तीसरी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी
भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन: दिशा, समस्याएँ और चुनौतियाँ

देशभर से आये भागीदार

देशभर से आये भागीदार

पिछली 22 से 24 जुलाई तक लखनऊ में भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन: दिशा, समस्याएँ और चुनौतियाँ विषय पर तीसरी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन किया गया। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के हॉल में अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा आयोजित संगोष्ठी में तीन दिनों तक हुई गहन चर्चा के दौरान देशभर से आये प्रमुख जनवादी अधिकार संगठनों के प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं, न्यायविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि सत्ता के बढ़ते दमन-उत्पीड़न और जनता के मूलभूत अधिकारों के हनन की बढ़ती घटनाओं के विरुद्ध एक व्यापक तथा एकजुट जनवादी अधिकार आन्दोलन खड़ा करना आज समय की माँग है। आज देश में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के तहत हो रहे विकास का रथ आम जनता के मूलभूत अधिकारों को रौंदता हुआ बढ़ रहा है। आतंक के विरुद्ध युद्ध के नाम पर देश के कई क्षेत्रों में जनता के विरुद्ध सरकार का आतंकवादी युद्ध जारी है। सामाजिक-राजनीतिक जीवन में जनवाद का स्पेस कम होता जा रहा है। दूसरी ओर, जनवादी अधिकार संगठनों की संख्या बढ़ने के बावजूद इन हमलों का प्रभावी प्रतिरोध नहीं हो पा रहा है। ऐसे में, एक व्यापक आधार वाले तथा एकजुट जनवादी अधिकार आन्दोलन के लिए मिलकर प्रयास करने की ज़रूरत है।

संगोष्ठी में देश के प्रमुख जनवादी अधिकार संगठनों के वरिष्ठ प्रतिनिधियों और कार्यकर्ताओं के अलावा जनवादी अधिकार आन्दोलन में सक्रिय न्यायविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, लेखकों-बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों, मज़दूर कार्यकर्ताओं तथा छात्र-युवा संगठनकर्ताओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया। देश के विभिन्न हिस्सों से आये प्रतिनिधियों के अलावा नेपाल और श्रीलंका से आये गणमान्य बुद्धिजीवियों तथा वरिष्ठ राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने भी संगोष्ठी में भागीदारी की।

यह संगोष्ठी साथी अरविन्द की स्मृति में हर वर्ष आयेजित की जाने वाली वार्षिक संगोष्ठियों की तीसरी कड़ी थी। पहली अरविन्द स्मृति संगोष्ठी जुलाई 2009 में दिल्ली में और दूसरी संगोष्ठी जुलाई 2010 में गोरखपुर में हुई थी। ये दोनों संगोष्ठियाँ भूमण्डलीकरण के दौर में मज़दूर आन्दोलन की दिशा, सम्भावनाओं, समस्याओं और चुनौतियों पर केन्द्रित थीं। 24 जुलाई को साथी अरविन्द की तीसरी पुण्यतिथि थी। साथी अरविन्द सच्चे अर्थों में जनता के आदमी थे। मात्र 44 वर्ष की उम्र उन्हें मिली जिसमें से 24 वर्षों के सक्रिय राजनीतिक जीवन में उन्होंने छात्रों-नौजवानों, ग्रामीण मज़दूरों और औद्योगिक मज़दूरों के बीच काम किया तथा ‘दायित्वबोध्’ जैसी सैद्धान्तिक पत्रिका, ‘नौजवान’ और ‘आह्वान’ जैसी छात्रों-युवाओं की पत्रिका और मज़दूर अख़बार ‘बिगुल’ का सम्पादन किया। दिल्ली और उत्तर प्रदेश उनके मुख्य कार्यक्षेत्र रहे और कुछ समय उन्होंने हरियाणा और पंजाब में भी दिया। दिल्ली में मज़दूरों के बीच काम करने के दौरान जनवादी अधिकार आन्दोलन में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही और जनवादी अधिकार कर्मियों के साथ उनके घनिष्ठ सम्पर्क बने रहे।

साथी अरविन्द की तस्वीर पर माल्यार्पण के बाद विहान सांस्कृतिक मंच के साथियों ने कुछ क्रान्तिकारी गीत प्रस्तुत किये और उसके बाद संगोष्ठी की शुरुआत हुई।

स्वागत वक्तव्य

‘अरविन्द स्मृति न्यास’ की प्रबन्ध न्यासी और कॉ. अरविन्द की जीवनसाथी मीनाक्षी ने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा कि यह न्यास कॉ. अरविन्द की स्मृति को संकल्प में ढालने का एक विनम्र साझा प्रयास है। उन्होंने कहा कि इस बार की संगोष्ठी के विषय-निर्धारण के पीछे हमारी कुछ गहन-गम्भीर चिन्ताएँ और सामयिक सरोकार काम कर रहे थे। विकास की नीतियों से हो रहे विनाश के ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को दबाने के लिए सत्तातंत्र अधिकाधिक निरंकुश तरीके अपना रहा है। विस्थापन और बेदखली के आँकड़ों और प्रभावित लोगों के प्रतिरोधों को कुचलने के तथ्यों पर यदि निगाह डालें तो लगता है मानो ये गृहयुद्ध जैसी स्थिति के तथ्य और आँकड़े हों। जन प्रतिरोधों को भी आतंकवाद कहकर कुचलने की साज़िशें रची जाती हैं। हमने  इसे प्रत्यक्ष अनुभव किया है। पिछले दो वर्षों के दौरान गोरखपुर के मज़दूर आन्दोलन को कुचलने के लिए मालिक-प्रशासन-नेताशाही के गँठजोड़ द्वारा लगातार प्रचारित किया गया कि नेतृत्व देने वाले कुछ बाहरी लोग हैं जो माओवादी आतंकवादी हैं। हाल के वर्षों में दिल्ली के आसपास के और देश के कई अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में दमन की अनेक बर्बर घटनाएँ घटी हैं। राजद्रोह जैसे औपनिवेशिक काले क़ानून से लेकर ए.एफ.एस.पी.ए. और छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून तक दर्जनों ऐसे क़ानून हैं जिन पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। आर्थिक कट्टरपंथ की नीतियों ने धार्मिक-नस्ली-जातीय कट्टरपंथ के लिए उर्वर ज़मीन तैयार की है। समाज का रहा-सहा जनवादी स्पेस भी विगत दो दशकों के दौरान तेज़ी से सिकुड़ा है और कमज़ोर तबकों पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। सामाजिक ताने-बाने में जाति और जेण्डर के आधार पर मौजूद रही निरंकुश उत्पीड़क प्रवृत्तियों को पूँजी की नयी मानवद्रोही संस्कृति ने नयी ताक़त और नये रूप देने का काम किया है।

