“स्त्री क्या चाहती है?” – सबसे पहले तो आज़ादी!

कविता कृष्णपल्लवी

बुनियादी सवाल यह नहीं है कि स्त्री क्या चाहती है, बल्कि यह है कि उसे क्या चाहना चाहिए, उसकी चाहत क्या होनी चाहिए, या वस्तुगत तौर पर स्त्री की मनुष्य्ता की शर्तें क्या हो सकती हैं।

स्त्री क्या चाहती है? यह प्रश्न कई अवस्थितियों से, कई धरातलों पर पूछा जा सकता है और इसके उत्तर भी इतनी ही भिन्न‍ताएँ लिये हुए होंगे। स्त्री की चाहत समय और समाज की चौहद्दी का अतिक्रमण नहीं कर सकती। आज से सौ या पचास साल पहले की स्त्री की चाहत वही नहीं थी जो आज की स्त्री की है। सामाजिक विकास और सामाजिक चेतना के स्तरोन्नयन के साथ स्त्री चेतना भी उन्नत हुई है और उसकी इच्छाओं-कामनाओं-स्वप्नों के क्षितिज का विस्तार हुआ है।

दूसरी बात यह है कि इतिहास के एक ही कालखण्ड में एक कुलीन मध्यवर्गीय स्त्री की चाहत एक मेहनतकश स्त्री की चाहत से भिन्न होती है। यानी सामाजिक वर्गीय स्थिति भी स्त्री की इच्छा, कामना और स्वप्नों की अन्तर्वस्तु और स्वरूप का निर्धारण करती है।

सामान्यी‍करण करते हुए स्त्री की चाहत के बारे में यदि कुछ कहना ही हो तो कहा जा सकता है कि स्त्री आज़ादी चाहती है। लेकिन हर स्त्री के लिये आज़ादी का बोध अलग-अलग है, उसकी चेतना के सापेक्ष है। आज़ादी के मिथ्याभास से ले कर वास्तविक, वस्तुगत आज़ादी के बोध के बीच तक स्त्री-चेतना का व्यापक वर्णक्रम फैला हुआ है।

प्रबुद्ध स्त्रियों को ही लें, तो कुछ स्त्रियाँ स्त्री समुदाय की गुलामी के लिये पुरुषों को जि़म्मेदार मानती हैं, कुछ पितृसत्ता और पुरुषवर्चस्ववाद को, कुछ परिवार के पितृसत्तात्मक ढाँचे को, कुछ पुरुषों द्वारा निर्धारित स्थापित यौन व्यवहार की रूढि़यों को, और कुछ जैविक पुनरुत्पादन की स्त्रियों की प्राकृतिक विशिष्टता को ही स्त्रियों की गुलामी का मूल कारण मानती हैं।

अपने इन्हीं सोचों के हिसाब से कुछ स्त्रियाँ सभी पुरुषों के खि़लाफ़ शाश्वत युद्धघोष करती रहती हैं और अन्धविद्रोह के जुनून में इस मूल प्रश्न पर सोच ही नहीं पातीं कि इस युद्ध का नतीजा क्या होगा और स्त्रियों को मुक्ति हासिल कैसे होगी? कुछ स्त्रियाँ लगातार विमर्श करते हुए सामाजिक ढाँचे, मूल्यों, संस्थाओं और स्त्री-पुरुष के अन्तरवैयक्तिक सम्बन्धों में पुरुष-वर्चस्ववाद और पितृसत्ता की शिनाख्त करती रहती हैं, पर व्यावहारिक समाधान कुछ नहीं बतातीं। कुछ व्यावहारिक समाधान के तौर पर परिवार के विध्वंस, विवाह और एकनिष्ठ प्यार के रिश्तों की समाप्ति, विज्ञान की मदद लेकर प्रजनन के काम से मुक्ति, या पुरुष वर्चस्वनिष्ठ सेक्सुअल रूढ़ियों को चकनाचूर करने के लिये विचलनशील यौन व्यवहार (‘डेविएण्ट सेक्सुअल बिहेवियर’ जिसके उदाहरण ‘एलजीबीटीक्यू मूवमेण्ट’ में मिलते हैं) के ध्वंसवादी अराजकतावादी नारे देती रहती हैं, लेकिन उनके पास व्यापक स्त्री समुदाय को लामबन्द करने का न तो कोई कार्यक्रम होता है, न ही स्त्री-पुरुष समानता आधारित वैकल्पिक सामाजिक ढाँचे और मूल्यों-संस्थाओं का कोई मानचित्र।

