय संस्कृति, राष्ट्रीय राज्य आदि के प्रश्न जुड़े होते हैं। लेकिन यह भी सन्देह से परे हैं, कि अन्ततः, किसान प्रश्न राष्ट्रीय प्रश्न का आधार, उसका सारतत्व है। यही इस तथ्य को व्याख्यायित भी करता है कि किसान ही राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य सेना होते हैं, िक बिना किसान सेना के न तो राष्ट्रीय आन्दोलन होता है और न ही हो सकता है।” (स्तालिन, 1954, ‘यूगोस्लाविया में राष्ट्रीय प्रश्न के विषय में’, फ़ॉरेन लैंगुएजेज़ प्रेस, मॉस्को)
जहाँ तक प्रश्न है कि किसी भी राष्ट्रीयता की अपनी भाषा को विशिष्ट दर्जा दिये जाने की माँग उठाने का, तो हमारे भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी स्वयं यह माँग उठाते हैं क्योंकि उनका मानना है कि पंजाब में शिक्षण-प्रशिक्षण और सरकारी कामकाज की भाषा सिर्फ़ पंजाबी होनी चाहिए और रोज़गार के लिए पंजाबी को पूर्वशर्त बनाया जाना चाहिए। हमने 3 फ़रवरी की पोस्ट में दिखलाया था कि पंजाब सरकार की नौकरियों के लिए यह शर्त पहले से मौजूद है। और केन्द्रीय सरकार की नौकरियों और निजी नौकरियों के लिए ऐसी माँग करना प्रतिक्रियावादी है और सर्वहारा वर्ग का ऐसी माँग के साथ कोई रिश्ता नहीं हो सकता है। पंजाब में केन्द्रीय सरकार के नौकरियों की परीक्षा पंजाबी में होने के साथ प्रमुख सम्पर्क भाषाओं, यानी हिन्दी व अंग्रेज़ी में भी होनी चाहिए। आइए यह भी देख लेते हैं कि राष्ट्रीयताओं द्वारा अपनी भाषा को विशिष्ट दर्जा देने की माँग के बारे में स्तालिन के क्या विचार हैं। यहाँ स्तालिन यहूदियों के बारे में बात करते हुए स्पष्ट करते हैं कि वे तमाम देशों में राष्ट्रीय अल्पसंख्या हैं और बुण्ड ने उनके लिए भाषा के तौर पर यिडिश भाषा को विशेष दर्जा देने, आदि की माँग की थी। देखें स्तालिन इस पर क्या कहते हैं :
“सामाजिक-जनवाद सभी राष्ट्रों के अपनी भाषा का इस्तेमाल करने के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए संघर्ष करती है। लेकिन बुण्ड के लिए यह पर्याप्त नहीं है; वह माँग करता है कि ‘यहूदी भाषा के अधिकारों’ की ‘अपवादस्वरूप दृढ़ता’ से वकालत की जानी चाहिए, और बुण्ड ने चौथी दूमा के िलए चुनावों में स्पष्ट रूप से ख़ुद ही घोषण की कि वह ‘उन लोगों को प्राथमिकता देगा जो िक यहूदी भाषा के अधिकारों की रक्षा की शपथ लेंगे’
“यानी अपनी भाषा का इस्तेमाल करने के सभी राष्ट्रों के आम हक़ नहीं, बल्कि यहूदी भाषा यिडिश के विशेष अधिकार की बात! सभी राष्ट्रीयताओं के मज़दूरों को प्राथमिक तौर पर अपनी-अपनी भाषा के लिए लड़ने दो : यहूदी लोग यहूदी भाषा के लिए, जॉर्जियाई जॉर्जियाई के लिए, आदि। सभी राष्ट्रों के आम अधिकारों के लिए संघर्ष गौण मुद्दा है…
“लेकिन फिर बुण्ड बुर्जुआ राष्ट्रावादियों से किन अर्थों में भिन्न है?” (वही, p. 288)
