ऐसे पढ़ेगा इण्डिया, ऐसे बढ़ेगा इण्डिया?

लखविंदर

गरीब बच्चों की एक अच्छी-खासी संख्या स्कूल नहीं जा पाती। जो स्कूल जाते भी हैं उनमें से बड़ी संख्या सरकारी स्कूलों से ही शिक्षा ले पाने में सक्षम है। छोटे-बड़े निजी स्कूलों की ऊँची फीसें और अन्य खर्चे पूरा कर पाना सरकारी स्कूलों के इन बच्चों के परिजनों के बस की बात नहीं। सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 5 दिसम्बर 2016 को लोक सभा में पेश आँकड़ों में सरकारी स्कूलों की बुरी हालत के बारे में कुछ तथ्य सामने आये हैं। भारत के प्राइमरी व ऐलीमेण्ट्री स्तर के स्कूलों में बड़े स्तर पर अध्यापकों के पद खाली पड़े हैं। सरकारें इन पोस्टों को भरने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैं। सरकारी स्कूलों की ओर यह रवैया सरकारों की सब को शिक्षा देने की कोशिशों की झूठी बातों का भाण्डा फोड़ रहा है।

देश स्तर पर अध्यापकों की प्राइमरी स्कूलों में 8 प्रतिशत और एलीमेन्ट्री स्कूलों में 15 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं। इसे दूसरे शब्दों में कहना हो तो भारत में हर छः अध्यापकों के पीछे एक पद खाली पड़ा है। भारत के कुल 26 करोड़ स्कूली बच्चों में से 14.3 करोड़ बच्चे (55 प्रतिशत) सरकारी स्कूलों में जाते हैं। सरकारी स्कूलों के इतनी बड़ी संख्या छात्रों को अध्यापकों की कमी के चलते पढ़ाई का बड़ा नुकसान झेलना पड़ रहा है।

ऐलीमेण्टरी स्कूलों में इस समय अध्यापकों के  9 लाख पद और प्राइमरी स्कूलों में एक लाख पद खाली पड़े हैं। झारखण्ड की हालत सबसे बुरी है। यहाँ तो 70 प्रतिशत पद खाली हैं। उत्तर प्रदेश में 50 प्रतिशत, बिहार में 36 प्रतिशत अध्यापक पद खाली हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड में भारत की 33.3 प्रतिशत आबादी रहती है। इन राज्यों में चार में से एक अध्यापक पद खाली है। मोदी मण्डली द्वारा विकास के मॉडल के रूप में पेश किये जाने वाले गुजरात में स्कूलों के 31 प्रतिशत पद खाली हैं।

यहाँ यह भी ध्यान देने वाली बात है कि सरकारी स्कूलों के लिये तय पदों की संख्या वैसे भी कम हैं। अध्यापक बच्चों की पढ़ाई की तरफ अच्छी तरह ध्यान दे सकें, इसके लिये ज़रूरी है कि प्रति अध्यापक बच्चों की संख्या कम से कम हो। बच्चों के विकास पर अध्यापक अच्छी तरह ध्यान दे पायें इसके लिये ज़रूरी है कि एक अध्यापक को 10-15 बच्चे ही पढ़ाने के लिये दिये जायें। लेकिन हमारे भारत की तो बात ही निराली है। शिक्षा व्यवस्था के सुधार के लिये सरकारें जुबानी खर्च तो बहुत करती हैं लेकिन वास्तव में इस सम्बन्धी हालत सुधारने के लिये कुछ नहीं किया जाता। तोड़-मरोड़ कर पेश किये जाने वाले आँकड़ों के जरिए केन्द्र व राज्य सरकारें प्रति अध्यापक स्कूली छात्रों की संख्या कम दिखाने की कोशिश करती हैं। शिक्षा अधिकार कानून में प्रति अध्यापक अधिक से अधिक छात्रों की संख्या 30 तय की गयी है। स्कूली छात्रों की प्रति अध्यापक संख्या सरकारी आँकड़ों के मुताबिक भारत स्तर पर 32 है। देखने में  यह संख्या शिक्षा अधिकार कानून के मापदण्डों के मुताबिक प्रतीत होती है। लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। प्राइमरी के बाद की शिक्षा के लिये विभिन्न विषयों के लिये विभिन्न अध्यापकों की ज़रूरत होती है। मान लीजिए कि किसी कक्षा में 60 बच्चे हैं और इस कक्षा को पढ़ाने के लिये विभिन्न विषयों के लिये 5 अध्यापक रखे गये हैं। यहाँ अगर अध्यापकों और छात्रों की संख्या के मुताबिक देखा जाए तो 12 छात्रों के पीछे 1 अध्यापक है। लेकिन वास्तव में हर अध्यापक को 60 बच्चे पढ़ाने पढ़ेंगे! सरकारें इसी ढंग से अध्यापकों और छात्रों के अनुपात के आँकड़ें तोड़-मरोड़ कर पेश करती हैं।

