नेपाल त्रासदी
सिमरन
25 अप्रैल 2015 को नेपाल में एक भयानक प्राकृतिक त्रासदी घटित हुई। नेपाल को रिक्टर स्केल पर 7-8 के एक भयंकर भूकम्प ने झकझोर के रख दिया। इस भूकम्प में 8000 से भी ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी और 20,000 से भी ज़्यादा लोग घायल हुए, जो लोग ज़िन्दा बच गए उनका घर-बार सब तबाह हो चुका है। नेपाल को दुनिया भर में लोग उसके प्राकृतिक सौन्दर्य, यूनेस्को द्वारा वर्ल्ड हेरिटेज घोषित की गयी इमारतों, प्राचीन बौद्ध मंदिरों और दुनिया के सबसे ऊँचे पर्वत हिमालय के घर के रूप में जानते हैं। हर साल लाखों की तादाद में सैलानी नेपाल घूमने जाते हैं। इनमें एक अच्छी-ख़ासी तादाद पर्वतारोहियों की भी होती है।
25 अप्रैल की सुबह आये इस भूकम्प ने काठमाण्डू शहर से लेकर दूर-दराज़ के गाँवों में सब तहस-नहस कर दिया। शहर के शहर साफ़ हो गए और जहाँ कभी लोगों के घर हुआ करते था आज वहाँ मलबे के ढेर हैं, राहत शिविरों में रह रहे नेपाल के लोगों के लिए यह भूकम्प एक श्राप की तरह आया था जो ग़रीबी में जी रहे नेपाल के लोगों से उनकी रोज़ी-रोटी और घर सब छीन कर ले गया। परन्तु क्या इसे महज़ प्रकृति का प्रकोप माना जाए? जब भी भूकम्प, सुनामी, बाढ़ जैसी आपदाएँ इंसानी ज़िन्दगी को नुकसान पहुँचाती है तो अक्सर यह कहा जाता है कि प्रकृति के ऊपर किसी का कोई ज़ोर नहीं है और ऐसी हालत में कुछ नहीं किया जा सकता। परन्तु अगर इंसान और प्रकृति के रिश्ते को ग़ौर से देखें तो समझ में आता है कि मनुष्य और प्रकृति एक सहजीवी साहचर्य (सिम्बायोटिक एसोसिएशन) में अस्तिवमान है। जब भी मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति के नियमों को ताक पर रख कर प्राकृतिक सम्पदा और संसाधनों का हनन किया है तब-तब उसके फलस्वरूप इंसानों को किसी न किसी प्राकृतिक त्रासदी का मुँह देखना पड़ा है। ये प्राकृतिक त्रसदियाँ अक्सर संसाधनों की अंधी लूट द्वारा मनुष्य के अस्तित्व के लिए पैदा हो रहे खतरे का संकेत होती हैं। इस परिस्थिति को अगर राजनीतिक अर्थशास्त्र के चश्मे से देखें तो हम इस बात को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।
मौजूदा पूंजीवादी समाज में मुट्ठी भर पूँजीपति घराने यह तय करते हैं कि उनके मुनाफे के लिए कितने जंगल काटे जाएँ और प्रकृति के अन्य संसाधनों को कैसे लूटा जाए। निश्चित ही इन कारणों के अलावा भी समय-समय पर प्रकृति में ऐसी नैसर्गिक परिघटनाएँ होती रहती हैं जिनका पूर्वानुमान लगाना सम्भव नहीं होता। यह प्रकृति के विकास की प्रक्रिया का अटूट हिस्सा होता है। नेपाल में आया भूकम्प भी इसी श्रेणी में आता है परन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि भूकम्प से होने वाली तबाही को नहीं रोका जा सकता।
