विधान सभा चुनावों के नतीज़े : हिन्दुत्ववादी फासीवाद के आगे बढ़ते कदम

कविता कृष्णपल्लवी

गत 19 मई को असम, केरल, बंगाल, तमिलनाडु और पुडुचेरी के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद संघ परिवार में जश्न का माहौल छा गया। हिन्दुत्ववादी फासीवादियों के हौसले बुलन्द हैं और वे अपना एजेण्डा लागू करने की मुहिम में नये जोशोख़रोश के साथ जुट गये हैं।

असम में भाजपा ने कुल 136 में से 60 सीटें हासिल की जबकि उसके सहयोगी असम गण परिषद ने 14 और बोडो पीपुल्स  फ्रण्ट ने 12 सीटों पर जीत दर्ज़ की है। कांग्रेस 26 सीटों पर सिमट गयी और बदरुद्दीन अजमल की ए.आई.यू.डी.एफ. के खाते में 13 सीटें गयीं। पूर्वोत्तर भारत में भाजपा की यह पहली कामयाबी है जिसके बाद मेघालय, नागालैण्ड, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश को भी लक्ष्य बनाकर संघ परिवार ने अपने ज़मीनी काम को तेज़ और सघन करना शुरू कर दिया है। इसके साथ ही भाजपा समूचे पूर्वोत्तर भारत की विभिन्न  उपराष्ट्रीयताओं की पहचान राजनीति से प्रेरित आपसी टकरावों का लाभ उठाने, विभिन्न राजनीतिक ग्रुपों के साथ जोड़तोड़ और समीकरण बैठाने तथा कांग्रेस के असंतुष्टों  को तोड़कर पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में असम के उस प्रयोग को दुहराने के लिए व्यग्र हो गयी है, जिसे मुख्यत: संघ विचारक राममाधव ने अंजाम दिया। जम्मू-कश्मीर के बाद असम राममाधव की दूसरी सफलता रही।

पं.बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस 211 सीटें पाकर पहले से भी अधिक ताक़त पाकर वापस लौटी है। कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाकर भी वाम गठबन्धन कुल 33 सीटों पर सिमट कर रहक गया, जबकि कांग्रेस ने कुल 44 सीटें हासिल की। गौरतलब बात यह रही कि भाजपा गठबन्धन ने 6 सीटें जीतकर अपनी सीटों में दूने की बढ़ोत्तगरी कर ली।

तमिलनाडु में कोई गठबन्धन  नहीं करने के बावजूद, और पूर्ववर्ती विधानसभा की सीटों में से 15 खोने के बावजूद 134 सीटें पाकर जयललिता की पार्टी अन्ना द्रमुक दुबारा सरकार बनाने में सफल रही (1984 के बाद यह पहली बार हुआ), जबकि पहले की तुलना में 67 सीटें अधिक पाने के बावजूद द्रमुक गठबन्धन (द्रमुक 89+कांग्रेस 8) सत्ता के शिखर तक नहीं पहुँच सका। भाजपा ने इस राज्य में भी अपना वोट प्रतिशत हिस्सा कुछ बढ़ाने में कामयाबी हासिल की।

केरल में पुरानी परिपाटी को दुहराते हुए कांग्रेस नीत संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे (47 सीटें) को हराते हुए माकपा नीत वाम लोकतांत्रिक मोर्चे (91 सीटें) ने जीत हासिल की। यहाँ भी महत्वमपूर्ण यह रहा कि अपने वोट प्रतिशत हिस्से  में 10 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करने के साथ ही भाजपा ने एक सीट पर जीत भी हासिल की।

केन्द्र शासित प्रदेश पुडुचेरी की 30 सदस्यीय विधानसभा में रंगासामी की ए.आई.एन.आर.सी. को शिकस्त देते हुए कांग्रेस-द्रमुक गठबन्धन  ने कुल 17 सीटें हासिल की।

