गहराता विश्व आर्थिक संकट और जी-20 बैठक

मानव

अप्रैल 2016 के दूसरे हफ्ते में विश्व के सबसे बड़े पूँजीवादी देशों के गुट जी-20 की एक बैठक चीन के शंघाई शहर में सम्पन्न हुई। यह बैठक मौजूदा वैश्विक आर्थिक मन्दी की सूरते-हाल के बारे में चर्चा करने के लिए व इस संकट से उबरने के उपायों को खोजने के लिए बुलायी गयी थी। यह चीन के शहर हांगझू में इसी साल सितम्बर को होने वाली जी-20 की बड़ी बैठक का एक तरह से ट्रेलर ही थी और इस बैठक से काफी हद तक यह स्पष्ट हो गया कि सितम्बर की बैठक में किस तरह के सवाल उठेंगे व क्या सुझाव आने हैं। इस बैठक के बाद जारी किये गये आधिकारिक बयान में विश्व पूँजीवाद के प्रमुख नेताओं ने यह माना कि आर्थिक संकट से अभी निजात नहीं मिली है, बल्कि यदि जल्द ही कुछ न किया गया तो आने वाले समय के अन्दर एक और मन्दी दहाने पर खड़ी है। इस बैठक से कुछ दिन पहले ही विश्व मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें आई.एम.एफ. ने वैश्विक आर्थिक दर की वृद्धि के बारे में अपने पहले के अनुमानों को घटा दिया है। रिपोर्ट में कहा गया कि साल 2016 के दौरान वैश्विक आर्थिकी 3.2% की रफ़्तार से बढ़ेगी। यह वैश्विक आर्थिकी 3.4% की रफ़्तार के उस आँकड़े से कम है जो आई.एम.एफ. ने अभी तीन महीने पहले ही जारी किये थे। इससे पहले फरवरी 2015 में भी  वैश्विक व्यापार के आँकड़े प्रकाशित हुए थे जिनमें दिखाया गया था कि यदि माल के व्यापार (ट्रेड इन गुड्स) के पहलू से देखा जाय तो साल 2015 में विश्व व्यापार 13.9% तक कम हुआ है। इन दोनों रिपोर्टों ने और जी-20 देशों की बैठक ने यह तो स्पष्ट कर दिया कि विश्व पूँजीवाद में चल रहे आर्थिक संकट से राहत मिलने की फ़िलहाल कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही है। इस संकट से निजात पाने के लिए कुछ सुझाव इस बैठक में दिये गये। पूँजीवादी सरकारों की ओर से लम्बे समय से संकट से निजात पाने के लिए भी प्रयास किये जा रहे हैं। आइये विश्व पूँजीवाद के इन नीम हकीमों की पुड़ियों और घुट्टी की पड़ताल करें जिनसे ये आर्थिक संकट दूर करने का आश्वासन दे रहे हैं।

आर्थिक संकट से उबरने के लिए पूँजीवादी अर्थशास्त्री दो तरह की नीतियों को प्रस्तावित करते हैं- एक मौद्रिक नीति और दूसरी राजकोषीय नीति। मौद्रिक नीति किसी देश की केन्द्रीय बैंक की ओर से तय की जाती है, जैसे भारत में भारतीय रिज़र्व बैंक तय करता है। इस नीति के ज़रिये ब्याज दरों को प्रभावित किया जाता है। यदि ब्याज दरें घटायी जायें तो इससे केन्द्रीय बैंकों पर निर्भर सभी बैंकों को सस्ता पैसा मिलेगा जो कि वह आगे निवेशकों (पूँजीपतियों) को और आम लोगों को सस्ती दरों पर प्रदान कर सकेंगे। सस्ते ब्याज पर कर्ज़ मिलने से जहाँ एक ओर पूँजीपतियों को निवेश करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा, वहीं दूसरी ओर आम लोग भी खरीददारी के लिए प्रेरित होंगे। मतलब कुल मिलाकर यह उम्मीद की जाती है कि आर्थिक निवेश बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था आहिस्ता-आहिस्ता पटरी पर आ जायेगी।

