एक और चुनाव सम्पन्न लेकिन सवाल हमेशा की तरह बरकरार है!
सम्पादक
पन्द्रहवीं लोकसभा के लिए आम चुनावों का समापन हो गया और एक बार फ़िर कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार बनी। इस बार कांग्रेस की स्थिति इस गठबन्धन में और मज़बूत हो गयी है और वह अपनी शर्तें रखने की स्थिति में पहुँच गयी है। कांग्रेस ने कई राज्यों में काफ़ी अच्छा प्रदर्शन किया और अपने वोटों का विस्तार किया। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस एक बार फ़िर पाँव जमाने में सफ़ल रही। लेकिन इस सभी आँकड़ों के बीच यह बात कभी नहीं भुलाई जा सकती है कि इस बार भी करीब कुल 55 फ़ीसदी वोट ही पड़े। 45 प्रतिशत लोगों ने वोट डालने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। वैसे तो यह भी सोचने का मुद्दा है कि जिन 55 फ़ीसदी लोगों ने वोट डाला उनमें से कितनों ने किसी पार्टी की नीतियों और विचारधारा पर यक़ीन करके वोट डाला है। साथ ही, हम यह भी जानते हैं कि हमारे देश में किस तरह से वोट डाले और डलवाये जाते हैं। लेकिन इस पर यहाँ विस्तार से विचार नहीं किया जा सकता है। हालाँकि सरकार और चुनाव आयोग ने लोगों को वोट डालने के लिए प्रेरित करने के लिए प्रचारों की बाढ़-सी ला दी, लेकिन इससे भी कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ा। इसका कारण साफ़ है। बहुसंख्यक जनता का इस पूँजीवादी जनवाद और उसमें मौजूद तमाम पूँजीवादी पार्टियों पर कोई भरोसा नहीं है। यह बात तमाम पार्टियों के नेताओं ने भी मानी है। इस बात पर पूँजीवादी पार्टियों के विचारकों और नेताओं ने काफ़ी चिन्ता जताई कि वोटरों का उन पर से लगातार विश्वास ख़त्म हो रहा है और इस विश्वास को पुनः पैदा करने के लिए कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। लेकिन ऐसी चिन्ताओं का कोई लाभ नहीं है। क्योंकि पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग की सेवा करते हुए यह पार्टियाँ आम मेहनतकश जनता का भरोसा नहीं जीत सकती हैं। और पूँजीपतियों की चाकरी के अलावा वे और कुछ कर नहीं सकतीं। जनता का विश्वास इस पूँजीवादी जनतन्त्र पर क्यों नहीं है इसे चन्द आँकड़ों से ही समझा जा सकता है।
इस लोकसभा चुनाव में पूरे देश भर में करीब 71 करोड़ 40 लाख मतदाता थे। इसमें से करीब 55 फ़ीसदी ने ही वोट डाला। चुनाव आयोग ने चुनाव का बजट 1120 करोड़ रुपये तय किया था। लेकिन सेण्टर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ के आँकड़ों के अनुसार चुनाव ख़त्म होने तक चुनाव की पूरी प्रक्रिया पर करीब 90 अरब रुपये ख़र्च हो चुके थे। ग़ौरतलब है कि 1952 में हुए पहले आम चुनावों में कुल 10 करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे। एक ओर भारत की आम जनता ग़रीबी के गर्त में गिरते-गिरते यहाँ तक पहुँच गयी कि आज 77 फ़ीसदी आम भारतीय जनता 20 रुपये या उससे कम की प्रतिदिन आय पर जी रही है, और दूसरी ओर पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के चुनाव के इस जलसे पर अरबों-अरब रुपये फ़ूँक दिये जाते हैं। वह भी तब जबकि अलग-अलग चुनावी पार्टियों की नीतियों में कहीं कोई फ़र्क नहीं है। उन्नीस-बीस के फ़र्क से नीतियाँ वही हैं। इस चुनाव में दलितों की मसीहा बनने वाली मायावती