आम लोग, बुद्धिजीवी और अलेक्जेण्ड्रिया के पुस्तकालय की त्रासदी

सत्‍यव्रत

सोचने की बात है कि हमारे समाज के बुद्धिजीवियों का जो हिस्सा ईमानदार है, वर्तमान नग्न-निरंकुश उपयोगितावादी संस्कृति का शिकार नहीं हुआ है, ‘जैसी बहे बयार, पीठ तैसी तब कीजे’ के जीवन दर्शन को पचा नहीं पाया है वह अपनी जिन्दगी, आदर्शों और सिद्धान्तों की लड़ाई में अकेला क्यों है? वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थानों में नौकरशाहों और शेयर खरीदने एवं शोध चुराने वाले कथित वैज्ञानिकों के बीच ईमानदारी से शोध में लगा हुआ एक वैज्ञानिक घुटता हुआ पागलपन या आत्महत्या के मुकाम तक जा पहुँचता है। और यह कोई अपवाद नहीं, बल्कि एक आम बात है। बहुत सारे शोध छात्र अपने शोध-निर्देशकों के घरेलू नौकर जैसी जिन्दगी बिताते हैं। उनके शोध-पत्रों पर बिना किसी योगदान के सबसे ऊपर उनके शोध-निर्देशक महोदय का नाम छपता है और यहाँ तक कि उनके कई शोध सीधे-सीधे अकादमिक डकैती के शिकार हो जाते हैं।

इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों के हद दर्जे के निरंकुश माहौल में छात्र घुटते रहते हैं पर कैरियर तबाह कर दिये जाने के डर से चूँ तक नहीं करते। मैं मेडिकल कालेज के एक ऐसे अत्यन्त योग्य सर्जन को जानता हूँ, जो धन की अन्धी हवस का शिकार होकर नर्सिंग होम या प्राइवेट प्रैक्टिस का धन्ध नहीं करते थे तथ केवल शिक्षण और मेडिकल कालेज हास्पिटल में सर्जरी का काम करते थे। वे निहायत योग्य और छात्रों के प्रिय शिक्षक थे पर प्राचार्य या विभागाध्यक्ष का दरबार कभी नहीं करते थे। इसकी सजा उन्हें यह मिली कि वर्षों तक उन्हें रीडर भी नहीं बनाया गया जबकि उनसे जूनियर सर्जन प्रोफेसर तक हो गये। वे कई बरसों तक डिप्रेशन के मरीज रहे। कोई उनकी मदद को आगे नहीं आया।

इसी प्रश्न को कुछ और आगे बढ़ायें। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को कुचलने वाले कानून बनते हैं, तमिलनाडु में सत्तारूढ़ दल न केवल विधायिका में अपने बहुमत के दम पर , पत्रकारों को प्रताडि़त करता है, बल्कि अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें पिटवाता और अपमानित करवाता है। अखबारों में काफी शोर-शराबा होता है पर देश की सत्तर फीसदी आम मेहनतकश आबादी तो दूर, पढ़ा-लिखा आम मध्यमवर्गीय आदमी भी इससे उद्वेलित नहीं होता। शिक्षक अपने जनतान्त्रिक अधिकारों का हनन करने वाले काले कानूनों के विरूद्ध या अपनी कुठ निहायत वाजिब माँगों को लेकर आन्दोलन करते हैं पर आम लोग उन्हें समर्थन देने के बजाय, उल्टे उनकी भर्त्‍सना ही करते हैं। छात्र शिक्षा क्षेत्र की नौकरशाही, अधिकांश लोगों को पढ़ने के अधिकार से वंचित करने वाली शिक्षानीति या किसी भी सही मुद्दों को लेकर यदि संघर्ष पर आमादा होते हैं तो एक आम नागरिक पठन-पाठन का माहौल बिगाड़ने और अराजकता फैलाने का आरोप लगाकर उन्हें ही कोसता नजर आता है।