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इन चुनाव परिणामों का विश्लेषण करते हुए हमें इसके कई पहलुओं और उनकी बारीकियों की पड़ताल करनी होगी और साथ ही इनके विश्लेषणों का भी विश्लेेषण करना होगा। निस्सन्देह इन चुनाव परिणामों ने भाजपा और समूचे संघ परिवार की आक्रामक फासिस्ट मुहिम की सफलता के महत्वपूर्ण संकेत दिये हैं और जिन आँकड़ों-तथ्यों के हवाले से तमाम संसदीय वाम पार्टियाँ और बहुतेरे वाम बुद्धिजीवी मन को तसल्ली देने वाले ख़याली पुलाव पका रहे हैं और हिन्दुत्ववादी फासीवाद की बढ़ती बर्बरता की सम्भावनाओं को लेकर अभी भी ‘डिनायल मोड’ में दिख रहे हैं, यह ख़तरनाक है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे, लेकिन इसके पहले इस तथ्य को भी समझना ज़रूरी है कि देश के इजारेदार पूँजीपति घरानों की गिरफ़्त में जकड़ी मुख्यधारा की मीडिया द्वारा यह दर्शाना कितना भ्रामक है कि पूरे देश की बहुसंख्यक जनता ने मोदी सरकार की विचारधारा और नीतियों पर स्वीकृति की मुहर जोरदार ढंग से लगा दी है। यह एक विशुद्ध गोयबल्सीय शैली का प्रचार है। हाँ, लेकिन यह भी सच है कि बुर्जुआ जनवादी संसदीय प्रणाली में कहीं भी, कभी भी, बहुमत पाने वाली पार्टी वास्तव में बहुसंख्यक जनता की नुमाइन्दगी नहीं करती। इस तरह फासिस्टोंं को भी सत्ता के शीर्ष तक पहुँचने के लिए बहुसंख्यक जनता की स्वीकृति की नहीं बल्कि सीटों के हिसाब से बहुमत मात्र की दरकार होती है। नीचे तथ्यों और आँकड़ों के विश्लेषण से हमारी यह बात स्पष्ट हो जायेगी।

गत 19 मई को चुनाव परिणाम आने के बाद 20 मई को कई राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने भाजपा की “विजय-दुन्दुभि” को प्रतिध्वनित करते हुए इस तथ्य को विशेष तौर पर रेखांकित किया कि भाजपा अब भारत के 35.37 प्रतिशत आबादी क्षेत्र पर काबिज है, जबकि कांग्रेस मात्र 7 प्रतिशत पर सिमटकर रह गयी है। लेकिन मात्र इतना ही कहने से यथार्थ की जो तस्वीर उभरती है, वह यथार्थ को सही-सटीक ढंग से दर्शाती नहीं है। पहली बात यह कि कांग्रेस और भाजपा (अपने सहयोगियों के साथ) राज्यों में सरकार बनाने के हिसाब से कुल 43 प्रतिशत आबादी क्षेत्र पर ही काबिज हैं। शेष 57 प्रतिशत पर अभी भी क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ और संसदीय वाम दल काबिज हैं।

अब ज़रा कुछ और आँकड़ों पर निगाह डालें। केन्द्रशासित राज्य पुडुचेरी को (जहाँ कांग्रेस-द्रमुक गठबन्धन ने सरकार बनायी है और जहाँ भाजपा की उपस्थिति नगण्य है) यदि छोड़ दें, तो तमिलनाडु , प.बंगाल, केरल और असम इन चार राज्यों में भाजपा को कुल 1 करोड़ 39 लाख, जबकि कांग्रेस को 1 करोड़ 95 लाख वोट मिले हैं और संसदीय वाम दलों को 2 करोड़ 24 लाख वोट मिले हैं। यही नहीं, सहयोगियों को यदि छोड़ दें तो किसी भी राज्य में अकेली भाजपा को अकेली कांग्रेस से अधिक वोट नहीं मिले हैं। चार राज्यों की कुल 792 सीटों में से कांग्रेस और उसके सहयोगियों को 215 (यानी 27 प्रतिशत सीटें) तथा भाजपा और सहयोगियों को 90 (यानी 11 प्रतिशत सीटें) मिली हैं, शेष 62 प्रतिशत सीटें क्षेत्रीय बुर्जुआ दलों और संसदीय वाम दलों को मिली हैं। जो क्षेत्रीय पार्टियाँ कांग्रेस या भाजपा के साथ नहीं गयीं उन्होंने कुल 358 सीटें पायीं जो कांग्रेस+भाजपा (305 सीटें) से अधिक रही। अब जरा चार राज्यों  में भाजपा और कांग्रेस के वोट प्रतिशत की भी तुलना कर ली जाये:

