निर्भयता के साथ सत्ता-व्यवस्था के चरित्र को बेनकाब करने वाली आह्वान जैसी पत्रिका का निकलना एक सराहनीय प्रयास

पूनम शर्मा, कलायत, कैथल, हरियाणा

मैं पिछले एक साल से आह्वान पत्रिका की पाठिका हूँ। मुझे इसका बेसब्री से इन्तज़ार रहता है। अब तो लगातार दो बार से संयुक्तांक ही आये हैं। मेरी सम्पादक मण्डल से अपील है कि इसे नियमित किया जाये क्योंकि आज के दौर में जब फ़ासीवादी सत्ता द्वारा आये दिन हमारे हक़ अधिकारों पर डाके डाले जा रहे हैं, श्रम कानूनों में बदलाव के नाम पर उन्हें ख़त्म किया जा रहा है, आवाज़ उठाने वाले पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों की हत्याएँ की जा रही हैं तो ऐसे में समाज को बदलाव के विचारों की बेहद ज़रूरत है। हम जानते हैं कि और भी तमाम कामों में पत्रिका से जुड़े साथी लगे रहते हैं लेकिन तमाम व्यस्तताओं के बावजूद इसकी नियमितता बरकरार रखी जाये इसलिए कि यह अपने आप में ही आन्दोलन है। दिमाग की खिड़कियाँ खोलने के लिए ऐसी पत्र-पत्रिकाओं की बड़ी भूमिका है। मैं लगभग एक साल पहले राजनीति से कोसों दूर थी। मुझे जब पहली बार आह्वान पत्रिका मिली तो मैंने जाना कि समाज में कितनी उथल-पुथल मची हुई है और उसके बाद ही मुझे कुछ राजनीति समझ आयी। आह्वान मेरी राजनीतिक समझदारी बढ़ाने में एक अच्छे शिक्षक की भूमिका निभा रही है। पिछले से पिछले अंक के ‘साम्प्रदायिक फ़ासीवादी सत्ताधारियों के गन्दे चेहरे से उतरता नकाब’ लेख पढ़ा और पता चला कि प्राचीन हिन्दू सभ्यता, नैतिकता, सदाचार, शुचिता के ढोल पीटने वाले भगवा फासीवादियों की सच्चाई क्या है। ऐसे ही अन्य लेख ‘दिव्यता के नये कामुक रूप और बाज़ारू अवतार’, ‘हरियाणा की शिक्षा व्यवस्था राम भरोसे’, ‘पाप और विज्ञान’ आदि लेखों से भी जाना कि किस प्रकार से पूँजीवादी सत्ता हर चीज़ का अपने मुनाफ़े के लिए कैसे इस्तेमाल करती है। मुम्बई में 200 से ज़्यादा लोगों की मौत ज़हरीली शराब के कारण हो गयी। लेकिन इस दुर्घटना की असली ज़िम्मेदार ये मानवद्रोही व्यवस्था है जिसमें ग़रीब मज़दूरों की ज़िन्दगी की कोई कीमत नहीं होती। पूँजीपतियों द्वारा बेहद सस्ती दरों में ख़रीद कर उनकी हड्डियों तक को निचोड़ लिया जाता है क्योंकि उनको मुनाफ़ा कमाने के लिए एक पुर्जे से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जाता है। लेख इस चीज़ पर भी रोशनी डालता है। भारत जैसे देश में जहाँ धर्म-जाति के झगड़ों, रूढ़ियों-अन्धविश्वासों की भरमार है। ऐसे में ‘विज्ञान के विकास का विज्ञान’ लेख भी बेहद महत्वपूर्ण है जो न केवल कई भ्रान्तियाँ दूर करता है बल्कि विज्ञान को समझने का नज़रिया भी देता है। इस बार के अंक के लेख भी महत्त्वपूर्ण थे। आपसे पुनः यह बात कहना चाहूँगी कि पत्रिका की नियमितता पर ध्यान दिया जाये।


मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2016

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