राजकोषीय नीति के ज़रिये सरकार घटी हुई माँग को प्रभावित करने के लिए सीधे दखल देती है। यह दखल लोगों और पूँजीपतियों की आय पर टैक्स कम करने के रूप में हो सकती है या फिर बुनियादी संरचनात्मक ढाँचा, निर्माण आदि में सरकारी निवेश के ज़रिये हो सकती है। यह नीति इस बुनियाद पर आधारित होती है कि सरकारी निवेश से लोगों को रोज़गार मिलेगा, रोज़गार मिलने से लोगों के पास तनख्वाह के रूप में पैसा आयेगा और इस पैसे से वे ख़रीददारी करेंगे, यानी आर्थिक माँग बढ़ेगी। इस बढ़ी हुई माँग को पूरा करने के लिए और निवेश होगा और इसी तरह पूरी अर्थव्यवस्था विकास के रास्ते पर चल पड़ेगी। इसे बुर्ज़ुआ अर्थशास्त्र में ‘मल्टीप्लायर इफेक्ट’ भी कहा जाता है। बुर्जुआ अर्थशास्त्री कीन्स द्वारा आर्थिक संकट के हल के लिए सुझाया गया रास्ता भी इसी सरकारी दख़ल पर ज़ोर देता है।

इस तरह, चाहे मौद्रिक नीति हो या फिर राजकोषीय नीति, दोनों इस बात को तय मानकर चलते हैं कि आर्थिक संकट का कारण अल्पतर माँग है, कि माँग कम होने की वजह से अर्थव्यवस्था में निवेश भी कम होता है और इसके नतीजे के तौर पर आर्थिक वृद्धि भी प्रभावित होती है और बेरोज़गारी आदि बढ़ती है। जबकि वास्तव में होता इसके विपरीत है। माँग कम होने से आर्थिक संकट पैदा नहीं होता, बल्कि अल्पतर माँग आर्थिक संकट का सिर्फ लक्षण मात्र है। पूँजीवादी आर्थिक संकट ‘अतिउत्पादन’ का संकट होता है जिसका आधार यह निजी मालिकाने पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था है। पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन का केंद्र मनुष्य नहीं बल्कि मुनाफ़ा होता है, यानी कि उत्पादन बाज़ार के लिए होता है। उत्पादन की प्रक्रिया में पूँजीपति उत्पादन खर्च को लगातार घटाने की कोशिश करते हैं। ऐसा वे श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर या श्रम-काल को निरपेक्ष रूप से बढ़ाकर करते हैं। दोनों ही तरीक़ों से मज़दूर वर्ग का शोषण बढ़ने के फलस्वरूप व्यापक मज़दूर आबादी और अधिक ग़रीब होती जाती है और बड़ी आबादी को काम से निकाल बाहर कर दिया जाता है। हरेक पूँजीपति अधिक से अधिक उत्पादन करने की कोशिश करता है जिसका परिणाम यह होता है कि एक तरफ़ बाज़ार माल से पट जाते हैं और दूसरी तरफ़ उन्हें ख़रीदने के लिए पर्याप्त ख़रीददार नहीं होते, यह “अतिउत्पादन” पूँजीवादी संकट का मूल है। ज़ाहिरा तौर पर जब पहले का ही पैदा किया गया माल नहीं बिकता तो पूँजीपति नया निवेश क्यों करेगा? इसीलिए नये उद्योग नहीं लगते, बल्कि पहले वाले भी बन्द होने लगते हैं। इस से बेरोज़गारी बढ़ती है जो पहले ही घटी हुई माँग को और कम कर देती है।