राज्य       भाजपा(मत प्रतिशत)   कांग्रेस(मत प्रतिशत)

असम                               29.5                      31

बंगाल                               10.2                        12.37

केरल                                 10.5                      23.7

तमिलनाडु                        2.8                          6.4

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में अलग-अलग पार्टियों और गठबन्धनों के वोट प्रतिशत पर भी ज़रा नज़र दौड़ा ली जाये:

असम :- भाजपा और सहयोगी – 42 प्रतिशत, कांग्रेस और सहयोगी-31 प्रतिशत, ए.आई.यू.डी.एफ.-13 प्रतिशत, अन्य-14 प्रतिशत।

पं.बंगाल:- तृणमूल कांग्रेस – 45 प्रतिशत, कांग्रेस+वाम मोर्चा – 39 प्रतिशत (वाम मोर्चा 27 प्रतिशत, कांग्रेस 12 प्रतिशत), भाजपा 11 प्रतिशत, अन्य – 5 प्रतिशत।

तमिलनाडु:- अन्ना द्रमुक – 41 प्रतिशत, द्रमुक+कांग्रेस-38 प्रतिशत(द्रमुक- 32 प्रतिशत, कांग्रेस- 6 प्रतिशत), पी.एम.के – 5 प्रतिशत, डी.एम.डी.के.- 6 प्रतिशत, अन्य (-7 प्रतिशत)।

केरल :- वाम लोकतांत्रिक मोर्चा – 44 प्रतिशत, संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा – 37 प्रतिशत, भाजपा – 14 प्रतिशत, अन्य – 5 प्रतिशत।

पुडुचेरी:- कांग्रेस+द्रमुक – 40 प्रतिशत, ए.आई.एन.आर.सी. – 28 प्रतिशत, अन्नाद्रमुक – 17 प्रतिशत, अन्य-15 प्रतिशत।

बुर्जुआ मीडिया और भाजपाई भोंपू मोदी की देशव्यापी स्वीतकार्यता का शोर इस क़दर मचाते हैं कि लगता है मानो बहुसंख्यक जनता ने हिन्दुत्ववादी फासीवाद और उसकी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को दोनों हाथ उठाकर स्वीकृति दे दी हो। लेकिन यह सब बुर्जुआ संसदीय जनतंत्र में अल्प मत-बहुमत के करामाती खेल का कमाल भर है, यह समझने के लिए एक बार फिर यह याद दिला देना काफ़ी होगा कि 2014 में मोदी को लोकसभा चुनावों में 31 प्रतिशत मत मिले थे, जो कुल मतदाताओं के 20 फीसदी से थोड़ा ही अधिक बैठता है। 1984 के उन लोकसभा चुनावों को छोड़कर, जिनमें कांग्रेस इन्दिरा गाँधी की हत्या से पैदा हुई सहानुभूति-लहर पर सवार थी, भारत में कभी भी किसी चुनाव में जीतने वाली पार्टी या गठबन्धन को 50 प्रतिशत से अधिक मत नहीं मिले हैं।