की पार्टी के 50 उम्मीदवार करोड़पति थे। सबसे अमीर उम्मीदवार बसपा का ही था-पश्चिमी दिल्ली से दीपक भारद्वाज, जिन्होंने अपनी परिसम्पत्ति 6.04 अरब रुपये घोषित की। कांग्रेस, भाजपा और अन्य दलों में भी भारी संख्या में करोड़पति थे। चुनाव आयोग ने हर उम्मीदवार के लिए चुनाव ख़र्च की सीमा 25 लाख रुपये तय की थी। लेकिन वास्तविकता यह थी कि हर उम्मीदवार ने इससे करीब 8 गुना अधिक ख़र्च किये। स्वयं चुनाव आयोग के अधिकारी वाई. एम. कुरेशी ने माना है कि चुनाव आयोग चुनावों में काले धन के उपयोग को रोकने में असफ़ल रहा है। इस चुनाव में कुल 1418 उम्मीदवार खड़े हुए जिनमें से 193 करोड़पति थे। और लखपतियों की तो कोई गिनती ही नहीं थी। विजयवाड़ा से कांग्रेस के उम्मीदवार राजगोपाल की परिसम्पत्ति पिछले चुनावों के दौरान 9 करोड़ रुपये थी जो इस चुनाव में बढ़कर 229 करोड़ रुपये हो गई। इन आँकड़ों से साफ़ पता चलता है कि संसद में धनपतियों की सीधी भागीदारी बढ़ी है। जो वर्ग पहले बाहर बैठ कर यह तय करता था कि कौन उसके हितों की सेवा करे, उसे अब यह लगने लगा है कि संसद में बैठकर भी अच्छा धन्धा किया जा सकता है और साथ ही अपने वर्ग हितों की देखरेख भी अधिक कुशलता से की जा सकती है। जो चोर–लुटेरे-अपराधी पहले अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति में हस्तक्षेप करते थे वे अब संसद-विधानसभाओं में सीधा प्रतिनिधित्व चाहते हैं और वह उन्हें मिल भी रहा है। काले धन और सफ़ेद धन के बीच की विभाजक रेखा के धूमिल होने के साथ यह तो होना ही था। नेहरू के काल में पूँजीवादी राजनीति करने वाले जितनी लाज-शर्म रखते थे वह अब हवा हो गई है और अपराधी पूँजीवादी राजनीति का सच अपने नंगे रूप में जनता के सामने है।
ऐसे में यह लाज़िमी ही है कि जनता का इस पूँजीवादी व्यवस्था और जनतन्त्र से भरोसा उठ चुका है। किसी क्रान्तिकारी विकल्प की गैर-मौजूदगी में जनता का एक हिस्सा कभी इस तो कभी उस पार्टी को वोट देता है। जनता एक दूसरा हिस्सा यह मानता है कि विकल्प तो कोई नहीं है मगर फ़लाँ उम्मीदवार मेरी जाति या मेरे धर्म का है इसलिए उसे वोट दे दिया जाय। वोटरों के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से का वोट ख़रीदा जाता है और भारत जैसे ग़रीब देश में निर्धनतम तबके से आने वाले लोग सौ-दो सौ रुपये के लिए अपने वोट को बेच भी देते हैं। वे भी जानते हैं कि साँपनाथ आए या नागनाथ, उनके जीवन में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं आने वाला है। ऐसे में वे वोट को बेच देते हैं। इस बार के चुनाव में जगह-जगह तमाम छोटे-बड़े नेता वोट के बदले नोट बाँटते पकड़े भी गये। लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि कानून में ही इतने पेंच होते हैं कि वे साफ़ बच निकलते हैं। भाजपा नेता जसवन्त सिंह और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव ऐसे नेताओं में शामिल थे। इसके अतिरिक्त, चुनाव आयोग की तमाम हिदायतों के बावजूद जीत के लिए बौराई भाजपा ने हर जगह आक्रामक तरीके से हिन्दुत्व का पत्ता चलाने की कोशिश की। लेकिन वह बुरी तरह से नाकाम रही। जनता इस पत्ते से अभी ऊबी हुई है और भाजपा के पास कोई सकारात्मक कार्यक्रम नहीं था। उसका घोषणापत्र तक कांग्रेस के जवाब में आया घोषणापत्र प्रतीत हो रहा था। कुल मिलाकर पूरे चुनाव में इस बार जमकर नौटंकी हुई और पूँजीवादी राजनीति मज़ाकिया हद तक नंगी होकर जनता के सामने आ गई।