अब देखते हैं कि आर्थिक संकट के बाद अपनाये गये तरीकों का अर्थव्यवस्था पर क्या असर हुआ है और मौजूदा जी-20 बैठक में कौन से नये सुझाव शामिल किये गये हैं? आर्थिक संकट के बाद पूँजीवादी सरकारों का मुख्य ज़ोर मौद्रिक नीति पर ही रहा है। विश्व-भर के प्रमुख केन्द्रीय बैंकों ने पहले ब्याज दरों को इस उम्मीद के साथ घटाया कि इससे निवेश बढ़ेगा, लेकिन हुआ इसके विपरीत। आर्थिक संकट के दौरान नया उत्पादक निवेश न होने या कम होने का कारण पूँजी की कमी होना नहीं है, बल्कि ऐसा इसीलिए होता है कि पूँजीपतियों को पैसा निवेश करने के लिए कोई क्षेत्र नहीं मिलता क्योंकि बाज़ार पहले ही की गयी पैदावार की वजह से मालों से पटे होते हैं। पहले पुराना माल बिकेगा तभी नये के लिए जगह बन पायेगी! तो फ़िर आखिर इस सस्ते कर्ज़ का पूँजीपतियों ने किया क्या? उन्होंने बैंकों से ये सस्ते कर्ज़ लेकर शेयर-बाज़ार में सट्टा लगाया ताकि रातों-रात मुनाफ़ा बटोरा जा सके। इसलिए अर्थव्यवस्था में कोई नया उत्पादक निवेश तो नहीं हुआ लेकिन इस सट्टेबाज़ी से वित्तीय सट्टेबाज़ों ने अतिरिक्त मुनाफ़ा ज़रूर कमाया। घरेलू माँग के ऊपर भी इन कम दरों का कोई ख़ास असर नहीं हुआ क्योंकि संकट के बाद से लोगों से लगातार रोज़गार छिनता जा रहा था व असुरक्षा की एक तलवार लटक रही थी, उजरतें कम हो रही थीं, इसीलिए लोगों के लिए कर्ज़ तो क्या, ब्याज चुकाना भी बेहद कठिन था। इसीलिए लोगों ने ये कर्ज़ लेने में ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखायी जिसका परिणाम लगातार घटती माँग के रूप में सामने आया।

इसके बाद तो विश्व-भर के केन्द्रीय बैंकों ने ब्याज-दरें शून्य भी कर दीं लेकिन जब इससे भी काम नहीं बना तो विश्व के प्रमुख केन्द्रीय बैंकों ने एक अप्रत्याशित सा कदम उठाया – उन्होंने इतिहास में पहली बार ब्याज-दरों को ‘नेगेटिव’ (नकारात्मक) कर दिया! यानी, केन्द्रीय बैंक अब उन सारे बैंकों से खर्चा वसूलने लगे जिन्होंने केन्द्रीय बैंकों के पास अपना पैसा रखा था। ऐसा इसीलिए किया गया ताकि बैंक हर हालत में कर्ज़ दें ताकि अर्थव्यवस्था में निवेश हो। लेकिन हुआ क्या? बैंकों को केन्द्रीय बैंकों से सस्ता कर्ज़ मिल रहा था और कर्ज़ न देने की सूरत में जुर्माना भी लगाया जा रहा था, वहीं उत्पादक निवेश की सम्भावनाएँ भी नहीं थीं। इसीलिए बैंकों ने यह सारा पैसा रीयल एस्टेट और शेयर बाज़ार में लगा दिया। इस ‘नेगेटिव’ ब्याज दर नीति (‘नेगेटिव इण्ट्रेस्ट रेट पॉलिसी’) के फ़ेल होने का एक प्रातिनिधिक उदाहरण स्वीडन है जहाँ बैंकों द्वारा की गयी सट्टेबाज़ी के कारण घरों की कीमतें पिछले तीन साल में ही लगभग एक-तिहाई से ज्यादा बढ़ चुकी हैं। इसी तरह जापान में भी इस नीति के कोई सकारात्मक नतीजे नहीं निकले हैं।