बुद्धिजीवी समुदाय के ईमानदार लोगों की निजी लड़ाइयों या पूरे समुदाय की निहायत न्यायसंगत लड़ाइयों को समाज के आम लोगों का समर्थन मिलना तो दूर, उनकी हमदर्दी तक हासिल नहीं होती। यदि आप बुद्धिजीवी समुदाय के ही किसी व्यक्ति से इस प्रश्न का उत्तर पूछें तो वह या तो इसके लिए हमारे देश की जनता की पिछड़ी हुई चेतना और अशिक्षा या ”जाहिलपन और कूपमण्डूकता“ को जिम्मेदार ठहराता नजर आयेगा, या यह कहेगा कि जब बुद्धिजीवी समुदाय या एक ही पेशे में लगे हुए बुद्धिजीवी ही एकजुट नहीं हैं तो आम जनता की बात क्या की जाये। जहाँ तक पहली धारणा का प्रश्न है, हम समझते हैं कि यह बौद्धिक आभिजात्य की अहम्मन्यता से युक्त एक भ्रान्त धारणा है। और दूसरी धारणा समस्या के एक पहलू का यथातथ्य बयान है। मूल प्रश्न का उत्तर नहीं।

AlexandriaLibraryBurningप्रख्यात वैज्ञानिक कार्ल सैगान ने अपनी पुस्तक ‘कास्मास’ में इतिहास के प्रसंग की चर्चा की है, जो इस समस्या की गहराई में जाने के लिए एक अन्तर्दृष्टि और एक नया कोण देता है। उन्होंने अपनी इस पुस्तक में मिस्र के प्राचीन नगर अलेक्जेण्ड्रिया के विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुस्तकालय की चर्चा की है। लाखों पुस्तकों से भरा हुआ यह पुस्तकालय हर तरह के ज्ञान-विज्ञान का एक अनन्य केन्द्र था। यहाँ दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आये हुए विद्वान निरन्तर शोध-अध्ययन और वाद-विवाद में लगे रहते थे। निस्सन्देह यह मानव सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान के विकास के इतिहास का एक मील का पत्थर था। पर सैगान इसके एक दूसरे पक्ष की भी चर्चा करते हैं कि किस तरह प्राचीन समाज के विघटन के साथ ही अन्ततः यह पुस्तकालय भी लूटपाट और आगजनी का शिकार होकर तबाह हो गया और ज्ञान की यह अमूल्य सम्पदा इतिहास के अँधेरे में खो गई।

इस घटना की अतिसरलीकृत ऐतिहासिक व्याख्या यह प्रस्तुत की जाती रही है कि इतिहास में प्रायः उन्नत सभ्यताओं को बर्बर सभ्यताओं के वाहक नष्ट करते रहे हैं। पर सैगान इससे इत्तेफाक नहीं करते। वे इसकी कुछ दूसरी ही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। वे बताते हैं कि इतिहास के ऐसे उन्नत माने जाने वाले समाज प्रायः आम जनता की व्यापक और भयंकर दासता की बुनियाद पर खड़े हुए थे। अलेक्जेण्ड्रिया का पुस्तकालय जिस उन्नत प्राचीन मिस्री समाज का गौरव था, वह समाज उन लोगों की बर्बर गुलामी पर आधारित था जिन्होंने उस समस्त सम्पदा का निर्माण किया था जिसके चलते ऐसे भव्यतम पुस्तकालय का अस्तित्व सम्भव हो सका था। वे आगे लिखते हैं:

“इस पुस्तकालय के पूरे इतिहास में ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं मिलता कि इसके किसी भी यशस्वी वैज्ञानिक या विद्वान ने कभी भी अपने समाज के राजनीतिक-आर्थिक या धार्मिक मान्यता को गम्भीरतापूर्वक चुनौती दी हो। तारों के स्थायित्व पर प्रश्न उठाये जाते थे पर दासता के औचित्य पर नहीं। आम तौर पर विज्ञान और ज्ञान-प्राप्ति का दायरा मुट्ठीभर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए ही परिरक्षित था। पुस्तकालय में होने वाले महान अन्वेषणों के बारे में नगर की व्यापक आबादी को धुँधला-सा भी अहसास नहीं था। नई खोजों की व्याख्या करने या उन्हें लोकप्रिय बनाने का काम नहीं किया जाता था। जनता को मुक्त करने में मशीनों की क्षमता को वैज्ञानिकों ने कभी नहीं समझा। प्राचीन काल की महान बौद्धिक उपलब्धियों के तत्काल व्यावहारिक अमल बहुत कम ही होते थे। विज्ञान आम लोगों के दिमाग को कदापि उत्तेजित नहीं करता था। गतिरोध का, निराशावाद का और रहस्यवाद के सामने निकृष्टतम आत्मसमर्पण का कोई प्रतिसन्तुलन नहीं था। और अन्त में, जब भीड़ पुस्तकालय को जलाने आई, तो उसे रोकने वाला कोई नहीं था।”