कुछ ही ऐसी प्रबुद्ध प्रगतिशील स्त्रियाँ मिलेंगी जो नृतत्वशास्त्र और इतिहास के साक्ष्य से इस तथ्य को समझती हैं कि पितृसत्ता और पितृसत्ता-आधारित परिवार संस्था का जन्म इतिहास में निजी सम्पत्ति, वर्ग और राज्यसत्ता के उद्भव के साथ हुआ था और उनके समूल नाश की नियति भी इन्हीं के विलोपन के साथ जुड़ी हुई है। ऐसी प्रबुद्ध स्त्रियाँ सम्पूर्णत: स्त्री मुक्ति को एक दूरवर्ती लक्ष्य मानती हैं और स्त्रियों के मुक्ति संघर्ष को मेहनतकशों के उस मुक्ति संघर्ष से जोड़ने की बात करती हैं, जिसका फौरी निशाना पूँजीवादी तंत्र होता है, लेकिन दूरगामी लक्ष्य निजी सम्पत्ति, वर्गों और राज्यसत्ता का विलोपन होता है।

यह तो हुई प्रबुद्ध स्त्रियों की बात, लेकिन यदि आम शिक्षित मध्य वर्गीय (विशेषकर युवा) स्त्रियों की बात करें तो उनकी आज़ादी की परिभाषा और उनकी चाहतों की प्रकृति मुख्यत: उनकी उस ‘मिथ्या चेतना’ (‘फॉल्स कांशसनेस’) से तय हो रही है जो ‘माल अन्ध पूजा’ (‘कमोडिटी फेटिशिज्म’) की उपभोक्ता संस्कृति से जन्मी है। उपभोक्ता वस्तुओं की चमक-दमक से मोहाविष्ट यह आबादी स्वयं अपने वस्तुकरण की प्रक्रिया को नहीं समझ पाती, मुद्रा की शक्ति से स्थूल ऐन्द्रिक आनन्द हासिल करने की हैसियत के चलते सिर्फ अपनी आज़ादी (वह भी मिथ्याभासी) के बारे में सोचती है और कई बार रूढ़ियों-वर्जनाओं को तोड़ने की झोंक में अराजक यौन व्यवहार तक करने लगती है। कालान्तर में इन्हें भी उन्हीं मध्यवर्गीय गृहिणियों में शामिल हो जाना होता है, जो या तो तीज-जिउतिया-करवाचौथ में लगी रहती हैं, या यौन सुख की अतृप्ति और दाम्पत्य की बोरियत को झेलती हुई असमय बूढ़ी होती रहती हैं, माइग्रेन और डिप्रेशन का इलाज कराती रहती हैं, किटी पार्टियों और पार्लरों में स्वयं को व्यस्त़ रखती हैं, या अपने पतियों की बेवफाई और बेरुखी का बदला लेने के तर्क से अपने अपराध बोध का शमन करके विवाहेतर रिश्तों और पुरुष-वेश्याओं (मेल-एस्कोअर्ट या गिगोलो) का सहारा लेने लगती हैं। एक विवाहिता कामकाजी स्त्री भी इन विडम्बनाओं से मुक्त नहीं होती। यह दुखी स्त्री समुदाय भी अपने अँधेरों से बाहर आना चाहता है, अपनी आत्मा को खोल कर रख देने के लिये प्यार और दोस्ती चाहता है, जि़न्दगी में कुछ नयापन चाहता है, पर इसका रास्ता उसे नहीं पता। इन‍ स्त्रियों के पास भौतिक अभाव की पीड़ा उतनी नहीं है, जितनी आत्मिक रिक्तता की घुटन। बदहवास ये अपनी मुक्ति की राह ढूँढ़ती रहती हैं, जीते-जीते थक कर निढाल होती रहती हैं और अँधेरे में दीवारों से टकरा-टकरा कर घायल होती रहती हैं।

