अमेरिकी ऋण सीमा “संकट”: विभ्रम और यथार्थ

प्रशान्त

2006 के अन्त में अमेरिकी अर्थव्यवस्था 1930 के बाद की सबसे बड़ी मन्दी के भँवर में फँसने लगी। इसके बाद वहाँ बड़े पैमाने पर छँटनी, तालाबन्दी हुई और बेरोजगारों, बेघरों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी। अमेरिकी जनता में अपने भविष्य को लेकर गहरी निराशा पैठी हुई है। ऐसे समय पर अपने शब्दों की जादूगरी से जनता में आशा की नयी किरण का संचार करने वाले बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बने! अपने बड़े-बड़े भारी भरकम शब्दों व वायदों से उन्होनें अपने देश की जनता को यह भरोसा दिलाया कि अमेरिका का सितारा गर्दिश में नहीं जाएगा उन्हें (अमेरिकी जनता को) मिली सुविधाओं को उनसे छीना नहीं जाएगा। बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये सुविधाएँ अमेरिकी जनता को खासकर तीसरी दुनिया के देशों की लूट व शोषण के द्वारा हासिल हुई हैं। लेकिन समय के साथ साथ यह साफ हो चला है कि अब इन सुविधाओं को आगे उन्हीं स्तरों पर कायम रखना सम्भव नहीं हो सकेगा तथा बराक ओबाम अपनी वाक् निपुणता का प्रयोग अधिक से अधिक अमेरिकी जनता को बेवकूफ बनाने के लिए करने को मजबूर हैं।

हाल में पैदा हुए अमेरिकी ऋण सीमा ‘‘संकट’’ के समय पर भी ओबामा ने लफ्फाज़ी में हासिल की गयी इस निपुणता का जम कर इस्तेमाल किया। 2010 के अन्तिम महीनों से ही विश्व के बड़े अर्थशास्त्रियों ने यह बात कहनी शुरू कर दी थी कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था एक बड़े ऋण संकट की ओर बढ़ रही है। और इस साल की शुरूआत से ही रिपब्लिकनों और डेमोक्रेटों के बीच इस ‘‘संकट’’ से ‘‘बचने’’ के लिए बजट-2012 में उठाए जाने वाले कदमों को लेकर बहस शुरू हो गई थी। 2 मई 2011 को अमेरिका के ट्रेजरी सेक्रेटरी टीमोथी गिथनर ने जब यह घोषणा की कि अगर 2 अगस्त 2011 तक अमेरिकी कांग्रेस के दोनों हाउस (हाउस ऑफ रिप्रजेन्टेटिव्स, जिसमें 2010 के चुनावों के बाद से रिपब्लिकन्स का बहुमत है और सीनेट, जिसमें डेमोक्रेट्स का बहुमत है) अमेरिकी बजट घाटे को कम करने के लिए किसी आम सहमति पर नहीं पहुँचे और ऋण सीलिंग (अधिकतम सीमा) को बढ़ाया नहीं गया तो अमेरिका में सम्प्रभु ऋण संकट पैदा हो जाएगा। दूसरे शब्दों में, अमेरिका दिवालिया घोषित कर दिया जाएगा। गिथनर की इस चेतावनी के बाद विश्व मीडिया व शेयर बाजारों में हड़कम्प मच गया और अमेरिका के दोनों सदनों के बीच बहस और गरम हो गयी। फलस्वरूप, अमेरिका में राजनीतिक संकट की स्थिति भी पैदा हो गयी जिसमें कि 2012 के चुनावों की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी। तो सवाल उठता है कि आखिर क्या कारण थे कि ऐसे गम्भीर संकट का खतरा पैदा होने के बावजूद, जिससे उबरने में अमेरिका को शायद दशकों का समय लग जाता, देश की दोनों महत्वपूर्ण पार्टियाँ इस समस्या के जल्द समाधान के बजाय इससे अपने राजनीतिक हितों को साधने की कोशिश करने में लगी रहीं? अंतिम समय पर जाकर ही अर्थात् 31 जुलाई को दोनों सदनों (दोनों पार्टियों के माध्यम से) के बीच समझौता हो सका। इसके साथ ही यह भी जानना जरूरी है कि ऋण सीमा संकट वास्तव में एक संकट था भी या नहीं और यह भी कि यह पैदा क्यों और कैसे हुआ? इसके साथ ही दोनों पार्टियों में मतभेद के वास्तविक कारण क्या थे और 2 अगस्त को हुए समझौते का अमेरिका जनता के लिए निहितार्थ क्या हैं?