लेकिन इन सबके बावजूद यह मानना कि यह स्थिति अपने आप बदल जाएगी, एक मूर्खता होगी। चीज़ें कभी अपने आप नहीं बदलतीं। उन्हें प्रयास करके बदलना पड़ता है। और इसके लिए बल लगाने की ज़रूरत होती है। आज ऐसी कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी शक्ति देश में मौजूद नहीं है जो जनता को इस पूरी व्यवस्था को उखाड़ फ़ेंकने और एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था बनाने के लिए जागृत, गोलबन्द और संगठित कर सके। ऐसे में जनता विकल्पहीनता में इस या उस पार्टी के बीच झूलती रहती है। देश के अलग-अलग हिस्सों में जनता के कुछ हिस्से कभी विद्रोह में उतरते भी हैं तो यह व्यवस्था ऐसे बिखरे प्रयासों को कुचल देती है। जब तक पूरे देश के पैमाने पर ऐसी किसी शक्ति को खड़ा नहीं किया जाता तब तक यह गोरखधन्धा चलता रहेगा।
अलग-अलग चुनावी पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र पर निगाह डालते ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सभी चुनावी दलों का कार्यक्रम और नीतियाँ उन्नीस-बीस के फ़र्क के साथ एकसमान ही हैं। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में 3 रुपये किलो चावल या गेहूँ 25 किलोग्राम की मात्रा में ग़रीब परिवारों को देने का वायदा किया। इसके अतिरिक्त, मध्यम वर्ग को लुभाने के लिए कर में कटौती करने और कोई नया कर न लगाने की बात की गई। किसान वर्ग को सन्तुष्ट करने के लिए अधिक सब्सिडी और कर्ज़ पर ब्याज़ माफ़ करने का वायदा किया गया। कुल मिलाकर कांग्रेस का घोषणापत्र मन्दी के समय कीन्सियाई कल्याणकारी राज्य के नुस्खे का वायदा करने वाला घोषणापत्र है जिसमें लोकलुभावन आश्वासनों की भरमार थी। कांग्रेस के घोषणापत्र में कीन्सियाई नुस्खों के साथ उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों का तालमेल करने की कोशिश भी की गई है। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार बनने के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के अभिभाषण में पहले 100 दिनों के लिए सरकार की जिन प्राथमिकताओं का उल्लेख किया गया उसमें भी मन्दी के दौर में उजड़ने वाली आम मेहनतकश जनता के असन्तोष को ठण्डा करने के लिए कल्याणकारी नीतियों की भरमार थी। कांग्रेस समझ रही है कि आज के संकटग्रस्त समय में पूँजीवाद की रक्षा के लिए ऐसी कल्याणकारी नीतियों की एक हद तक आवश्यकता है। साथ ही, कांग्रेस ने आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के लिए नया सशस्त्र बल बनाने, आतंकवाद निरोधक कानून को सख़्ती से लागू करने की बात भी अपने घोषणापत्र में की है।