प्रश्न चाहे ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में व्यापक महत्व के मुद्दों के प्रति, अकादमिक और बौद्धिक जगत की गम्भीरतम समस्याओं के प्रति व्यापक जनसमुदाय की असम्पृक्तता का हो या शिक्षा क्षेत्र या किसी भी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों की न्यायसंगत लड़ाइयों को भी जनसमर्थन न मिलने का हो, बुनियादी मुद्दा यही है यदि बुद्धिजीवी वर्ग अपनी भूमिका की सामाजिक सार्थकता का पूरे समाज को अहसास नहीं कराता, यदि उसकी पूरी ज्ञान-सम्पदा केवल उसकी निजी सम्पति बनी रहती है और अन्यायपूर्ण सामाजिक ढाँचे के ऊपर वह प्रश्न नहीं उठाती है ; यदि ज्ञान मुक्ति की मशाल के रूप में जनता के हाथों में थमाया नहीं जाता है; यदि ज्ञान का इस्तेमाल बुद्धिजीवी वर्ग अपनी सामाजिक हैसियत बढ़ाने के लिए करता है और इस सामाजिक सम्पदा का निजी उपभोग करते हुए वह आम जनता की जिन्दगी को प्रभावित करने वाले किसी भी मुद्दे पर आन्दोलित नहीं होता, यदि पुस्तकालयों-संस्थानों-प्रयोगशालाओं के टापुओं पर बौद्धिक मशक्कत करता रहता है, तो ऐसे में जब भी वह खुद किसी मुद्दे पर व्यवस्था की स्वेच्छाचारिता या गलत दवाब का शिकार होता है या किसी भी रूप में शोध-अध्ययन-अन्वेषण के उसके काम में व्यवस्था द्वारा कोई बाधा पहुँचाई जाती हैं, तब भी भला आम जनसमुदाय उसके साथ क्यों आकर खड़ा होगा!

शिक्षा ने जिन्हें खुद अभिजात बनाकर आम लोगों से काट दिया है, वे यदि सचेतन तौर पर खुद को उनसे जोड़ने की चेष्टा नहीं करेंगे तो उनकी किसी भी लड़ाई में आम लोगों की शिरकत तो दूर उनसे समर्थन पाने की उम्मीद रखना भी बेमानी है।

वे वैज्ञानिक जो अपनी अकेली लड़ाई को पूरे समाज की लड़ाई से काटकर देखते हैं, जो शासक और शासित में बंटे इस समाज में ज्ञान-विज्ञान को एकदम निरपेक्ष समझते हैं और “शोध-अध्ययन की आजादी” की मृग-मरीचिका में भटकते रहते हैं, उनके समक्ष पराजय, निराशा, पागलपन और आत्महत्या के अलावा भला और विकल्प भी क्या हो सकता है! बाजार में अपनी बौद्धिक क्षमता को माल के रूप में बेचकर ज्यादा से ज्यादा कीमत पा लेने की अन्धी होड़ के चलते वे आपस में भी एकजुट नहीं हो पाते। पर यदि वे ज्ञान को सामाजिक सम्पदा और अपने को बौद्धिक श्रम बेचकर उजरत कमाने के लिए विवश उजरती बौद्धिक मज़दूर के रूप में देखने लगें; यानी यदि वे इस सामाजिक ढाँचे में अपनी स्थिति को स्पष्ट पहचानने लगें और अपना पक्ष तय करने लगें, तब हालात निश्चित तौर पर सर्वथा भिन्न होंगे।

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‘आह्वान कैंपस टाइम्‍स’, 16-31 मई 1992

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