क्या हमारे भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावाद के शिकार साथियों पर ठीक यही बात लागू नहीं होती? वे भी पंजाब में प्रवासियों को पंजाबी सिखाए जाने की हिमायत करते हैं (चाहे वे ऐसा चाहें या न चाहें, क्योंकि सीखनी तो उन्हें पड़ेगी ही अगर पंजाबी भाषा पंजाब में रोज़गार की पूर्वशर्त होगी!) लेकिन हर राष्ट्रीयता के मेहनतकशों को हर स्थान पर उनकी भाषा में शिक्षण-प्रशिक्षण, सरकारी कामकाज और रोज़गार के हक़ की हिमायत नहीं करते हैं। जबकि लेनिनवादी अवस्थिति यह है कि सही जनवादी माँग यह है कि हर राष्ट्रीयता के मेहनतकश को उसकी भाषा में पढ़ने-लिखने व काम करने का अवसर प्राप्त हो। यदि वह किसी अन्य भाषाभाषी क्षेत्र में है, तो भी वहाँ की भाषा सीखना या न सीखना उसकी इच्छा का मसला है। लेनिन ने ख़ुद ही बताया था कि इसे बाध्यताकारी क़तई नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि जब सामाजिक और आर्थिक अन्तर्क्रिया इसे अनिवार्य कर देगी तो वह स्वयं ही बिना किसी दबाव के उस नयी भाषा को सीखेगा।
हमारे भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावाद के विचलन के शिकार साथी सीएए-एनआरसी पर अपनी फ़ेसबुक पोस्ट ( https://www.facebook.com/lalkaar.mag/photos/a.1795834380445290/3157822760913105/ ) में असम में एनआरसी के मुद्दे पर गोलमोल अवस्थिति लेते हुए वहाँ पर “शरणार्थियों की समस्या”, असमियों के राष्ट्रीय हितों के ख़तरे में पड़ जाने, मूलनिवासी असमियों के अल्पसंख्यक हो जाने और संसाधनों का संकट आ जाने की बात करते हैं। वे शरणार्थियों और प्रवासियों के प्रवाह के कारण असमिया भाषा और राष्ट्रीय संस्कृति के ख़तरे में पड़ जाने की बात करते हैं। वह इस पर साफ़ नहीं बताते कि असम में एनआरसी (यदि वह बिल्कुल भ्रष्टाचार के बिना और “सही” तरीक़े से हो तो!) सही है या नहीं! असुविधाजनक प्रश्नों से मुँह चुराकर भागने का यह एक तरीक़ा है। सच यह है कि मार्क्सवादी दृष्टिकोण से विदेशी-मूलनिवासी, फ़ॉरेनर, एलियन तत्व जैसी चीज़ों का कोई मतलब नहीं है। दुनिया भर के मार्क्सवादी मानते हैं कि जो भी व्यक्ति किसी समाज में रहता है और अपनी मेहनत से उसमें समृद्धि का सृजन करता है, वह विदेशी या एलियन नहीं है। यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया जैसे पूँजीवादी देश में व्हिटलम की उदारवादी सरकार ने ‘ओपेन डोर पॉलिसी’ की बात की थी और कहा था कि ऑस्ट्रेलिया के तट पर उतरने वाले किसी भी व्यक्ति को सरकार वापस नहीं भेज सकती। आज राष्ट्रवाद के उभार के साथ ऑस्ट्रेलिया अपनी उस पुरानी मानवतावादी नीति को छोड़ रहा है। दूसरी बात, मार्क्सवादी मानते हैं और जानते हैं कि संसाधनों का संकट पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता से पैदा होता है, न कि शरणार्थियों के कारण। शरणार्थी आम तौर पर मेहनतकश अवाम का हिस्सा होते हैं और वे समृद्धि पैदा करते हैं, परजीवी वर्गों के समान उसे सिर्फ़ खाते नहीं हैं। असम में भी बंगाली, बिहारी, उड़िया प्रवासी समृद्धि को परजीवियों के समान खाने वाले वर्ग नहीं हैं, बल्कि समृद्धि को पैदा करने वाले और कुदरती संसाधनों का उत्पादक उपयोग और संरक्षण करने वाले लोग हैं। तीसरी बात, मार्क्सवादी प्रवासियों के कारण राष्ट्रीय संस्कृति और भाषा के ख़तरे में पड़ जाने या मूलनिवासियों के अल्पसंख्या बन जाने को लेकर पेट दर्द नहीं पैदा करते हैं। यहाँ तक कि ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के उन तमाम नेताओं को भी आज यह बात समझ में आ गयी है कि असम आन्दोलन में एनआरसी की