बजट घाटा, ऋण सीमा और दिवालिया होने का संकट

किसी भी देश की सरकार हर साल अपने आय-व्यय के हिसाब के अनुसार अपना बजट बनाती है। जब सरकार का सम्भावित व्यय उसकी आय से अधिक हो जाता है तो आय-व्यय में इस अन्तर को बजट घाटा कहा जाता है। सरकारों का बजट घाटा पूँजीवादी विश्व की एक सामान्य परिघटना है। इस घाटे को सरकार विभिन्न मदों और स्रोतों से ऋण लेकर पूरा करती है। लेकिन जब किसी देश की सरकार दूसरे देशों व विभिन्न बैकों व ऋण संस्थानों से लिए गए उधार पर लगने वाले ब्याज का भी भुगतान करने में असमर्थ हो जाती है तो इस स्थिति को सम्प्रभु ऋण संकट कहा जाता है तथा ऐसी स्थिति में देश को दिवालिया घोषित कर दिया जाता है। अमेरिका जैसी वृहद आकर वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिए बजट घाटे का विशाल परिमाण कोई असामान्य बात नहीं है। 1970 के बाद से ऐसा केवल एक ही बार हुआ है जब अमेरिकी सरकार का व्यय-आय से कम था अर्थात सरकार का कोई बजट घाटा नहीं था।

अगर अमेरिका के आर्थिक इतिहास को देखा जाए तो ज्ञात होता है कि पहली बार 1917 में प्रथम विश्व युद्ध में शामिल होने के काल में अमेरिका सरकार को भारी बजट घाटा झेलना पड़ा था जिसके फलस्वरूप एक ऋण संकट की स्थिति पैदा हो गयी थी। इस स्थिति से निपटने और भविष्य में ऋण प्राप्ति को आसान बनाने के लिए सरकार द्वारा लिए जा सकने वाले उधार या ऋण की एक अधिकतम सीमा तय कर दी गयी। इस अधिकतम सीमा को ऋण सीलिंग कहा जाता है। यह सीमा डॉलर में निरपेक्ष रूप से तय की गयी थी तथा इसको केवल कंग्रेस की सहमति द्वारा की बदला जा सकता है। चूँकि समय के साथ आर्थिक परिस्थितियों में परिवर्तन होता रहता है, इसलिए सरकार की ऋण आवश्यकताएं भी बदलती रहती हैं। जाहिर है कि डॅालर में निरपेक्ष रूप से इस सीमा को निर्धारित किया जाना एक मूर्खतापूर्ण निर्णय था। समय-समय पर यह सीमा बढ़ाये जाने की जरूरत पड़ती है और इसे बढ़ाया भी जाता रहा है। यह अमेरिकी आर्थिक इतिहास का एक नियमित और सामान्य अंग बन चुका था। पिछले 6 दशकों के दौरान अमेरिका में ऋण सीलिंग को करीब 60 से भी ज्यादा बार बढ़ाया जा चुका है। ऋण सीमा को बढ़ाने की ज़रूरत पैदा होना अमेरिका के लिए न तो कभी संकट रहा है न इस बार संकट था। यह संकट के तौर पर क्यों पेश किया गया, इसे हम आगे स्पष्ट करेंगे।