भूकम्प अपने आप में लोगों की जान नहीं लेता। लोगों की जान जाने का मुख्य कारण यह व्यवस्था है। भूकम्प भी प्रकृति का उतना ही हिस्सा है जितना की इंसान! बेशक भूकम्प आने पर इंसानों को नुकसान होता है मगर इसको एक आपदा बनने से रोका जा सकता है। भूकम्प आने के कई कारण हो सकते है, जिनमे से एक मुख्य कारण होता है पृथ्वी की सतह के नीचे टेक्टोनिक प्लेट्स (पृथ्वी के क्रस्ट और मेंटल से बनी प्लेट्स जो लगातार खिसकती रहती है) का एक दूसरे से टकराना। नेपाल में भूकम्प की वजह हिमालयन फॉल्टलाइन (पृथ्वी के क्रस्ट में एक दरार) के ठीक पास दो टेक्टोनिक प्लेट्स का आपस में टकराना था। नेपाल और भारत के बीच में स्थित इस फॉल्टलाइन के नीचे इंडियन प्लेट और यूरेशियन प्लेट नाम की दो टेकटोनिक प्लेट्स है। हर साल इंडियन प्लेट 45 मिलीमीटर आगे बढ़कर यूरेशियन प्लेट को आगे खिसकाती है। हज़ारों साल की इसी लम्बी प्रक्रिया से हिमालय का जन्म हुआ था। भूगोल वैज्ञानिक पिछले कई दशकों से यह कह रहे हैं कि नेपाल में इस प्रक्रिया के कारण बेहद खतरनाक भूकम्प आने की सम्भावना है। अपनी ख़ास भौगोलिक परिस्थिति के कारण भूकम्प की चपेट में आना नेपाल के लिए असाधारण बात नहीं थी, सवाल सिर्फ इतना था कि यह भूकम्प कब आता है। इसके बावजूद नेपाल की सरकार ने भूकम्प आने की स्थिति में बचाव के लिए कोई उपाय नहीं किये। इस भूकम्प में सबसे ज़्यादा नुकसान पुरानी इमारतों और कच्चे मकानों को हुआ है यानी ग़रीब वर्ग को सबसे अधिक नुकसान हुआ है। काठमांडू शहर भूकम्प के उपरिकेन्द्र (एपिसेन्टर) बरपाक से ज़्यादा दूर नहीं है इसलिए यहाँ पुराने मकान ही भूकम्प के कारण ढह गए जबकि नई बनी पक्की इमारतों को कोई ख़ास नुकसान नहीं पहुँचा। पर्यटन का केन्द्र होने के कारण काठमांडू और उसके आस पास के इलाकों में महँगाई काफी ज़्यादा है जिसके कारण लोग अपने जीवनयापन की मूलभूत ज़रूरतें ही पूरी नहीं कर पाते हैं मकानों मरम्मत कराना तो दूर की बात है। इस भूकम्प ने ताश के पत्तों के घर की तरह उनके घरों को तबाह कर दिया। पूँजीवादी व्यवस्था में केवल मुनाफा तय करता है कि कौन-सी चीज़ अहम है। नेपाल की अर्थव्यवस्था पर्यटन से होने वाले आय पर काफ़ी हद तक निर्भर करती है और पर्यटन से पैसे कमाने वाले बड़े व्यापारियों और होटलों के मालिकों के लिए लोगों की सुरक्षा और ज़िन्दगी की कोई कीमत नहीं होती। यह जानते हुए भी कि एक भूकम्प कितनी तबाही मचा सकता है सरकार द्वारा पुराने कच्चे बने मकानों का कोई सर्वेक्षण नहीं कराया गया न ही उनकी मरम्मत के लिए कोई सुविधा मुहैया कराई गयी।
जापान का उदाहरण इस बात को समझने में मदद कर सकता है कि प्राकृतिक परिघटनाओं जैसे भूकम्प से होने वाले नुकसान से किस तरह बचा जा सकता है। जापान में आये दिन भूकम्प आते रहते है जिसकी वजह उसकी भौगोलिक परिस्थिति है। जापान पैसिफिक रिंग ऑफ फायर (यानी की सिस्मिक एक्टिविटी के केंद्र) के नजदीक है जिसके कारण जापान को कई भूकम्पों और उससे पैदा हुई सूनामियों का सामना करना पड़ा है मगर सबक लेकर वहाँ बनने वाले मकानों और बिल्डिगों का नक्शा व उसे बनाने में लगने वाले सामान को ऐसे चुना जाता है कि इमारत के ढह जाने की सूरत में भी कम से कम नुकसान हो। किसी भी प्राकृतिक घटना जैसे बाढ़, सुनामी, भूकम्प का प्राकृतिक आपदा में बदलने का कारण ऐतिहासिक तौर पर समाज व्यवस्था से जुड़ी होती है। अगर समाज तकनीकी ज्ञान और उसके अनुप्रयोग से ऐसे संसाधनों, मकानों के निर्माण में सक्षम है जो ऐसी प्राकृतिक घटनाओं से जान-माल को सुरक्षित रख सकें तो कोई कारण नहीं है कि ऐसे भूकम्पों से जान-माल का इस प्रकार का नुकसान हो सके। ऐसे में व्यवस्था द्वारा मुनाफे की हवस के कारण जनसुरक्षा को निरन्तर टालते जाना ही ऐसी त्रासदियों को जन्म देता है। ऐसी घटनाएँ प्राकृतिक आपदा नहीं मुनाफे़ के हवस में की गईं हत्याएं हैं।
