गोरखपुर हत्याकाण्ड से आश्वित्ज़* की गंध आती है

लता

*आश्वित्ज़ फासीवादी जर्मनी का एक यातना शिविर था.

नन्हीं सी लड़की
ये मैं हूँ तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक देते
मैं कितने ही दरवाजे गई
लेकिन कोई मुझे देख नहीं सका
क्योंकि मरने के बाद लोग दिखते नहीं।
कुछ महीने पहले
मैं 10 अगस्त  को गोरखपुर में मरी
मुझसे पहले मेरा जुड़वा भाई मरा
मैं और मेरा जुड़वा भाई आज 10 दिन के हैं
मरने के बाद बच्चे बढ़ते नहीं
मेरा भाई साँस नहीं ले पा रहा था
फिर उसे हिचकियाँ आईं
और कुछ देर में वह शांत  हो गया
चंद घण्टों बाद मेरी साँसें अटकी
खून की उल्टियाँ हुई
और फिर मैं भी शान्त हो गई
आस-पास के अन्ये कई बच्चों की तरह
मैं तुम्हारे पास आई हूँ
लेकिन मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए
मरी हुई मैं और दफन मेरा भाई
कुछ खा नहीं सकते
10 दिन के हैं हम
हमें तो पता भी नहीं कि मिठाईयाँ कैसी होती हैं
हाँ चार साल का दीपक और बारह साल की वन्दना
कहते हैं कि बड़ी अच्छी लगती हैं
लेकिन अब वे भी खा नहीं सकते
मैं तुम्हारा दरवाजा खट-खटा रहीं हूँ
यह पूछने के लिए कि
हम क्यों  नहीं जान सके कि मिठाइयाँ क्या होती हैं?
हम क्यों  नहीं भागे तितलियों के पीछे?
दीपक और वन्दना अब क्यों  नहीं खा सकते मिठाई?
और हमारे जैसे हज़ारो-हज़ार यहाँ क्यों  हैं
बस दस दिन के, कुछ महीनों के
चार साल के, या दस या बारह के?
बच्चे तो बड़े होने के लिए होते हैं न ?

(नाजि़म हिकमत की कविता ‘द लिटिल गर्ल’ से प्रेरित)

10 और 11 अगस्त  को बाबा राघव देव मेडिकल कॉलेज अस्पताल के आईसीयू और नवजात बच्चों  के आईसीयू में नन्हें  मासूम बच्चे ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ रहे थे। अस्पताल में अफरा-तफरी का माहौल था। माँ-बाप भाग-भाग कर दवाइयाँ, सूई, ग्लूूकोज़ की बोतलें ला रहे थे और शीशे की दीवार से अपने नन्हें कलेजे के टुकड़ों को दम तोड़ता देख रहे थे। बेहद त्रासद घड़ी थी, चारो ओर रोने बिलखने की आवाजें, तौलिये और चादारों में लिपटी नन्हेंे मासूमों की लाशें, आँसुओं से भीगे माँ-बाप के चेहरे। माँ-बाप और परिवारजन महसूस कर रहे थे या उन्हें  साफ नज़र आ रहा था कि उनके नन्हें बच्चों की मौत की वजह मात्र बीमारी नहीं है। आक्सीजन की लगातार नीचे गिरती सूई जो आक्सीजन के नहीं होने का संकेत दे रही थी। आक्सीजन के बिना गम्भीर रूप से बीमार बच्चों की हालत बद से बदतर होती जा रही थी। परिजनों को समझ आ रहा था कि अचानक इतनी जल्दी-जल्दीे दम दोड़ रहे बच्चे की वजह आक्सीजन की कमी है। चन्द आक्सीजन सिलिण्डर और एम्बू  पम्प  इतने गंभीर रूप से बीमार बच्चों  के लिए पर्याप्त नहीं थे। 48 घण्टों में 30 बच्चे और 3 दिनों में 70 बच्चे हमेशा के लिए सो गए, खामोश हो गए। माँ-बाप परिजन असहाय खड़े देखते रहे क्योंकि उनके पास और कोई दूसरा विकल्प नहीं था। यहॉं इलाज के लिए आने वाली गरीब मेहनतकश आबादी महँगी स्वास्थ्य सुविधाओं को वहन नहीं कर सकती। कोई दिल्ली में मज़दूरी करता है, कोई सिक्युरिटी गार्ड है, कोई रिक्शा चलाता है तो कोई निर्माण मज़दूर है। महीने में 6 से 7 हजार से ज्यादा की कमाई किसी की नहीं। ऐसी मेहनतकश गरीब आबादी मजबूर है अपने लाडलों और प्रियजनों को ऐसे ख़स्ताहाल सरकारी अस्पतालों में ले जाने के लिए जहॉं न सफाई होती है और न दवाई। माता-पिता अपने मृत बच्चों को ले जा रहे थे और उन्हें रोते बिलखते जाता देख कर भी कतार में दूसरे मॉं-बाप अपने बच्चों को लिये खड़े थे। इससे बड़ी त्रासद और असहाय स्थिति और क्या होगी।