मीनाक्षी ने कहा कि यह जनवादी अधिकार आन्दोलन के लिए आत्ममन्थन और विचार-विमर्श का समय है। एक बुनियादी सवाल यह है कि क्या जनवादी अधिकार आन्दोलन को व्यापक जन भागीदारी और व्यापक सामाजिक आधर वाले एक आन्दोलन के रूप में ढालने की ज़रूरत नहीं है? दूसरा सवाल यह है कि क्या कम से कम कुछ ज्वलन्त मुद्दों पर देश भर के जनवादी अधिकार संगठन एकजुट होकर आवाज़ उठाने और दबाव  बनाने का काम नहीं कर सकते? तीसरी बात यह है कि जनवादी अधिकारों का सवाल केवल राज्यसत्ता के दमनकारी व्यवहार और काले क़ानूनों से ही नहीं जुड़ा है। धार्मिक कट्टरपन्थ की राजनीति, धार्मिक अल्पसंख्यकों के अलगाव, दलितों और स्त्रियों के उत्पीड़न जैसे मुद्दे भी जनवादी अधिकार और नागरिक आज़ादी के सवाल से जुड़े हुए हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि तीन दिनों की इस संगोष्ठी में हम किसी निर्णय तक पहुँच जायें, यह न अपेक्षित है न आवश्यक। हाँ, संवाद ज़रूरी है। हम मिल-बैठकर सोचेंगे तो कुछ कदम आगे ज़रूर बढ़ेंगे और फिर आगे की दिशा भी स्पष्ट होती जायेगी।

पहला दिन – चार आलेखों की प्रस्तुति और उन पर चर्चा

उद्घाटन सत्र

उद्घाटन सत्र

संगोष्ठी के पहले सत्र में भारतीय संविधन एवं लोकतान्त्रिक प्रणाली में निहित जनवाद पर चर्चा केन्द्रित रही। पुणे से आये आनन्द सिंह ने अपने आलेख “भारतीय संविधान और भारतीय लोकतन्त्र: किस हद तक जनवादी” में कहा कि उन्होंने कहा कि संविधान को एक “पवित्र” ग्रन्थ बनाकर प्रश्नों से परे करना भी एक गैर-जनवादी ‘एप्रोच’ है। जनवाद का तकाज़ा तो यह है कि भारतीय लोकतंत्र एवं इसकी विभिन्न संस्थाओं में पिछले छह दशकों के दौरान आये क्षरण की विवेचना के साथ ही इस बात पर भी खुली बहस हो कि भारतीय संविधान के निर्माण की प्रक्रिया किस हद तक जनवादी थी एवं भारतीय संविधान किस हद तक नागरिकों के अधिकारों की गारण्टी देता है। सच तो यह है कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया गैर-जनवादी थी और व्यापक जनता की भावनाओं-आकांक्षाओं का इसमें प्रतिनिधित्व नहीं था। संविधान तथा क़ानून व्यवस्था के अधिकांश ढाँचे पर आज भी औपनिवेशिक प्रभाव बना हुआ है। सभी औपनिवेशिक तथा काले क़ानूनों एवं राज्य की जनविरोधी कार्रवाइयों के खि़लाफ़ देशव्यापी स्तर पर जनान्दोलनों खड़े करने के साथ ही मौजूदा केन्द्रीकृत, अपारदर्शी एवं जनविरोधी संस्थाओं के विकल्प भी तलाशने होंगे। बड़े निर्वाचक मण्डलों की बजाय छोटे-छोटे निर्वाचक मण्डलों के आधार पर बहुसंस्तरीय चुनाव प्रणाली एवं निर्वाचित सदस्यों को वापस बुलाने के अधिकार के बारे में भी सोचना होगा। जनवादी अधिकार आन्दोलन को सार्विक वयस्क मताधिकार के आधार पर नयी संविधान सभा बुलाये जाने की माँग को भी अपने एजेण्डे पर रखना होगा।

नेपाल से आये वरिष्ठ लेखक एवं नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य निनू चपागाईं ने नेपाल में जारी संविधान निर्माण की प्रक्रिया की चर्चा करते हुए कहा कि संविधान को व्यापक जनसमुदाय के हितों की सेवा व हिफ़ाज़त करनी चाहिए। पीयूसीएल के उपाध्यक्ष चितरंजन सिंह ने कहा कि भारतीय संविधान की अन्तर्वस्तु में निरंकुशता के बीज निहित हैं और यही विभिन्न काले क़ानूनों के रूप में फलीभूत होकर सामने आते हैं। उन्होंने नयी संविधान सभा बुलाने की माँग का समर्थन करते हुए कहा कि इस मुद्दे पर जनमत संग्रह कराया जा सकता है। इस विषय पर चर्चा में ‘आह्वान’ पत्रिका के संपादक अभिनव, लखनऊ विश्वविद्यालय के डॉ. रमेश दीक्षित, बलिया के किसान आन्दोलन से जुड़े अवधेश सिंह, भाकपा (माले) के बृजबिहारी, दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के प्रेमप्रकाश, सोनीपत से आये परिमल कुमार तथा कोलकाता से आये भास्कर सूर ने भाग लिया। पहले सत्र की अध्यक्षता विस्थापन विरोधी जनविकास आन्दोलन, महाराष्ट्र के शिरीष मेढ़ी, श्री निनू चपागाईं और श्री चितरंजन सिंह ने की।