2007 के बाद से अमेरिका का राष्ट्रीय ऋण प्रतिदिन 3.96 बिलियन डॉलर की दर बढ़ रहा है। इस समय अमेरिका के हर एक व्यक्ति पर लगभग 47,110 डॉलर का उधार है। जहाँ तक ऋण सीमा का सवाल है 2 अगस्त के समझौते से पहले यह सीमा 14.3 ट्रिलियन डॅालर थी। इस साल के मई माह में ही, जब गिथनर ने खुले तौर पर 2 अगस्त तक अमेरिकी ट्रेजरी के खाली हो जाने को स्वीकार किया था, अमेरिकी सरकार पर ऋण अपनी उच्चतम सीमा तक पहुँच चुका था। दिवालिया होने से बचने के लिए इस सीमा को बढ़ाए जाने की सख्त आवश्यकता थी जिससे कि और अधिक ऋण लिया जा सके। ऋण सीमा न बढ़ने पर अमेरिकी सरकार अपने पहले किए गए खर्चो की मद में लिए गए ऋण पर ब्याज का भुगतान करने में असमर्थ हो जाता और दिवालिया घोषित हो जाता।

ऋण सीमा संकट और रिपब्लिकन्स व डेमोक्रेट्स के बीच बहस

अमेरिकी इतिहास में ऋण सीमा को बढ़ाए जाने को लेकर दोनों सदनों के बीच इतना उग्र विवाद शायद पहले कभी नहीं हुआ था जितना कि इस बार हुआ। एक तरफ तो अमेरिकी सरकार के विशाल बजट घाटे को देखते हुए ऋण रेटिंग संस्थाएं अमेरिका की ऋण रेटिंग घटाए जाने की सम्भावना की लगातार चेतावनी दे रही थीं, वहीं दूसरी ओर दोनों पार्टियों के बीच ऋण सीमा बढ़ाने व बजट घाटा कम करने को लेकर गतिरोध बढ़ता जा रहा था। रिपब्लिकन्स के अनुसार इस बजट घाटे की मुख्य वजह सरकार की सार्वजनिक मदों में खर्चे हैं, अतः ऋण सीलिंग को बढ़ाने के बजाय इन खर्चों में भारी कटौती की जानी चाहिए। ये लोग बुश शासन काल के दौरान पूँजीपतियों और कॉरपोरेट्स को दी गयी टैक्स छूट में किसी भी प्रकार की कटौती के विरुद्ध थे। वहीं डेमोक्रेट्स भी मुख्य रूप से सरकार के सार्वजनिक खर्चों में कटौती के लिए तैयार थे लेकिन 2012 के चुनावों के मद्देनजर ये अपने को आम जनता के हितों का प्रतिनिधि दिखाने की कोशिश करते हुए पूंजीपतियों व कॉरपोरेट्स को दी गयी टैक्स छूट में भी कुछ कमी करने तथा ऋण सीमा को तत्काल बिना शर्त के बढ़ा दिए जाने की वकालत कर रहे थे।

