हरियाणा की शिक्षा व्यवस्था राम भरोसे!
रमेश
किसी भी समाज में शिक्षा को एक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए और अगर कोई व्यवस्था समाज के एक बड़े हिस्से को शिक्षा से महरूम रखती हो तो जनता का यह कर्तव्य बन जाता है कि ऐसी व्यवस्था को प्रशान्त महासागर की गहराइयों में पहुँचा दे। यूँ तो पूरे देश में शिक्षा व्यवस्था का ढाँचा बहुत ही खस्ता हालत में हैं पर ख़ासकर उन सरकारी स्कूलों के हालात और भी दयनीय हैं जिनमें ग़रीब आबादी के बच्चे पढ़ते हैं। चौटाला, हुड्डा से लेकर अब खट्टर सरकार ‘नम्बर वन हरियाणा’ के ढोल खूब पीटते दिखायी देती हैं लेकिन अभी एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा देश में शिक्षा के मामले में 22वें स्थान पर आता है! अभी हाल में आया हरियाणा बोर्ड की 10वीं कक्षा का परिणाम इस बात को शब्दशः साबित करता है क्योंकि परीक्षा में 41 फीसदी बच्चे ही पास हुए हैं और यह सरकारी और प्राईवेट दोनों स्कूलों का परिणाम है! अगर सरकारी स्कूलों का प्रतिशत निकालें तो पास प्रतिशत 4 प्रतिशत कम है यानी 60 फीसदी से भी ज़्यादा बच्चे फेल हो गये हैं। इससे साबित होता है कि हरियाणा सरकार शिक्षा के इस बचे-खुचे ढाँचे को भी ख़त्म करने पर तुली हुई है। हरियाणा के बजट मे शिक्षा, खेल और कला के लिए सिर्फ़ 1-7 फीसदी ख़र्च रखा गया है! एक ऐसे राज्य में जो लगातार खेल की बेहतरीन प्रतिभाओं को जन्म देता रहा है क्या यह उस राज्य के खिलाड़ी युवाओं के साथ एक भद्दा मज़ाक नहीं है? सच तो यह है कि हरियाणा से निकलने वाले तमाम युवा खिलाड़ी अक्सर बिना किसी प्रकार की सहायता, संरक्षण या उच्च कोटि के प्रशिक्षण के ही अपनी प्रतिभा और मेहनत के बूते देश-दुनिया में अपनी काबिलियत के झण्डे गाड़ रहे हैं। कल्पना करें, यदि कोई जनपक्षधर सरकार हरियाणा के युवाओं को खेल का उच्चस्तरीय प्रशिक्षण, निवेश, संरक्षण और सहायता दे तो हरियाणा कितनी नयी खेल प्रतिभाओं को जन्म दे सकता है। यही बात शिक्षा व्यवस्था पर भी लागू होती है। शिक्षा बजट की खानापूर्ति से समझा जा सकता है कि सरकारी शिक्षा प्रणाली को कमज़ोर करने की यह सोची समझी नीति है, ताकि निजी स्कूलों का अरबों का धन्धा खूब फले-फूले।
यूँ तो ‘शिक्षा अधिकार कानून’ के तहत प्राथमिक स्कूलों में 30 छात्रों पर एक अध्यापक और माध्यमिक में 35 पर एक अध्यापक होना चाहिए लेकिन मौजूदा समय में यह अनुपात 45 और 50 पर एक अध्यापक है। इनमें बड़ा हिस्सा अस्थाई या ठेका शिक्षकों का है जिन्हें हरियाणा में अतिथि अध्यापकों (गेस्ट टीचर) के नाम से जाना जाता है। इनके सिर पर हमेशा छँटनी की तलवार लटकती रहती है। जो आदमी लगातार अपनी नौकरी के लिए ही चिंतित रहे वह बच्चों को रचनात्मक तरीके से किस तरह पढ़ायेगा यह भी सोचा जा सकता है। वैसे खट्टर सरकार बड़ी बेशर्मी से ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ की नौटंकी करती है जबकि राज्य में 40 हज़ार शिक्षकों के पद खाली हैं। इन पदों को भरना तो दूर बल्कि सरकार लगभग 16 हज़ार अतिथि अध्यापकों को निकालने पर तुली है। खट्टर सरकार हरियाणा-पंजाब हाई-कोर्ट के शपथ-पत्र में 4,073 अतिथि अध्यापकों को अतिरिक्त बताती है जबकि स्कूल अध्यापकों की कमी से जूझ रहे हैं। ‘नम्बर वन’ हरियाणा में पढ़े-लिखे नौजवान नौकरियों के लिए मारे-मारे फिरते हैं वहीं दूसरी ओर सरकारी स्कूलों में अध्यापकों का टोटा है।
