एक जुझारू जनवादी पत्रकार – गणेशशंकर विद्यार्थी

अरविन्द

Ganesh-shankar-vidyarthi (1)भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौर में जिन्होंने त्याग बलिदान और जुझारूपन के नये प्रतिमान स्थापित किये, उनमें गणेशशंकर विद्यार्थी भी शामिल हैं। अपनी जनपक्षधर निर्भय पत्रकारिता के दम पर विद्यार्थी जी ने विदेशी हुकूमत तथा उनके देशी टुकड़खोरों को बार-बार जनता के सामने नंगा किया था। वे आजीवन राष्ट्रीय जागरण के प्रति संकल्पबद्ध रहे। विद्यार्थी जी ने तथाकथित वस्तुपरकता का नाम लेते हुए कभी भी वैचारिक तटस्थता की दुहाई नहीं दी। हिन्दी प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय जागरण का वैचारिक आधार तैयार करने में तथा उसे और व्यापक बनाने में उन्होंने अहम भूमिका अदा की थी। उस दौर में विद्यार्थी जी के द्वारा सम्पादित पत्र ‘प्रताप’ ने साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय पत्रकारिता की भूमिका तो निभायी ही साथ-साथ जुझारू पत्रकारों तथा क्रान्तिकारियों की एक पूरी पीढ़ी को शिक्षित-प्रशिक्षित करने का काम भी किया था।

गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 में इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता अध्यापक थे। विद्यार्थी जी ने फारसी, उर्दू तथा हिन्दी का अध्ययन किया था। आर्थिक कठिनाइयों के कारण वे अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाये किन्तु स्वाध्याय के बल पर उन्होंने अपने दृष्टिकोण को विकसित किया। विद्यार्थी जी ने अपने पत्रकार जीवन की शुरुआत ‘कर्मयोगी’ नामक पत्र से की। उन्होंने समय-समय पर ‘स्वराज्य’, ‘अभ्युदय’, ‘हितवार्ता’ आदि तेजस्वी पत्र-पत्रिकाओं में भी लेख-टिप्पणियाँ लिखी। कुछ दिन वे ‘सरस्वती’ के सहायक सम्पादक भी रहे थे। मुख्य तौर पर विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ नामक पत्र के सम्पादक का काम किया। अपनी जनपक्षधरता तथा जुझारूपन के बूते उन्होंने ‘प्रताप’ को भारतीय आम समाज की अभिव्यक्ति का एक केन्द्र बना दिया था। ‘प्रताप’ की विषयवस्तु, भूमिका और व्यापक प्रसार संख्या को देखते हुए यादि उसे हिन्दी का पहला राष्ट्रीय पत्र कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ‘प्रताप’ के लेखों ने राष्ट्रीय जागरण के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाने में महती भूमिका अदा की थी। राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ-साथ विद्यार्थी जी तो सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व अन्तरराष्ट्रीय सवालों पर लिखते ही थे, उस दौर के अन्य महत्वपूर्ण लेखक-साहित्यकारों ने भी ‘प्रताप’ की धार को तेज़ करने में अपना सहयोग दिया था। भगतसिंह और उनकी धारा के विषय में तो सर्वविदित है ही कि ‘प्रताप’ उनके लिए शुरुआती पाठशाला के समान था। इसके अलावा ‘प्रताप’ प्रेस से उस दौर का महत्वपूर्ण साहित्य भी प्रकाशित हुआ। ‘प्रताप’ कार्यालय से एक सार्वजनिक पुस्तकालय का भी संचालन होता था। भीषण आर्थिक कष्ट, जुर्मानों तथा जेल यात्राओं के बावजूद विद्यार्थी जी ने यह दिखा दिया कि एक जनवादी पत्रकरिता का मतलब क्या होता है।

विद्यार्थी जी कभी भी अध्ययन कक्षों के पत्रकार बुद्धिजीवी नहीं रहे। अपने निर्भीक लेखन के साथ-साथ उन्होंने लगातार मज़दूर, किसान आन्दोलनों में भी शिरकत की थी जिसके कारण वे बार-बार सत्ता के कोप के भाजन बने, उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा तथा ‘प्रताप’ पर तो हमेशा जुर्मानों और ज़ब्ती की तलवार लटकती ही रहती थी। यह अनवरत सिलसिला 25 मार्च 1931 में साम्प्रदायिक दंगा रोकने की कोशिश में उनकी शहादत के समय तक लगातार जारी रहा। ज्ञात रहे यह दंगा भगतसिंह की फाँसी के बाद अंग्रेज़ों ने ही भड़कवाया था ताकि लोग विरोध-स्वरूप एकजुट ना हो जायें।