भारतीय राहत कार्य : तुच्छ स्वार्थों का भोंडा प्रदर्शन
ऐसे मुश्किल समय में नेपाल को दिुनया के बाकी देशों से मदद मिली। भारत नेपाल का पड़ोसी देश होने के नाते राहत कार्यों में शिरकत करने वाले पहले देशों में से एक था। मगर भारत के नेपाल की इस त्रासदी में मदद करने को भी भारतीय मीडिया ने मोदी सरकार के लिए एक ‘पब्लिक रिलेशंस एक्सरसाइज़’ और त्रासदी के ‘प्राइम टाइम’ कार्यक्रम में तब्दील कर दिया। नेपाल के भूकम्प से जुड़ा एक आयाम है भारतीय मीडिया में नेपाल में आये भूकम्प की कवरेज। जिस भोंडे तरीके से भारतीय मीडिया ने नेपाल भूकम्प की कवरेज की है निश्चित ही असंवेदनशीलता के नए कीर्तिमान स्थापित किये हैं और साथ ही यह भी साबित कर दिया कि पूँजीवादी व्यवस्था में इंसान और इंसान से जुड़ी हर चीज़, हर परिघटना एक माल होती है जिसे बेचा जा सकता है। त्रासदी को भी बुर्जुआ मीडिया ‘रोमांचित’ करने वाली ‘खबर’ के रूप में पेश कर सकता है। मीडिया ने इस पूरी घटना को ‘डिज़ास्टर पोर्न’ में तब्दील कर दिया, लोगों के मरने की खबरों, उनकी ज़िन्दगी के तबाह होने की कहानियों को सास-बहू के सीरियल की तरह पेश किया गया। मलबे में दबे लोगों की तस्वीरों से लेकर अस्पताल में घायल लोगों से पूछे जाने वाले सवालों से यह साफ हो जाता है कि मीडिया से संवेदनशीलता की अपेक्षा रखना बेवकूफी है। और इसी के कारण भारतीय मीडिया को नेपाल के लोगों ने ट्विटर पर ‘गो होम इंडियन मीडिया’ यानी ‘भारत वापिस जाओ भारतीय मीडिया’ का सन्देश देना पड़ा। इंसानी भावनाओं से पूँजीवादी समाज किस तरह एक इंसान को दूसरे से अलगावग्रस्त कर देता है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अपने परिजनों की मौत की खबर मिलने वाले लोगों से एक पत्रकार ने यह सवाल किया की उन्हें कैसा लग रहा है। भारतीय सेना के हवाई जहाज़ों में बैठ कर भारतीय पत्रकार नेपाल पहुँचे और वहाँ उन्होंने अपनी पी.आर एक्ससरसाइज की पिकनिक चालू कर दी। टी.वी. पर ‘नमो-नमो’ जपने वाले चैनलों ने नेपाल में फँसे भारतीय लोगों से, जिन्हें सेना के विमान से वापिस लाया जा रहा था, खास तौर पर मोदी सरकार की इस सफलता का गुणगान करने की गुहार की। नेपाल में हुई इस त्रासदी को भारत की सरकार ने विश्व पटल पर अपनी छवि को और निखारने और इससे मिलने वाली वाहवाही के उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भूकम्प के पहले दिन से ही भारतीय मीडिया में, चाहे फिर वह न्यूज चैनल हो या अखबार, इस तरह की खबरें आनी शुरू हो गयी कि नेपाल को भेजी जा रही मदद सिर्फ मोदी सरकार के करकमलों के कारण सम्भव हो पायी है और केवल भारत के कंधों के बल पर ही बचाव और राहत कार्य सम्भव हो पाया है। यहाँ तक की खुद मोदी भी अपनी पीठ थपथपाने में पीछे नहीं