इस बहस पर थोड़ा भी ध्यान देने पर साफ हो जाता है कि एक बात जो दोनों पक्षों के बीच सामान्य थी वह यह कि दोनों पक्ष सरकार के सार्वजनिक खर्चों में भारी कटौती के लिए पूर्ण रूप से तैयार थे। बस इसकी सीमा को लेकर थोड़ा मतभेद जरूर था। मगर यह गौण पहलू था। हाँ, ये बात है कि जहाँ रिपब्लिकन्स अपने टी-पार्टी गुट के दबाव में इस काम को बिल्कुल खुले ढंग से लागू करने की वकालत कर रहे थे, वहीं डेमोक्रेट्स इस काम को छुपे व अधिक कुशल ढंग से लागू करना चाहते थे। तो फिर सवाल यह उठता है कि जब दोनों पक्षों के बीच में सार्वजनिक खर्चों में कटौती पर मुख्य रूप से सहमति थी तो फिर ऋण सीमा के बढा़ने को लेकर इतना शोर-गुल क्यों किया गया? वास्तव में, अमेरिकी जनता और विशेषकर मज़दूर जनता को जो भी आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा की योजनाएँ शिक्षा, चिकित्सा और रोज़गार के क्षेत्र में हासिल हैं, अमेरिकी पूँजीपति वर्ग को उसमें कटौती करनी थी। मन्दी के बाद से दिये गये भारी-भरकम बेलआउट पैकेजों, इराक़ और फिर अफ़गानिस्तान में भयंकर ख़र्चीले युद्धों ने अमेरिकी पूँजीवादी राज्य के ख़र्च को ख़तरनाक हदों तक बढ़ा दिया था। ऐसे में उसके लिए यह ज़रूरी हो गया था कि मज़दूर वर्ग को हासिल सहूलियतों में कटौती की जाय, क्योंकि इसके बिना सटोरियों, पूँजीपतियों, और दलालों के मुनाफ़े को बचाया नहीं जा सकता था। लेकिन अब यह कटौती खुलेआम धड़ल्ले से तो की नहीं जा सकती। इसलिए पहले देश के दीवालिया और तबाह हो जाने के संकट और आतंक को पैदा किया गया। इस भय के माहौल में देश में जनता के बीच राय बनाना ज़्यादा आसान होता। और यही किया गया। मीडिया और सरकार अपने भोंपू लेकर ख़तरे के सायरन पूरे देश में बजाने लगे। इस तरह से बिना किसी प्रतिक्रिया या गुस्से का सामना किये हुए अमेरिकी शासक वर्ग ने बहुत कुशलता के साथ देश की मेहनतकश आबादी को उसकी ही जेब कटवाने के लिए राज़ी कर लिया। वास्तव में, इस ऋण “संकट” का मर्म यही था। यह सच है कि इस बार इसका परिमाण विचारणीय था। लेकिन यह गौण मसला है। लेकिन फिर भी इसके कारण जान लेना उपयोगी होगा कि इस दफ़ा ऋण सीमा की समस्या इतनी सघनता से क्यों आई?

अमेरिकी ऋण संकट के कारण

वर्तमान अमेरिकी ऋण संकट अमेरिकी सरकार के विशाल बजट घाटे की वजह से पैदा हुआ था जिसके तीन प्रमुख कारण थेः

पहला कारणः 2007 की मन्दी के बाद अर्थव्यवस्था का तेजी से संकुचन

2007 में आयी मन्दी के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर तेजी से घटकर शून्य के नीचे जा पहुँची। 2008-09 के दौरान एक बार तो यह -6 प्रतिशत  तक पहुँच गयी थी। 2009 की अन्तिम तिमाही में अर्थव्यवस्था के वापस पटरी पर लौटने का जो भ्रम पैदा हुआ था वह 2010 का मध्य आते-आते छू मन्तर हो गया। अर्थव्यवस्था के इतने लम्बे समय तक मन्दी का शिकार रहने की वहज से बेरोजगारों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई, मकानों की कीमतें 1990 के दशक के मध्य के स्तर (अर्थात हाउसिंग बबल के फूलने की शुरुआत से पहले के स्तर) से भी नीचे चली गयी और लोगों की वास्ताविक आय में भी तेजी से कमी आयी है। इससे जहाँ एक ओर उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में कमी आयी और उत्पादन के लिए जरूरी प्रेरणा में कमी हुई, वहीं दूसरी ओर बेरोजगारी भत्ता, पेशन प्लान, वरिष्ठ नागिरक भत्ता, स्वास्थ्य सुविधाओं आदि मदों में सरकार का खर्च भी और अधिक बढ़ गया। इसके साथ ही वास्तविक आय में कमी आने के कारण सरकार को जमा होने वाले टैक्स में भी कमी आयी। इस प्रकार सरकार के व्यय तो इस दौरान बढ़ते गए लेकिन आय में लगातार कमी आती गई।