अधिकतर सरकारी स्कूलों में पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है और ऊपर से शौचालय व्यवस्था भी जर्जर है। मज़ेदार बात तो यह है कि हरियाणा के ज़्यादातर सरकारी स्कूलों के निर्माण के समये लगभग सारी ज़मीन स्थानीय गाँव वालों ने दान की थी और आम जनता ने अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई से स्कूल के कमरों का निर्माण करवाया था जिसमें सरकार की तरफ से सहायता नाममात्र की ही थी। सरकार अभी तक कुर्सी और टेबल सरीखी बुनियादी ज़रूरत के सामान नहीं खरीद पाई है! रख-रखाव तो दूर की बात है! असल में तमाम सरकारें पूँजीपतियों-कॉरपोरेट घरानों के सामने एकदम दण्डवत हैं और जनता से पाई-पाई निचोड़ कर उनके कदमों में अर्पण कर रही हैं और इस अव्यवस्था से ध्यान बँटाने के लिए हरियाणा के शिक्षामंत्री रामविलास शर्मा जी कभी गीता को पाठ्यक्रम में लाना चाहते हैं तो कभी सरस्वती नदी की बात करते हैं। असल में सरकार इसके ज़रिए नौजवानों का साम्प्रदायिकीकरण करना चाहती है ताकि नौजवान आबादी शिक्षा और रोज़गार के बुनियादी मुद्दों को छोड़कर धर्म-जाति के नाम पर बँटी रहे। दूसरा, अभी हाल में हरियाणा सरकार योग को भी सभी स्कूलों में लागू कर रही है लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में 69 फीसदी बच्चे ग़रीब दलित आबादी से आते हैं और बाकी बचे 31 प्रतिशत बच्चे भी बेहद ग़रीब और निम्नमध्यवर्गीय परिवारों से आते हैं। जिनके पेट पहले ही पीठ से लगे पड़े हैं उनको हरियाणा सरकार पता नहीं कौन सा योग करवायेगी। और इस योग साधना के लिए बकायदा खट्टर सरकार ने देश के सबसे बड़े ढोंगी और कॉरपोरेट बाबा रामदेव को योग मंत्री बनाने की तैयारी कर ली थी! हालाँकि रामदेव ही अपनी दुकानदारी चलाने के लिए एक पार्टी के साथ नहीं दिखना चाहते इसलिए रामदेव ने मंत्री पद त्याग दिया और “साधुता” का परिचय दिया! वैसे भी सरकारें बुनियादी शिक्षा के स्तर पर ध्यान न देकर तमाम दिखावटी योजनाओं को लागू कर रही हैं जिसका मकसद सिर्फ सरकारी विज्ञापनों पर अपना नाम चमकाना है। पिछले लम्बे समय से सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील की योजना लागू है जिसमें आमतौर पर (अपवादों को छोड़ दिया जाये तो) मुख्य अध्यापक से लेकर मिड-डे मील इन्चार्ज अध्यापक तक बच्चों पर खर्च होने वाला अधिकतर पैसा खुद हड़प जाते हैं और बच्चों को पौष्टिक व स्वच्छ भोजन के नाम पर ज़्यादातर गन्दा और पुराने गेंहू और चावल का दलिया दिया जाता है। आज के निजी मुनाफे की व्यवस्था और भ्रष्टाचार के आलम में हर योजना भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। असल में तो यह सोचने वाली बात है कि जिन घरों के बच्चे खाना तक भरपेट अपने घर नहीं खा सकते तो वे कैसी शिक्षा ग्रहण करेंगे? सही बात यह है कि सरकार की सारी नौंटकी आम मेहनतकश जनता से क्रूर और भद्दा मज़ाक है।