डॉ. महेश मास्के

डॉ. महेश मास्के

संगोष्ठी के दूसरे सत्र में तीन आलेख प्रस्तुत किये गये तथा उनमें उठाये गये मुद्दों पर विस्तृत चर्चा हुई। इलाहाबाद से आये प्रसेन ने “जनवादी अधिकारों के लिए आन्दोलन और मजदूर वर्ग” शीर्षक अपने आलेख में कहा कि आर्थिक धरातल पर मज़दूर वर्ग का जो भी टकराव होता है, वह पूँजी की लूट और पूँजीवादी सत्ता से होता है, हालाँकि वह पूँजी की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए नहीं, बल्कि अपने आसन्न हितों के लिए तथा पूँजी के चौतरफ़ा हमलों से आत्मरक्षा के लिए लड़ता है। साथ ही, मज़दूर वर्ग को रोज़-रोज़, क़दम-क़दम पर, अपने जनवादी अधिकारों को लेकर लड़ने की ज़रूरत पड़ती है। जनवादी अधिकारों की यह लड़ाई मज़दूर वर्ग के लिए आज बेहद ज़रूरी इसलिए भी हो गयी है कि लम्बे संघर्षों से जो अधिकार उसने हासिल किये थे, वे भी आज, मज़दूर आन्दोलन के उलटाव-बिखराव के दौर में उससे छिन चुके हैं। मज़दूरों को पूँजी की सत्ता और पूँजीवादी आर्थिक सम्बन्धों के विरूद्ध लड़ना होगा, लेकिन वे यदि अपने जनवादी अधिकारों के लिए नहीं लड़ सकते तो पूँजीवाद के विरूद्ध राजनीतिक-आर्थिक संघर्ष भी नहीं कर सकते। इसी बात को यूँ भी कहा जा सकता है कि जनवादी अधिकार आन्दोलन को व्यापक जनान्दोलन बनाने के लिए शहरों और गाँवों के मज़दूर वर्ग के जनवादी अधिकारों की माँगों को मुद्दा बनाने की और अपनी इन माँगों को लेकर संघर्ष करने के लिए ख़ुद मज़दूर वर्ग को जागृत, गोलबन्द, और संगठित करने की ज़रूरत है।

दिल्ली से आये जयपुष्प ने “जनवादी अधिकार आन्दोलन के सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यभार” शीर्षक अपने आलेख में कहा कि समाज में जनवादी अधिकारों का दमन और अतिक्रमण सिर्फ़ राज्यसत्ता ही नहीं करती है बल्कि वे प्राक् पूँजीवादी मूल्य, मान्यताएँ और संस्थाएँ भी करती हैं जिनके आधार अतर्कपरकता, असमानता, अन्धविश्वासों-पूर्वाग्रहों, और मध्ययुगीन प्रथाओं में मौजूद होते हैं। भारत जैसे उत्तरऔपनिवेशिक-कृषिप्रधान  देश के सामाजिक ताने-बाने में आज भी ऐसी संस्थाएँ और संस्कार मौजूद हैं और मूल्यों-मान्यताओं की ऐसी संरचनाएँ मौजूद हैं जो सामाजिक जीवन के हरेक क्षेत्र में एक बड़ी आबादी को दमन, अन्याय, उत्पीड़न और अपमान का शिकार बनाती हैं। आम जनता की रोज़मर्रा की जिन्दगी में क़दम-क़दम पर जनवादी अधिकारों के हनन के ख़िलाफ एक व्यापक जनाधार वाला आन्दोलन होना चाहिए और इसे एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन भी होना चाहिए।

न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर

न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर

सौरभ बनर्जी ने “विस्थापन, बेदखली और जनवादी अधिकारों का सवाल” शीर्षक अपने आलेख में विस्थापन और बेदखली की समस्या को जनवादी अधिकार आन्दोलन से जोड़कर देखने की और संघर्ष की रणनीति तय करने पर चर्चा की। विकास की प्राथमिकताओं और विस्थापितों के पुनर्वास सम्बन्धी राज्य की नीतियों के विरुद्ध संघर्ष के साथ ही आम जनता को उसके अधिकारों के बारे में शिक्षित और जागरूक बनाना जनसंगठनों, बुद्धिजीवियों और इंसाफ़पसन्द नागरिकों के लिए एक बड़ी चुनौती है।

तीनों आलेखों पर हुई चर्चा में एसोसिएशन फ़ॉर द प्रोटेक्शन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स के उपाध्यक्ष तथा प्रसिद्ध बंगला पत्रिका ‘अनीक’ के सम्पादक प्रो. दीपांकर चक्रवर्ती, चितरंजन सिंह, अभिनव, प्रसेन, आनन्द आदि ने भाग लिया। दूसरे सत्र की अध्यक्षता श्रीलंका के पेरीदेनिया विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर कलिंग ट्यूडर सिल्वा, श्री दीपांकर चक्रवर्ती और उत्तर प्रदेश पीयूसीएल की महासचिव वन्दना मिश्र ने की।

दूसरे सत्र के समापन के बाद आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में सांस्कृतिक टोली विहान की ओर से चीले के शहीद क्रान्तिकारी कवि और गायक विक्तोर खारा की याद में कुछ गीत प्रस्तुत किये।

आधार आलेख और उस पर हुई विस्तृत चर्चा

दूसरे दिन के पहले सत्र में राहुल फ़ाउण्डेशन की अध्यक्ष कात्यायनी ने संगोष्ठी का आधार लेख “जनवादी अधिकार आन्दोलन के संगठनकर्ताओं और कार्यकर्ताओं के विचारार्थ कुछ बातें” प्रस्तुत किया। अपने विस्तृत आलेख में कात्यायनी ने कहा कि भारत में 1970 के दशक में, विशेषकर आपातकाल के दिनों के अनुभव ने एक व्यावहारिक एवं अपरिहार्य आवश्यकता के रूप में जनवादी अधिकार आन्दोलन को शक्ति एवं संवेग प्रदान किया था। आगे चलकर राजकीय दमन तंत्र के विरूद्ध, विशेषकर राजनीतिक विरोध के दमन के विरूद्ध जाँच-पड़ताल रिपोर्ट, ज्ञापन, याचिका, धरना-प्रदर्शन आदि के माध्यम से अनुष्ठानिक ढंग से गतिविधियों की निरन्तरता जनवादी अधिकार आन्दोलन की दिनचर्या बनी रही। भारतीय राज्यतंत्र की संरचना, सामाजिक ताने-बाने और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के विश्लेषण के आधार पर, आज जनवादी अधिकार आन्दोलन को नये सिरे से ‘कंसेप्चुअलाइज़’ करना होगा। जनवादी एवं नागरिक अधिकारों के आन्दोलन को शहरी बुद्धिजीवियों के सीमित दायरे और ‘ज्ञापन-प्रतिवेदन-याचिका’ की रूटीनी क़वायद से बाहर निकालकर व्यापक आम आबादी (जिसका मुख्य हिस्सा शहरों-गाँवों की मेहनतक़श आबादी होती है) तक ले जाना होगा और उसे एक व्यापक जनान्दोलन की शक़्ल देनी होगी। जनवादी अधिकार आन्दोलन का सर्वोपरि कार्यभार यह बनता है कि वह व्यापक जनसमुदाय को नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों के प्रश्न पर हर सम्भव माध्यम से शिक्षित करे, लामबन्द करे और संगठित करे। इन मुद्दों पर प्रचार एवं उद्वेलन का एक लम्बा सिलसिला चलाना होगा।