इसके अलावा सरकार के बजट घाटे को बढ़ाने में सबसे प्रमुख कारक सरकारी खजाने (अपने व अन्य देशों की जनता की लूट की बदौलत बटोरे गए) से दो बार भारी मात्रा में बैंको को दिए गए बेल-आउट पैकेजेस थे। जब देश के हर 6 में से 1 व्यक्ति बेरोजगारी या अर्द्धबेरोजगार हैं और बेरोजगारी की औसत समयावद्धि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से सबसे ज्यादा है, 5 करोड़ आबादी फूड स्टाम्प पर निर्भर रहने के लिए मजबूर है और बेघरों की संख्या अभूतपूर्व तेजी से बढ़ी है तो ऐसे समय में उन्हीं बैंको को बेल आउट पैकेज देना जिनके कारण यह संकट उत्पन्न हुआ है ओबामा सरकार की पक्षधरता को साफ कर देता है। बरहाल अगर ओबामा चाहते तो भी इसके उल्टा नहीं कर पाते क्योंकि उनके भी चुनावी कैम्पेन के मुख्य फाइनेन्सर वहाँ के वित्तीय महाप्रभु ही हैं। दूसरा आज सम्पूर्ण वैश्विक अर्थव्यवस्था वित्तीय पूँजी की जकड़बन्दी में इस कदर फँसी हुई कि कोई ‘‘महान नेता’’ चाहते हुए भी इसके प्रभुत्व व कुप्रभावों से इस व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर पीछा नहीं छुड़ा सकता। खैर अपने विषय पर लौटकर आते हैं। साफ है कि 2007 में आयी मन्दी तथा इसके बाद इससे उबरने के नाम पर बैंकों को दिए गए बेल आउट पैकेजों की अमेरिकी बजट घाटे के बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका थी।

दूसरा कारणः पूँजीपतियों, कॉरपोरटों और वित्तीय महाप्रभुओं को टैक्स में भारी छूट

बुश के शासनकाल में पूँजी के बड़े आकाओं को टैक्स में भारी छूट दी गयी थी। यहाँ तक कि अधिकांश को तो टैक्स-मुक्त कर दिया गया था। ओबामा ने भी सत्ता में आने के बाद इन छूटों को उत्पादन में वृद्धि करने, नौकरियों में वृद्धि करने आदि के लिए अनिवार्य बताकर कायम रखा, जिससे मन्दी की मार झेल रहे अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा क्योंकि सरकार के राजस्व का एक बड़ा स्रोत समाप्त हो गया था।

तीसरा कारणः साम्राज्यवादी युद्धों में धन की भारी बर्बादी

अफगानिस्तान में युद्ध अमेरिका के सबसे लम्बे युद्धों में से एक बन चुका है। पिछले दशक में अफगानिस्तान और इराक पर किए गए सैन्य कार्यवाहियों में अमेरिका ने 1 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक खर्च किए। अफगानिस्तान पर सैन्य कार्यवाही की प्रतिदिन की कीमत 2 बिलियन डॉलर थी। जाहिर है इसकी कीमत केवल अमेरिकी जनता ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व की जनता चुका रही है। असल में इन साम्राज्यवादी विस्तारवादी युद्धों में खर्चा विशाल बजट घाटे के पीछे एक बहुत बड़ा कारण है। अफगानी जनता के प्रतिरोध के कारण ही अमेरिका अपने मंसूबों में सफल नहीं हो सका अन्यथा अपने इस घाटे की भरपायी करने की उसने पूरी तैयारी कर रखी थी। इसके अतिरिक्त बजट का एक बड़ा हिस्सा तो खुफिया एजेंसी सी.आई.ए., राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी, नाभिकीय आयुधशोध और युद्धों तथा हथियारों की तैयारी पर खर्च किया जाता है, लेकिन इस तथ्य को हमेशा छुपा कर रखा जाता है। अभी जबकि बजट घाटे पर बहस की शुरूआत ही हो रही थी उसी समय अमेरिकी और नाटो फौजों ने मध्यपूर्व-लीबिया में एक नया सैन्य अभियान शुरू कर दिया। स्पष्ट है कि ये सारे युद्ध धरती पर अमेरिका के प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए किए गए जिसकी कीमत अमेरिकी जनता ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व की जनता चुका रही है।