निम्न मध्यवर्गीय गृहिणियों का बहुलांश ‘ऑटो-सजेस्टिव’ ढंग से स्वयं को ‘कनविंस’ कर लेता है कि उसके पति और बेटे के सुख, कामयाबी और तरक्की की चाहत ही उसकी अपनी चाहत है। कभी किसी असावधान क्षण में उसकी अपनी कोई अधूरी-अतृप्ती इच्छा-कामना सिर उठाती है तो वह बड़ी सुखाने चली जाती है, टीवी पर सीरियल देखने लगती है, ज्यादा से ज्यादा मोल-तोल के लिये संकल्पबद्ध होकर सब्जी खरीदने निकल पड़ती है, या फिर किसी एक पड़ोसन के घर दूसरी पड़ोसनों और उनके बिगड़ते बाल-बच्चों की शिकायत करने पहुँच जाती है। फिर भी, ऐसी स्त्री भी कई बार रात में मानो किसी घुटन भरे सपने से जाग कर सहसा उठ बैठती है और सोचने लगती है कि एक लय के साथ फूलती-पिचकती तोंद वाला, कानफाड़ू खर्राटा लेता यह कौन है जो उसके बाजू में लेटा हुआ है? घबरा कर वह आँगन में या छत पर निकल आती है और कुछ देर उदास तारों की छाँव तले बैठी रहती है।

मजदूर स्त्रियों की जि़न्दगी ही ऐसी होती है कि उनकी आज़ादी के स्पेस से जुड़े बहुतेरे सवालों को उनकी रोजमर्रा की जद्दोजहद का फौरी सवाल बना देती है। कमरतोड़ महँगाई में घर चलाने के लिये वह घर से बाहर निकलती है तो बहुधा उसे अपने पति के विरोध का भी सामना करना पड़ता है जो चाहता है कि पत्नी बाहर निकलने की जगह घर पर ही पीस रेट पर ला कर कुछ काम कर लिया करे। इस विरोध का सफलतापूर्वक सामना करके वह बाहर निकलती है और बाहर फैली हुई दुनिया में न सिर्फ़ पगार बढ़ाने और अधिकारों की लड़ाई में शामिल होने की ज़रूरत महसूस करने लगती है, बल्कि सुपरवाइजर-फ़ोरमैन और सड़क के शोहदों की गन्दी निगाहों और गन्दी हरकतों का मुक़ाबला करते हुए उसे अपनी आज़ादी के लिये रोज़-रोज लड़ते हुए जीने का सलीका भी बेहतर ढंग से आ जाता है। आर्थिक स्वतंत्रता के कारण, निकृष्टतम कोटि की उजरती गुलामी और घर में भी किसी हद तक पुरुष स्वामित्व को झेलने के बावजूद मज़दूर स्त्रियों के जीवन में मध्य़वर्गीय स्त्रियों की अपेक्षा जीवन रस अधिक होता है, उनकी इच्छाओं-कामनाओं का क्षितिज अधिक विस्तारित होता है और वर्णक्रम अधिक वैविध्यपूर्ण होता है। मजदूर बस्तियों में काम करने के अपने लम्बे अनुभव के दौरान मैंने पाया है कि आधुनिकता के जीवन मूल्यों का प्रवेश मज़दूर स्त्रियों के जीवन में ज़्यादा स्वस्थ रूपों में हुआ है। महानगरों की मजदूर बस्तियों में युवा स्त्री-पुरुष मजदूरों और मजदूरों के युवा बेटे-बेटियों के बीच प्रेम और विवाह की घटनाएँ लगातार ज्यादा से ज्यादा आम होती जा रही हैं। अब ऐसी शादियाँ जाति ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीयताओं की दीवारों को भी तोड़ कर हो रही हैं। शराबखोरी, आवारागर्दी या महज न पटने के कारण भी मजदूर स्त्रियाँ कई बार बिना किसी हिचक-परेशानी के अपने पति को छोड़ देती हैं और दूसरे किसी मजदूर के साथ घर बसा लेती हैं। अब ये चीजें उतना विवाद या लोकापवाद का विषय भी नहीं बनतीं।