प्रो. दीपांकर चक्रवर्ती

प्रो. दीपांकर चक्रवर्ती

कात्यायनी ने कहा कि जनवादी अधिकार आन्दोलन का घोषणापत्र किसी आमूलगामी सामाजिक क्रान्ति का उद्घोष नहीं होता। इसका दायरा उन जनवादी माँगों और नागरिक आज़ादी की माँगों के लिए संघर्ष तक सीमित होता है जिनका वायदा ‘स्वतंत्रता-समानता-भ्रातृत्व’ के नारे के साथ प्रबोधनकाल के दार्शनिकों और जनवाद के क्लासिकी सिद्धान्तकारों ने किया था और दुनिया के अधिकांश बुर्जुआ जनवादी देशों के संविधान कम से कम काग़ज़ी तौर पर जिन्हें स्वीकार करते हैं। इन अधिकारों के लिए लड़ते हुए संगठित जनशक्ति राज्यसत्ता पर दबाव बनाकर कुछ जनवादी ‘स्पेस’ और नागरिक आज़ादी हासिल भी कर लेती है और इस तरह अपनी संगठित शक्ति की ताक़त पहचानतीे है। अपने संगठित संघर्षों द्वारा जनता जो जनवादी ‘स्पेस’ और जो उन्नत जनवादी चेतना हासिल करती है उसके आधार पर वह अपने बुनियादी अधिकारों का संघर्ष और उन्नत धरातल पर संगठित करती है। लेकिन यदि कोई जनवादी अधिकार संगठन पहले से ही यह घोषित कर दे कि चूँकि बुर्जुआ जनवाद जनता को वास्तविक जनवाद दे ही नहीं सकता, अतः जनवादी अधिकार के लिए संघर्ष का एकमात्र मतलब है क्रान्तिकारी व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्ष, तो यह जनता की चेतना से काफ़ी आगे की बात उसपर थोपने वाला तथा बुर्जुआ क़ानूनी दायरे के भीतर संघर्ष के द्वारा सीखने की सम्भावनाओं की उपेक्षा करने वाला संकीर्णतावाद और हरावलपन्थ होगा। ऐसी संकीर्णतावादी हरावलपन्थी प्रवृत्तियाँ जनवादी अधिकार आन्दोलन के संयुक्त मोर्चे के दायरे को संकुचित कर देंगी और उसे गम्भीर नुकसान पहुँचायेंगी।

उन्होंने कहा कि राजनीतिक आन्दोलनों पर दमन का प्रतिकार संगठित करना और बन्दी मुक्ति आन्दोलन जैसे काम बेहद ज़रूरी काम हैं। आतंकवाद की आड़ में जनता के विरूद्ध सरकार का युद्ध और राजकीय दमन पहले से ही एक ज्वलन्त सवाल रहा है। आने वाले दिनों में इसकी व्यापकता और सघनता और अधिक बढ़ने वाली है। लेकिन जनवादी अधिकार आन्दोलन को यदि सघन एवं संगठित, सतत एवं सुदीर्घ, प्रचार और उद्वेलन की कार्रवाई के द्वारा व्यापक जनान्दोलन का स्वरूप नहीं दिया जायेगा, यदि प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों के सीमित दायरे से बाहर लाकर उसके सामाजिक आधार के विस्तार की कोशिश नहीं की जायेगी, तो देश के इस या उस कोने की जनता पर होने वाले राजकीय दमन की घटनाओं को व्यापक जनसमुदाय की निगाहों में नहीं लाया जा सकेगा और उन्हें व्यापक जन-प्रतिरोध का मुद्दा नहीं बनाया जा सकेगा।

एक महत्वपूर्ण सवाल उठाते हुए कात्यायनी ने कहा कि राजनीतिक आन्दोलनों में सक्रिय मध्यवर्गीय बौद्धिक पृष्ठभूमि के लोगों और थोड़ी अच्छी सामाजिक हैसियत वाले बुद्धिजीवी समर्थकों एवं हमदर्दों की गिरफ़्तारी और दमन-उत्पीड़न के मुद्दों को जिस जोर-शोर के साथ उठाया जाता है, उतनी ही शिद्दत के साथ निम्नतर वर्ग-पृष्ठभूमि से आने वाले कार्यकर्ताओं और समर्थकों की गिरफ़्तारी और दमन-उत्पीड़न को, या आन्दोलनों में भागीदारी करने वाली व्यापक आम आबादी के दमन-उत्पीड़न को मुद्दा नहीं बनाया जाता। ऐसे में वस्तुपरक होकर इस बात की भी पड़ताल करनी होगी कि लगातार मध्यवर्गीय ‘पैस्सिव रैडिकलिज़्म’ की चौहद्दी में सिमटे रहने के कारण जनवादी अधिकार आन्दोलन में भी कहीं किसी किस्म का वर्ग-पूर्वाग्रह तो नहीं पैदा हो गया है?

