पाठक मंच
हमारी कैसी आज़ादी?
गुरदास सिधानी
बिच्छुओं के डंक,
साँपों ने अपनी कुण्डलिया छोड़ दी
तो बिच्छुओं ने कुर्सी को आ घेरा
फर्क क्या रहा
साँप भी डसते थे
डंक बिछुओं ने भी मारने
शुरू कर दिए
साँपों ने अपना जहर उगला
बिच्छुओं ने भी नहीं हटाई नजरें उस पर से
कि कहीं खो न जाये
मिट्टी में
बिच्छुओं ने सींचा उसे
और उग आया वह
जमीं पर
लाशों के रूप में
खून के रूप में
हवसों के रूप में
मातमों के रूप में
चीखों के रूप में
प्यास के रूप में
और प्यास भी ऐसी
जो बुझी
अपनों के ही खून से
बिच्छुओं ने मनाये जश्न
साँपों को बिल छोड़ने पर
लोगों के खून से
खेली होलियाँ
बिच्छुओं ने
अल्लाह और राम ने भी उठा लिए खंजर
और हो गया अलग कतरा-कतरा खून
जो सदियों से एक ही प्रवाह में बह रहा था
अल्लाह-राम को बाँट दिया
आज उन्ही के बीच आ गयी कँटीली तारें
पश्चिम में अल्लाह
पूर्व में राम
ले आए अस्तित्व में बिच्छु
पाक और हिन्द
और मनाये जश्न बिच्छुओं ने
मासूमों के खून से
नाजायज सम्बन्ध
फिर कुएँ में लाशें
जिन स्तनों से दूध बहना था
बहा खून वही छातियों से
बही खून की नदियाँ
खूब लगाई डुबकियाँ बिच्छुओं ने
आज भी मौज है
बिच्छुओं की
आज भी मारते हैं डंक
और बनते हैं शरीफ
और बनाते हैं उल्लू
हमारा खून बहा
नदियाँ भी हमारे ही खून की
चीखें भी हमारी
रैड क्लिफ भी हमारे ही दिलों पर
कुर्सी बिच्छुओं के पास
आज़ादी भी उनकी ही
हमारी कैसी आज़ादी
रूह कँपकापती है
आज भी
47 के नाम से!!
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