असल में, गीता से लेकर योग की तमाम नौटंकी का असली मकसद जनता को भरमाकर और सोची-समझी चाल के तहत शिक्षा के रहे-सहे ढाँचे को नष्ट कर प्राइवेट शिक्षा माफ़िया को खुला हाथ देना है। शिक्षा के क्षेत्र में एनजीओ तो सक्रिय हैं ही, पीपीपी (पब्लिक-प्राईवेट पार्टनरशिप) के नाम पर इसे कम्पनियों को सौंपने की तैयारी भी हो रही है। योजना के तहत हरियाणा में पिछले 20 वर्षों में प्राइवेट स्कूलों की बाढ़-सी आयी है। सरकारी स्कूल तो लगातार खस्ता होते जा रहे हैं तो दूसरी ओर बड़े-बड़े फाइव-स्टारनुमा स्कूल राज्य के नेता-मंत्री या बड़े रसूखदार लोग खोलकर बैठे हैं। प्राइवेट स्कूल माफिया का सरकारों पर पूरा शिकंजा कसा हुआ है। हद तो तब हो गयी जब सरकार द्वारा तय 10 फीसदी ग़रीब बच्चों का कोटा तक इस गिरोह ने भरने से साफ मना कर दिया! यानी देश की जनता को भ्रम देने के लिए अमीर स्कूलों में ग़रीब बच्चों के लिए जो मज़ाकिया कोटा निर्धारित किया गया था, उसे भरना भी अब शिक्षा के माफ़िया को नागवार गुज़र रहा है। शिक्षा को पूरी तरह बाज़ार के हवाले कर दिया गया है। ज़ाहिर-सी बात है कि देश की 77 फीसदी आबादी जो 20 रुपये प्रतिदिन से नीचे गुज़र-बसर करती हो उसके लिए तो शिक्षा के दरवाज़े बन्द हैं फिर चाहे संविधान को कितना ही भारी-भरकम बना दिया जाय, जो वास्तव में पहले ही तमाम लफ्फाजियों का मोटा पुलिन्दा है। पूँजीवादी व्यवस्था में हर चीज़ बिकने के लिए पैदा होती है। शिक्षा को भी पूरी तरह एक बिकाऊ माल बना दिया गया है तो कोई आश्चर्य नहीं।
इस व्यवस्था में सारे अधिकार संविधान की तख्ती टंगी दुकान पर रखे होते हैं! ठीक वैसे ही जैसे बाज़ार में कार-टीवी से लेकर जूते-कपड़े आप ख़रीद सकते हैं लेकिन इसके साथ एक शर्त हैः आपकी जेब में भारी-भरकम बटुवा होना चाहिए। असल बात यह है कि जब तक यह मुनाफाखोर-आदमखोर व्यवस्था कायम रहेगी तब तक बिन एकजुटता और संघर्ष के ‘सबको निशुल्क व समान शिक्षा’ एक कपोल कल्पना ही है। इस देश की मेहनतकश जनता, छात्रों-नौजवानों, महिलाओं को मिलकर अपने शिक्षा के अधिकार के लिए देशव्यापी आन्दोलन खड़ा करना होगा। शिक्षा और रोज़गार के लिए सरकारों पर दबाव बनाना बेहद ज़रूरी है। यह सरकारों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह नागरिकों को तमाम बुनियादी सुविधाएँ दे क्योंकि सरकार के पास जो सरकारी ख़ज़ाना इकट्ठा होता है वह देश की जनता अपना पेट काट-काट कर मुख्य रूप से अप्रत्यक्ष कर के रूप में चुकाती है और उसका लक्ष्य यही होता है कि देश की जनता को उसके ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतें मिल सकें! मगर इस सरकारी ख़ज़ाने का बड़ा हिस्सा देश के पूँजीपति वर्ग को छूट, रियायतें और बेलआउट पैकेज देने में ख़र्च हो जाता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्टूबर 2015
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