विगत लगभग दो दशकों के दौरान, जनवादी अधिकार आन्दोलन की रही-सही ताकत और प्रभाविता का भी लगातार क्षरण-विघटन हुआ है। इसके कारण “भारतीय खुशहाल मध्यवर्ग के ऐतिहासिक विश्वासघात” में ढूँढ़े जा सकते हैं। जनवादी अधिकार आन्दोलन का मुख्य आधार शहरी मध्यवर्ग के रैडिकल जनवादी हिस्से में सिमटा रहा है (इनमें विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक, वकील, मीडियाकर्मी व अन्य स्वतंत्र ‘प्रोफ़ेशनल्स’ शामिल हैं)। विगत कुछ दशकों में पूँजीवादी विकास के साथ इस शहरी मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से की हैसियत और जीवन-स्तर में बढ़ोत्तरी हुई, तीन-चौथाई ग़रीब आबादी के जीवन से उसकी दूरी बहुत अधिक बढ़ी है और वह एक विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक उपभोक्ता समुदाय बन चुका है। ऐसे में, जनवादी अधिकार आन्दोलन को एक व्यापक और जुझारू जनान्दोलन की शक़्ल देने के लिए मुख्य तौर पर निम्नमध्यवर्ग से आने वाले उन रैडिकल बुद्धिजीवियों की नयी पीढ़ी पर भरोसा करना होगा जो नवउदारवाद के वर्तमान दौर में आम मेहनतक़शों की ही तरह असुरक्षा और अनिश्चितता के भँवर में धकेल दिये गये हैं और काफ़ी हद तक उन जैसा ही जीवन जीने को मजबूर हैं। व्यापक जनाधार पर जनवादी अधिकार आन्दोलन के संगठित होने की प्रक्रिया जब गति पकड़ लेगी तो आम मेहनतक़श जमातों के बीच से भी उनके ‘ऑर्गेनिक’ बौद्धिक तत्व आगे आयेंगे और नेतृत्वकारी भूमिका निभायेंगे।

जनवादी अधिकार आन्दोलन के सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यभारों की चर्चा करते हुए कात्यायनी ने कहा कि भारतीय समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों-मान्यताओं-संस्थाओं-सम्बन्धों में जनवाद और तर्कणा बस नाममात्र को ही हैं। पूँजीवादी आधुनिक “बर्बरता” के साथ प्राक्पूँजीवादी निरंकुश स्वेच्छाचारिता भी सामाजिक ताने-बाने के रेशे-रेशे में मौजूद है। केवल राज्य और नागरिक के बीच के रिश्ते में ही नहीं, नागरिक और नागरिक के रिश्ते में भी दमन, असमानता और अपमानजनक पार्थक्य विविध रूपों में मौजूद हैं। यह स्थिति निरकुंश दमनकारी राज्य मशीनरी के विरुद्ध व्यापक जनएकजुटता के निर्माण के रास्ते की बहुत बड़ी बाधा है। बर्बर जातिवादी मूल्यों-संस्थाओं, पुरुषवर्चस्ववादी मूल्यों-संस्थाओं और धार्मिक अन्धविश्वासों-पूर्वाग्रहों के विरुद्ध व्यापक और जुझारू सामाजिक-सांकृतिक मुहिम चलाये बिना नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों की बात करना बेमानी है। जनवादी अधिकार आन्दोलन को सिर्फ राजकीय निरकुंशता को ही नहीं सामाजिक-सांस्कृतिक निरंकुशता को भी निशाना बनाना होगा। हमें दलित उत्पीड़न, अन्य प्रकार के जातिगत उत्पीड़न एवं वैमनस्य, जाति आधारित चुनावी राजनीति, स्त्री-उत्पीड़न, पुरुषवर्चस्ववाद के विविध रूपों, धार्मिक कट्टरपन, अन्धविश्वास एवं पूर्वाग्रहों के विरुद्ध भी व्यापक प्रचार एवं शिक्षा-अभियान भी चलाने होंगे। कात्यायनी ने कहा कि साम्प्रदायिक फासीवाद, विशेषतौर पर हिन्दुत्ववादी धार्मिक कट्टरपन्थ के विरुद्ध जनवादी अधिकार आन्दोलन को प्रभावी बनाने की ज़रूरत है लेकिन व्यापक जनपहलकदमी और जनलामबन्दी के बिना इन शक्तियों का कारगर ढंग से मुकाबला नहीं किया जा सकता। बुनियादी जनवादी अधिकारों को लेकर व्यापक मेहनतक़श जनता के आन्दोलन संगठित करने के साथ-साथ यदि धार्मिक पूर्वाग्रहों और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध निरन्तर जुझारू सामाजिक अभियान चलाये जायें तभी धार्मिक कट्टरपन्थ का प्रभावी मुक़ाबला किया जा सकता है।

जनता की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के बुनियादी मसलों पर जनवादी अधिकार आन्दोलन को तृणमूल स्तर से जनदबाव की एक नयी राजनीति का तानाबाना बुनना होगा। पौष्टिक भोजन, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा और आजीविका के बुनियादी जनवादी अधिकारों को मुद्दा बनाते हुए, इनसे जुड़े छोटे-छोटे स्थानीय सवालों को उठाते हुए तथा पुलिसिया दमन-उत्पीड़न, विस्थापन, जबरिया बेदखली आदि समय-समय पर जगह-जगह उठने वाले मुद्दों को हाथ में लेते हुए जन-सत्याग्रह, ‘घेरा डालो डेरा डालो’, नागरिक असहयोग आन्दोलन, करबन्दी, चुनावी नेताओं के बहिष्कार आन्दोलन जैसे जनान्दोलनों के रूप अपनाने होंगे। इस प्रक्रिया में लोक पंचायतों, लोक परिषदों, लोक निगरानी समितियों, चौकसी दस्तों जैसे नये-नये लोक प्लेटफॉर्म और संस्थाएँ सृजित हो सकती हैं जो जनता की सामूहिक पहलकदमी और निर्णय क्षमता को प्रकट कर सकती हैं और आन्दोलन के नेतृत्व को भी निरन्तर जवाबदेही एवं निगरानी के दायरे में बनाये रख सकती हैं। इस तरह जनवादी अधिकार आन्दोलन को नीचे से जनवादी संस्थाओं के विकास का एक देशव्यापी आन्दोलन भी बनाया जा सकता है।

अन्त में कात्यायनी ने अपनी बातों को समेटते हुए तीन केन्द्रीय मुद्दों को रेखांकित किया। पहला, जनवादी अधिकार आन्दोलन को जनवादी चेतना वाले बुद्धिजीवियों के आन्दोलन के बजाय व्यापक सामाजिक आधार वाले जनान्दोलन के रूप में संगठित करना होगा  तथा व्यापक जनता के बुनियादी जनवादी अधिकारों को इसके संघर्ष के एजेण्डा पर लाना होगा। दूसरा, जनवादी अधिकारों का अपहरण करने वाली सामाजिक संस्थाओं-मूल्यों-मान्यताओं के विरुद्ध व्यापक जनजागरूकता मुहिम चलाना भी जनवादी अधिकार आन्दोलन का कार्यभार होना चाहिए। तीसरा, राज्यसत्ता के बढ़ते दमनकारी रुख के प्रभावी प्रतिकार के लिए जनवादी अधिकार आन्दोलन की बिखरी हुई ताक़त को राष्ट्रव्यापी स्तर पर एकजुट करने की प्रक्रिया शुरू करने चाहिए तथा देश में मौजूद जनवादी अधिकार संगठनों का न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर एक संयुक्त मोर्चा बनाया जाना चाहिए।