माँग करके और शरणार्थी-विरोधी व प्रवासी-विरोधी राजनीति को हवा देकर उन्होंने एक भारी भूल की थी और अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारी थी। लेकिन राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन की दुनिया के हमारे नवागंतुकों को यह बात समझ में नहीं आ रही है। फ़र्ज़ करें कि पुरानी दिल्ली के मूल बाशिन्दे भी कहें कि 1947 में विभाजन के बाद पंजाब से और उसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि से आये प्रवासियों के कारण वे अपने ही सूबे में अल्पसंख्या हो गये और ग़ैर-दिल्लीवासियों की लिस्ट बनाकर उन्हें बाहर किया जाये, तो क्या इस माँग का कोई तुक होगा? बेहद स्पष्ट है कि सर्वहारा दृष्टिकोण से मूलनिवासी राजनीति और उनकी विशिष्ट संस्कृति की रक्षा की राष्ट्रवादी पुकार का कोई तुक नहीं बनता है, उल्टे यह प्रतिक्रियावादी मानी जायेगी। ऐसी बात अल्जीरियाई, ट्यूनीशियाई व अन्य उत्तर-अफ़्रीकी शरणार्थियों के लिए फ़्रांसीसी लोग भी कह सकते हैं और फ़्रांस के प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवादी कह भी रहे हैं। आइए मूल निवासियों की राष्ट्रीय सांस्कृतिक विशिष्टता की हिफ़ाज़त को लेकर परेशान लोगों के बारे में भी लेनिन और स्तालिन के विचार जान लेते हैं। लेनिन लिखते हैं :
“सामाजिक-जनवाद के दृष्टिकोण से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय संस्कृति का नारा क़तई नहीं दिया जा सकता है। यह नारा ग़लत है क्योंकि पूँजीवाद के अन्तर्गत पहले ही समस्त आर्थिक, राजनीतिक और आत्मिक जीवन अधिक से अधिक अन्तरराष्ट्रीय बनता जा रहा है। समाजवाद इसे पूर्ण रूप से अन्तरराष्ट्रीय बना देगा। अन्तरराष्ट्रीय संस्कृति, जो कि अब पहले ही सभी देशों के सर्वहारा वर्ग द्वारा व्यवस्थित रूप से रची जा रही है, ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ को पूरी तरह से अपनाती नहीं है (चाहे वह किसी भी राष्ट्रीय समूह की हो), बल्कि हरेक राष्ट्रीय संस्कृति से केवल उन तत्वों को स्वीकार करती है जो कि निरन्तरतापूर्ण रूप में जनवादी और सामाजिक हैं।” (लेनिन, ‘थीसीज़ ऑन नेशनल क्वेश्चन’)
इसी प्रकार स्तालिन कहते हैं :
“और यह किसी भी प्रकार से कोई संयोग नहीं है कि ऑस्ट्रियाई सामाजिक-जनवादियों के राष्ट्रीय कार्यक्रम में ‘विभिन्न जनताओं की राष्ट्रीय विशिष्टताओं का संरक्षण और विकास’ के प्रति चिन्ता शामिल है। ज़रा सोचिए : ट्रांसकॉकेशियाई तातारों शाख्सेई-वाख्सेई त्योहार में आत्मपीड़न की ‘राष्ट्रीय विशिष्टता’ का ‘संरक्षण’ करना; या जॉर्जियाई लोगों की वंश-बैर जैसी ‘राष्ट्रीय विशिष्टता’ को विकसित करना…
“इस चरित्र की माँग का किसी सीधे-सीधे बुर्जुआ राष्ट्रवादी कार्यक्रम में ही स्थान हो सकता है।” (स्तालिन, वही, पृ. 279)
पूँजीवादी विकास नैसर्गिक गति से (जिसमें कि प्रवास का कारक भी शामिल है) राष्ट्रीयताओं के बीच की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय विशिष्टताओं की दीवारों को गिराता है। मार्क्सवादी मानते हैं कि यह राष्ट्रीय संस्कृति के लिए घातक नहीं होता है, बल्कि सभी राष्ट्रीय संस्कृतियों को समृद्ध बनाता है। साथ ही, यह मज़दूरों की अन्तरराष्ट्रीयतावादी संस्कृति के निर्माण में भी एक कारक होता है, जो कहीं ऊपर से या बाहर से नहीं आती, बल्कि हर राष्ट्रीय संस्कृति में मौजूद प्रगतिशील तत्वों का एक वैज्ञानिक व ऐतिहासिक अमूर्तन और सामान्यीकरण ही होती है।