लेकिन इस ढंग से तैयार किये गये आँकड़ों के मुताबिक भी हालत बहुत बुरी है। सरकारी  आँकड़ों के मुताबिक भी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, राज्यों में प्राइमरी स्कूलों में 40-40, 50-50 बच्चों के पीछे एक अध्यापक है। पंजाब, हरियाणा, गुजरात, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, दिल्ली, चण्डीगढ़ में 30 से 40 बच्चों के पीछे एक अध्यापक है।

8 अगस्त 2016 को संसद में पेश एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में एक लाख से अधिक सरकारी स्कूलों में सिर्फ एक-एक अध्यापक है। मध्य प्रदेश इस मामले में सबसे आगे है। यहाँ ऐसे 17874 स्कूल हैं। जनता से अच्छे दिनों के झूठे वायदे करके केन्द्र में पहुँची भाजपा की इस राज्य में पिछले 13 वर्षों से सरकार चल रही है। उत्तर प्रदेश ऐसे 17602 स्कूलों के साथ दूसरे नम्बर पर है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा संसद में पेश रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान में ऐसे 13575, आंध्र प्रदेश में 9540, और झारखण्ड में 7391 स्कूल हैं।

सरकार द्वारा सहायता प्राप्त स्कूलों की भी हालत बुरी ही है। पंजाब में सन् 1967 में 484 ऐसे स्कूलों के लिये 10 हज़ार अध्यापकों की भर्ती का लक्ष्य तय किया गया था। लेकिन सिर्फ 4 हज़ार अध्यापक ही भर्ती किये गये। सन् 2003 के बाद इन स्कूलों के लिये अध्यापकों की भर्ती बन्द कर दी गयी। सरकार को पूछो तो जवाब मिलता है कि जल्द ही भर्ती की जाएगी! लेकिन यह जल्द कभी नहीं आता!

मसला सिर्फ इतना नहीं है कि सरकारें ज़रूरत के मुताबिक अध्यापकों की भर्ती नहीं करतीं। मसला और भी गम्भीर हो जाता है जब सरकारें अध्यापकों को बहुत सारे गैर-अध्यापन कामों में लगाये रखती हैं। चुनाव ड्यूटियाँ, सर्वेक्षणों, स्कूल के क्लेरिकल काम आदि कामों में अध्यापकों का काफी ज्यादा समय लगता है। एक उदाहरण के तौर पर पंजाब के स्कूलों में कम्प्यूटर अध्यापकों का अधिकतर समय तो स्कूल के क्लेरिकल कामों में ही निकल जाता है। बच्चों को वे ठीक ढंग से समय नहीं दे पाते। कहने को तो पंजाब के सरकारी स्कूलों में   शिक्षा दी जाती है लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं।

इसलिये स्कूलों में खाली पड़े पद भरने, अध्यापन व अन्य कामों से सम्बन्धित पदों की संख्या बढ़ाने की ज़रूरत है। लेकिन इतने से ही बात नहीं बनेगी। वास्तव में स्कूलों की संख्या बढ़ाने की भी ज़रूरत है। बहुत सारे बच्चे तो घर के नज़दीक स्कूल न होने के कारण स्कूल नहीं जा पाते। पंजाब विधान सभा में 17 मार्च 2016 में पेश एक आँकड़े के मुताबिक पंजाब के पच्चास हज़ार बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। जो स्कूल मौजूद भी है उनकी हालत भी इतनी बुरी है कि बच्चों का स्कूल जाने का मन नहीं करता। अध्यापकों, इमारतों, शौचालयों, बैंचों, पीने का पानी, साफ़-सफ़ाई आदि सम्बन्धी समस्याओं के कारण एक अच्छी खासी संख्या सरकारी स्कूलों की तरफ मुँह नहीं करती। पंजाब के 21 हज़ार सरकारी स्कूलों में फर्नीचर की कमी है। 1700 स्कूलों में शौचालय नहीं है। सरकारी स्कूल नज़दीक न होने, वहाँ बच्चों की संख्या अधिक होने, अध्यापकों की कमी, और अन्य समस्याओं के कारण बहुत सारे गरीब लोग अपने बच्चों को शहरों-गाँवों में खुले छोटे-छोटे निजी स्कूलों में पढ़ाने के लिये मज़बूर होते हैं। एक तो इन स्कूलों में फीसें और अन्य खर्चे गरीब माता-पिता मुश्किल से पूरा करते हैं, दूसरा इन स्कूलों में इमारतों, शौचालयों, बैंचों, पीने के पानी, साफ़-सफ़ाई, आदि की बड़े स्तर पर कमी होती है। बेहतर सरकारी स्कूली व्यवस्था की कमी के कारण गरीब आबादी को इन निजी स्कूलों के हाथों लूट-खूसोट झेलनी पड़ रही है। पंजाब के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि बाकी राज्यों की क्या हालत होगी।

भारतीय हुक्मरानों को नये-नये हवाई नारे देने का बहुत शौक चढ़ा हुआ है। ऐसा ही एक नारा है – ‘‘पढ़ेगा इण्डिया, तभी तो बढ़ेगा इण्डिया’’। जरा पूछिए इनसे, तुम्हारे इतने बुरी स्कूली व्यवस्था के रहते कैसे पढ़ेगा इण्डिया, कैसे बढ़ेगा इंडिया?

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्‍त 2017

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