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उपरोक्त तथ्यों और आँकड़ों की प्रस्तुुति के पीछे हमारा मंतव्य खास तौर पर यह दर्शाना है कि समूचा बुर्जुआ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिण्ट मीडिया तथा भाजपाई प्रचार तंत्र जिस रूप में विधानसभा चुनावों में भाजपा की सफलता को दिखला रहे हैं और इसे मोदी सरकार की नीतियों एवं कारगुजारियों की लगातार बढ़ती जनस्वीकार्यता के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, उस ढोल की पोल क्या है! आम तौर पर हमारा मन्तव्य यह स्पष्ट करना है कि बुर्जुआ संसदीय प्रणाली में अल्पमत-बहुमत का खेल कितना भ्रामक होता है और इस विधि से प्राप्त जनादेश वस्तुत: बहुसंख्यक जनसमुदाय की वास्तविक आकांक्षाओं को सटीकता के साथ अभिव्यक्ति कर ही नहीं सकता। लेकिन यह बात केवल भाजपा की वर्तमान सफलता के सन्दर्भ में नहीं बल्कि समूची संसदीय चुनाव प्रणाली के साथ लागू होती है। इन्हीं  तथ्यों और आँकड़ों के आधार पर इन दिनों संसदीय वाम दलों के प्रवक्ता, नेता और विश्लेषक तथा कुछ सामाजिक जनवादी मिजाज के वाम बुद्धिजीवी यह साबित करके खुद को तसल्ली देने की कोशिश कर रहे हैं कि भाजपाई लहर अब उतार पर है। वे बार-बार यह दिखा रहे हैं कि इन्हीं चार राज्यों में 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिले वोट प्रतिशत में और सीट प्रतिशत में (लोकसभा सीटों को यदि विधानसभा सीटों में बाँटकर देखें तो) इस बार गिरावट आ गयी है। इस तसल्ली के साथ ऐसी कथित वाम धारा के लोग आँखों में घूरती सच्चाई से मुँह मोड़कर ‘डिनायल मोड’ में चले जाते हैं और प्रत्यक्ष परोक्ष रूप में जनता को यह सन्देश देने लगते हैं कि अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा पराजित हो जायेगी और इस प्रकार हिन्दुत्ववादी फासीवाद को धूल चटा दी जायेगी।

इस ख़तरनाक मिथ्याभासी तर्क को कई कोणों से देखने और चीरफाड़ करने की ज़रूरत है। पहली बात तो यह कि इतिहास से सबक लेने वाला कोई भी व्यक्ति आगामी लोकसभा चुनावों के बारे में इस कदर आश्वस्त नहीं हो सकता। कांग्रेस की स्थिति में कुछ सुधार भले ही हो, लेकिन चमत्कारी उछाल की कोई सम्भावना नहीं है। जिन क्षेत्रीय पार्टियों का देश के बहुसंख्यक हिस्से पर शासन है, इन्हें कभी भी भाजपा से हाथ मिलाने में कोई परहेज नहीं रहा है। ये पार्टियाँ दरअसल बड़े फार्मरों-बुर्जुआ भूस्वामियों और क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग की पार्टियाँ हैं, जिन्हें भाजपा के फासीवाद और निरंकुश नवउदारवाद से कोई परहेज नहीं रहा है। इन पार्टियों के सामाजिक आधार में भाजपा लगातार सेंध भी लगाती जा रही है।

इससे भी बुनियादी बात यह है कि हिन्दुत्ववादी फासीवाद के खतरे को चुनावी हार-जीत के आधार पर कत्तई नहीं आँका जा सकता। यदि एक लम्बे  दौर की आम प्रवृत्ति को देखा जाये तो भाजपा के वोट प्रतिशत में होने वाली वृद्धि का ग्राफ़ यह दर्शाता है कि भारत में फासीवाद का सामाजिक आधार लगातार विस्तारित हो रहा है और मजबूत हो रहा है। 1995 से 2016 के बीच असम में भाजपा का वोट प्रतिशत 10.4 प्रतिशत से बढ़कर 29.5 प्रतिशत, बंगाल में 6.6 प्रतिशत से बढ़कर 10.2 प्रतिशत और केरल में 5.4 प्रतिशत से बढ़कर 10.5 प्रतिशत हो गया। उपरोक्त आँकड़ों से स्थिति साफ़ हो जाती है।