हमारे भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी लेनिन के एक उद्धरण को सन्दर्भों से काटकर यह साबित करना चाहते हैं कि मार्क्सवादियों व लेनिनवादियों को दमित राष्ट्रीयताओं के भीतर मौजूद राष्ट्रवाद का विरोध नहीं करना चाहिए। आइए इस पर भी अपना विचार साफ़ कर लेते हैं। इन्होंने एक उद्धरण ‘प्रतिबद्ध’ की फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल से डाला है जिसमें लेनिन कहते हैं कि दमित क़ौमों के क़ौमवाद के हाथों में खेलने के डर से लोग दमनकारी राष्ट्रों के बुर्जुआ और प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद के हाथों में खेलने लगते हैं। पहली बात तो यह कि लेनिन के इस उद्धरण को सन्दर्भों से काटकर पेश किया गया है, जिसे आगे हम पूरा पेश करेंगे ताकि सभी पाठकों को पता चल जाये कि यहाँ लेनिन क्या कह रहे हैं। दूसरी बात, हमारे अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी यह नहीं बताते कि यह लेनिन किसके ख़िलाफ़ लिख रहे हैं? लेनिन यह उन लोगों के ख़िलाफ़ लिख रहे हैं जो कि राष्ट्रों के अलग होने समेत आत्मनिर्णय के अधिकार की मुख़ालफ़त कर रहे थे, जैसे कि सेमकोव्स्की। यहाँ लेनिन यह नहीं कह रहे हैं कि दमित क़ौमों के भीतर मौजूद बुर्जुआ क़ौमवाद के ख़िलाफ़ कम्युनिस्टों को नहीं लड़ना चाहिए, बल्कि केवल सेमकोव्स्की की इस दलील का खण्डन कर रहे हैं कि आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करना ही दमित राष्ट्र के बुर्जुआ राष्ट्रवाद का समर्थन करना है, लेकिन लेनिन यह भी कहते हैं कि दमित क़ौमों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करते हुए भी उनके बीच मौजूद बुर्जुआ राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ हमें सतत् संघर्ष करना चाहिए और उसे बेनक़ाब करना चाहिए। अगर हमारे भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावाद के विचलन के शिकार साथी गूगल से कोट ढूँढ़ कर अपनी बात को सही साबित करने की बजाय लेनिन की वह पूरी रचना पढ़ते जिससे उन्होंने उद्धरण छापा है, तो उन्हें ख़ुद ही समझ आ जाता। हम आपके सामने यह पूरा उद्धरण पेश कर देते हैं, सन्दर्भ के साथ :
“श्रीमान सेमोव्स्की हमें भरोसा दिलाते हैं कि आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता देना ‘बहुत ही कुशल क़िस्म के बुर्जुआ राष्ट्रवाद के हाथों में खेलना है।’ (‘प्रतिबद्ध’ पत्रिका ने जानबूझकर उद्धरण का बस इतना ही हिस्सा पेश किया है क्योंकि इससे आगे लेनिन जो कहते हैं वह उनकी अवस्थिति का ही खण्डन करता है – सम्पादक) यह बचकाने क़िस्म की बकवास है क्योंकि इस अधिकार को मान्यता देने का यह अर्थ नहीं है कि अलगाव या बुर्जुआ राष्ट्रवाद के विरुद्ध प्रचार और उद्वेलन नहीं किया जायेगा। लेकिन यह विवादेतर है कि अलग होने के अधिकार से इन्कार करना सबसे कुशल क़िस्म के प्रतिक्रियावादी महारूसी राष्ट्रवाद के ‘हाथों में खेलने’ के समान होगा!