रहे। अपने ट्विटर अकाउंट से मोदी जी ने यह ट्वीट किया कि नेपाल के प्रधानमंत्री जो सिंगापुर जा रहे थे उन्हें सबसे पहले भूकम्प के बारे में मोदी जी की ट्वीट से ही पता चला! तमाम न्यूज चौनलों ने घटिया पत्रकारिता का नमूना पेश करते हुए अपनी स्क्रीन पर एक तरफ नेपाल की तबाही के मंजर तो दूसरी ओर मोदी की तस्वीर लगाकर अपनी छाती पीटते हुए यह घोषणा शुरू कर दी कि भारत और मोदी सरकार नेपाल के लोगों का मसीहा बन कर सामने आया है।
भाजपा सरकार का वैचारिक स्तम्भ आर.एस.एस. भी इस दुर्घटना से ‘माइलेज’ हासिल करने में पीछे नहीं था। पूरे सोशल मीडिया पर संघियों ने फोटोशॉप कर ऐसी तस्वीरें डाल दी जिनमें आर.एस.एस. के स्वयंसेवक राहत कार्य के लिए नेपाल रवाना हो रहे है। अपने हिंदुत्व एजेंडे को भी इस पूरे घटनाक्रम में घुसाते हुए संघियों ने पाकिस्तान द्वारा बीफ़ मसाला भेजे जाने को नेपाल के अपमान और खुद को ‘हिंदू’ नेपाल के वकील के तौर पर पेश किया।
“राहत” का राजनीतिक अर्थशास्त्र
नेपाल को मदद भेजने के पीछे भारत का अपना आर्थिक हित भी निहित है। एशिया की एक क्षेत्रीय साम्राज्यवादी शक्ति होने के नाते भारत अपने ग़रीब पड़ोसी देशों को, फिर चाहे वो भूटान हो, बांग्लादेश हो या नेपाल, अपने हित में इस्तेमाल करने की मंशा से लैस है। इसलिए किसी भी त्रासदी में ऐसे देशों को मदद भेजना उसके लिए फायदेमंद साबित हो सकता है, क्योंकि आपदाओं के समय दी गयी मदद को एक साम्राज्यवादी देश हमेशा एक निवेश के रूप में ही देखता है जिसे वह आगे जा कर सूद समेत वसूल कर सकता है। नेपाल के संसाधनों और उसके श्रम को लूटने की भाग दौड़ में भारत भी अपना हिस्सा पक्का करना चाहता है। केवल भारत ही एक आदर्श पड़ोसी देश होने का फर्ज नहीं निभा रहा, चीन भी नेपाल को मदद भेजने में पीछे नहीं है। इन दोनों देशों के इतने तत्पर प्रयासों के पीछे का मकसद नेपाल की जनता में अपनी साख़ बनाना हैं। तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा हो जाने के बाद से नेपाल को भारत अपने व्यापार के लिए एक नए व्यापारिक रास्ते के रूप में देखता है। नेपाल को भारत और चीन दोनों ही ‘नए सिल्क रूट’ की तरह देखते है और दोनों देशों में से जो भी नेपाल के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाने में सफल हो जाता है उसके लिए एशिया से यूरोप तक अपने आर्थिक रिश्ते सशक्त करने के रास्ते खुल जाते है। इस ‘डिज़ास्टर ब्रांड’ राजनीति के चलते ही नेपाल में भूकम्प आने के तुरन्त बाद भारत ने औपचारिक तौर पर ‘ऑपरेशन फ्रेंडशिप’ शुरू करने की घोषणा की जिसके तहत बचाव और राहत कार्य करने के लिए दस्तों को रवाना किया गया। भूकम्प के बाद नेपाल में सबसे बड़ा काम है वहाँ के लोगों का पुर्नवासन करना और बुनियादी सुविधाओं जैसे बिजली, सड़कों का नवर्निमाण आदि। इन सभी कामों के लिए भारत और चीन दोनों आगे आ रहे है। 