प्रो. दीपांकर चक्रवर्ती ने अपना आलेख ‘भारत में मानवाधिकार आन्दोलन के प्रति यथार्थवादी रुख की तलाश में’ प्रस्तुत करते हुए कहा कि कात्यायनी के आलेख में कही गयी अधिकांश बातों से उनकी सहमति है और उनका आलेख तथा कात्यायनी का आलेख एक-दूसरे के सम्पूरक हैं। उन्होंने कहा कि मानवाधिकारों की अवधारणा वर्ग-विभाजनों से परे कोई अमूर्त विचार नहीं बल्कि किसी भी देश के सामाजिक विकास की विशिष्ट मंज़िल पर निर्भर करती है। आम तौर पर, मानवाधिकारों को सिर्फ़ नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से जोड़कर देखा जाता है और इस तरह लोगों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को एक तरह से नकार दिया जाता है। भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार आदि मूलभूत अधिकारों को सुनिश्चित किये बिना सबसे बुनियादी मानवाधिकार, जीने के अधिकार को भी सुरक्षित नहीं किया जा सकता।

इसलिए मानवाधिकार आन्दोलन को मेहनतकश जनता के आन्दोलनों के साथ सीधा रिश्ता बनाना होगा। इसी सन्दर्भ में, हमारे देश में राजनीतिक आन्दोलनों और मानवाधिकार आन्दोलनों के बीच रिश्ते के प्रश्न पर चर्चा करना ज़रूरी है। उन्होंने कहा कि भारत की वर्तमान परिस्थिति में, कोई मानवाधिकार संगठन केवल फ्टि याचिकाएँ दाखिल करने, हस्ताक्षर अभियान चलाने, तथ्य-संग्रह टीमें भेजकर रिपोर्टें प्रकाशित करने और प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन करने” तक सीमित नहीं रह सकता औरन ही उसे सीमित रहना चाहिए, जैसा कि इस महत्वपूर्ण संगोष्ठी के आमंत्रण पत्र में भी ज़िक्र किया गया है। लेकिन अगर इसमें किसी एक राजनीतिक संगठन का नेतृत्व स्वीकार लिया गया, तो हमेशा इस बात का ख़तरा बना रहेगा कि उस राजनीतिक शक्ति के हितों को पूरा करने के लिए मानवाधिकारों के आदर्शों को तिलांजलि दे दी जाये।

आधार आलेख पर चर्चा में भाग लेते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं पीयूसीएल के राष्ट्रीय सलाहकार राजिन्दर सच्चर ने कहा कि कात्यायनी के आलेख में बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे उठाये गये हैं जिन पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि सरकार एक के बाद एक देश के बेशकीमती प्राकृतिक संसाधन देशी-विदेशी कम्पनियों के हवाले कर रही है और इसके लिए भारी संख्या में आदिवासियों और किसानों को उजाड़ा जा रहा है। इनका प्रतिरोध कर रही जनता को कुचलने के लिए सरकार उन इलाकों में सशस्त्र बलों को भेज रही है। माओवादी हिंसा को सरकार जनता के दमन के बहाने के तौर पर इस्तेमाल कर रही है।

न्यायमूर्ति सच्चर ने कहा कि सरकार एक ओर जनता के विरुद्ध सेना का इस्तेमाल नहीं करने की बात करती है, तो दूसरी ओर छत्तीसगढ़ में 750 वर्ग किलोमीटर जंगल का इलाका सेना के ट्रेनिंग कैम्प के लिए सौंप दिया गया है। सरकार अपनी कार्रवाइयों से गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर रही है। आज देश में दमन है तो उसका प्रतिरोध भी है। गोलीकाण्डों और गिरफ़्तारियों से लोग डरे नहीं हैं। आधार आलेख की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि राजद्रोह के क़ानून और सशस्त्र बल विशेष अधिकार क़ानून को ख़त्म करने के सवाल पर देशव्यापी साझा आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है। पीयूसीएल ने इस मुद्दे पर 10 लाख हस्ताक्षरों के साथ संसद के अगले सत्र के दौरान दिल्ली में विशाल प्रदर्शन करने की पहल की है। यहाँ से शुरुआत करके सभी काले क़ानूनों को ख़त्म करने के सवाल पर साझा मोर्चा बनाया जा सकता है।

श्री सच्चर ने आलेख में नयी संविधान सभा बुलाने की माँग का विरोध किया और कहा कि इस माँग के दक्षिणपंथी शक्तियों के हाथ में चले जाने का ख़तरा हो सकता है। आज आन्दोलनों के बिखर जाने के कारण संविधान के प्रगतिशील तत्वों पर अमल नहीं हो रहा है। उन्होंने छत्तीसगढ़ में सरकार से संघर्ष कर रहे माओवादी विद्रोहियों को “युद्धबन्दी” का दर्जा देने की बात का भी विरोध करते हुए कहा कि हिंसा को खारिज किये बिना मानवाधिकार संगठन नहीं चल सकते।

‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान’ पत्रिका के सम्पादक अभिनव ने हिंसा-अहिंसा, भारतीय संविधान और कश्मीर के सवाल पर श्री सच्चर की आलोचनाओं से मतभेद जताते हुए कहा कि संविधान सभा में मान्य जन नेता शामिल थे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। असल प्रश्न प्रक्रिया का है। जब तक सामूहिक इच्छा को प्रकट करने वाली सही प्रणाली को लागू नहीं किया जायेगा तब तक कुछ मान्य नेताओं का आ जाना महज़ एक संयोग बना रहेगा। उन्होंने इतिहास में हिंसा व बलप्रयोग के प्रश्न पर विस्तृत चर्चा करते हुए इस बात का भी खण्डन किया कि जिन देशों में सशस्त्र क्रान्तियों के ज़रिये परिवर्तन हुए वहाँ जनवाद नहीं क़ायम हुआ। जनवाद के मूल्यों को जन्म देने वाली फ्रांसीसी क्रान्ति इतिहास की सबसे रक्तरंजित क्रान्तियों में से थी।

