जीवन की अपराजेयता और साधारणता के सौन्दर्य का संधान करने वाला कवि वीरेन डंगवाल
कविता कृष्ण्पल्लवी
कैंसर ने एक लम्बी लड़ाई में अजेय आत्मा वाले हिन्दी कवि वीरेन डंगवाल के जर्जर शरीर को अन्ततोगत्वा पराजित कर दिया। विगत 28 सितम्बर, 2015 को बरेली में उनका निधन हो गया। साथी वीरेन डंगवाल का निधन हिन्दी कविता की जीवन्त, प्रामाणिक वाम जनवादी धारा के लिए गहरा आघात है।
वीरेन डंगवाल हिन्दी के उन विरल समकालीन कवियों में से एक थे, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फाँक नहीं थी। वे एक बेहद जीवन्त, नेकदिल और पारदर्शी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे, जिनसे मिलना भी किसी को उतना ही ऊर्जस्वी बना देता था, जितना उनकी कविताओं को पढ़ना। ‘एक अच्छा कवि पहले एक अच्छा इंसान होता है’ – यह बात उनके ऊपर पूरी तरह से लागू होती थी। वीरेन डंगवाल की नेकदिली और संवेदनशीलता दरअसल मनुष्यता के भविष्य, और आम उत्पीड़ित जनों की संघर्षशीलता एवं सर्जनात्मकता के प्रति उनकी अटूट आस्था का ही विस्तार और अभिव्यक्ति थी। उनकी कविताएँ उनकी इसी आस्था को भरपूर ईमानदारी और शक्ति के साथ स्वर देती थीं। अपनी दुर्लभ मौलिक प्रतिभा के बावजूद वीरेन डंगवाल के व्यक्तित्व और कृतित्व में असाधारणता की अलौकिक आभा नहीं, बल्कि साधारणता की विरल जीवन्तता और आत्मीयता थी। वे जीवन की अपराजेयता, मनुष्यता की जिजीविषा और युयुत्सा तथा साधारणता के सौन्दर्य का संधान करने वाले अद्वितीय कवि थे। अपनी पीढ़ी के कवियों में उनका स्वर एकदम अलग और मौलिक था।
हमारा समय एक ऐसे विशाल, गहरे, अंधकारमय दलदली गड्डे के समान है, जिसमें समाज के संवेदनशील बौद्धिक जन भी धँसे पड़े हैं। इनमें से कुछ बस उन दिनों को याद करके राहत पाने की निष्फल कोशिश कर रहे हैं, जब वे गड्डे के बाहर थे। कुछ ऐसे हैं जिन्होंने गड्डे के जीवन को अपनी नियति मान लिया है। वे गड्डे के जीवन में ही सार्थकता और सौन्दर्य का संधान कर रहे हैं या फिर इसी गड्डे में किसी बेहतर, सुकूनतलब, सूखे कोने की तलाश को एकमात्र मुक्तिमार्ग बताने लगे हैं। कुछ हैं जो बाहर की स्वच्छ ताज़ा हवा वाली दुनिया को एक मिथकीय महाख्यान घोषित कर चुके हैं और गड्डे और गड्डे के बाहर की दुनिया के अन्तर को मात्र एक भाषाशास्त्रीय खेल या मनोगत विभ्रम बता रहे हैं। कुछ निरुपाय –असहाय आशावादी हैं जो गड्डे में लेटे हुए ऊपर आसमान में छिटके तारों की रोशनी की ओर देखते रहते हैं। लेकिन बहुत थोड़े से ऐसे लोग भी हैं जो गड्डे से बाहर निकलने के बारे में आश्वस्त हैं और इसके लिए भिड़ायी जाने वाली जुगतों के बारे में लगातार बातें भी कर रहे हैं। ऐसे बौद्धिक जनों में हिन्दी के जिन बहुत थोड़े से कवियों को शामिल किया जा सकता है, उनमें वीरेन डंगवाल का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