स्त्रीर चाहती क्या है? – अब इस सवाल को एक दूसरे तरीके से देखें। स्त्री अपनी चाहत को जो अभिव्यक्ति देती है, वह वास्त‍व में उसकी ‘मिथ्या। चेतना’ (‘फॉल्स कांशसनेस’) की उपज होती है। आम स्त्री की चेतना, उसकी इच्छा, कामना, कल्पना और सपने उस सामाजिक परिवेश द्वारा अनुकूलित होते हैं, जिस पर पितृसत्तात्मकता का वर्चस्व स्थापित होता है। इसलिये, प्राय: वह वही चाहती है, जो चाहने के लिये उसका मानसिक अनुकूलन किया गया है, या उस दायरे में चाहती है (आज़ादी, प्यार या कुछ भी) जो उसके लिये तय किया गया है। इसलिये, बुनियादी सवाल यह नहीं है कि स्त्री क्या चाहती है, बल्कि यह है कि उसे क्या चाहना चाहिए, उसकी चाहत क्या होनी चाहिए, या वस्तुगत तौर पर स्त्री की मनुष्ययता की शर्तें क्या हो सकती हैं। फिर भी, कोई भी मानसिक अनुकूलन सम्पूर्ण नहीं हो सकता। भौतिक-आत्मिक वंचना और उत्पीड़न की वस्तुगत स्थिति से उपजी चेतना हर स्त्री की अनुकूलित चेतना से टकराती है और इस संघात से सपनों-कामनाओं-आकांक्षाओं की झील के शान्त तल पर मुक्ति की लहरें उठने लगती हैं जो कभी-कभी उत्ताल तरंगें भी बन जाती हैं। ये लहरें और तरंगें खण्डित और अधूरी मुक्ति चेतना के रूप में सामाजिक परिवेश की दीवारों से टकराती और टूटती रहती हैं।

बूढ़े गोरियो की बेटियाँ (बाल्जाक का उपन्याजस ‘ओल्डर गोरियो’) पूरी तरह से एक ‘मिथ्या चेतना’ के वशीभूत हैं और बेइन्तहा प्यार करने वाले बूढ़े पिता को निचोड़ कर रंगरलियाँ मनाना ही उनके लिये मुक्ति और आनन्द का पर्याय है। वे अपने आप में बूर्जुआ स्वार्थपरता का मूर्त रूप हैं और अपनी कामनाओं की बन्दी हैं।

फ्लाबेयर के उपन्यास ‘मदाम बोवारी’ की नायिका एम्मा अपने दाम्पत्य‍ जीवन की एकरसता, बोरियत और निरुद्देश्यता से स्वाभाविक तौर पर परेशान है और चिरनवीन प्या‍र की यूटोपियाई आत्मकेन्द्रित आकांक्षा में विवाहेतर प्रणय सम्बन्धों में भटकती हुई स्वयं को तबाह कर लेती है तथा अन्तत: मृत्यु का वरण करती है। व्यवस्था की अदृश्य दीवारें अन्तत: उसका गला घोट देती हैं।

टॉलस्टॉय की अन्ना कारेनिना भी कुछ अलग ढंग से इसी नियति का शिकार होती है। टॉमस हार्डी की एक नायिका टेस प्या‍र की तलाश में अपने समय की यौन नैतिकता के मानकों से टकराती है और उसकी कीमत चुकाती है। आशापूर्णा देवी की उपन्यास-त्रयी (‘प्रथम प्रतिश्रुति’, ‘सुवर्णलता’ और ‘बकुल कथा’) की नायिकाएँ सत्यवती, सुवर्णलता और बकुल तीन पीढ़ियों की स्त्रियाँ हैं और स्त्री अस्मिता और आज़ादी के बारे में उनके देश-काल-निबद्ध बोध अलग-अलग हैं, उनके चिन्तन के आकाश अलग-अलग हैं और उनके उद्यमों के दायरे भी अलग-अलग हैं। अपर्णा सेन की फि़ल्म ‘परोमा’ की नायिका अपने नीरस उबाऊ दाम्पत्य का एहसास होने पर उससे उबरने के लिये स्वत:स्फूर्त ढंग से एक विवाहेतर भावनात्मक सम्बन्ध‍ को शरण्य बनाती है और जब उससे बाहर आती है तो अपनी स्वतंत्र स्त्री अस्मिता का बोध उपलब्धि के तौर पर उसके पास होता है।