अपने राजनीतिक विचारों में गोखले, तिलक व गाँधी से प्रभावित होने के बाजवूद विद्यार्थी जी कई महत्वपूर्ण सवालों पर उनसे स्पष्ट मतभेद भी रखते थे। हिन्दू राष्ट्रवाद, जाति प्रश्न तथा सशस्त्र क्रान्ति के प्रश्न पर उन्होंने समय-समय अपनी स्पष्ट राय रखी थी। साम्प्रदायिकता के मसले पर उन्होंने सीधे तौर पर जिन्ना, लाजपतराय, सावरकर तथा भाई परमानन्द की भर्त्सना की थी। कई प्रश्नों पर विद्यार्थी जी ने कांग्रेस की भी आलोचना रखी और यदि वे लम्बे समय तक जीवित रहते तो शायद कांग्रेस से काफ़ी दूर खड़े होते, जिस प्रकार प्रेमचन्द भी अपने रचनात्मक लेखन में कांग्रेसी चरित्रों के दोहरेपन की आलोचना करने लगे थे। व्यापक जनता की पहलकदमी के बिना सशस्त्र क्रान्ति के सवाल पर मतभेद होने के बावजूद विद्यार्थी जी ने आज़ाद, भगतसिंह और अन्य क्रान्तिकारियों का भरपूर सहयोग तो किया ही साथ ही अपने ‘पत्र’ के रूप में उनके लेखन को एक मंच भी प्रदान किया। ख़ासकर भगतसिंह की लेखनी को माँजने में तो ‘प्रताप’ की भूमिका को कभी भुलाया नहीं जा सकता। विद्यार्थी जी मानते थे कि सक्रिय जनभागीदारी के बिना क्रान्ति सम्भव नहीं है, अपने जेल के दिनों में भगतसिंह भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे। मज़दूर आन्दोलन के प्रश्न पर भी उनकी सोच गाँधी जी से अलग थी। गाँधी जी जहाँ हड़ताल की कार्यवाही को हिंसा बताकर उसके विरोधी थे वहीं विद्यार्थी जी ने सन् 1919 में कानपुर में वाजिब मज़दूरी के सवाल पर 25 हज़ार मज़दूरों की हड़ताल को सफल नेतृत्व दिया था। उस समय विद्यार्थी जी, राधामोहन गोकुल जी और बहुत थोड़े ही ऐसे पत्रकार और लेखक थे जिन्होंने बोल्शेविज़्म और अक्टूबर क्रान्ति का स्वागत किया था। कुछ समय तक विद्यार्थी जी सोवियत संघ में अराजकता व तानाशाही के ख़तरे को लेकर आशंकित भी रहे। परन्तु बाद में वे इस भ्रम से तार्किक और वस्तुपरक आधार पर मुक्त हो चुके थे। मार्क्सवादी न होने के बावजूद वे सोवियत संघ के समर्थक थे और सोवियत संघ को राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का हितैषी मानते थे।

याद रहे कई जगह पर विद्यार्थी जी के लेखन में थोड़ी अस्पष्टता भी दृष्टिगोचर होती है, तथा सोवियत संघ के सवाल पर शंका की झलक भी दिखती है (बोल्शेविज़्म के बारे में शुरुआती लेखों में)। इसका कारण उस समय की कठोर सेंसरशिप तथा सोवियत संघ के बारे में बुज़ुर्आ मीडिया के घनघोर कुत्साप्रचार में देखा जाना चाहिए (ख़ुद विद्यार्थी जी ने इसे माना है) तथा उनके लेखन का मूल्यांकन करते समय हमें मुख्यधारा के राष्ट्रीय आन्दोलन के राजनीतिक-वैचारिक विकास को भी ध्यान में रखना चाहिए। समय सापेक्षता को ध्यान में रखकर ही एक सही मूल्यांकन किया जा सकता है।