ब्याज-दरें कम करने का एक और भी नतीजा निकला है।  यदि कोई देश ब्याज-दरों को कम करता है तो उस देश की सरकार की ओर से जारी किये गये ‘बॉण्डों’ में विदेशी निवेशक अपना पैसा निवेश करने से कतराते हैं क्योंकि उनको इसके बदले में काफी कम ब्याज मिलेगा। इसीलिए ऐसे देश की मुद्रा की माँग अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में घटती है जिसके नतीजे के तौर पर उसके मूल्य में भी गिरावट आती है। किसी देश की मुद्रा के मूल्य में गिरावट होने से उस देश का माल दूसरे देशों के लोगों के लिए सस्ता हो जाता है। जैसे, यदि 1 अमरीकी डॉलर की कीमत 60 रुपए से 50 रुपये पर आ जाये तो इसका मतलब होगा कि रुपया डॉलर के मुकाबले मज़बूत हो गया है और अमरीकी डॉलर का मूल्य रुपये के मुकाबले कम हो गया है। अब भारत के लोगों को 1 डॉलर की कीमत वाली अमरीकी घड़ी के लिए पहले 60 रुपए देने पड़ते थे तो अब उन्हें 50 रुपये  ही देने पड़ेंगे यानी अमरीका से भारत की ओर होने वाला निर्यात बढ़ जायेगा और भारत की ओर से अमरीका को जाने वाले माल की माँग में कमी आयेगी। इस वजह से भारत का व्यापार सन्तुलन (‘ट्रेड बैलेंस’) बिगड़ेगा। इसलिए ही बड़े-बड़े साम्राज्यवादी देशों के दरमियान (ख़ासकर आजकल चीन और अमरीका के बीच) मुद्रा के मूल्य में की गयी गिरावट तीखी राजनीतिक कशमकश का रूप ले लेती है जिस वजह से हर देश दूसरे को इस तरीके से पछाड़ने का प्रयास करता है (इन नीतियों को अर्थशास्त्र की भाषा में ‘बेग्गर थि नेबर’ नीतियाँ भी कहते हैं) और नतीजे के तौर पर पूरी वैश्विक आर्थिकता पर घातक असर पड़ता है।

मौद्रिक नीति की इस नाकामयाबी को देखने के बाद ही इस जी-20 बैठक में राजकोषीय नीतियों को लागू करने के बारे में विचार किया गया था लेकिन यहाँ भी वही अन्तर-साम्राज्यवादी अन्तरविरोध खुलकर सामने आये। अमरीका ने बैठक में जर्मनी के ऊपर दबाव बनाने की कोशिश की कि वह राजकोषीय नीतियों को लागू करे, कि जर्मन सरकार बुनियादी संरचनात्मक ढाँचे पर भारी निवेश करे। लेकिन जर्मनी ऐसा नहीं करना चाहता क्योंकि जर्मनी में सरकारी कर्ज़ सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के हिस्से के तौर पर पहले ही बहुत ज़्यादा है। दूसरी ओर अमरीका ने चीन से भी माँग की कि वह भी सरकारी निवेश के ज़रिये अपनी घरेलू माँग को बढ़ावा दे। लेकिन चीनी सरकार पिछले लम्बे समय से ऐसी ही नीति पर चल रही है। पिछले कई साल से वहाँ सरकार लगातार बुनियादी ढाँचा, नये शहरों और रीयल एस्टेट आदि को खड़ा करती रही थी। लेकिन सरकार की ओर से फुलाया गया यह गुब्बारा एक न एक दिन तो फटना ही था क्योंकि इतने सारे घरों को खरीदने वाले ही नहीं थे। इसी वजह से रीयल एस्टेट क्षेत्र भी भारी मन्दी का शिकार हो गया और इस प्रक्रिया के दौरान सरकार के ऊपर भारी कर्ज़ भी चढ़ गया। इस समय चीनी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर काफी कम हो चुकी है और आने वाले समय में और भी कठिन हालातों की पूरी सम्भावना जतायी जा रही है। इसीलिए अमरीका के इन सुझावों को चीन ने भी अनसुना ही किया।