पाँच दिनों में हुई 70 मासूमों की मौत के लिए नि:संदेह ऑक्सीजन आपूर्ति को रोक दिया जाना जिम्मेदार था। ऑक्सीजन आपूर्ति करने वाली कम्पनी, पुष्पा सेल्स प्राइवेट लिमि‍टेड का भुगतान अस्पताल ने छ: महीने से नहीं किया था। पिछले छ: महीने में अस्पताल को 13 नोटिस जारी करने के बाद कोई प्रतिक्रिया या भुगतान नहीं मिलने की स्थिति में पुष्पा कम्पनी ने 10 और 11 अगस्त को ऑक्सीजन की आपूर्ति बन्द कर दी। बीआरडी अस्पताल पर कुल बकाया राशि रु. 68,65,702 थी। मुनाफे की हवस में अन्धी कम्पनी से यह उम्मीद करना कि वह संवेदनशीलता का परिचय देते हुए आपूर्ति बन्द नहीं करेगी चूँकि इस अस्पताल में मुख्य रूप से इनसेफलाइटिस और जापानी बुखार से पीडि़त बच्चेे आते हैं और यह साल का वह समय है जब सबसे भारी संख्या‍ में बीमार बच्चे आते हैं, यह कामना चाँद माँगने के समान होगी। कम्पनी ने ऑक्सीजन की आपूर्ति बन्द कर दी और अचानक से शिशुओं की मौत राष्ट्रीय ख़बर बनी। ख़बर आग की तरह फैलने लगी। 11 अगस्त की रात जिला मजिस्ट्रेेट राजीव रौतेला द्वारा ऑक्सीजन की आपूर्ति बन्द हो जाने से अचानक शिशुओं की मृत्यु की संख्या में वृद्धि की पुष्टि के बावजूद योगी ने अपनी अपनी असंवेदनशीलता का परचम लहराते 13 अगस्त की प्रेस कॉफ्रेंस में बच्चोंं की मृत्यु के लिए जिम्मेदार बीमारियों की पूरी सूची पढ़ डाली। लेकिन योगी आदित्यतनाथ ने एक बार भी ऑक्सीजन की आपूर्ति में हुई कमी को स्वीकार नहीं किया। स्वीकार करना तो बड़ी बात हो जाती उन्होंने तो एक बार इसका जिक्र भी नहीं किया। अभिभावकों के आक्रोश, जन प्रदर्शनों और मीडिया के दबाव में आ कर दबी जुबान में आपूर्ति की कमी को योगी महराज ने स्वीकार किया और फिर दहाड़ कर कहा कि दोषियों को ऐसी सज़ा मिलेगी कि दूसरे ऐसा कुछ करने के पहले सोचेंगे। 27 से 29 अगस्त के बीच एक बार फिर 42 बच्चों़ की मौत हुई और जब लोग सरकार को कटघरे में खड़ा करने लगे, इसके बाद 30 अगस्त आदित्यनाथ ने कहा ”मुझे तो ये भी कभी-कभी लगता है कि कहीं ऐसा ना हो, लोग अपने बच्चे, जैसी ही दो साल के हों, सरकार के भरोसे छोड़ दें, कि सरकार उनका पालन पोषण करें।” इस किस्म के बयान दिखाते हैं कि आश्वित्ज़ को अंजाम देने वाले लोगों की मानसिकता कैसी थी। इन आदमखोर भेड़िये को समझाया नहीं जा सकता है केवल ख़त्म किया जा सकता है। पिछले 6 महीने में अब तक बीरआरडी अस्पताल में 1,317 बच्चों  की जाने जा चुकी हैं और इस बीच योगी स्वयं दो बार बीआरडी अस्पताल का निरीक्षण कर चुका है। योगी 1998 से लगातार सांसद चुना गया है और हर चुनावी भाषण में बच्चों की मौतों को मुद्दा बनाता था। अस्पताल में मात्र ऑक्सीजन की आपूर्ति को लेकर दिक्कत नहीं है, अस्पताल में न दवा है, न सूई है यहॉं तक की रूई और पट्टी तक नहीं है। सफाई की जो हालत है वह किसी से छुपी नहीं। आईसीयू और नवजात बच्चों के आईसीयू में अपनी क्षमता से हमेशा 10 गुना ज्यादा बच्चे रहते हैं। नवजात शिशुओं को जिस वार्मर पर रखा जाता है उसे चार-चार बच्चे  साझा करते हैं जबकि संक्रमण से सुरक्षा के लिए एक वार्मर पर एक ही शिशु होना चाहिए। अस्पताल प्रशासन माता-पिता से यह प्रपत्र भरवाते हैं कि वे वार्मर को साझा करने की अनुमति दे रहे हैं और इसकी वजह से हुए किसी भी प्रकार के संक्रमण के लिए अस्पताल जिम्मेदार नहीं है। ये समस्यायें अक्सर स्थानीय अखबारों में छपती रहती हैं।