किसी भी बुर्जुआ संसदीय प्रणाली के अन्ततर्गत चुनाव जीतकर यदि फासिस्ट सत्ता में आते हैं तो इसका मतलब यह कत्तई नहीं होता कि बहुसंख्यक जनता उसके साथ है, लेकिन इतना तो ज़ाहिर है कि चुनावी जीत भी बताती है कि फासिस्ट उभार उठान पर है और समाज में इस धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन का आधार विस्तारित हो रहा है। अत: इस तथ्य से आँखें कत्तई नहीं मूँदी जा सकती कि भाजपा के वोट प्रतिशत में इजाफा फासिस्ट संकट की चुनौती की गम्भीरता को रेखांकित कर रहा है। यदि 2011 और 2016 की भी तुलना करें तो असम में भाजपा के वोट प्रतिशत में 11.5 प्रतिशत से 29.5 प्रतिशत, केरल में (गठबन्धन  के दलों सहित) 6.0 से 14.4 प्रतिशत, पं.बंगाल में 4.1 प्रतिशत से 10.3 प्रतिशत और तमिलनाडु में 2.2 प्रतिशत से 2.8 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। 2011 में देश के 6 राज्यों  में अकेले और 3 राज्यों में गठबन्धन बनाकर भाजपा सत्ता में आयी थी, कांग्रेस 11 राज्यों में अकेले और 2 में गठबन्धन बनाकर सत्तासीन हुई थी तथा 6 राज्यों में क्षेत्रीय दलों की व एक में वाम दलों की सरकार बनी थी। 2016 में 9 राज्यों में भाजपा अकेले और 4 में गठबन्धन के दलों के साथ सत्ता रूढ़ है, कांग्रेस 6 राज्यों में सिमट गयी है, क्षेत्रीय दलों के कब्जे में 9 राज्य हैं और दो पर संसदीय वाम काबिज है। 2017 में पंजाब, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर में तथा 2018 में हिमाचल, मेघालय, कर्नाटक, और मिजोरम के विधान सभा चुनाव होने हैं। इनमें से कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखण्ड में भाजपा की ही सरकार बनने की अधिक सम्भावना है। पंजाब में आप पार्टी और कांग्रेस के बीच मत विभाजन के बावजूद यदि अकाली-भाजपा गठबन्धन  दुबारा सत्ता  में नहीं आ पाया, तो भी भाजपा के वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी की सम्भावना है। असम के बाद भाजपा अब पूर्वोत्तर को लेकर दूरगामी रणनीति पर काम कर रही है, जिसमें विशेषकर हिन्दुत्व की राजनीति के साथ-साथ विभिन्न उपराष्ट्रीयताओं की पहचान राजनीति को हवा देने और उनके आपसी टकरावों का लाभ उठाने के साथ ही कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के स्थानीय क्षत्रपों को साथ मिला लेने की जोड़-तोड़ भी शामिल है।