ऋण सीमा ‘‘संकट’’ व बहस की सच्चाई

इस प्रकार उपरोक्त तीनों कारणों से स्पष्ट है कि अमेरिका के विशाल बजट घाटे के पीछे मुख्य कारण वित्तीय पूँजी का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभावी नियन्त्रण है। अपने बढ़ते अनुत्पादक, परजीवी व सट्टेबाज चरित्र के कारण यह उस अराजक गति को जन्म देती है जो लगातर नए नए संकटों को पैदा करती रहती है। इसके साथ ही मुनाफा प्रदान कर सकने वाले नए क्षेत्रों की तलाश, कच्चे माल, तेल व प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे और संकटों से जूझ रहे पूँजीवादी विश्व में भविष्य की सम्भावित सैन्य कार्यवाहियों की आवश्यकताओं के हिसाब से विश्व के अलग अलग हिस्सों में मौजूद रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर कब्जे के लिए वित्तीय पूँजी लगातार नए युद्धों को जन्म देती रहती है।

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिकी वित्तीय पूँजी द्वारा पैदा किए गए इस भारी बजट घाटे के बावजूद भी इस समय अमेरिका के लिए कोई सम्प्रभु ऋण संकट पैदा होने की स्थिति उत्पन्न होने नहीं  जा रही थी। आज चीन, जापान, भारत आदि देशों की अर्थव्यवस्थाएँ अमेरिकी अर्थव्यवस्था से गहराई से जुड़़ी हुई हैं। अकेले चीन का विदेशी मुद्रा भण्डार 1.3 ट्रिलियन डॉलर है। इसके अतिरिक्त विश्व के बड़े बड़े बैंकों व ऋण संस्थाओं ने भी अमेरिकी सरकार के सम्प्रभु बाण्ड्स में बड़े पैमाने पर निवेश किया है। ऐसे में यूरोज़ोन का संकट और परिणामस्वरूप ग्रीस, स्पेन आदि यूरोपीय देशों में होने वाले विरोध प्रदर्शनों तथा अरब जनउभारों से जूझ रहे विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के लिए डॉलर को लगने वाला कोई भी झटका एक ऐसी भयंकर मन्दी को जन्म दे सकता था जिससे उबरने में दशकों का समय लग सकता था। अमेरिकी शासक वर्ग इस बात को अच्छी तरह जानता था। ऐसे में अमेरिका के वित्तीय महाप्रभुओं को एक सुनहरा अवसर मिला कि वे डेमोक्रेट्स व रिपब्लिकन्स की बहस के द्वारा तैयार किए गए दिवालिया होने के भय के माहौल का फायदा उठाकर सरकार पर यह दबाव बनाए कि वह अपने सार्वजनिक खर्चो (मेडिकेयर, मेडिकेड, बेरोजगारी भत्ता, वरिष्ठ नागरिक भत्ता आदि) में भारी कटौती करे। काग्रेस के दोनों हाउसों के बीच महीनों तक बजट घाटे को कम करने के उपायों पर ‘‘सहमति’’ के लिए चली बहस के आवरण में अमेरिकी शासक वर्ग को साझा रूप से ये मौका प्राप्त हो गया कि वह इन कटौतियों के लिए आम जनता में स्वीकृति निर्मित कर सके। महीनों चली इस बहस ने यह भ्रम पैदा हुआ कि अमेरिकी सरकार के ऊपर दिवालिया होने का संकट मण्डरा रहा है जिसके पीछे मुख्य वजह सार्वजनिक मदों में किए गए खर्चे हैं और अगर भविष्य में इस मन्दी से बाहर आना है तो अभी देश की जनता को अपने पेट पर पट्टी बाँधकर काम चलाना ही होगा अन्यथा अमेरिका के भविष्य का ऊपर वाला ही ‘मालिक’ है। यही कारण था कि सार्वजनिक सेवाओं में इतनी भारी कटौती तथा पूँजीपतियों के टैक्स छूट में इतनी कम कटौती की घोषणाओं के बावजूद अमेरिकी जनता ने इसे सहर्ष, बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लिया।˜