जब्बार पटेल की फि़ल्म ‘सुबह’ की नायिका सामाजिक सरगर्मियों के बीच अपने पारिवारिक जीवन की नीरसता महसूस करती है और उससे बाहर आ कर एक अनिश्चित भविष्य की ओर यात्रा की शुरुआत करती है। शरतचन्द्र के उपन्यास ‘शेष प्रश्न’ की नायिका कमल न केवल अपने समय की हर नैतिक रूढ़ि पर प्रश्न उठाती है और जीवन को तर्क की कसौटी पर कसती है, बल्कि प्रणय और विवाह के मामले में भी विद्रोही आचरण करती है। कमल की तर्कणा और चिन्तन की स्वतंत्रता ही उसके जीवन की सार्थकता और सन्तुष्टि का स्रोत है।

चेर्निशेव्स्की के उपन्यास ‘क्या करें’ की नायिका वेरा पाव्लोव्ना परिवार और ‘अरेंज्ड मैरिज’ के दमघोंटू माहौल से विद्रोह करके इस नतीजे पर पहुँचती है कि स्त्रियों की मुक्ति के लिये आर्थिक स्वंतंत्रता पहली शर्त है। अपनी निजी मुक्ति को वह स्त्रियों की सामूहिक मुक्ति से जोड़ती है और समाजवादी सहकारी संस्थाओं के निर्माण के प्रयोगों के दौरान इस नतीजे पर पहुँचती है कि स्त्री-पुरुष की वास्तविक समानता, वास्तविक प्रेम और स्त्रियों की वास्तविक आज़ादी के लिये सामाजिक ढाँचे का समाजवादी पुनर्गठन अनिवार्य है। वेरा चेर्निशेव्स्की की उस प्रगतिशील यूटोपिया का मूर्त रूप है, जिसे मार्क्सवाद ने वैज्ञानिक रूप देते हुए आगे विकसित किया। एक जाग्रत स्त्री आज़ादी चाहती है, सच्चा जीवन्त प्यार चाहती है, निर्णय की स्वतंत्रता चाहती है और मनुष्यता की उपलब्धियों और संधानों में पुरुष के साथ बराबरी की भागीदारी चाहती है। लेकिन स्त्रियों के जाग्रत होने के स्तर अलग-अलग हैं, इसलिये स्वयं वे अपनी मुक्ति की शर्तों और रास्ते को सुसंगत रूप में नहीं समझतीं, बल्कि विरूपित और खण्डित रूपों में महसूस करती हैं। हमारे आसपास मदाम बोवारी, अन्ना कारेनिना, टेस, कमल, सुवर्णलता, बकुल, बूढ़े गोरियो की बेटियाँ, परोमा, ‘सुबह’ की नायिका आदि अभी भी मौजूद हैं जो स्त्रियों की अतृप्त कामनाओं, अधूरे सपनों, खण्डित चाहतों, विरूपित आकांक्षाओं तथा अन्धे’ और आत्मकेन्द्रित मुक्ति प्रयासों के मूर्त रूप हैं। साथ ही, यहाँ-वहाँ कुछ वेरा पाव्लोव्ना भी मौजूद हैं और उसकी उत्तरवर्ती पीढ़ियाँ भी।

स्त्रियों की मुक्ति के लिये ज़रूरी है कि वे वेरा पाव्लोव्नाव की अगली पीढ़ी की तरह कामना करना सीखें, सपने देखना सीखें और लड़ना सीखें।

( रविवार डाइजेस्ट पत्रिका में एक बहस चल रही है : स्त्री क्या चाहती है? इस बहस में मई अंक में कविता कृष्णपल्लवी का यह लेख प्रकाशित हुआ है। )

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्‍त 2017

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