भाजपा का घोषणापत्र कांग्रेस के घोषणापत्र के कुछ दिनों बाद आया। इसे भाजपा के नेता मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में तैयार किया गया। ऐसा लगता है कि भाजपा के बुढ़ा गये नेताओं की बुद्धि घिस गई है और विवेक चुक गया है। घोषणापत्र पढ़ते ही लगता है यह कांग्रेस के घोषणापत्र की नुक्तेवार नकल और जवाब है। जहाँ कांग्रेस ने ग़रीब परिवारों को 3 रुपये किलो चावल 25 किलोग्राम की मात्रा में देने का वायदा किया, वहीं भाजपा की दुकान इसे 2 रुपये किलो 35 किलोग्राम की मात्रा में देने का वायदा कर रही थी। कांग्रेस ने निम्न करों की बात की तो भाजपा ने भी मध्यम वर्ग की पार्टी होने के अपने दावे को मज़बूत करने के लिए और अधिक निम्न करों का वायदा किया। कांग्रेस ने उच्च सब्सिडी की बात की तो भाजपा ने भी उच्च सब्सिडी की बात की। कांग्रेस ने किसानों के कर्ज़ का ब्याज़ माफ़ करने का वायदा किया तो भाजपा ने कर्ज़ को ही माफ़ कर देने का लुकमा उछाला। साथ में, भाजपा ने अपना पारम्परिक मुद्दा आतंकवाद और हिन्दुत्व भी उछाला। लेकिन हाल में संघी आतंकवादियों के पकड़े जाने, कांग्रेस द्वारा कन्धार प्रकरण के भाजपा सरकार द्वारा सम्भाले जाने की निरंतर आलोचना, भाजपा सरकार के काल में हुए आतंकवादी हमलों का प्रचार और मुम्बई हमलों के बाद यूपीए सरकार की कार्यवाही के प्रचार ने भाजपा के आतंकवाद के मुद्दे को फ़ीका कर दिया। हिन्दुत्व के मुद्दे से जनता बुरी तरह ऊबी हुई थी। आडवाणी प्रधानमन्त्री बनने के आखिरी चांस को भुनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे। वरुण गाँधी से भड़काऊ भाषण दिलवाया गया। फ़िर भी ख़ास असर नहीं दिखा तो देश के तमाम हिस्सों कट्टर हिन्दुत्व की लाइन पर प्रचार करने के लिए नरेन्द्र मोदी को घुमाया गया। लेकिन देश में तो क्या होता गुजरात में ही भाजपा की सीटें घट गई और कांग्रेस को अच्छा-खासा फ़ायदा मिला।
जहाँ कांग्रेस का घोषणापत्र कीन्सियाई नुस्खों और भूमण्डलीकरण की नीतियों के बीच एक सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास करता दिखता है, वहीं वामपंथी गठबन्धन का घोषणापत्र खुले तौर पर कीन्सियाई नुस्खों की हिमायत करता है। अपने घोषणापत्र से संसदीय वामपंथियों ने एक बार फ़िर साबित किया कि वे पूँजीवादी व्यवस्था की आखिरी सुरक्षा पंक्ति हैं। उनके घोषणापत्र में मन्दी के ख़तरे को विशेष रूप से चिन्हित किया गया है और कुछ ऐसे नुस्खे सुझाये गये हैं जिससे कि इस मन्दी को पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के लिए एक ख़तरा बनने से रोका जा सके। घोषणापत्र में कहा गया है कि घरेलू माँग को विकसित करके भारत मन्दी की मार से बच सकता है। इसके लिए तमाम ऐसी कल्याणकारी नीतियाँ बनाने का सुझाव दिया गया है जिससे कि यहाँ के पूँजीवाद को अति उत्पादन के संकट से बचाया जा सके। घरेलू माँग पैदा करने के लिए देश के भीतर मौजूद उपभोक्ता वर्ग को विस्तारित करने और मौजूद उपभोक्ता वर्ग की क्रय क्षमता को बढ़ाने की बात की गई है। इसके लिए कई ऐसी नीतियों को लागू करने की बात की गई है जिससे शहरी और ग्रामीण बेरोज़गारों को कुछ रोज़गार मिल सके, भले ही उसमें उन्हें बेरोज़गारी भत्ते से भी कम मज़दूरी मिले। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार संसदीय वामपंथियों ने ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना को बनवाया था। यह उनका राजनीतिक विवेक और कौशल ही था जिससे पिछले कार्यकाल में यूपीए सरकार ने कई ऐसी कल्याणकारी नीतियाँ लागू कीं जिससे कि जनता के मेहनतकश तबकों और बेरोज़गार आबादी के असन्तोष को ख़तरनाक हदों तक जाने से रोका जा सके। कुल मिलाकर, संसदीय वामपंथियों का घोषणापत्र पूँजीपति वर्ग को मन्दी, बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई के विनाशकारी परिणामों के प्रति आगाह करता और उसे कुछ नुस्खे बताता नज़र आता है।