“यही रोज़ा लक्ज़ेम्बर्ग की दिलचस्प ग़लती का सार है जिसकी वजह से लम्बे समय तक जर्मन और रूसी (अगस्त 1903) सामाजिक-जनवादियों द्वारा उनकी खिल्ली उड़ायी गयी; दमित राष्ट्रों के बुर्जुआ राष्ट्रवाद के हाथों में खेलने के डर से, लोग केवल बुर्जुआ नहीं बल्कि दमनकारी राष्ट्रों के प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद के हाथों में खेल बैठते हैं।” (‘प्रतिबद्ध’ पत्रिका ने जानबूझकर उद्धरण का बस इतना ही हिस्सा पेश किया है क्योंकि इसके पिछले पैराग्राफ़ में लेनिन जो कहते हैं वह उनकी अवस्थिति का ही खण्डन करता है। – सम्पादक) (Lenin, 1977, ‘The National Program of the RSDLP’, Collected Works, Progress Publishers, Moscow)
या तो हमारे भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार दोस्त ठीक से पढ़ते नहीं हैं, या यदि वे ठीक से पढ़ते हैं, तो उन्होंने लेनिन को जानबूझकर मिसरिप्रज़ेण्ट किया है, जो कि अपने आप में एक बौद्धिक बेईमानी का काम है। जो भी है, इतना स्पष्ट है कि लेनिन दमित क़ौमों के बीच मौजूद बुर्जुआ राष्ट्रवाद के भी उतने ही विरोधी थे, जितने कि वे किसी भी प्रकार के बुर्जुआ राष्ट्रवाद के। दूसरी बात, लेनिन राष्ट्रवाद की हिमायत नहीं करते हैं बल्कि राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष की हिमायत करते हैं। राष्ट्रवाद बुर्जुआ विचारधारा ही होती है। लेनिन दमित राष्ट्रीयताओं की राष्ट्रीय बुर्जुआज़ी को भी एक बाशर्त समर्थन देने की वकालत करते हैं, जिस हद तक उसकी राजनीतिक अन्तर्वस्तु जनवादी (यानी कि साम्राज्यवाद-विरोधी, औपनिवेशीकरण-विरोधी और सामन्तवाद-विरोधी) होती है। लेनिन इस बात को निम्न उद्धरण में स्पष्ट कर देते हैं :
“इसलिए यह बुर्जुआ वर्ग की व्यावहारिकता के ख़िलाफ़ जाता है कि सर्वहारा वर्ग राष्ट्रीय प्रश्न पर अपने सिद्धान्तों को विकसित करें; वे हमेशा बुर्जुआ वर्ग को केवल बाशर्त समर्थन देते हैं…
“जिस हद तक दमित राष्ट्र का बुर्जुआ वर्ग दमन करने वाले के विरुद्ध संघर्ष करता है, हम हमेशा, और हर मामले में, किसी से भी ज़्यादा मज़बूती से, इसके समर्थन में होते हैं, क्योंकि हम दमन के सबसे तीव्र और सबसे निरन्तरतापूर्ण शत्रु हैं। लेकिन जिस हद तक दमित राष्ट्र का पूँजीपति वर्ग स्वयं अपने बुर्जुआ राष्ट्रवाद के लिए खड़ा होता है, हम उसके विरोध में होते हैं…
“किसी भी दमित राष्ट्र के बुर्जुआ राष्ट्रवाद में एक सामान्य जनवादी अन्तर्वस्तु होती है जो दमन के ख़िलाफ़ निर्देशित होती है, और इस अन्तर्वस्तु का हम बिना शर्त, समर्थन करते हैं। लेकिन साथ ही हम इसे राष्ट्रीय विशिष्टता/बहिष्करण की प्रवृत्ति से अलग करते हैं; हम पोलिश बुर्जुआ वर्ग की यहूदियों को दबाने की प्रवृत्ति के विरुद्ध संघर्ष करते हैं, आदि, आदि।” (Lenin, 1977, ‘The Right of Nations to Self-Determination’, Selected Works, Volume-1, Progress Publishers, Moscow)
