टेढ़ी आँखें तिरछी नज़र
हाथी और मनुष्य
मनबहकी लाल
अख़बारों में एक दिलचस्प समाचार छपा है। एक शोध से पता चला है कि हाथियों में पर्याप्त सामाजिकता होती है। यात्रा की दिशा को लेकर उनका झुण्ड आपस में बहस-मुबाहिसा करता है।
यह तो आश्चर्यजनक बात है। मनुष्य गन्तव्य की दिशा या रास्ते को लेकर बहस नहीं करता। राह चलते किसी से पूछ लेता है। यह बात अलग है कि दिल्ली में जिसे एकदम नहीं पता होता, वह भी पूरे विश्वास के साथ आपको रास्ता बताता है। हाथी होता तो ऐसा नहीं करता। हाथी झूठ नहीं बोलते। दूसरों को परेशान करके मज़ा लेना भी उन्होंने नहीं सीखा है। उनका ‘ईगो’ भी शायद मनुष्यों जैसा भयंकर नहीं होता।
हाथियों को राह चलते किसी और से राह पूछने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। उनकी बस्तियाँ नहीं होतीं। वे झुण्डों में रहते हैं। अतः अपने झुण्ड में ही वे बहस करते हैं और तय करते हैं कि अब किधर जाना है!
हम मनुष्य भौगोलिक दिशा तो किसी से पूछकर जान लेते हैं, लेकिन राजनीतिक दिशा पर बहस करते हैं। यानी राजनीतिक दिशा के मामले में हमारा व्यवहार हाथियों जैसा होता है। लेकिन जहाँ तक मेरा अनुमान है, हाथियों की बहस ज़्यादा स्वस्थ और वस्तुपरक होती होगी। वहाँ कठमुल्लावाद, पूर्वाग्रह और “मुक्त-चिन्तन” के भटकाव नहीं होते होंगे। हाथियों में येन-केन-प्रकारेण अपनी बात ऊपर रखने की ज़िद और कुतर्क करने की प्रवृत्ति नहीं होती होगी। मनुष्यों की बात अलग है। संगोष्ठियों में सभी अपनी बात बोलते हैं, पर दूसरों की कोई नहीं सुनता। सुनता भी है तो महज़ मीन-मेख निकालने के लिए। हाथी शायद ऐसा नहीं करते होंगे। बुद्धिजीवी मनुष्य बहस करने में मेंढकों के समान होते हैं। एक साथ टर्राते हैं, पर अलग-अलग सुर में। कोई आहट सुनकर डरकर भागने और पानी में कूद जाने का काम एक साथ करते हैं, पर टोकरे में एक साथ उन्हें रख पाना सम्भव नहीं होता। मेंढकों से हमने काफ़ी-कुछ सीखा है।
हाथियों से हमें अच्छी बातें तो सीखनी ही चाहिए। बुद्धिजीवी अगर हाथी से कुछ सीखेंगे तो उन्हें सूँड़ थोड़े ही निकल आएगी!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2011
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