5 अगस्त, 1947 को टिहरी गढ़वाल (उत्तराखण्ड) के कीर्तीनगर में जन्में वीरेन डंगवाल ने मुजफ़्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली और नैनीताल में शुरुआती शिक्षा के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. और डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त की। 1971 से बरेली कॉलेज में अध्यापन के साथ ही वे हिन्दी और अंग्रेजी में पत्रकारिता भी करते रहे। कविताएँ लिखने की शुरुआत उन्होने 1965 के आसपास, यानी अपने छात्र जीवन के दौरान ही कर दी थी। 1967 के नक्सलबाड़ी किसान उभार के बाद जब भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर क्रांतिकारी वाम राजनीति की विस्फोटक शुरुआत हुई तो सभी भारतीय भाषाओं का साहित्य इससे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से गहराई से प्रभावित हुआ। वीरेन डंगवाल भी इससे अछूते नहीं रहे। सत्तर का दशक लघु पत्रिका आन्दोलन और वाम – जनवादी साहित्यों के उत्कर्ष का काल था। नक्सलबाड़ी किसान उभार के बाद के दौर के सामाजिक–राजनीतिक परिदृश्य ने हिन्दी के उन कवियों को भी प्रभावित किया जो नक्सलबाड़ी के बाद अस्तित्व में आयी क्रान्तिकारी वाम राजनीति से सहमति नहीं रखते थे। इस क्रान्तिकारी वाम राजनीतिक धारा पर जल्दी ही वाम दुस्साहसवादी विचलन का प्रभाव हावी हो गया। गतिरोध और टूट-फूट के एक अविराम सिलसिले की शुरुआत के कुछ समय बाद दक्षिणपंथी अवसरवादी वाम की विविध विचलनशील प्रवृत्तियाँ भी सामने आयीं। लेकिन दो छोरों के इन भटकावों के बीच क्रान्तिकारी जनदिशा पर काम करने वाली धाराएँ एक सही दिशा, कार्यक्रम और क्रान्तिपथ के संधान के लिए निरन्तर सक्रिय रही हैं और आज भी हैं। संसदमार्गी मार्ग के निर्लज्ज, अनावृत्त अवसरवाद ने उत्तरोत्तर इस बात को ज़्यादा से ज़्यादा साफ कर दिया है कि अगर कोई उम्मीद की जा सकती है तो बद्धमूल जड़सूत्रवाद और संसदमार्गी वाम के विचलनों से मुक्त क्रान्तिकारी जनदिशा की अनुसंधित्सुक धाराओं से ही की जा सकती है। वीरेन डंगवाल क्रांतिकारी वाम के किसी गुट या संगठन से सम्बद्ध नहीं थे। वे बुनियादी तौर पर कला-साहित्य की दुनिया के आदमी थे, लेकिन उनकी विचारधारात्मक-राजनीतिक अवस्थिति बुनियादी मुद्दों पर सर्वथा स्पष्ट थी। “वामपंथी” दुस्साहसवादी अतिरेकी स्वर न तो उन्हें राजनीति में रुचता था न ही कविता में। दक्षिणपंथी अवसरवादी पैंतरापलट से भी वह लगातार दूरी बरतते थे।
सत्तर के दशक की शुरुआत के साथ ही वाम जनवादी कविता के व्यापक वर्णक्रम को लेकर युवा कवियों के कई और नये-नये, महत्वपूर्ण नाम जुड़ते चले गये। पहले से सृजनरत कुछ कवि भी एक रचनात्मक-वैचारिक मोड़ लेकर इस कतार में शामिल हो गये। मंगलेश डबराल, पंकज सिंह, आलोकधन्वा, ज्ञानेन्द्रापति, वेणु गोपाल, कुमार विकल, अरुण कमल, राजेश जोशी, मनमोहन, असद जैदी, ऋतुराज, सोमदत्त, भगवत रावत, कुमारेन्द्र, पारसनाथ सिंह, विष्णु