नेपाल के प्रमुख मानवाधिकरकर्मी और नेपाल पब्लिक हेल्थ फाउण्डेशन के अध्यक्ष डॉ. महेश मास्के ने कहा कि सत्ता की हिंसा ही जनता के संघर्षों को हिंसा का रास्ता अपनाने पर मजबूर करती है। उन्होंने नेपाल और भारत दोनों ही देशों में अधिक जनवादी संविधान की ज़रूरत की चर्चा करते हुए नेपाल में जनपक्षधर और प्रगतिशील संविधान बनाने के लिए चल रहे संघर्ष की चर्चा की।

आन्ध्र प्रदेश पीयूसीएल की अध्यक्ष जया विन्ध्यला ने व्यापक आधार वाले जनवादी अधिकार आन्दोलन की ज़रूरत का समर्थन करते हुए कहा कि इसके लिए सभी संगठनों के बीच विचार-विमर्श होना चाहिए।

लॉयर्स फॉर जस्टिस एण्ड डेमोक्रेटिक राइट्स, पंजाब के एन. के. जीत ने जनवादी अधिकार आन्दोलन की हालत उतनी कमज़ोर नहीं है जितनी आधार आलेख में दर्शायी गयी है। उन्होंने जनवादी अधिकारों पर हर हमले का जनवादी अधिकार संगठनों और जनसंगठनों की ओर से पुरज़ोर विरोध किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि पंजाब में जनान्दोलनों के दमन के लिए दो ख़तरनाक काले क़ानून लाये गये हैं। पंजाब सार्वजनिक सम्पत्ति क्षति निरोधक क़ानून के तहत प्रशासन की अनुमति के बिना धरना-प्रदर्शन करने पर 2 से 7 वर्ष तक की सज़ा हो सकती है। स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप क़ानून के तहत पुलिस बलों को असीमित अधिकार दे दिये गये हैं। इनका कड़ा विरोध हो रहा है।

पीयूडीआर, दिल्ली के परमजीत ने विस्तृत उदाहरणों के साथ बताया कि देश के अलग-अलग हिस्सों में राजद्रोह तथा अन्य काले क़ानूनों का जनान्दोलनों के ख़िलाफ़ किस प्रकार दुरुपयोग किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि जब तक जनान्दोलनों, मज़दूर संगठनों, ट्रेड यूनियनों आदि के लोग जनवादी अधिकार संगठनों के कामों से नहीं जुड़ेंगे तब तक जनवादी अधिकार संगठनों के कामों का दायरा सीमित ही रहेगा।

गुड़गाँव से आये राजकुमार व मुनीश ने अपने आलेख ‘सरकार का युद्ध आतंकवाद के विरुद्ध या जनता के विरुद्ध’ में ऑपरेशन ग्रीन हण्ट के नाम पर चलाये जा रहे दमनचक्र और कारपोरेट घरानों के लिए ज़मीन हड़पने और आदिवासियों के विस्थापन के बर्बर सरकारी अभियान की ब्योरेवार चर्चा करते हुए कहा कि भारतीय राज्य 1947 के बाद से ही लगातार जनता का निरंकुश दमन करता रहा है। राज्य मशीनरी की निरंकुशशाही का मुकाबला केवल व्यापक जनसमुदाय को जागृत और गोलबन्द करके ही किया जा सकता है। जनवादी-अधिकारकर्मियों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है यह सोचने की है कि जनता को अपने जनवादी अधिकारों के प्रति कैसे सचेत बनायें और उसे उनके लिए लड़ना और संघर्ष करना सिखायें। उन्हें जनता को बताना होगा कि प्रश्न केवल अबूझमाड़ का या दण्डकारण्य का नहीं है बल्कि असल सवाल उदारीकरण-भूमण्डलीकरण-निजीकरण की उन नीतियों का है जिनके फलस्वरूप मेहनतकश जनता का भारी  हिस्सा तबाह और बर्बाद होकर नारकीय जीवन जी रहा है।

इस सत्र में हुई मुम्बई से आये हर्ष ठाकोर, गोरखपुर में चले मज़दूर आन्दोलन से जुड़े प्रशान्त और किसान संघर्ष समिति, बलिया के अवधेश सिंह सहित विभिन्न वक्ताओं ने भाग लिया।

दूसरे दिन के पहले सत्र की अध्यक्षता डॉ. महेश मास्के, जया विन्ध्यला तथा अरविन्द स्मृति न्यास की मीनाक्षी ने की। दूसरे सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि कपिलेश भोज, हरियाणा से आये बुद्धिजीवी कश्मीर सिंह और पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर ने की।

श्रीलंका, नेपाल एवं दक्षिण एशिया में जनवादी अधिकार आन्दोलन पर केन्द्रित विशेष सत्र

संगोष्ठी के अन्तिम दिन का पहला सत्र श्रीलंका, नेपाल, तथा दक्षिण एशिया पर केन्द्रित था। श्रीलंका के पेरादेनिया विश्वविद्यालय और इण्टरनेशनल सेंटर फ़ॉर एथनिक स्टडीज़ के प्रो. कलिंग ट्यूडर सिल्वा ने ‘श्रीलंका में जातीय अल्पसंख्यकों के जनवादी अधिकारों का उतार-चढ़ाव – दक्षिण एशिया के लिए सबक’ शीर्षक अपने आलेख में कहा कि उनके देश का अनुभव बताता है कि अल्पसंख्यकों के अधिकार के लिए संघर्ष पूरे समाज के व्यापक मुद्दों से जोड़कर ही सफल हो सकता है। राजपक्षे सरकार द्वारा लिट्टे को कुचलने के बाद वहाँ तमिलों के बर्बर दमन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि आज श्रीलंका में तमिलों के जनवादी अधिकारों का सवाल एकदम पीछे धकेल दिया गया है। प्रो. सिल्वा ने कहा कि श्रीलंका का अनुभव भी यही सिद्ध करता है कि सिविल सोसायटी के संगठन जब तक व्यापक जनता से अपने को नहीं जोड़ेंगे तब तक उनकी आवाज़ भी निष्प्रभावी रहेगी। उन्होंने कहा कि लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम की मुख्य ग़लतियों में से एक यह थी कि उसने जातीय पहचान पर बहुत अधिक बल दिया और वर्गीय तथा अन्य भेदभाव और उत्पीड़न की उपेक्षा की तथा श्रीलंका में अन्य वंचित वर्गों के साथ अपने आन्दोलन को जोड़ने की कोशिश नहीं की।