योगी आदित्यनाथ ने एक अन्य भाषण में बच्चों की मौत पर बयान देते हुए यह भी कहते हैं कि बच्चों की मौत के लिए जनता खुद जिम्मेदार है। इसके अनुसार जनता की गंदगी, खुले में शौच और व्यक्तिगत सफाई बच्चों की मौत जिम्मेदार है। स्वास्थ्य, सफाई, नौकरी, पढ़ाई जब सब की जिम्मेदारी जनता स्वयं उठा लेगी तो सवाल उठता है कि आखिर मादी जी और योगी जी सरकार चलाने की जिम्मेदारी अपने पास क्यों रखे हैं?

मात्र 68 लाख रुपये की कमी और 72 मासूमों की जाने चली गईं। रोते-बिलखते मॉं-बाप कभी अपने जिगर के टुकड़ों की किलकारी नहीं सुन पायेगें, उनकी हँसी, उनके बेतुके सवाल, उनकी तोतली बोली, उनकी शरारतें सब दफ्न हो गईं और एक शून्य के साथ खाली हाथ वे लौटे अपने घर। लोगों में आक्रोश भी था, दो-तीन दिनों से चुप-चाप ये अपने नन्हें मासूमों को तड़पते मरता देख रहे थे लेकिन उनकी मौत के बाद चुप नहीं रहें। उन्होंने मृत्यु प्रमाण पत्र और पोस्टमार्टम की माँग की, लेकिन कुछ लोगों को आनन-फानन में मृत्यु प्रमाण पत्र थमा दिये गये, बाकियों को तो यह भी हासिल नहीं हुआ।

बयान-बाजि़यों, कभी इस पर कभी उस पर जिम्मेदारी मढ़ने के बाद भी निहायत बेशर्म फासीवादी योगी आदित्यनाथ यहाँ भी अपने हिन्दुतत्ववादी एजेन्डे को लागू करने से बाज़ नहीं आया। बली के बकरे की तरह डॉ. खलील को ढूँढ़ निकाला गया। वह डॉक्टर जो अभी अस्पताल का स्थाई डॉक्टर भी नहीं है, जिसने अपने पैसे और प्रयास से बच्चों की जान बचाने की पूरी कोशिश की उसे ऑक्सीजन सिलेन्डर का चोर और भ्रष्ट करार कर दिया गया और पूरे मामले का ठीकरा इसके सिर फोड़ दिया गया। सात लोगों के खि़लाफ गिरफ्तारी का वारन्ट निकला, लेकिन डॉ. खलील की गिरफ्तारी को सबसे ज्यादा सनसनीखेज बनाया गया। मुसलमानों को ‘अन्य’ बना कर जिस कदर समाज में उनके खिलाफ जहर और शक पैदा किया जाता है यह उसी का एक और उदाहरण है। डॉ. खलील तो घटना के बाद से लापता थे, फिर 27 और 29 तारीख के बीच एक बार फिर 48 बच्चों की जाने कैसे चली गयी। अब कौन से डॉ. खलील या डॉ. खान को ढूँढ़ कर लाये योगी सरकार। बली का बकरा ढूँढ़ने की भी तकनीक मोदी और हिन्दुत्ववादी फासीवादी सरकार जर्मनी से सीख रही है। नाज़ी पार्टी और हिटलर भी ऐसे ही यहूदी वैज्ञानिकों और डॉक्टरों को बली का बकरा बनाते थे।