सभी प्रमुख राजनीतिक पक्षों के घोषणापत्र को देखकर साफ़ नज़र आता है कि जहाँ तक भूमण्डलीकरण की आर्थिक नीतियों को लागू करने का प्रश्न है, उनमें कोई बुनियादी फ़र्क नहीं है। कोई इसे थोड़ा तेज़ गति से लागू करने की बात करता है, तो कोई इसे धीमी गति से लागू करने की बात करता है। कांग्रेस का घोषणापत्र सबसे सन्तुलित घोषणापत्र था जो पूँजीपति वर्ग को भी तुष्ट करता है और जनता में भी इस व्यवस्था के भ्रम को बरकरार रखने का प्रयास करता है। भारतीय पूँजीपति वर्ग का भी एक बड़ा हिस्सा समझ रहा है कि फ़िलहाल कुछ समय तक अगर कल्याणकारी नीतियों के द्वारा व्यवस्था के भ्रम को कायम नहीं रखा गया तो बढ़ता जन-असन्तोष पूरी व्यवस्था के लिए अन्तकारी रूप में ख़तरनाक हो सकता है। इसलिए कांग्रेस को पूँजीपति वर्ग को अपने “कल्याणकारी” कार्यक्रम पर सहमत करने के लिए अधिक प्रयास नहीं करना पड़ा। पूँजीपति वर्ग अपने अनुभव से ही इनमें से कई बातों की ज़रूरत को समझ रहा है। साथ ही कांग्रेस ने उनके मुनाफ़े को सुनिश्चित करने का स्पष्ट आश्वासन दिया है, इसलिए वे जानते हैं कि इन कल्याणकारी नीतियों से उनके मुनाफ़े पर कोई विशेष नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ने वाला है।
इन चुनावों में भाजपा और संसदीय वामपंथ की पराजय के कारण इसी बात में निहित है। भारतीय राजनीति में इन दोनों की जो ज़रूरत है उन्हें इस समय कांग्रेस अकेले पूरा कर रही है। यही कारण है कि भारतीय पूँजीपति वर्ग ने एक स्वर में कांग्रेस में अपना विश्वास जताया है। जहाँ संसदीय वामपंथी पूँजीवाद की उस अबाध गति में एक ‘स्पीड ब्रेकर’ बनने का काम करते हैं जो जनता को इस तेज़ी से उजाड़ती है जो पूँजीवाद के अस्तित्व के लिए ही ख़तरा बन जाए, वहीं भाजपा भारतीय राजनीति में फ़ासीवाद की ज़रूरत का प्रतिनिधित्व करती है। भाजपा मज़दूरों के अधिकारों को सीमित करने, पूँजी की लूट को निर्बन्ध करने के लिए पूँजीपति वर्ग को खुला हाथ देने और उसके लिए कड़े कानूनों को बनाने, आंतरिक सुरक्षा के नाम पर सभी जनवादी अधिकारों और श्रम अधिकारों को कुचलने और साथ ही विभिन्न क्रान्तिकारी शक्तियों का दमन करने के लिए जानी जाती है। संसदीय वामपंथ वाला काम भी अभी कांग्रेस कहीं अधिक कुशलता से कर रही है और भाजपा के काम को भी कांग्रेस बिना फ़ासीवादी होने की गाली खाए कुशलता से कर रही है। इसलिए कोई वजह नहीं है कि पूँजीपति वर्ग कांग्रेस के अलावा किसी और का समर्थन करता। कांग्रेस इस समय संसदीय वामपंथियों जितनी सुधारवादी और भाजपा जितनी दमनात्मक और गैर-जनतान्त्रिक, दोनों एक साथ है और दोनों से कहीं अधिक कुशलता से। इन चुनावों में इसी कारण से उसे पूँजीपति वर्ग और उसके मीडिया का भरपूर समर्थन मिला और चुनावों में उसे विचारणीय विजय प्राप्त हुई।