लेनिन ने यहाँ अपनी अवस्थिति सन्देह से परे कर दी है। हम दमित क़ौमों के राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं हैं, बल्कि उनके राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के समर्थक हैं और जिस हद तक बुर्जुआ राष्ट्रवादी इस संघर्ष में साथ होते हैं, हम उन्हें साथ लेते हैं और इससे परे क़तई नहीं। उनकी राष्ट्रवादी विचारधारा से हमारा कोई मेल नहीं है, बल्कि दमन के विरुद्ध संघर्ष में उनके साथ बाशर्त मोर्चा हो सकता है। आख़िरी पैराग्राफ़ में लेनिन ने यह भी बताया है कि यदि कोई राष्ट्रीयता दमित है तो उसकी बुर्जुआज़ी के राष्ट्रवाद में निरपवाद रूप से एक सामान्य जनवादी अन्तर्वस्तु भी होगी, जिसका हम समर्थन करते हैं। यह भी बताता है कि यदि कोई राष्ट्रीयता वाक़ई दमित है, तो महज़ उसके मेहनतकश अवाम का ही दमन नहीं होता है, बल्कि उसके पूँजीपति वर्ग का भी दमन होता है। अब यदि पंजाबी राष्ट्रीयता दमित राष्ट्रीयता है तो ‘ललकार’ के साथियों को बताना पड़ेगा कि पंजाबी पूँजीपति वर्ग का कौन-सा हिस्सा प्रगतिशील है जिसके राष्ट्रवाद में (नकारात्मक तत्वों के अलावा) एक सामान्य जनवादी अन्तर्वस्तु भी है, जिसका हमें समर्थन करना चाहिए और पंजाब के राष्ट्रीय दमन के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई में उसके साथ मोर्चा बनाना चाहिए! सिर्फ़ इसी पैमाने पर परखने से ‘ललकार’ के साथियों की विचलनग्रस्त और हास्यास्पद अवस्थिति ज़ाहिर हो जाती है।
माओ के विचार भी इस मामले में देखना उपयोगी होगा। माओ का निम्न उद्धरण स्पष्ट कर देता है कि हम मार्क्सवादी हर प्रकार के राष्ट्रवाद का विचारधारात्मक तौर पर विरोध करते हैं। माओ लिखते हैं :
“इस प्रश्न को हल करने की कुंजी है हान अन्धराष्ट्रवाद को दूर करना। साथ ही जहाँ कहीं अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं में स्थानीय-राष्ट्रीय अन्धराष्ट्रवाद (local-nationality chauvinism) मौजूद हो, वहाँ उसे दूर करने के प्रयास भी किये जाने चाहिए। विभिन्न जातियों की एकता के लिए हान अन्धराष्ट्रवाद और स्थानीय-राष्ट्रीय अन्धराष्ट्रवाद, दोनों ही हानिकर होते हैं। यह जनता के बीच का एक अन्तरविरोध है जिसे हल किया जाना चाहिए।” (माओ, ‘जनता के बीच के अन्तरविरोधों को सही ढंग से हल करने के बारे में’)
भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार हमारे ‘ललकार’ व ‘प्रतिबद्ध’ के साथियों ने हम पर आरोप लगाया है कि हम उनके भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन की आलोचना करके आरएसएस के घोर प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद के पक्ष में खड़े हैं। ऐसे हास्यास्पद आरोप का तो जवाब देना भी बेकार है। उन्हें दिखलाना चाहिए कि ऐसा किस प्रकार है। लेकिन जब वे हमारे द्वारा उठाये गये किसी भी ठोस प्रश्न और आलोचना का जवाब देने की बजाय, बस उन साथियों के बीच हमें दमित राष्ट्रीयताओं के संघर्ष के विरोधी और आरएसएस के प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद का हिमायती क़रार देने पर तुले हैं, जिन्हें वे अपनी अवस्थिति पर सहमत करना चाहते हैं, तो फिर इस बात की उम्मीद भी कम ही है कि वे हमारी ठोस आलोचना का कोई ठोस जवाब देंगे। वे बस इन साथियों में क़ौमी जज़्बात को उभाड़कर अपना बचाव करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसके लिए महान शिक्षकों को सन्दर्भों से काटकर पेश करने से लेकर तथ्यात्मक त्रुटियाँ करने तक हर तरकीब अपना रहे हैं। हम सभी संजीदा साथियों से यही अपील करेंगे कि इस पूरी बहस में दोनों पक्षों की अवस्थितियों को ग़ौर से पढ़ें और मार्क्सवादी क्लासिक्स को भी पढ़ें और फिर निर्णय करें।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020
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