डॉ. महेश मास्के ने अपने आलेख में नेपाल के जनवादी आन्दोलन की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में चर्चा करते हुए कहा कि नेपाल आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। भविष्य का नेपाल कैसा हो इसके लिए पूंजीवादी शक्तियों, राजतन्त्र समर्थकों और जनता के हितों की पक्षधर शक्तियों के बीच संघर्ष जारी है। संविधान निर्माण में हो रहे विलम्ब का भी यही कारण है।

श्री राजिन्दर सच्चर ने श्रीलंका सरकार द्वारा तमिलों के दमन की तीखी निन्दा की और कहा कि तमिल इलाकों में मानवाधिकारों के हनन की जाँच के लिए संयुक्त राष्ट्र के दल को वहाँ जाने की इजाज़त न देकर श्रीलंका सरकार अन्तरराष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन कर रही है। उन्होंने नेपाल में नये संविधान के निर्माण में हो रहे विलम्ब को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए सभी पक्षों से इसके लिए मिलकर काम करने की अपील की।

पीयूडीआर के परमजीत ने कहा कि नेपाल में हो रही घटनाओं पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी हैं। उन्होंने भारत के राजदूत द्वारा नेपाल के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप की भी निन्दा की।

सशक्त जनवादी अधिकार आन्दोलन खड़ा करने के साझा प्रयासों को आगे बढ़ाने पर आम सहमति

संगोष्ठी के अन्तिम सत्र में दो आलेख प्रस्तुत किये गये तथा उन पर चर्चा हुई। जया विन्धला ने अपने आलेख में भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन के इतिहास, इसकी उपलब्धियों और समस्याओं की चर्चा की और एक मज़बूत जनवादी अधिकार आन्दोलन खड़ा करने के लिए सभी संगठनों से मिलकर करने पर बल दिया।

पंजाब के डॉ. अमृतपाल ने अपने आलेख में स्वास्थ्य को एक बुनियादी जनवादी अधिकार का दर्जा देने की बात की। उन्होंने विस्तृत ब्योरों और आँकड़ों के ज़रिए बताया कि आज़ादी के 63 साल बाद भी भारत की आम आबादी को स्वास्थ्य जैसा मूलभूत अधिकार तक हासिल नहीं हो सका है। आज स्वास्थ्य को बाज़ार की शक्तियों के हवाले कर रहा-सहा अधिकार भी छीना जा रहा है। उन्होंने कहा कि जनवादी अधिकार आन्दोलन को स्वास्थ्य के सवाल पर जनता को जागरूक और संगठित कर सरकार पर दबाव बनाना होगा। स्वास्थ्य के प्रश्न पर जनता के बीच काम करते हुए उसे अन्य जनवादी अधिकारों के बारे में शिक्षित तथा संगठित करने का एक आधार भी बनेगा।

इस सत्र में हुई चर्चा में इस बात पर आम सहमति उभरकर आयी कि देश के विभिन्न हिस्सों में काम कर रहे जनवादी व नागरिक अधिकार संगठनों, न्यायविदों, जनवादी अधिकारों के समर्थक बुद्धिजीवियों, लेखकों व सामाजिक कार्यकर्ताओं को जनवादी अधिकारों पर एक सशक्त साझा आन्दोलन खड़ा करने के प्रयासों को आगे बढ़ाना होगा। विभिन्न वक्ताओं ने इस बात पर बल दिया कि जनवादी अधिकार आन्दोलन को व्यापक सामाजिक आधार वाले जनान्दोलन के रूप में संगठित करना होगा और व्यापक जनता के बुनियादी जनवादी अधिकारों को इसके संघर्ष के एजेण्डा पर लाना होगा। राज्यसत्ता के अतिरिक्त जनता के जनवादी अधिकारों का अपहरण करने वाली सामाजिक संस्थाओं-मूल्यों-मान्यताओं के विरुद्ध व्यापक जन जागरूकता मुहिम चलाना भी जनवादी अधिकार आन्दोलन का कार्यभार होना चाहिए। राज्यसत्ता के बढ़ते दमनकारी रुख के प्रभावी प्रतिकार के लिए जनवादी अधिकार आन्दोलन की बिखरी हुई ताकत को राष्ट्रव्यापी स्तर पर एकजुट करना होगा। इसके लिए ज़रूरी है कि आज देश में जो जनवादी अधिकार संगठन मौजूद हैं, उनके न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर एक संयुक्त मोर्चा बनाने की पहल की जाये।

संगोष्ठी में यह माँग भी रखी गयी कि राजद्रोह के औपनिवेशिक क़ानून (आई.पी.सी. की धारा 124ए) को रद्द किया जाना चाहिए तथा ए.एफ़.एस.पी.ए. जैसे बर्बर निरंकुश क़ानून को न केवल उत्तर पूर्व एवं जम्मू-कश्मीर से तत्काल हटाया जाना चाहिए, बल्कि हर ऐसे काले क़ानून को रद्द किया जाना चाहिए जो सेना या अर्द्धसैनिक बलों को आम नागरिकों की आज़ादी एवं जनवादी अधिकारों को कुचलने की छूट देता हो।

आज की संगोष्ठी के पहले सत्र की अध्यक्षता न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर, श्री निनु चपागाईं, तथा श्री परमजीत ने और अन्तिम सत्र की अध्यक्षता श्री शिरीष मेढ़ी, प्रो. दीपांकर चक्रवर्ती व आन्ध्र प्रदेश पी.यू.सी.एल. के उपाध्यक्ष इकबाल खान ने किया। संगोष्ठी के तीनों दिन संचालन की ज़िम्मेदारी सत्यम ने सँभाली।

संगोष्ठी के समापन के बाद ‘विहान’ की ओर से दमन के विरुद्ध दुनियाभर में गाये जाने वाले अनेक प्रसिद्ध गीतों की प्रस्तुति की गयी।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2011

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