इन ढाँचागत कारणों के बाद कांग्रेस की विजय के अन्य तात्कालिक कारणों की भी चर्चा की जा सकती है, जिनका मीडिया प्रचार करता रहा है। मिसाल के तौर पर, राहुल गाँधी ‘फ़ैक्टर’, प्रियंका गाँधी का प्रचार, भाजपा का पस्त प्रचार, उसकी हताशा और सत्ता की भूख का खुलकर सामने आना और उसकी खोखली नारेबाज़ी, संसदीय वामपंथियों द्वारा कांग्रेस का साथ छोड़ने की ग़लती, कांग्रेस द्वारा यूपीए के पिछले कार्यकाल की “उपलब्धियों” जैसे नरेगा आदि को भुनाने में सफ़लता आदि। लेकिन ये कारण सहायक कारण थे। बुनियादी कारण समकालीन पूँजीवादी राजनीति और पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों का कांग्रेस द्वारा बेहतर इंतज़ाम था, जिसके कारण कांग्रेस को पूँजीपति वर्ग का भरपूर समर्थन मिला और वह उस पैमाने पर प्रचार और मीडिया का इस्तेमाल कर पाई। इसके बिना कांग्रेस की विजय सम्भव नहीं थी।
चुनाव की इस सारी उठा-पठक, वायदों, नौटंकियों के बीच एक बार फ़िर साफ़ हो गया कि जनता के बहुसंख्यक हिस्से का पूँजीवादी चुनावी राजनीति से विश्वास उठ चुका है। यह महज़ विकल्पहीनता की स्थिति है जिसके कारण लोग कभी इस तो कभी उस पार्टी को वोट डालते हैं। इसके पीछे कोई राजनीतिक विश्वास, किसी पार्टी की नीतियों में भरोसा और समर्थन या किसी नेता की ईमानदारी पर यक़ीन नहीं है। पहले लोग ‘कम बुरे’ का चुनाव किया करते थे। अब तो यह तय करना भी मुश्किल हो गया है कि कम बुरा कौन है। नतीजतन, किसी धार्मिक, जातिवादी, क्षेत्रवादी, भाषावादी छद्म चेतना का शिकार होकर या फ़िर विकल्पहीनता में लोग किसी को भी वोट डाल देते हैं। और ज़ाहिर है कि लोग ऐसा करते रहेंगे जब तक कि एक क्रान्तिकारी विकल्प उनके सामने पेश नहीं किया जाएगा। कहने की ज़रूरत नहीं है इस सड़-गल चुकी व्यवस्था का क्रान्तिकारी विकल्प पेश करने का काम आम मेहनतकश जनता की इंकलाबी पार्टी ही कर सकती है। एक ऐसी इंकलाबी पार्टी जो चुनाव के रास्ते नहीं बल्कि क्रान्ति के रास्ते एक समानतामूलक और न्यायपूर्ण व्यवस्था और समाज की नींव डाले। ऐसी कोई भी पार्टी खड़ी करने के काम की शुरुआत ऐसे छात्रों और युवाओं को करनी होगी जो इस विकल्प की ज़रूरत को समझ रहे हैं; जो अपना जीवन मेहनतकश जनता के बीच, गाँवों, खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों और ग़रीब बस्तियों में प्रचार करने, उन्हें संगठित करने और उनके संघर्ष का नेतृत्व करने में लगा दें; जो अपने करियर और पैसे के पीछे नहीं भाग रहे हैं, बल्कि अपने ऊपर देश के मेहनतकश वर्गों के कर्ज़ को जानते और समझते हैं और उऋण होने के लिए प्रतिबद्ध हैं; जिनका दिल देश में जारी नंगे अन्याय और अन्धेरगर्दी पर बग़ावत करता है। आज ऐसे नौजवान चाहे कैम्पस में हों या कैम्पस के बाहर खड़ी बेरोज़गारों और मज़दूरों की भीड़ में, उन्हें यह समझना होगा कि उनकी तैनाती किस मोर्चे पर है। वरना पूँजीवादी चुनावों का प्रपंच यूँ ही चलता रहेगा और करोड़ों बेरोज़गार भारत की सड़कों की धूल फ़ाँकते रहेंगे, हज़ारों बच्चे भूख और कुपोषण से मरते रहेंगे, करोड़ों मेहनतकश ग़रीबी रेखा के नीचे नर्क-सा जीवन बसर करते रहेंगे, देश को विदेशी लुटेरों के हाथों बेचा जाता रहेगा और देशी लुटेरे इस लूट का कमीशन खाते रहेंगे। एक ही रास्ता है-देश की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था में आम मेहनतकश जनता की क्रान्ति के जरिये आमूल बदलाव, जिसमें देश के जागरूक और संवेदनशील युवा को अपनी अग्रणी भूमिका चुननी और निभानी है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!