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तात्पर्य यह कि, कुल मिलाकर, भाजपा की चुनावी सफलताएँ और आज़ादी के बाद पहली बार सबसे बड़े राष्ट्रीय दल के रूप में उसका उभरकर सामने आना भारतीय राजनीति में संघ परिवार की हिन्दुत्ववादी फासीवादी राजनीति के प्रचण्ड  उभार का एक महत्वपूर्ण संकेतक है, लेकिन चुनाव परिणामों के इस विश्लेषण से यह कत्तई नहीं समझा जाना चाहिए कि संसदीय वाम, कांग्रेस और क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ यदि तालमेल करके चुनावों में भाजपा को शिकस्त दे दें या 2019 के आम चुनावों में जीतकर यदि कांग्रेस गठबन्धन फिर से केन्द्र में सत्तासीन हो जाये तो हिन्दुत्ववादी फासीवादी लहर को पीछे धकेल दिया जायेगा। बुर्जुआ संसदीय चुनावों में हराकर नहीं, बल्कि व्यापक मेहनतकश जन समुदाय को लामबन्द करके सड़कों पर आर-पार की लड़ाई में ही फासीवाद को निर्णायक शिकस्त दी जा सकती है। फासीवाद को निर्णायक शिकस्त देने का मतलब एक ही हो सकता है और वह है उसे नेस्तनाबूद कर देना। भाजपा हिन्दुत्ववाद का मात्र संसदीय मोर्चा है। हिन्दुत्ववाद हर फासीवादी आन्दोलन की तरह एक धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है। यह मुख्यत: मध्य वर्ग का सामाजिक आन्दोलन है, जिसके साथ उत्पादन प्रक्रिया से कटे हुए विमानवीकृत मज़दूर भी खड़े हैं और जिसे बड़े-छोटे पूँजीपतियों और कुलकों-फार्मरों के बहुलांश का- यानी बुर्जुआ सत्ता के सभी छोटे-बड़े हिस्सेेदारों के बहुलांश का समर्थन हासिल है। इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन का संघ परिवार का कैडर आधारित सांगठनिक ढाँचा हरावल दस्ता है। इसका कारगर प्रतिरोध एक क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन ही कर सकता है जिस पर मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति का वर्चस्व एक कैडर आधारित सांगठनिक ढाँचे के माध्यम से स्थापित हो। इस लड़ाई की प्रकृति का सादृश्य निरूपण यदि सामरिक संघर्ष से करें तो कहा जा सकता है कि यह छापामार युद्ध (गुरिल्ला वारफेयर) या चलायमान युद्ध (मोबाइल वारफेयर) जैसी न होकर दीर्घकालिक स्थितियों के युद्ध (पोजीशनल वारफेयर) जैसी होगी। फासिस्टों ने विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के रूप में समाज में अपनी खन्दकें खोद रखी हैं और बंकर बना रखे हैं। हमें भी अपनी खन्दकें  खोदनी होगी और बंकर बनाने होंगे। बेशक यह काम मेहनतकश जन समुदाय के राजनीतिक और आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ होगा और मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति का केन्द्र यदि संगठित हो तो रणकौशल के तौर पर बुर्जुआ संसदीय चुनावों के मैदान में भी फासिस्टोंे से भिड़ंत की जा सकती है, लेकिन यह मुगालता पालना आत्मघाती होगा कि चुनावी हार-जीत से फासिस्टों को पीछे धकेला जा सकता है। मेहनतकश जन समुदाय (शहरों-गाँवों के सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा) के सभी हिस्सों का फासीवाद-विरोधी साझा मोर्चा आज की सर्वोपरि ज़रूरत है। इसके बाद ही निम्न मध्य वर्ग के रैडिकल, सेक्युलर तत्वों- विशेषकर छात्रों-युवाओं की जुझारू आबादी को, मजबूती से साथ लिया जा सकेगा। बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा या बुर्जुआ वर्ग की कोई भी पार्टी फासीवाद विरोधी संघर्ष में मेहनतकश जनता का रणनीतिक मित्र नहीं हो सकती। संसदीय वाम जब फासीवाद विरोधी संघर्ष को चुनावी संघर्ष और प्रतीकात्मक प्रतिरोधों तक सीमित कर देता है, जब वह मज़दूर वर्ग की राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक संघर्षों को तिलांजलि देकर उसकी राजनीतिक चेतना को कुन्द करता है, जब वह मुट्ठीभर संगठित कुलीन मज़दूरों तक सिमटकर 95 प्रतिशत अतिशोषित असंगठित सर्वहाराओं को पूँजीवादी निर्बन्ध लूट और बुर्जुआ राजनीतिक वर्चस्व की अधीनस्थता के लिए अरक्षित छोड़ देता है, तो वह एक ऐतिहासिक अपराध और ऐतिहासिक विश्वासघात करता है।