देश के प्रधान सेवक माननीय नरेन्द मोदी जी बिना चूक दुनिया भर के नेताओं को पूरी तत्परता से जन्म दिन की बधाइयाँ भेजा करते हैं, वह 72 मासूमों की मौत पर चुप थे। वो चुप रहते हैं जब भी ग़रीब मेहनतकश आबादी मरती है, मज़दूर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं, जब दलितों पर अत्याचार होता है, छात्रों पर लाठी चार्ज होता है, विश्वविद्यालयों में सीट-कट होता है, छात्रवृति ख़त्म होती है, गौरी लंकेश, कलबुर्गी, पानसरे या शाहिद आजमी को मौत के घाट उतार दिया जात है या सीवर में घुट कर भारत को स्वच्छ रखने वाले मरते हैं तो वो चुप रहते हैं क्योंकि उनके लिए आम जनता भेड़-बकरियों से ज्यादा कुछ नहीं होती और भारत के फासीवादियों के लिए तो वह उनसे भी गई गुज़री है, यहॉं तो गाय के नाम पर सैकड़ों जान गई और न जाने कितनी ली जाएँगी। 72 बच्चोंं की मौत के बाद योगी के इस्तीफे की मॉंग पर अमित शाह ने जनता के प्रति अपनी निश्छल सेवा भाव और संवेदनशीलता का प्रदर्शन करते हुए कहा कि भारत जैसे विशाल देश में ऐसी घटनायें होती रहीं हैं, कांग्रेस के कार्यकाल में भी हुई थी इसलिये आदित्यननाथ से इस्तीफा माँगना गैर-वाजिब है। निश्चित ही देश में रेल हादसे होते रहेगें, अस्पतालों में दवा इलाज के बिना जनता मरती रहेगी, बाढ़ में बहती रहेगी, भूस्खलन में दबती रहेगी। एक सौ पच्चीस करोड़ की आबादी वाले देश में हजार-दो हज़ार की छोटी-मोटी संख्या में लोगों की जान जाना कोई बड़ी बात नहीं है और इसके लिए सरकार, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या विभागीय मंत्रियों की जिम्मेदारी कहाँ से बन जाती है? परन्तु अमीरजादों के बच्चों पर चोट लगने पर ये सारे नेता मंत्री देश में आपातकाल लागू कर देते हैं।

1978 से इन्सेफलाइटिस और बाद में जापानी बुखार हर साल मानसून से लेकर नवम्बर महीने तक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और नेपाल में सैंकड़ों मासूमों की जान लेता है। 1998 से योगी आदित्यदनाथ गोरखपुर क्षेत्र के लगातार सांसद रहे हैं। उन्होंने जनता के प्रति अपनी जिम्मेरदारी का परिचय देते हुए 2003 से लेकर 2014 तक कम से कम 12 बार संसद में गोरखपुर में इन्सेफलाइटिस और जापानी बुखार से मरने वाले बच्चों की स्थिति और खस्ता स्वास्थ्य सुविधाओं पर घड़ियाली आँसू बहाए। लेकिन 2014 में केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद उन्होंने एक बार भी इस विषय पर कोई चर्चा नहीं की है। यह बात इतर है कि बच्चों की मौत में कोई कमी नहीं हुई बल्कि और वृद्धि ही हुई है। 2013 में 516 मौतें, 2014 में 661: 2015 में 221, 2016 में 694, और 16 जुलाई तक 2017 में 88 और इनमें 72 मौतों और जुड़ गई। अब तक कुल मौतें 1371 हैं। यदि मौतों में कमी की जगह वृद्धि हुई है तो योगी 2014 के बाद चुप क्यों हैं? अब 2017 से तो केंद्र और राज्य दोनों में इनकी ही सरकारें है, फिर भी बीआरडी अस्पाताल की हालत उतनी ही खस्ता, व्यवस्था उतनी ही लचर और जनता उतनी ही बेहाल क्यों है? जो व्यवस्था अपनी पूरी जीडीपी का मात्र 5 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करती हो उससे और कितनी बेहतर सुविधा की उम्मीद की जा सकती है?

बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्राध्यापक ने 14 फरवरी 2016 को चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाओं के डायरेक्टर जनरल को इन्सेनफलाइटिस के मरीजों के उपचार के लिए तत्काल 37.99 करोड़ रुपये की राशि की माँग की थी। डायरेक्टर जनरल ने यह पत्र राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) को इस आवेदन के साथ आगे भेज दिया कि बीमारी की रोकथाम तत्काल शुरू करने के लिए तुरन्त भुगतान जरूरी है। लेकिन इस पत्र पर कोई सुनवाई नहीं हुई और अब जब कि केंद्र और राज्य दोनों जगह बीजेपी की ही सरकार है, ये दोनों सरकारें मिल कर भी 37.99 करोड़ की राशि जुटा नहीं पाई। यह राशि किस प्रकार जुट पाती जब एक दिन के योग दिवस के आयोजन पर 2016 में 32 करोड़ और 2017 में 22 करोड़ की राशि खर्च कर दी गई! राज्य में योगी और केन्द्र में मोदी इस बात से कैसे मुकर सकते हैं कि मात्र 68 लाख रुपये का बकाया 6 महीने से था, बात पाँच या दस दिन की नहीं थी। मोदी सरकार ने अपने शासन का पहला साल पूरा होने पर 55 करोड़ रुपये केवल सरकार के प्रचार में खर्च किये जिसमें अकेले योग दिवस की तैयारी में 32 करोड़ लगे। इस वर्ष योग दिवस पर 22 करोड़ खर्च किये गये (जिसमें अभी अलग, अलग राज्यों में खर्च किये पैसे नहीं जुड़े है, यह बस आयुश मंत्रालय का खर्च है) और अब तक इस साल मोदी सरकार के प्रचार का बजट 1,100 करोड़ रुपये हैं। ऐसी सरकार किस मुँह से मात्र 68 लाख रुपये का भुगतान नहीं कर पाने की कोई न्यायसंगत वजह बता सकेगी? 1,100 करोड़ मात्र प्रचार का बजट के बराबर गोरखपुर में 48 महीनों में बनने वाले नये एम्स अस्पताल का बजट है! इनकी फिजूल खर्ची में बहे पैसे से कितने अस्पताल, कितने स्कूल और कॉलेज बनाये जा सकते हैं। बात इतनी है कि तमाम सरकारों की तरह यह सरकार भी जनता की दुश्मन है। परन्तु ये फासीवादी इन मौतों पर खड़े होकर सौदेबाजी और ढोंग कर सकते हैं। इनके मुँह से आश्वित्ज़ के हत्यारों की गंध आती है।

बीआरडी कॉलेज में प्रति वर्ष 2500 से 3000 इन्सेफलाइटिस के मरीज आते हैं, स्थानीय आबादी के अलावा बस्ती, आज़मगढ़, बिहार और नेपाल से मरीज भी आते हैं। 1978 से अब तक इस बीमारी से मरने वालों की गिनती की जाये, जिनमें से 90 प्रतिशत बच्चेे और नवजात शिशु हैं, तो सरकारी आँकड़ों के हिसाब से इनकी संख्या 36,000 से ऊपर जाएगी और गैर-सरकारी स्रोतों के मुताबिक संख्या 50,000 को पार कर जाएगी। जिला मजिस्ट्रेट राजीव रताले की बात मानी जाए तो इस मौसम में प्रति दिन 20 मौत ‘सामान्य’ है। इन्सेइफलाइटिस और जापानी बुखार हर साल नियम से आने वाली महामारी है, जो किसी भी रूप में अकस्माक श्रेणी में नहीं डाली जा सकती। इन मासूमों की मौत जान बूझ कर मानवता के विरुद्ध किया गया अपराध है। जिस व्यवस्था ने हर रोज 20 शिशुओं की मौत को सामान्य बना दिया हो उसे कूड़ेदान में फेंक देने की ज़रूरत नहीं है?

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जनवरी-फरवरी 2018

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