वित्तीय महाप्रभुओं की सेवा में सबसे अधिक कुशलता व योग्यता का परिचय अमेरिकी मेहनतकशों के दुःखों तकलीफों का ध्यान रखने का दिखावा करने वाले बराक ओबामा ने दिया। ओबामा की़ भारी-भरकम लफ्फाजी की सच्चाई केवल कुछ उदाहरणों से ही बिल्कुल साफ हो जाती है। जैसे अमेरिकी राष्ट्रापति ने ‘जॅाब्स एण्ड कम्पीटीटिवनेस’ की अपनी परिषद का चेयरमैन जनरल इलेक्ट्रीकल्स (GE) के हेड जेफरी इमेल्ट को नियुक्त किया । यह वही कम्पनी है जिसने 2010 में 14.3 बिलियन डॉलर का मुनाफा कमाया और इसे टैक्स में 3.2 डॉलर की छूट भी दी गई। लेकिन इसने उन्हीं क्षेत्रों व स्थानों पर निवेश किया जहाँ मजदूरी दर बहुत कम थी। साफ है इसका नौकरियों को बढ़ाने में कोई योगदान नहीं रहा बल्कि इस से वास्तविक आय में और कमी ही आयी। हाउस ऑफ रिप्रजेण्टेटिव के हेड और वॉल स्ट्रीट के चहेते जॉन बोयेनर के साथ गुप्त रूप से समझौते का प्रयास, देशी व विदेशी बड़े बैंकों को फेडरल रिर्जव बैंक द्वारा गुप्त रूप से 16 ट्रिलियन का बेल आउट पैकेज दिए जाने की पुष्टि हो जाने के बावजूद उसके हेड बेन बेनार्के के खिलाफ चूँ तक न करना तथा इस मामले को  उल्टे दबाने की कोशिश करना आदि ऐसे अन्य अनेक उदाहरण दिए जा सकते है जो यह सिद्ध करते है कि बराक ओबामा आज अमेरिकी पूँजीपति वर्ग के सबसे कुशल सेवक साबित हो रहे हैं। डेमोक्रेट्स आज जनता को बेवकूफ बनाने के साथ साथ वित्तीय पूँजी की नीतियों को उस आक्रामकता से लागू करने में लगे हुए हैं जितना कि शायद दक्षिणपंथी रिपब्लिकन्स भी नहीं कर पाते ।

सारतः कहा जाए तो हुआ यह है कि ऋण सीमा ‘‘संकट’’ के मुद्दे को गर्माकर जनता को मिलने वाली बची खुची सरकारी सहायता को खत्म करने की ओर कदम बढ़ा दिए गए। दोनों हाउसों के बीच  हुए समझौते के द्वारा यह निर्धारित किया गया कि धीरे धीरे सरकारी खर्चों में 1 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक की कटौती की जाएगी जिसका मुख्य स्रोत पब्लिक खर्चों में कटौती होगी क्योंकि पूँजीपतियों पर टैक्स में नगण्य बढ़ोत्तरी की गयी है और  आज के  वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए सैन्य खर्चो में कटौती की कोई सम्भावना नहीं हैं।

साफ है कि आज चौतरफा वैश्विक मन्दी के दौर में मुनाफे की दर के लगातार कम होते जाने व पूँजी निवेश के लाभदायी क्षेत्रों के सिकुड़ते जाने के कारण पूँजीवादी विश्व के शिखर पर बैठे अमेरिका के लिए भी आज यह सम्भव नहीं रह गया है कि वे अपने देश की जनता को सरकारी सुविधाएँ मुहैया करायें। कल्याणकारी राज्य के बचे-खुचे अवशेषों को भी आज कायम रखना सम्भव नहीं है। अमेरिका से लेकर यूरोप तक के विकसित देशों में सार्वजनिक मदों मे भारी कटौती व उद्योगों तथा सेवाओं का अनौपचारिकीकरण किया जा रहा है। इसी के साथ इन सभी देशों में फासीवादी विचारधारा का बड़े पैमाने उभार हुआ है। अमेरिका में टी-पार्टी जैसे अति-प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी गुटों का पैदा होना इसी दीर्घकालिक ढांचागत मन्दी का राजनीतिक-सामाजिक उत्पाद है। पोस्ट-क्राईसिस अमेरिकी समाज में बढ़ता नस्लवाद, ट्रेड-यूनियनों के काण्टेªक्ट के रद्दीकरण सम्बन्धी नियमों को लागू किया जाना और अन्य कई घटनाएँ वित्तीय पूँजी के बढ़ते जनविरोधी चरित्र का ही नतीजा हैं। ऐसे में इन देशों की जनता के सामने भी समय के साथ यह स्पष्ट होता जाएगा कि आज किसी कल्याणकारी पूँजीवादी राज्य की नहीं बल्कि पूँजीवाद के विकल्प की जरूरत है क्योंकि जब तक यह साम्राज्यवाद पूँजीवाद जीवित रहेगा जनता के जीने के अधिकार को लगातार छीनता रहेगा।