ग़ौरतलब है कि 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से ही, भाजपा चाहे सत्ता में रहे या न रहे, हिन्दुत्ववादी फासीवादी लहर थोड़ा आगे-पीछे होते हुए, कभी कुछ तेज तो कभी मद्धम गति से लगातार आगे बढ़ती रही है। आगे भी भारतीय बुर्जुआ समाज में यह लगातार अपनी ज़्यादा से ज़्यादा आक्रामक उपस्थिति तब तक बनाये रखेगी, जबतक क्रान्तिकारी राजनीति संगठित होकर इसका प्रतिरोध नहीं करेगी।

बीसवीं शताब्दी में बुर्जुआ राजनीति में धुर दक्षिणपन्थी और फासिस्ट प्रवृत्तियाँ विशेषकर उन दौरों में मजबूत होकर सिर उठाती थीं जब पूँजीवाद आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले आर्थिक संकट और मन्दी के दौर से गुजरता था। 1920-30 के दशकों की महामन्दी और महाध्वंस को समझे बिना हिटलर और मुसोलिनी को एक परिघटना के रूप में नहीं समझा जा सकता। उस समय पश्चिम के सभी देशों में फासीवाद एक आन्दोलन  के रूप में फैला था। अब विश्व पूँजीवाद 1970 के दशक से ही जिस दीर्घकालिक मन्दी को झेल रहा है, उससे वह वस्तुत: कभी उबर पाया ही नहीं। पूँजीवाद का यह संकट ‘पीरियॉडिक’ न होकर ‘स्ट्रक्चरल’ (ढाँचागत) है। यह एक ‘टर्मिलन’ व्याधि है जो मृत्यु के साथ ही इसका पिण्ड छोड़ेगा। नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों से किसी प्रकार के ‘कीन्सियन रिट्रीट’ का स्पेेस लगभग न के बराबर बचा है। इन नीतियों को प्रभावी ढंग से कोई निरंकुश सत्ता ही लागू कर सकती है। यही कारण है कि आज बुर्जुआ जनवाद और नग्न‍ निरंकुश सत्ता के बीच की विभाजक रेखाएँ धूमिल होती जा रही हैं और पूरी दुनिया में, पश्चिम से पूरब तक, अधिकांश देशों में फासीवादी आन्दोलन  विभिन्न रूपों में सिर उठा रहे हैं और अपने सामाजिक आधारों का विस्तार कर रहे हैं। भारत में भी संघ परिवार 1925 से निरन्तर काम करता रहा है और समय-समय पर दंगों में तथा मज़दूर आन्दोलन विरोधी सरगर्मियों में अहम भूमिका भी निभाता रहा है, लेकिन नवउदारवाद का दौर ही वह काल रहा है जब रथयात्रा-बाबरी मस्जिद ध्वंस, गुजरात-2002 आदि अहम मुकामों से होता हुआ यह इस मुकाम तक आ पहुँचा है कि भाजपा आज सबसे बड़ी बुर्जुआ राष्ट्रीय पार्टी के रूप में केन्द्र में और देश के कई राज्यों में सत्ता सम्हालते हुए निरंकुश दमनकारी तरीके से नवउदारवादी नीतियों को लागू कर रही है और दूसरी ओर उसकी फासिस्ट गुण्डा वाहिनियाँ सड़कों पर उत्पात मचा रही हैं, धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित कर रही हैं तथा अन्धराष्ट्रवाद का उन्माद फैला रही हैं।

भाजपा सत्ता में रहे या न रहे, फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई की योजनाबद्ध, सांगोपांग, सर्वांगीण तैयारी क्रान्तिकारी एजेण्डे पर हमेशा प्रमुख बनी रहेगी, क्योंकि फासीवाद राजनीतिक परिदृश्य  पर अपनी प्रभावी उपस्थिति तबतक बनाये रखेगा, जबतक राज, समाज और उत्पादन का पूँजीवादी ढाँचा बना रहेगा। इसलिए फासीवाद विरोधी संघर्ष को हमें पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष के एक अंग के रूप में ही देखना होगा। इसे अन्य किसी भी रूप में देखना भ्रामक होगा और आत्मघाती भी। l

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016

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