खरे, विष्णु नागर, इब्बार रब्बी, नरेन्द्र जैन, उदय प्रकाश, सुरेश सलिल, विजेन्द्र आदि कवि अपनी विशिष्ट शैलियों के चलते चर्चित हुए। इन पचासेक नामों के बीच वीरेन डंगवाल की एक अलग पहचान बनी। उनकी कविताई सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध के उस चालू चलन से अप्रभावित रही जब हिन्दी भी वाम जनवादी कविता अग्निवर्षी वाचालता और राजनीतिक बयानबाजी की बुरी तरह शिकार थी। अस्सी के दशक में इस अतिरेक से मुक्ति के नाम पर जब आरोपित ढंग से वाम कविता में ‘फूल, चिड़िया, नदी, पहाड़, ऋृतुओं आदि की वापसी’ हो रही थी, तब भी वीरेन विश्वास, सादगी और सहजता के साथ कविता में अपने ढंग से साधारण चीजों और दैनन्दिन जीवन की गति तथा उम्मीदों और संघर्ष के सौन्दंर्य का आख्यान रचते रहे। गत शताब्दी के अन्तिम दशक में जब बहुतेरे वामपंथी कवि चौंक-चमत्कार भरे रूपकों-बिम्बों के सहारे नवरूपवाद का नया घटाटोप रचने लगे थे, उस समय विशिष्ट मुहावरे रचते रहे।
कात्यायनी ने उन्हें श्रद्धांजजि देते हुए लिखा थाः “अपने समय के कवियों की तुलना में वीरेन दा ने कम लिखा, लेकिन उनकी कविताओं की चिन्ताओं और सरोकारों का दायरा व्यापक था – अपने समय की बड़ी-बड़ी दुश्चिन्तांओं और मनुष्यता के सामने उपस्थित ऐतिहासिक संकटों एवं चुनौतियों से लेकर छोटी-छोटी चीजों के जीवन को सहेजने से जुड़ी व्यग्रता, भूमण्डलीय दुश्चक्र से लेकर हमारे रोजमर्रा के जीवन से सहृदयता और मनुष्यता के विलोप की चिन्ता, टूटते हुए स्वप्नों और विसर्जित मुक्ति-परियोजनाओं की चिन्ता -और इन सभी चिन्ताओं पर भारी पड़ता जीवन-राग, जिजीविषा और युयुत्सा के स्वर, वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि से हासिल ‘उजले दिनों’ के फिर से आने की उद्दाम आशा।”
वीरेन डंगवाल की कविता का रास्ता देखने में सहज, लेकिन वास्तव में काफी बीहड़ था। उदात्तता और सूक्ष्मतग्राही संवेदना उनके सहज गुण हैं। ये कविताएँ भारतीय जीवन के दुःसह पीड़ादायी संक्रमण के दशकों की आशा-निराशा, संघर्ष-पराजय और स्वप्नों के ऐतिहासिक दस्तावेज के समान हैं। वीरेन ने अपने ढंग से निराला, नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन जैसे अग्रज कवियों की परम्परा को आगे विस्तार दिया और साथ ही नाज़िम हिकमत की सर्जनात्मकता से भी काफी कुछ अपनाया, जो उनके प्रिय कवि थे। जीवन-काल में उनके तीन संकलन प्रकाशित हुए – ‘इसी दुनिया में’ (1991), ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ (2002) और ‘स्याहीताल’ (2010)। उनकी ढेरों कविताएँ और ढेर सारा गद्य अभी भी अप्रकाशित है। नाज़िम हिकमत की कुछ कविताओं का उनके द्वारा किया गया अनुवाद ‘पहल-पुस्तिका’ के रूप में प्रकाशित हुआ था, लेकिन बहुतेरी अभी भी अप्रकाशित हैं। उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊष रोजेविच आदि कई विश्वविख्यात कवियों की कविताओं के भी बेहतरीन अनुवाद किये थे। उनकी कविताएँ उत्तरवर्ती पीढ़ियों को ज़िन्दादिली के साथ जीने, ज़िद के साथ लड़ने और उम्मीदों के साथ रचने के लिए हमेशा प्रेरित और शिक्षित करती रहेंगी। पाब्लो नेरूदा ने कहा थाः “कविता आदमी के भीतर से निकलती एक गहरी पुकार है।” वीरेन डंगवाल की कविताएँ ऐसी ही कविताएँ हैं।