‘‘संत’’ पूँजीवाद?

पिछले लगभग डेढ़ दशक से मन्दी की मार झेल रहा अमेरिकी समाज के एक पक्ष जिसकी मीडिया द्वारा सामने नहीं लाया गया वह है इस मन्दी के नस्लीय प्रभाव। हाल ही में पीव रिसर्च सेंटर तथा नेशनल अरबन लीग द्वारा इस आर्थिक दुरावस्था के सामाजिक परिणामों के बारे में बताया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार 2005 से 2009 के अन्तराल में मन्दी के प्रभाव से यूँ तो सभी नस्लों के लोग प्रभावित हुए हैं परन्तु सबसे बुरा प्रभाव लैटिनों एवं अश्वेतों पर पड़ा है। जहाँ मन्दी के कारण श्वेत परिवारों की सम्पत्ति में 16 प्रतिशत की कमी आयी है, वहीं लैटिन व अश्वेत परिवारों की सम्पत्ति में क्रमशः 66 व 53 प्रतिशत की कमी आयी है। 2009 में एक साधारण श्वेत परिवार की औसत सम्पत्ति जहाँ 113,149 डॉलर थी, वहीं प्रत्येक अश्वेत व लैटिन परिवारों की औसत सम्पत्ति क्रमशः 5,617 तथा 6,325 डॉलर थी। लगभग एक तिहाई अश्वेत व लैटिन परिवारों की सम्पत्ति शून्य है। परन्तु सबसे अधिक चौंकाने वाला तथ्य नेशनल अरबन लीग पॉलिसी संस्थान की बेरोजगारी सम्बन्धी रिपोर्ट में है। इसके अनुसार 1992 के बाद से कॉलेज के चार वर्षीय डिग्रिधारक अश्वेत बेरोजगारों की संख्या में तीन गुने से भी अधिक की वृद्धि हुई है और बेरोजगारी दर 1982 के स्तर अर्थात 20 प्रतिशत पर पहुँच गयी है।

यहीं नहीं मन्दी के कारण बन्द हुए उद्योगों तथा सार्वजनिक मदों में कटौती के चलते सबसे अधिक नौकरियाँ अश्वेतों व लैटिनों से छीनी गयी हैं।

यह प्रक्रिया स्पष्ट रूप से दिखाती हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत नस्लवाद, जातिवाद आदि प्राक्-पूँजीवादी सामाजिक विभाजनों की समाप्ति की बात करने वाले बुद्धिजीवियों के खोखले तर्कों को स्वयं इस व्यवस्था से उत्पन्न हुई सच्चाइयों ने ही खण्डित कर दिया है। श्रम की लूट व शोषण पर टिका पूँजीवाद स्वयं में संत नहीं हो सकता और नस्लवाद, जातिवाद तथा अन्य प्राक् पूँजीवादी मूल्यों-मान्यताओं का समाधान आज इस व्यवस्था में आमूल-चूल व्यवस्था परिवर्तन द्वारा ही सम्भव है। भारत में भी इसी व्यवस्था के भीतर संवैधानिक तरीकों के जरिए जाति समस्या के समाधान के सम्भव होने का राग अलापने वाले बुद्धिजीवियों को अपने आदर्श पूँजीवादी राज्य अमेरिका के समाज के इन तथ्यों पर भी नजर उठा कर देख लेना चाहिए।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2011

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