कुछ समय पहले एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी कि अमरीका और यूरोप में सरकारी सहूलियतों, बुनियादी ढाँचे आदि पर होने वाला सरकारी निवेश पिछले 30 साल के मुकाबले सब से निचले स्तर पर है। अमरीका में सरकार इस क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.5% ही निवेश करती है। फिर भी सरकार इस ओर निवेश क्यों नहीं कर रही? क्या इस तरीके से अमरीकी अर्थव्यवस्था को कुछ समय के लिए राहत नहीं मिलेगी? हाँ, इस से अमरीकी अर्थव्यवस्था को कुछ सहारा हो सकता है लेकिन यहाँ एक और कारक भी काम करता है और वह है सरकार पर चढ़े भारी कर्ज़े का। सरकार के पास आय का ज़रिया लोगों और पूँजीपतियों से इकट्ठा किया गया टैक्स ही होता है। वह इसी आय में से खर्च कर सकती है। यदि यह कम पड़े तो फिर सरकारी ‘बॉण्ड’ जारी करके यानी कर्ज़ लेकर उसको साधन इकठ्ठे करने पड़ते हैं। अब अमरीका की (और तकरीबन सभी प्रमुख पूँजीवादी देशों की) हालत यह है कि आर्थिक संकट के बाद, अमरीकी सरकार ने बैंकों को खरबों डॉलर के बेल-आउट पैकेज दिये जिस वजह से उसके ऊपर अब भारी कर्ज़ है। बुनियादी ढाँचे के ऊपर खर्चा बढ़ाने के लिए वह पूँजीपतियों के मुनाफ़ों को लगाम नहीं लगा सकते क्योंकि ऐसा होने की सूरत में पूँजीपति इसका विरोध करेंगे और अपनी पूँजी अमरीका से बाहर स्थानान्तरित करने की कोशिश करेंगे जिसका अमरीकी आर्थिकी पर बुरा असर पड़ेगा। इसीलिए सरकार के पास एक ही रास्ता बचता है कि वह लोगों से टैक्स की ज़्यादा वसूली करे। लेकिन आर्थिक संकट के चलते लोगों की वास्तविक आय में कमी आयी है, साथ ही बेरोज़गारी भी बढ़ी है और बहुत सारे लोग तो सरकारी सहायता पर निर्भर हैं जिन पर कोई टैक्स नहीं लगाया जा सकता। इसीलिए इस स्रोत से भी पैसा जुटने की सम्भावना नज़र नहीं आ रही है।

अतः मौद्रिक नीतियों के असफ़ल होने और राजकोषीय नीतियों की कारगरता पर पहले ही सवाल उठने से विश्व के पूँजीवादी अर्थशास्त्री और अगुआ अँधेरे में सिर भिड़ा रहे हैं। सितम्बर माह में चीन में होने वाली बैठक में भी इस अन्धी सुरंग का कोई रास्ता निकलने की उम्मीद नहीं है और वास्तव में ऐसा कोई रास्ता इस ढाँचे के भीतर मौजूद भी नहीं है। सिर्फ़ पैदा किये गये मालों की बड़े पैमाने पर तबाही के ज़रिये और इसके नतीजे के तौर पर करोड़ों लोगों को तबाही के दहाने की ओर धकेल कर ही यह ढाँचा अपने लिए अल्पकालिक साँस ले सकता है। सितम्बर महीने की बैठक में जो भी फैसला हो, इतना तय है कि विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एक नये और बड़े संकट की ओर अग्रसर है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016

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