वीरेन के साथी कवि मंगलेश डबराल ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा हैः “कविता वीरेन की पहली प्राथमिकता भी नहीं थी, बल्कि उसकी संवेदनशीलता और इंसानियत के भविष्य के प्रति अटूट आस्था का ही एक विस्तार, एक आयाम थी, उसकी अच्छाई की महज़ एक अभिव्यक्ति और एक पगचिन्हक थी। तीन संग्रहों में प्रकाशित उसकी कविताएँ अनोखी विषयवस्तु और शिल्प के प्रयोगों के कारण महत्वहपूर्ण हैं, जिनमें से कई जन आन्दोलनों का हिस्सा बनी। उनकी रचना एक ऐसे कवि ने की है, जो कवि कर्म के प्रति बहुत संजीदा नहीं रहा। यह कविता मामूली कही जाने वाली चीजों और लोगों को प्रतिष्ठित करती है, और इसी के जरिए जनपक्षधर राजनीति भी निर्मित करती है। वीरेन की कविता एक अजन्मे बच्चे को भी माँ की कोख में फुदकते रंगीन गुब्बारे की तरह फूलते-पिचकते, कोई शरारत भरा करतब सोचते हुए महसूस करती है, दोस्तों की गेंद जैसी बेटियों को अच्छे भविष्य का भरोसा दिलाती है और उसका यह प्रेम मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, वनस्पतियों, फेरीवालों, नींबू, इमली, चूने, पाइप के पानी, पोदीने, पोस्टकार्ड, चप्पल और भात तक को समेट लेता है। वीरेन की संवेदना के एक सिरे पर शमशेर जैसे क्लासिकी ‘सौन्दर्य के कवि’ हैं, तो दूसरा सिरा नागार्जुन के देशज, यथार्थपरक कविता से जुड़ता है। दोनों के बीच निराला हैं जिनसे वीरेन अँधेरे से लड़ने की ताकत हासिल करता रहा। उसकी कविता पूरे संसार को ढोने वाली नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत की पहचान करती कविता है, जिसके विषय वीरेन से पहले हिन्दी में नहीं आये। वह हमारी पीढ़ी का सबसे चहेता कवि था, जिसके भीतर पी.टी. उषा के लिए जितना लगाव था, उतना ही स्याही के दावात में गिरी हुई मक्खी और बारिश में नहाये सूअर के बच्चों के लिए था। एक पेड़ पर पीले-हरे चमकते हुए पत्तों को देखकर वह कहता है, पेड़ों के पास यही एक तरीका है यह बताने का कि वे भी दुनिया से प्यार करते हैं। मीर तकी मीर ने एक रुबाई में ऐसे व्यक्ति से मिलने की ख्वाहिश जाहिर की है, जो सचमुच ‘मनुष्य’ हो, जिसे अपने हुनर का अहंकार न हो, जो कुछ बोले, तो पूरी दुनिया सुनने को इकट्ठा हो जाये और जब ख़ामोश हो तो लगे कि दुनिया ख़ामोश हो गयी है। वीरेन की शख़्सियत कुछ ऐसी ही थी, जिसके खामोश होने से जैसे एक दुनिया ख़ामोश हो गयी है।”
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर 2015-फरवरी 2016
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