2014 में चीन की एक बड़ी कम्पनी थ्री गॉर्जेस इंटरनेशनल कॉर्प को नेपाल में हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट शुरू करने का ठेका मिला था। चीन आगे चलकर नेपाल तक रेलमार्ग बनाने की योजना रखता है जिसके ज़रिये काठमाण्डू को सीधे चीन से जोड़ दिया जाये। अगस्त 2014 में भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल दौरे के समय नेपाल को 1 बिलियन डॉलर का रियायती ऋण देने की पेशकश की थी जिसे नेपाल अपने मन मुताबिक हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स और दूसरी बुनियादी सुविधाओं जैसे सड़कों के निर्माण में इस्तेमाल कर सकता है। भूकम्प के बाद पैदा हुई परिस्थितियों में नेपाल को एक लम्बे चरण की नवनिर्माण प्रक्रिया की ज़रूरत है और ऐसे समय में भारत अपने पैर नेपाल में जमाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता। दुनिया के तमाम देशों ने अपने राहत दस्ते नेपाल भिजवाये जिनमे इज़रायल भी शामिल है! जी हाँ! वही इजरायल जो गाज़ा में लम्बे समय से तबाही मचा रहा है, उसी इज़राइल ने नेपाल के लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाया। मगर भारत की तरह इज़रायल का भी इस में अपना स्वार्थ अन्तर्निहित था, इज़राइल ने जो मेडिकल दस्ता नेपाल भेजा उसमें ज़्यादा डॉक्टर नवजात शिशु की डिलिवरी करवाने के लिये थे। एक विकसित देश होने के नाते और अपनी खास परिस्थिति में जहाँ इज़राइल की जनसँख्या बेहद कम है वहाँ सरकार इजराइल के नागरिकों को बच्चा पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करती है और पूंजीवाद में ऐसे देशों के लोगों के लिए गरीब देश की औरतों भी एक माल की तरह होती है जिनकी कोख का इस्तेमाल यह लोग अपने बच्चों को पैदा करवाने के लिए करते हैं। ऐसे में इज़राइल का नेपाल में किसी भी देश से पहले और किसी भी देश से बड़ा फील्ड अस्पताल खड़ा करना कोई आर्श्चयजनक बात नहीं है। इज़रायल का यह मेडिकल दस्ता नेपाल की उन औरतों का प्रसव करवाने पहुँचा था जो उनके नागरिकों के बच्चों की सरोगेट माँ थीं। इज़रायल के लोगों के लिए नेपाल जैसे ग़रीब देश की महिलायें सरोगेट मदर्स का काम करती है। इज़रायल ने नेपाल में फील्ड हॉस्पिटल खड़ा कर अपने देश के भावी नागरिकों की डिलिवरी करवा उन्हें इज़रायल रवाना कर दिया। भूकम्प जैसी आपदा भी इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था में एक ऐसे मौके के रूप में देखी जाती है जिसे बड़े साम्राज्यवादी देश गरीब पिछड़े देशों में अपने प्रभाव के विस्तार के अनुकूल जमीन तैयार करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। दूसरे तमाम देशों पर युद्ध थोपने वाले देश, आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले, अपने देशों में गरीब मेहनतकश जनता का श्रम लूटने वाले देश नेपाल की मदद करने के लिए भागते हुए गए और उनका कहना था की इंसानियत के नाते नेपाल के लोगों की मदद करना उनका फर्ज़ है, मगर उनकी यही इंसानियत अपने ही देश के लोगों के मानव अधिकारों का नंगा दमन करते हुए ग़ायब हो जाती है। पूँजीवादी समाज में किसी की चिता पर भी अपनी रोटियाँ सेंकना न्यायसंगत है। यह बात नेपाल भूकम्प के बाद हुए घटनाक्रम को देख कर साबित हो जाती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्टूबर 2015
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