आज की सड़ी-गली पत्रकारिता के दौर में विद्यार्थी जी की प्रासंगिकता अत्यन्त बढ़ गयी है। परिवर्तन के नये दौर की तैयारियों में लगे रचनाकारों के लिए गणेशशंकर विद्यार्थी ही नहीं बल्कि राधामोहन गोकुल जी, राहुल सांकृत्यायन तथा ऐसे ही राष्ट्रीय जागरण के योद्धाओं की विरासत को भी आगे बढ़ाना एक ज़रूरी कार्यभार बनता है। ये लोग अपनी मान्यताओं को केवल लिखकर ही सन्तुष्ट नहीं हुए बल्कि उन्होंने उन्हें व्यवहार में निर्भीकतापूर्वक उतारा और इसकी हर कीमत चुकायी। हमें इतिहास और अपनी क्रान्तिकारी परम्परा का गहन अध्ययन करना चाहिए। साथ ही ऐसे श्रेष्ठ नायकों को जनता के बीच अधिक से अधिक स्थापित करना चाहिए जो सही मायनों में जनता के सच्चे हितैषी थे। यह भी ज़रूरी है कि हम अपने इतिहास और परम्परा का आलोचनात्मक विवेक के साथ ही अध्ययन करें।

और अन्त में आज के समय जो पत्रकार व बुद्धिजीवी प्रगतिशीलता की कलगी लगाकर घूम रहे हैं तथा ख़ुद के गले में पूँजी का पट्टा डलवाने में प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं, विद्यार्थी जी का लेखन व पत्रकारिता उनके लिए एक आईने के समान है।

 Ganesh shankar vidyarthi 1

गणेश शंकर विद्यार्थी के लेखों से चन्द उद्धरण

1.     जिस दिन हमारी आत्मा ऐसी हो जाये, कि हम अपने प्यारे आदर्श से डिग जायें, जानबूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता, स्वतंत्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरुता दिखायें, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा। (प्रताप की नीति, 9 नवम्बर, 1913)

2.     राष्ट्र महलों में नहीं रहता, प्रकृत राष्ट्र के निवास-स्थल वे अगणित झोपड़े हैं, जो गाँवों और पुरवों में फ़ैले हुए खुले आकाश के देदीप्यमान सूर्य और शीतल चन्द्र और तारागण से  प्रकृति का सन्देश लेते हैं और इसीलिए राष्ट्र का मंगल और उसकी जड़ मज़बूत उस समय तक नहीं हो सकती, जब तक इन अगणित लहलहाते पौधों की जड़ों में जीवन का-मज़बूती का-जल नहीं सींचा जाता। भारतीय राष्ट्र के निर्माण के लिए उसके गाँवों और पुरवों में जीवन की ज्योति की आवश्यकता है। (राष्ट्र की नींव, 28 जून, 1915)

3.     हम न हिन्दू हैं, और न मुसलमान। मातृभूमि का कल्याण ही हमारा धर्म है और उसके बाधकों का सामना करना ही हमारा कर्म। पण्डित हो या मौलवी, धर्म हो या कर्म मातृभूमि के हित के विरुद्ध किसी की भी व्यवस्था हमें मान्य नहीं— दुनियाभर के आडम्बरों की छाया में अपने उद्देश्यों की ओर बढ़ने की इच्छा रखना भ्रम में पड़ना है। स्वाधीनता का युद्ध भीतर और बाहर दोनों जगह होना चाहिए। (कठिन समस्या, 12 नवम्बर, 1917)

4.     हमें सच्चाई की भी लाज रखनी चाहिए। केवल अपनी मक्खन-रोटी के लिए दिन-भर में कई रंग बदलना ठीक नहीं है। देशभर में भी दुर्भाग्य से समाचार पत्रों और पत्रकारों के लिए यही मार्ग बनता है। हिन्दी पत्रें के सामने भी यही लकीर खिंचती जा रही है। वहाँ भी बहुत से समाचार पत्र सर्वसाधारण के कल्याण के लिए नहीं रहे। सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं। (पत्रकार-कला नामक पुस्तक की भूमिका से, 1930)

5.     कुछ लोग ‘हिन्दू राष्ट्र’-‘हिन्दू राष्ट्र’ चिल्लाते हैं। हमें क्षमा किया जाये, यदि हम कहें – नहीं, हम इस बात पर ज़ोर दें – कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और उन्होंने अभी तक ‘राष्ट्र’ शब्द के अर्थ ही नहीं समझे। हम भविष्यवक्ता नहीं, पर अवस्था हमसे कहती है कि अब संसार में ‘हिन्दू राष्ट्र’ नहीं हो सकता, क्योंकि राष्ट्र का होना उसी समय सम्भव है जब देश का शासन देशवालों के हाथ में हो और यदि मान लिया जाये कि भारत स्वाधीन हो जाये या इंग्लैण्ड उसे औपनिवेशिक स्वराज्य दे दे, तो भी हिन्दू ही भारतीय राष्ट्र के सब कुछ न होंगे। (राष्ट्रीयता, 21 जून, 1915)

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012

 

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।